लिंग पुराण : भगवान् शिव की संहारिका शक्ति- वज्रेश्वरीविद्याके माहात्म्य में वृत्रासुर की उत्पत्ति की कथा | Linga Purana: The story of the origin of Vritrasura in the greatness of Vajreshwari Vidya, the destroyer power of Lord Shiva

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग इक्यावनवाँ अध्याय

भगवान् शिव की संहारिका शक्ति- वज्रेश्वरीविद्या के माहात्म्य में वृत्रासुर की उत्पत्ति की कथा

ऋषय ऊचुः

निग्रहोऽधोररूपोऽयं कथितोऽस्माकमुत्तमम् । 
वज्रवाहनिकां विद्यां वक्तुमर्हसि सत्तम ॥ १

ऋषिगण बोले- हे सत्तम। आपने भयंकररूप वाले इस उत्तम निग्रह के विषय में हम लोगों को बता दिया; अब वज्रवाहनि का विद्या का वर्णन करनेकी कृपा कीजिये ॥ १ ॥

सूत उवाच

वज्रवाहनिका नाम सर्वशत्रुभयङ्करी।
अनया सेचयेद्वजं नृपाणां साधयेत्तथा ॥ २

वज्रं कृत्वा विधानेन तद्वज्रमभिषिच्य च।
अनया विद्यया तस्मिन् विन्यसेत्काञ्चनेन च ॥ ३

ततश्चाक्षरलक्षं च जपेद्विद्वान् समाहितः ।
वज्री दशांशं जुहुयाद्वज्रकुण्डे घृतादिभिः ॥ ४

तद्वत्रं गोपयेन्नित्यं दापयेन्नृपतेस्ततः । 
तेन वज्रेण वै गच्छञ्छत्रूञ्जीयाद्रणाजिरे ।। ५

सूतजी बोले- [हे ऋषियो।] वज्रवाहनिका नामक यह विद्या सभी शत्रुओंके लिये भयंकर है। इस विद्यासे वज्रका सेचन करे और उसे राजाओंको समर्पित करे। विधानपूर्वक वज्रका निर्माण करके और इस विद्यासे वज्रको जलद्वारा सिंचित करके उस वज्रपर स्वर्णसे मन्त्र लिखना चाहिये। तत्पश्चात् विद्वान्‌को चाहिये कि दत्तचित्त होकर अक्षरोंकी संख्याके बराबर लाख संख्यामें जप करे। वज्रीको उस जपका दशांश घृत आदिसे वज्राकार कुण्डमें हवन करना चाहिये। उस वज्रकी नित्य रक्षा करनी चाहिये और बादमें उसे राजाको प्रदान कर देना चाहिये। उस वज्रसहित रणभूमि में जानेवाला वह राजा शत्रुओंपर विजय प्राप्त करता है॥ २-५॥

पुरा पितामहेनैव लब्धा विद्या प्रयत्नतः। 
देवी शक्रोपकारार्थ साक्षाद्वज्रेश्वरी तथा ॥ ६

पुरा त्वष्टा प्रजानाथो हतपुत्रः सुरेश्वरात् । 
विद्यया हरतः सोममिन्द्रवैरेण सुव्रताः ॥ ७

तस्मिन् यज्ञे यथाप्राप्तं विधिनोपकृतं हविः । 
तदैच्छत महाबाहुर्विश्वरूपविमर्दनः ॥ ८

मत्युत्रमवधीः शक्र न दास्ये तव शोभनम् ।
भागं भागार्हता नैव विश्वरूपो हतस्त्वया ।। ९

इत्युक्त्वा चाश्रमं सर्वं मोहयामास मायया।
ततो मायां विनिर्भिद्य विश्वरूपविमर्दनः ॥ १०

प्रसह्य सोममपिबत्सगणैश्च शचीपतिः । 
ततस्तच्छेषमादाय क्रोधाविष्टः प्रजापतिः ॥ ११

इन्द्रस्य शत्रो वर्धस्व स्वाहेत्यग्नौ जुहाव ह। 
ततः कालाग्निसङ्काशो वर्तनाद्धृत्रसंज्ञितः ॥ १२

प्रादुरासीत्सुरेशारिर्दुद्राव च वृषान्तकः। 
ततः किरीटी भगवान् परित्यज्य दिवं क्षणात् ॥ १३

पूर्वकालमें पितामह ब्रह्माने इन्द्रपर उपकार करनेके लिये भगवान् महेश्वरसे इस साक्षात् देवी वज्रेश्वरीविद्याको प्रयत्नपूर्वक प्राप्त किया था। हे सुव्रतो। विश्वरूपसे प्राप्त विद्याके बलपर विश्वरूपविमर्दक महाबाहु इन्द्र उस यज्ञमें विधिपूर्वक दी हुई हवि (सोमरस) को जब चाहने लगे, तब हतपुत्र प्रजापति त्वष्टाने इन्द्रसे कहा- 'हे शक्र। तुमने मेरे पुत्रका वध किया है, अतः मैं तुम्हारा श्रेष्ठ भाग तुम्हें नहीं दूँगा। तुम अपना भाग प्राप्त करनेयोग्य नहीं हो; क्योंकि तुम्हारे द्वारा विश्वरूपका वध किया गया है' ऐसा कहकर त्वष्टाने अपनी मायासे सम्पूर्ण आश्रमको मोहित कर दिया। तब विश्व- रूपका वध करनेवाले शचीपति इन्द्रने उस मायाका भेदन करके बलपूर्वक अपने गणोंके साथ सोमका पान कर लिया। तत्पश्चात् अवशिष्ट सोमको लेकर क्रोधाविष्ट प्रजापति त्वष्टाने 'इन्द्रस्य शत्रो वर्धस्व स्वाहा'- ऐसा कहकर अग्निमें उसे होम कर दिया। उसी क्षण हवनकुण्डसे कालाग्निसदृश असुर प्रकट हुआ, जो अपने व्यवहारके कारण वृत्र संज्ञावाला हुआ। उस इन्द्रशत्रुने उन्हें दौड़ा लिया। तब किरीटधारी तथा हजार नेत्रोंवाले भगवान् इन्द्र स्वर्ग छोड़कर भयसे व्याकुल हो अपने गणोंसहित भाग चले [और वे ब्रह्माके पास गये] ॥ ६-१३॥

सहस्त्रनेत्रः सगणो दुद्राव भयविह्वलः । 
तदा तमाह स विभुर्हष्टो ब्रह्मा च विश्वसृट् ॥ १४

त्यक्त्वा वज्र तमेतेन जहीत्यरिमरिन्दमः । 
सोऽपि सन्नह्य देवेन्द्रो देवैः सार्धं महाभुजः ॥ १५

तब विश्वका सृजन करनेवाले प्रभु ब्रह्माने उनसे कहा है शत्रुसंहारक! वज्र त्यागकर आप इस मन्त्र (वज्रेश्वरीविद्या) के द्वारा उस शत्रुका वध कीजिये। तब शत्रुनाशक वे महाभुज देवेन्द्र भी सावधान होकर देवताओंके साथ बिना प्रयत्न ही उसे मारकर चिन्तामुक्क होकर वहाँसे चले गये॥ १४-१५ ॥

निहत्य चाप्रयत्नेन गतवान् विगतज्वरः । 
तस्माद्वज्रेश्वरीविद्या सर्वशत्रुभयङ्करी ॥ १६

मन्देहा राक्षसा नित्यं विजिता विद्ययैव तु । 
तां विद्यां सम्प्रवक्ष्यामि सर्वपापप्रमोचनीम् ॥ १७

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। 
धियो यो नः प्रचोदयात् ।

ॐ फट् जहि हूं फट् छिन्धि भिन्धि जहि हन हन स्वाहा। 
विद्या वज्रेश्वरीत्येषा सर्वशत्रुभयङ्करी। 
अनया संहतिः शम्भोर्विद्यया पुनिपुङ्गवाः ॥ १८ ॥

अतः वज्रेश्वरीविद्या सब प्रकारके शत्रुओंके लिये भयंकर है। मन्देह नामक राक्षस इसी विद्याके द्वारा सदा पराजित हुए। सभी पापोंका नाश करनेवाली उस विद्याको में बता रहा हूँ-ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि। धियो यो नः प्रचोदयात्। ॐ फट् जहि हुं फट् छिन्धि भिन्धि जहि हन हन स्वाहा' यह वज्रेश्वरीविधा है, जो सब प्रकारके शत्रुओंके लिये भयंकर है। हे मुनिश्रेष्ठो ! इसी विद्या के द्वारा शिवजी [विश्वका] संहार करते हैं॥ १६-१८॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुरायो उत्तरभागे वजेश्वरीविद्यावर्णनं नार्मकपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५१॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'वज्रेश्वरीविद्यावर्णन' नामक इक्यावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५१ ॥

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