श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग बावनवाँ अध्याय
वज्रेश्वरी विद्या की सिद्धि का विधान
ऋषय ऊचुः
श्रुता वज्रेश्वरी विद्या ब्राह्मी शक्रोपकारिणी।
अनया सर्वकार्याणि नृपाणामिति नः श्रुतम् ॥ १
ऋषिगण बोले- हे रोमहर्षण। हमलोगोंने इन्द्रका उपकार करनेवाली ब्रह्माको वज्रेश्वरीविद्याका श्रवण किया। इसके द्वारा राजाओंके सब कार्य सिद्ध होते हैं- ऐसा हमने सुना है; अब आप इस विद्याके विनियोगका वर्णन करें ॥ १॥
विनियोगं वदस्वास्या विद्याया रोमहर्षण।
सूत उवाच
वश्यमाकर्षणं चैव विद्वेषणमतः परम् ॥ २
उच्चाटनं स्तम्भनं च मोहनं ताडनं तथा।
उत्सादनं तथा छेदं मारणं प्रतिबन्धनम् ॥ ३
सेनास्तम्भनकादीनि सावित्र्या सर्वमाचरेत्।
आगच्छ वरदे देवि भूम्यां पर्वतमूर्धनि ॥ ४
ब्राह्मणेभ्यो ह्यनुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम्।
उद्वास्यानेन मन्त्रेण गन्तव्यं नान्यथा द्विजाः ॥ ५
प्रतिकार्य तथा बाह्यं कृत्वा वश्यादिकां क्रियाम्।
उद्वास्य वह्निमाधाय पुनरन्यं यथाविधि ॥ ६
देवीमावाह्य च पुनर्जपेत्सम्पूजयेत्पुनः ।
होमं च विधिना वही पुनरेव समाचरेत् ॥ ७
सूतजी बोले- सावित्रीमन्त्रके द्वारा वशीकरण, आकर्षण, विद्वेषण, उच्चाटन, स्तम्भन, मोहन, ताड़न, उत्सादन, छेदन, मारण, प्रतिबन्धन, सेनास्तम्भन आदि क्रियाएँ तथा अन्य सब कुछ करना चाहिये [आवाहन-मन्त्र इस प्रकार है-] 'आगच्छ वरदे देवि भूम्यां पर्वतमूर्धनि।' [विसर्जन-मन्त्र इस प्रकार है-] ब्राह्मणेभ्यो हानुज्ञाता गच्छ देवि यथासुखम् ।' हे द्विजो। शत्रुके प्रति समस्त बाह्य तथा वश्य आदि क्रियाएँ करके इस मन्त्रसे उद्वासन (विसर्जन) करके ही बाहर जाना चाहिये; इसके विपरीत नहीं करना चाहिये। देवीका विसर्जन करनेके अनन्तर पुनः विधिपूर्वक दूसरी अग्निको स्थापना करके देवीका आवाहनकर फिरसे जप तथा पूजन करना चाहिये। इसके बाद अग्निमें विधिपूर्वक हवन करना चाहिये। इस प्रकार इस विद्याके द्वारा सभी कार्य सिद्ध करना चाहिये ॥ २-७॥
सर्वकार्याणि विधिना साधयेद्विद्यया पुनः।
जातीपुष्पैश्च वश्यार्थी जुहुयादयुतत्रयम् ॥ ८
घृतेन करवीरेण कुर्यादाकर्षणं द्विजाः।
विद्वेषणं विशेषेण कुर्यांल्लाङ्गलकस्य च ॥ ९
तैलेनोच्चाटनं प्रोक्तं स्तम्भनं मधुना स्मृतम्।
तिलेन मोहनं प्रोक्तं ताडनं रुधिरेण च ॥१०
खरस्य च गजस्याथ उष्ट्रस्य च यथाक्रमम् ।
स्तम्भनं सर्वपेणापि पाटनं च कुशेन च ॥ ११
मारणोच्चाटने चैव रोहीबीजेन सुव्रताः ।
बन्धनं त्वहिपत्रेण सेनास्तम्भमतः परम् ॥ १२
कुनट्या नियतं विद्यात्पूजयेत्परमेश्वरीम् ।
घृतेन सर्वसिद्धिः स्यात्पयसा वा विशुद्धयते ।। १३
तिलेन रोगनाशश्च कमलेन धनं भवेत्।
कान्तिर्मधूकपुष्येण सावित्र्या ह्ययुतत्रयम् ॥ १४
जयादिप्रभृतीन् सर्वान् स्विष्टान्तं पूर्ववत्स्मृतम् ।
एवं सङ्क्षेपतः प्रोक्तो विनियोगोऽतिविस्तृतः ॥ १५
जपेद्वा केवलां विद्यां सम्पूज्य च विधानतः ।
सर्वसिद्धिमवाप्नोति नात्र कार्या विचारणा ॥ १६
शत्रुको वशमें करनेकी इच्छावालेको जाती पुष्पोंसे तीस हजार आहुति देनी चाहिये। हे द्विजो! घृत तथा करवीर (कनेर) के पुष्पके हवनसे आकर्षण कृत्य करना चाहिये और विद्वेषणकर्मके लिये लांगलक पुष्पका हवन करना चाहिये। तैलके हवनसे उच्चाटन तथा मधुके हवनसे स्तम्भन बताया गया है। इसी प्रकार तिलके हवनसे मोहन तथा पशु-शोणितके हवनसे ताड़न बताया गया है। है सुव्रतो। सरसोंके द्वारा हवनसे स्तम्भन, कुशके द्वारा हवनसे पाटन, रोहीके बीजके द्वारा हवनसे मारण-उच्चाटन, अहिपत्र (नागवल्लीपत्र) के द्वारा बन्धन और कुनटी (मनःशिला) के द्वारा हवनसे सेनास्तम्भन कृत्यकी सिद्धि जाननी चाहिये। इस प्रकार नियमपूर्वक परमेश्वरीका पूजन करना चाहिये। [अब सात्त्विक कामनाओंकी सिद्धि करनेवाले हवन द्रव्योंको बताया जाता है-] घृतके हवनसे सब प्रकारकी सिद्धि होती है और दुग्धके हवनसे साधक शुद्ध हो जाता है। तिलके होमसे रोगका नाश हो जाता है, कमलपुष्यक्के हवनसे धन प्राप्त होता है और महुएके पुष्पके हवनसे कान्ति प्राप्त होती है। प्रत्येक हवनमें तीस हजार सावित्री मन्त्रका उच्चारण होना चाहिये। जया, अभ्यातान तथा राष्ट्रभृत् होम करके अन्तमें स्विष्टकृत् होम पूर्ववत् कहा गया है। [है ऋषियो!] इस प्रकार मैंने संक्षेपमें अत्यन्त विस्तारवाले इस विनियोगका वर्णन कर दिया। अथवा [हवन न होनेकी स्थितिमें] केवल विधिपूर्वक वज्रेश्वरीविद्याका पूजन करके उसका जप करना चाहिये ऐसा करनेवाला समस्त सिद्धि प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं करना चाहिये ॥ ८-१६ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे वश्याकर्षणादिप्रयोगवर्णनं नराम द्वियज्वाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५२॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्ग महापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'वश्याकर्षणादिप्रयोगवर्णन' नामक बावनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ५२॥
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