लिंग पुराण : शिव दीक्षा विधि-वर्णन एवं शिवार्चनका माहात्म्य | Linga Purana: Shiva initiation method-description and importance of Shivacharan

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग इक्कीसवाँ अध्याय

शिव दीक्षा विधि-वर्णन एवं शिवार्चन का माहात्म्य

सूत उवाच

परीक्ष्य भूमिं विधिवद्‌गन्धवर्णरसादिभिः ।
अलङ्कृत्य वितानाहौरीश्वरावाहनक्षमाम् ॥ १

एकहस्तप्रमाणेन मण्डलं परिकल्पयेत्।
आलिखेत्कमलं मध्ये पञ्चरत्नसमन्वितम् ॥ २

चूर्णैरष्टदलं वृत्तं सितं वा रक्तमेव च।
परिवारेण संयुक्तं बहुशोभासमन्वितम् ॥ ३

आवाह्य कर्णिकायां तु शिवं परमकारणम्।
अर्चयेत्सर्वयत्नेन यथाविभवविस्तरम् ॥ ४

सूतजी बोले- गन्ध, वर्ण, रस आदिसे भलीभाँति भूमिकी परीक्षा करके ईश्वरके आवाहनयोग्य उस स्थानको वितान (चाँदनी) आदिसे अलंकृत करके वहाँ एक हाथ मापका मण्डल बनाना चाहिये। उसके मध्यमें चूणोंके द्वारा पंचरत्नसमन्वित श्वेत या रक्तवर्ण गोल अष्टदल कमलकी रचना करनी चाहिये। तत्पश्चात् [उस कमलकी] कर्णिकामें परिवारसे युक्त, अति शोभामय परम कारण शिवका आवाहन करके अपने सामर्थ्यके अनुसार पूर्ण प्रयत्नसे उनका पूजन करना चाहिये ॥ १-४ ॥

दलेषु सिद्धयः प्रोक्ताः कर्णिकायां महामुने।
वैराग्यज्ञाननालं च धर्मकन्दं मनोरमम् ॥ ५

वामा ज्येष्ठा च रौद्री च काली विकरणी तथा।
बलविकरणी चैव बलप्रमथिनी क्रमात् ॥ ६

सर्वभूतस्य दमनी केसरेषु च शक्तयः।
मनोन्मनी महामाया कणिकायां शिवासने ॥ ७

वामदेवादिभिः सार्धं द्वन्द्वन्यायेन विन्यसेत्।
मनोन्मनं महादेवं मनोन्मन्याथ मध्यतः ॥ ८

हे महामुने। कणिकाके कमलदलोंमें [अणिमा आदि आठ सिद्धियाँ स्थित बतायी गयी हैं। वैराग्य- ज्ञानरूप उसका नाल है तथा धर्मरूप उसका मनोरम कन्द (मूल) है। वामा, ज्येष्ठा, रौद्री, काली, विकरणी, बलविकरणी, बलप्रमथिनी और सर्वभूतदमनी- क्रमशः ये आठ शक्तियाँ केसरोंमें स्थित हैं तथा महामायारूपा मनोन्मनी शिवासनरूप कर्णिका में विराजमान हैं; उन- उन स्थानोंमें उनका ध्यान करना चाहिये। वामदेव आदिके साथ इन वामा आदि आठ शक्तियों का तथा मध्यमें देवी मनोन्मनीके साथ मनोन्मन महादेव की दाम्पत्यरूपसे प्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ ५-८॥

सूर्यसोमाग्निसम्बन्धात्प्रणवाख्यं शिवात्मकम् ।
पुरुषं विन्यसेद्वक्त्रं पूर्व पत्रे रविप्रभम् ॥ ९

अघोरं दक्षिणे पत्रे नीलाञ्जनचयोपमम् ।
उत्तरे वामदेवाख्यं जपाकुसुमसन्निभम् ॥ १०

सद्यं पश्चिमपत्रे तु गोक्षीरधवलं न्यसेत्। 
ईशानं कर्णिकायां तु शुद्धस्फटिकसन्निभम् ॥ ११

सूर्य-चन्द्र-अग्निके सम्बन्धसे प्रणव नामक सूर्यतुल्य प्रभावाले शिवरूप तत्पुरुषका [कमलके] पूर्व पत्रमें न्यास करना चाहिये। नीलांजनसदृश अघोरका दक्षिण पत्रमें, जपाकुसुमके समान वर्णवाले वामदेव नामक शिवका उत्तर पत्रमें, गोदुग्धके समान धवल सद्योजातका पश्चिम पत्रमें और शुद्ध स्फटिकके समान कान्तिवाले ईशानका कमलकी कर्णिकामें न्यास करना चाहिये ॥ ९-११॥

चन्द्रमण्डलसङ्काशं हृदयायेति मन्त्रतः। 
वाह्वेये रुद्रदिग्भागे शिरसे धूम्रवर्चसे ॥ १२

शिखायै च नमश्चेति रक्ताभे नैर्ऋते दले।
कवचायाञ्जनाभाय इति वायुदले न्यसेत् ॥ १३

अस्त्रायाग्निशिखाभाय इति दिक्षु प्रविन्यसेत् ।
नेत्रेभ्यश्चेति वैशान्यां पिङ्गलेभ्यः प्रविन्यसेत् ॥ १४

शिवं सदाशिवं देवं महेश्वरमतः परम्।
रुद्रं विष्णुं विरिञ्विं च सृष्टिन्यायेन भावयेत् ॥ १५

चन्द्रमण्डलसङ्काशाय हृदयाय नमः - इस मन्त्रसे अग्निकोण के दलमें, धूम्रवर्चसे शिर से नमः इस मन्त्रसे ईशानकोणके दलमें, रक्ताभाय शिखायै नमः - इस मन्त्रसे नैर्ऋत्यकोणके दलमें और अञ्जनाभाय कवचाय नमः - इस मन्त्रसे वायव्यकोणके दलमें न्यास करना चाहिये। अग्निशिखाभाय अस्त्राय नमः- इस मन्त्रसे [ऊर्ध्वं आदि] दिशाओंमें न्यास करना चाहिये और पिङ्गलेभ्यो नेत्रेभ्यो नमः - इस मन्त्रसे ईशान दिशामें न्यास करना चाहिये। तदनन्तर शिव सदाशिव देव महेश्वर रुद्र, विष्णु और विरिंचि (ब्रह्मा) की सृष्टिके सृजन, पालन और संहारके क्रमसे भावना करनी चाहिये ॥ १२-१५॥

शिवाय रुद्ररूपाय शान्त्यतीताय शम्भवे।
शान्ताय शान्तदैत्याय नमश्चन्द्रमसे तथा ॥ १६

वेद्याय विद्याधाराय वह्नये वह्निवर्चसे।
कालायै च प्रतिष्ठायै तारकायान्तकाय च ॥ १७

निवृत्त्यै धनदेवाय धारायै धारणाय च।
मन्त्रैरेतैर्महाभूतविग्रहं च सदाशिवम् ॥ १८

ईशानमुकुटं देवं पुरुषास्वं पुरातनम् ।
अघोरहृदयं हृष्टं वामगुहां महेश्वरम् ॥ १९

सद्यमूर्ति स्मरेद्देवं सदसद्व्यक्तिकारणम्। 
पञ्चवत्रं दशभुजमष्टत्रिंशत्कलामयम् ॥ २०

सद्यमष्टप्रकारेण प्रभिद्य च कलामयम्। 
वामं त्रयोदशविधैर्विभिद्य विततं प्रभुम् ॥ २१

अघोरमष्टधा कृत्वा कलारूपेण संस्थितम्। 
पुरुषं च चतुर्धा वै विभज्य च कलामयम् ॥ २२

ईशानं पञ्चधा कृत्वा पञ्चमूर्त्या व्यवस्थितम् ।
हंसहंसेति मन्त्रेण शिवभक्त्या समन्वितम् ॥ २३

ओङ्कारमात्रमोङ्कारमकारं समरूपिणम् ।
आ ई ऊ ए तथा अम्बानुक्रमेणात्मरूपिणम् ॥ २४

प्रधानसहितं देवं प्रलयोत्पत्तिवर्जितम् ।
अणोरणीयां समजं महतोऽपि महत्तमम् ॥ २५

उर्ध्वरेतसमीशानं विरूपाक्षमुमापतिम् ।
सहस्त्रशिरसं देवं सहस्त्राक्षं सनातनम् ॥ २६

सहस्त्रहस्तचरणं नादान्तं नादविग्रहम्।
खद्योतसदृशाकारं चन्द्ररेखाकृतिं प्रभुम् ॥ २७

द्वादशान्ते ध्रुवोर्मध्ये तालुमध्ये गले क्रमात्।
हृद्देशेऽवस्थितं देवं स्वानन्दममृतं शिवम् ॥ २८

विद्युद्वलयसङ्काशं विद्युत्कोटिसमप्रभम्।
श्यामं रक्तं कलाकारं शक्तित्रयकृतासनम् ॥ २९

सदाशिवं स्मरेद्देवं तत्त्वत्रयसमन्वितम्। 
विद्यामूर्तिमयं देवं पूजयेच्च यथाक्रमात् ॥ ३०

शिवाय रुद्ररूपाय शान्त्यतीताय शम्भवे। शान्ताय शान्तदैत्याय नमश्चन्द्रमसे तथा ॥ वेद्याय विद्याधाराय वह्नये वह्निवर्चसे। कालायै च प्रतिष्ठायै तारकायान्तकाय च । निवृत्त्यै धनदेवाय धारायै धारणाय च इन [पाँच] मन्त्रोंसे ईशानरूप मुकुट, तत्पुरुषरूप मुख, अघोररूप हृदय, वामदेवरूप गुह्यदेश तथा सद्योजातरूप सम्पूर्ण विग्रहवाले, सत्-असत्की अभिव्यक्तिके कारणभूत, पुरातन, प्रसन्न तथा आकाश आदि पंचमहाभूतके विग्रहवाले महेश्वर सदाशिवका स्मरण करना चाहिये, जो पाँच मुख तथा दस भुजाओंसे सुशोभित और अड़तीस कलाओंवाले हैं। कलामय सद्योजातका आठ प्रकारसे विभाग करके, महाप्रभु वामदेवका तेरह भेदोंसे विभाग करके, कलारूपमें स्थित अघोरका आठ प्रकारसे विभाग करके, कलामय तत्पुरुषका चार प्रकारसे विभाग करके और पाँच मूर्तियोंमें व्यवस्थित ईशानका पाँच प्रकारसे विभाग करके उनका ध्यान करना चाहिये। हंसहंसाय विद्महे परमहंसाय धीमहि। तन्नो हंसः प्रचोदयात्-इस हंसगायत्रीमन्त्रसे शिवभक्तिसे युक्त, ब्रह्मरूप, प्रणवरूप, अकाररूप, ब्रह्मतुल्यरूपवाले, आई-ऊ-ए अर्थात् क्रमसे देवी-गणेश-सूर्य-विष्णुस्वरूप, प्रकृतियुक्त, उत्पत्ति-प्रलयसे रहित, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्म, अजन्मा, महान्से भी महान, ऊध्र्वरता, विरूपाक्ष, उमापति, हजार सिरोंवाले, हजार नेत्रोंवाले, हजार हाथ तथा चरणोंवाले, सनातन, नादान्त (प्रणवरूप), नादप्रतिपाद्य विग्रहवाले, सूर्यके समान आकारवाले, चन्द्ररेखासे युक्त विग्रहवाले, मूर्धा-भ्रूमध्य-तालुमध्य-कण्ठ तथा हृदयमें क्रमसे विराजमान, अपने आनन्दमें मग्न, अमृतस्वरूप, कल्याणकारी, विद्युद्वलयसदृश, करोड़ों विद्युत्‌के समान प्रभावाले, श्यामरक्त वर्णवाले, गम्भीर आकारवाले, शक्तित्रय (तीनों शक्तियों) पर विराजमान तीन तत्त्वोंसे युक्त तथा विद्यामूर्ति-स्वरूप भगवान् सदाशिव ईशानका इस प्रकार स्मरण करना चाहिये और यथाक्रमसे उनका पूजन करना चाहिये ॥ १६-३० ॥

लोकपालांस्तथास्त्रेण पूर्वाद्यान् पूजयेत्पृथक् । 
चरुं च विधिनासाद्य शिवाय विनिवेदयेत् ॥ ३१

अर्धं शिवाय दत्त्वैचैव शेषार्थेन तु होमयेत्। 
अघोरेणाथ शिष्याय दापयेद्भोक्तुमुत्तमम् ॥ ३२

तत्पश्चात् पूर्व आदि दिशाओंसे सम्बन्धित [इन्द्र आदि) लोकपालोंका अस्त्रमन्त्रसे अलग-अलग पूजन करना चाहिये। इसके बाद विधिपूर्वक चरु बनाकर उसका आधा भाग शिवको अर्पित करना चाहिये। शिवको निवेदित करनेके बाद शेष चरुके आधे भागसे हवन कर देना चाहिये। तदनन्तर बचे हुए उत्तम चरुको अघोर मन्त्रसे अभिमन्त्रित करके भक्षण करनेके लिये शिष्यको दिलाना चाहिये ॥ ३१-३२ ॥

उपस्पृश्य शुचिर्भूत्वा पुरुषं विधिना यजेत्। 
पञ्चगव्यं ततः प्राश्य ईशानेनाभिमन्त्रितम् ।। ३३

वामदेवेन भस्माङ्गी भस्मनोद्धृलयेत्क्रमात् । 
कर्णयोश्च जपेद्देवीं गायत्रीं रुद्रदेवताम् ॥ ३४

ससूत्रं सपिधानं च वस्त्रयुग्मेन वेष्टितम् । 
तत्पूर्व हेमरत्नौधैर्वासितं वै हिरण्मयम् ॥ ३५

कलशान् विन्यसेत्पञ्च पञ्चभिर्ब्राह्मणैस्ततः । 
होमं च चरुणा कुर्याद्यथाविभवविस्तरम् ।। ३६

चरुका भक्षण करनेके अनन्तर आचमन करके शुद्ध होकर शिष्यको विधिपूर्वक तत्पुरुषका यजन करना चाहिये। तत्पश्चात् ईशान मन्त्रसे अभिमन्त्रित किये गये पंचगव्यका प्राशन करके वामदेवमन्त्रसे सर्वांगमें भस्म धारण करना चाहिये, गुरुको शिष्यके दोनों कानोंमें रुद्रदैवत्य गायत्री (रुद्रगायत्री) का जप करना चाहिये। होमके पूर्व सूत्रयुक्त, आच्छादनयुक्त, दो वस्त्रोंसे घिरा हुआ तथा हेमरत्नोंसे अधिवासित जो सुवर्णमय अधिवासनमण्डल है, उसमें पाँच ब्रह्ममन्त्रोंसे पाँच कलशोंका स्थापन करना चाहिये। तत्पश्चात् अपने सामर्थ्यके अनुसार चरुसे होम करना चाहिये ॥ ३३-३६ ॥ 

शिष्यं च वासयेद्भक्तं दक्षिणे मण्डलस्य तु।
दर्भशय्यासमारूढं शिवध्यानपरायणम् ।। ३७

अघोरेण यथान्यायमष्टोत्तरशतं पुनः ।
घृतेन हुत्वा दुःस्वप्नं प्रभाते शोधयेन्मलम् ॥ ३८

एवं चोपोषितं शिष्यं स्नातं भूषितविग्रहम्।
नववस्त्रोत्तरीयं च सोष्णीषं कृतमङ्गलम् ॥ ३९

दुकूलाद्येन वस्त्रेण नेत्रं बद्ध्वा प्रवेशयेत्।
सुवर्णपुष्पसम्मिश्रं यथाविभवविस्तरम् ॥ ४०

ईशानेन च मन्त्रेण कुर्यात्पुष्पाञ्जलिं प्रभोः ।
प्रदक्षिणात्रयं कृत्वा रुद्राध्यायेन वा पुनः ॥ ४१

केवलं प्रणवेनाथ शिवध्यानपरायणः ।
ध्यात्वा तु देवदेवेशमीशाने सक्षिपेत्स्वयम् ॥ ४२

यस्मिन् मन्त्रे पतेत्युष्यं तन्मन्त्रस्तस्य सिध्यति ।
शिवाम्भसा तु संस्पृश्य अघोरेण च भस्मना ॥ ४३

इसके बाद शिवध्यानपरायण भक्त शिष्यको मण्डलके दक्षिण भागमें कुशकी शैय्यापर शयन कराना चाहिये। पुनः प्रातःकाल होनेपर अघोरमन्त्रसे विधिपूर्वक घृतकी एक सौ आठ आहुति देकर दुःस्वप्नरूप मलका शोधन करे। इस प्रकार व्रती शिष्यको स्नान कराकर उसके शरीरको भूषित करके, उसे नवीन वस्त्र, उत्तरीय तथा पगड़ी धारण कराकर और वससे समस्त मंगलकृत्य सम्पन्न कराकर दुपट्टा आदिसे उसके नेत्रको बाँधकर उसे मण्डलमें प्रवेश कराये। शिष्य अपने धनसामर्थ्यके अनुसार सुवर्णयुक्त पुष्प अंजलिमें लेकर ईशान मन्त्र से प्रभुको पुष्पांजलि अर्पित करे और पुनः रुद्राध्याय अथवा केवल प्रणवका उच्चारण करता हुआ शिवके ध्यानमें लीन होकर मण्डलकी तीन प्रदक्षिणा करके देवदेवेशका ध्यान करके पुष्पको ईशान दिशामें स्वयं प्रक्षिप्त कर दे। पुष्प जिस मन्त्रपर गिरे, वही मन्त्र उसके लिये सिद्ध हो जाता है। तदनन्तर मंगल जल तथा अघोरमन्त्रसे अभिमन्त्रित भस्मसे शिष्यका स्पर्श करके शिष्यके सिरपर अपना हाथ रखकर गुरुको गन्ध आदि उपचारोंसे शिष्यका पूजन करना चाहिये ॥ ३७-४३ ॥

शिष्यमूर्धनि विन्यस्य गन्धाद्यौः शिष्यमर्चयेत् ।
वारुणं परमं श्रेष्ठं द्वारं वै सर्ववर्णिनाम् ॥ ४४

क्षत्रियाणां विशेषेण द्वारे वै पश्चिमं स्मृतम्।
नेत्रावरणमुन्मुच्य मण्डलं दर्शयेत्ततः ॥ ४५

कुशासने तु संस्थाप्य दक्षिणामूर्तिमास्थितः ।
तत्त्वशुद्धिं ततः कुर्यात्पञ्चतत्त्वप्रकारतः ॥ ४६

निवृत्त्या रुद्रपर्यन्तमण्डमण्डोद्भवात्मज ।
प्रतिष्ठया तदूर्ध्वं च यावदव्यक्तगोचरम् ।। ४७

विश्वेश्वरान्तं वै विद्या कलामात्रेण सुव्रत।
तदूर्ध्वमार्ग संशोध्य शिवभक्त्या शिवं नयेत् ॥ ४८

समर्चनाय तत्त्वस्य तस्य भोगेश्वरस्य वै।
तत्त्वत्रयप्रभेदेन चतुर्भिरुत वा तथा ॥ ४९

होमयेदङ्गमन्त्रेण शान्त्यतीतं सदाशिवम् । 
सद्यादिभिस्तु शान्त्यन्तं चतुर्भिः कलया पृथक् ॥ ५०

शान्त्यतीतं मुनिश्रेष्ठ ईशानेनाथवा पुनः। 
प्रत्येकमष्टोत्तरशतं दिशाहोमं तु कारयेत् ॥ ५१

वरुणसम्बन्धी पश्चिम द्वार प्रवेशके लिये सभी वर्णोक लिये श्रेष्ठ है और यह विशेष रूपसे क्षत्रियोंके लिये अत्युत्तम कहा गया है। प्रवेशके अनन्तर शिष्यके नेत्रका वस्त्रावरण हटाकर उसे मण्डल दिखाना चाहिये। इसके बाद शिष्यको कुशासनपर बैठाकर दक्षिणामूर्ति शिवका आश्रय लेकर पंचतत्त्वप्रकारसे तत्त्वशुद्धि करनी चाहिये। हे सनत्कुमार। हे सुव्रत । क्रमसे पृथ्वी आदि पंचमहाभूतोंसे लेकर अहंकारपर्यन्त अण्डकी निवृत्तिसे, उस अहंकारसे भी ऊपर अव्यक्तगोचर प्रकृतिपर्यन्त स्थितिके द्वारा तथा ज्ञानकलासे पुरुषतकका ज्ञान करके उससे भी ऊपर परम शिवकी प्राप्तिके मार्गको शिवभक्तिके द्वारा आवरणरहित करके शिष्यको तुरीय शिवतक पहुँचा दे। तत्पश्चात् उन योगेश्वर तत्त्वरूप शिवके समर्चनके लिये प्रकृति, पुरुष, ईश्वर-इन तत्त्वत्रय अथवा अहंकार आदि चार तत्त्वोंके क्रमसे शान्त्यतीत कलामें स्थित सदाशिवके निमित्त ईशानमन्त्रसे होम कर दे, साथ ही पृथक् गणनासे सद्योजात आदि चार मन्त्रोंके द्वारा शान्त्यन्त शिवके लिये होम कर दे; हे मुनिश्रेष्ठ । इसके बाद ईशानमन्त्रसे परम शिवको एक सौ आठ आहुति देकर ऋत्विजोंके द्वारा एक सौ आठ आहुतिसे दिग्देवताहोम कराना चाहिये ॥ ४४-५१ ॥ 

ईशान्यां पञ्चमेनाथ प्रधानं परिगीयते।
समिदाज्यचरूल्लाँजान् सर्षपांश्च यवांस्तिलान् ।। ५२

द्रव्याणि सप्त होतव्यं स्वाहान्तं प्रणवादिकम्।
तेषां पूर्णाहुतिर्विप्र ईशानेन विधीयते ॥ ५३

सहंसेन यथान्यायं प्रणवाद्येन सुव्रत।
अघोरेण च मन्त्रेण प्रायश्चित्तं विधीयते ॥ ५४

जयादिस्विष्टपर्यन्तमग्निकार्य क्रमेण तु।
गुणसंख्याप्रकारेण प्रधानेन च योजयेत् ॥ ५५

ईशान दिशामें पाँचवें ईशानमन्त्रसे किया गया याग प्रधान याग कहा जाता है। मन्त्रके आदिमें प्रणव तथा अन्तमें स्वाहा लगाकर समिधा, घृत, चरु, लाजा (लावा), सरसों, यव, तिल-इन सात द्रव्योंका हवन करना चाहिये। हे विप्र ! उनकी पूर्णाहुति ईशानमन्त्रसे की जाती है। हे सुव्रत । प्रणवयुक्त हंसगायत्रीमन्त्रसहित अघोरमन्त्रसे विधिपूर्वक प्रायश्चित्त किया जाता है। जया, अभ्यातान आदिसे लेकर स्विष्टकृत्-होमपर्यन्त अग्निकार्यको तीन प्रकारसे पूर्वोक्त प्रधान होमके साथ युक्त कर देना चाहिये ॥ ५२-५५ ॥

भूतानि ब्रह्मभिर्वापि मौनी बीजादिभिस्तथा।
अथ प्रधानमात्रेण प्राणापानौ नियम्य च ॥ ५६

षष्ठेन भेदयेदात्मप्रणवान्तं कुलाकुलम् ।
अन्योऽन्यमुपसंहृत्य ब्रह्माणं केशवं हरम् ।। ५७

रुद्रे रुद्रं तमीशाने शिवे देवं महेश्वरम्।
तस्मात्सृष्टिप्रकारेण भावयेद्भवनाशनम् ।। ५८

तत्पश्चात् गुरुको चाहिये कि मौन होकर बीजस्वरूप [सद्योजात आदि] वेदमन्त्रोंसे पृथ्वी आदि पंचमहाभूतोंका तथा केवल ईशानमन्त्रसे प्राण-अपान वायुका निरोध करके छठे 'नमो हिरण्यबाहवे०' इस मन्त्रसे आत्मवाचक प्रणवके अन्तरूप नादसमुदायसे व्याप्त ब्रह्मरन्ध्रका भेदन करे। तत्पश्चात् ब्रह्मा, केशव तथा रुद्रको अन्योन्य रूपसे उपसंहृत करके अर्थात् ब्रह्माको केशवमें, केशवको हरमें विलीन करके संहारमूर्ति हरको रुद्रमें, उन रुद्रको ईशानमें और उन महेश्वर ईशानको शिवमें उपसंहृत करके पुनः सृष्टिक्रमसे भवनाशक रुद्रका चिन्तन करे ॥ ५६-५८ ॥

स्थाप्यात्मानममुं जीवं ताडनं द्वारदर्शनम्।
दीपनं ग्रहणं चैव बन्धनं पूजया सह ॥५९

अमृतीकरणं चैव कारयेद्विधिपूर्वकम् ।
षष्ठान्तं सद्यसंयुक्तं तृतीयेन समन्वितम् ॥ ६०

फडन्तं संहृतिः प्रोक्ता पञ्चभूतप्रकारतः ।
सद्याद्यषष्ठसहितं शिखान्तं सफडन्तकम् ॥ ६१

ताडनं कथितं द्वारं तत्त्वानामपि योगिनः ।
प्रधानं सम्पुटीकृत्य तृतीयेन च दीपनम् ॥ ६२

आद्येन सम्पुटीकृत्य प्रधानं ग्रहणं स्मृतम्।
प्रधानं प्रथमेनैव सम्पुटीकृत्य पूर्ववत् ॥ ६३

इसके बाद शिष्यके जीवको रुद्रमें स्थापित करके ताड़न, द्वारदर्शन, दीपन, ग्रहण, पूजासहित बन्धन और अमृती करण विधि पूर्वक कराना चाहिये। अघोरमन्त्रके आदिमें सद्योजातमन्त्र और अन्तमें षष्ठ मन्त्र- 'नमो हिरण्यबाहवे तथा सबके अन्तमें 'फट्' शब्द प्रयुक्त करके पृथ्वी आदि पंचभूतोंके प्रकारसे संहृति कही गयी है। सद्योजात आदिमें, इसके बाद 'नमो हिरण्यबाहवे ' और पुनः अन्तमें 'शिखा' तथा 'फट्' लगा हुआ मन्त्र दीक्षायोगीके लिये ताड़न तथा तत्त्वोंका द्वारदर्शन कहा गया है; अघोरमन्त्रसे सम्पुटित करके प्रधान ईशानमन्त्रको दीपन' कहा गया है। सद्योजात मन्त्र से सम्पुटित करके ईशानमन्त्रको ग्रहण तथा उसी ग्रहणकी ही तरह सद्योजात मन्त्रसे सम्पुटित करके ईशानमन्त्र को बन्धन भी कहा गया है और समग्र त्रियम्बकमन्त्रसे प्लावन अर्थात् अमृतीकरण बताया गया है॥ ५९-६३ ॥

बन्धनं परिपूर्णेन प्लावनं चामृतेन च। 
शान्त्यतीता ततः शान्तिर्विद्या नाम कलामला ।। ६४

प्रतिष्ठा च निवृत्तिश्च कलासङ्क्रमणं स्मृता । 
तत्त्ववर्णकलायुक्तं भुवनेन यथाक्रमम् ॥ ६५

मन्त्रैः पादैः स्तवं कुर्याद्विशोध्य च यथाविधि। 
आद्येन योनिबीजेन कल्पयित्वा च पूर्ववत् ॥ ६६

एवं दीक्षा प्रकर्तव्या पूजा चैव यथाक्रमम् । 
त्रिकालमेककालं वा पूजयेत्परमेश्वरम् ।। ७८

अग्निहोत्रं च वेदाश्च यज्ञाश्च बहुदक्षिणाः। 
शिवलिङ्गार्चनस्यैते कलांशेनापि नो समाः ॥ ७९

सदा यजति यज्ञेन सदा दानं प्रयच्छति। 
सदा च वायुभक्षश्च सकृद्योऽभ्यर्चयेच्छिवम् ॥ ८०

एककालं द्विकालं वा त्रिकालं नित्यमेव वा। 
येऽर्चयन्ति महादेवं ते रुद्रा नात्र संशयः ॥ ८१

नारुद्रस्तु स्पृशेद्रुद्रं नारुद्रो रुद्रमर्चयेत्। 
नारुद्रः कीर्तयेहुद्रं नारुद्रो रुद्रमाप्नुयात् ॥ ८२

एवं सङ्क्षेपतः प्रोक्तो ह्यधिकारिविधिक्रमः । 
शिवार्चनार्थ धर्मार्थकाममोक्षफलप्रदः ॥ ८३

शान्त्यतीता, प्रतिष्ठा, अमला, विद्या, शान्ति तथा निवृत्ति-ये कलाएँ कही गयी हैं। इनका यथाक्रम परस्पर संक्रमण करके तत्त्व, वर्ण, कला, भुवन, मन्त्र और पद-इन षडध्वोंका शोधन करके और पुनः प्रणव तथा योनिबीज (हीं) से सम्पुटित करके शिवप्रतिपादक (प्रातः, मध्याह्न, सार्य) अथवा एक ही समय परमेश्वर शिवकी पूजा करनी चाहिये  अग्निहोत्र, समस्त वेद तथा बड़ी-बड़ी दक्षिणाओंवाले यज्ञ ये सब शिवलिङ्गके अर्चनकी कलाके अंशके भी तुल्य नहीं हैं। जो एक बार शिवका अर्चन कर लेता है,वह मानो सदा यज्ञ करता है, सदा दान देता है और सदा वायुभक्षणरूप तपस्या करता है। जो लोग प्रतिदिन एक काल, दोनों कालों अथवा तीनों कालोंमें महादेवका पूजन करते हैं, वे रुद्ररूप ही हैं, इसमें सन्देह नहीं है। जो रुद्ररूप नहीं है; उसे रुद्रका स्पर्श नहीं करना चाहिये; जो रुद्ररूप नहीं है, उसे रुद्रकी पूजा नहीं करनी चाहिये और जो रुद्ररूप नहीं है, उसे रुद्रका नामकीर्तन नहीं करना चाहिये। जो रुद्ररूप नहीं है, वह रुद्रको नहीं प्राप्त कर सकता। [है सनत्कुमार!] इस प्रकार मैंने [आपसे] संक्षेपमें शिवकी पूजाके लिये अधिकारी होने तथा उसकी विधिका क्रम कह दिया, जो धर्म, अर्थ, काम और मोक्षको प्रदान करनेवाला है॥ ६४-८३॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे दीक्षाविधिनर्मिकविंशतितमोऽध्यायः ॥ २१ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'दीक्षाविधि' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥

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