श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग तीसवाँ अध्याय
तिलपर्वतदानविधि
सनत्कुमार उवाच
अधुना सम्प्रवक्ष्यामि तिलपर्वतमुत्तमम् ।
पूर्वोक्तस्थानकाले तु कृत्वा सम्पूज्य यत्नतः ॥ १
सुसमे भूतले रम्ये वेदिना च विवर्जिते।
दशतालप्रमाणेन दण्डं संस्थाप्य वै मुने । २
अद्भिः सम्प्रोक्ष्य पश्चान्द्धि तिलांस्त्वस्मिन् विनिक्षिपेत् ।
पञ्चगव्येन तं देशं प्रोक्षयेद् ब्राह्मणोत्तमः ।। ३
सनत्कुमार बोले- हे मुने। अब मैं उत्तम तिलपर्वतदानका विधिवत् वर्णन करूँगा। पूर्वमें बताये गये स्थान तथा कालमें प्रयत्नपूर्वक पूजन करके तिलपर्वतका दान करे। वेदीरहित सुन्दर समतल भूमिपर दस ताल प्रमाणका दण्ड स्थापित करके जल छिड़ककर उसपर तिलराशि रखे; श्रेष्ठ ब्राह्मणको चाहिये कि पंचगव्यसे उस स्थानका प्रोक्षण करे ॥ १-३॥
मण्डलं कल्पयेद्विद्वान् पूर्ववत्सुसमन्ततः ।
नववस्त्रैश्च संस्थाप्य रम्यपुष्यैर्विकीर्य च ॥४
तस्मिन् सञ्चयनं कार्य तिलभारैर्विशेषतः । ६
दण्डप्रादेशमुत्सेधमुत्तमं परिकीर्तितम् ॥ ५
चतुरङ्गुलहीनं तु मध्यमं मुनिपुङ्गवाः।
दण्डतुल्यं कनिष्ठं स्याद्दण्डहीनं न कारयेत् ॥ ६
वेष्टयित्वा नवैर्वस्त्रैः परितः पूजयेत्क्रमात् ।
सद्यादीनि प्रविन्यस्य पूजयेद्विधिपूर्वकम् ॥ ७
अष्टदिक्षु च कर्तव्याः पूर्वोक्ता मूर्तयः क्रमात्।
त्रिनिष्केन सुवर्णेन प्रत्येकं कारयेत्क्रमात् ॥ ८
तदनन्तर विद्वान् पूर्ववत् चारों ओर गोल मण्डल बनाये। नये वस्त्रोंको रखकर उसपर सुन्दर पुष्प बिखेरकर वहाँ तिलके बीजोंके भारोंका ढेर लगाये। तिलराशि स्थापित किये गये दण्डसे प्रादेशमात्र ऊपर हो, तो उसे उत्तम कहा गया है। है श्रेष्ठ मुनियो ! दण्डसे चार अंगुल कम रहनेपर मध्यम तथा दण्डके बराबर होनेपर कनिष्ठ श्रेणीका होता है। तिलके ढेरको दण्डसे नीचे नहीं करना चाहिये। इस तिलपर्वतको नवीन वस्त्रोंसे चारों ओरसे लपेटकर क्रमसे पूजन करना चाहिये। वहाँ 'सद्योजात' आदि पंचब्रह्मोंको क्रमसे स्थापित करके विधिपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिये। पूर्वमें कही गयी मूर्तियोंको आठों दिशाओंमें क्रमसे स्थापित करना चाहिये; प्रत्येक मूर्तिको तीन निष्क सुवर्णसे निर्मित कराना चाहिये ॥ ४-८ ॥
दक्षिणा विधिना कार्या तुलाभारवदेव तु।
होमश्च पूर्ववत्प्रोक्तो यथावन्मुनिसत्तमाः ॥ ९
अर्चयेद्देवदेवेशं लोकपालसमावृतम्।
तिलपर्वतमध्यस्थं तिलपर्वतरूपिणम् ॥ १०
शिवार्चना च कर्तव्या सहस्त्रकलशादिभिः ।
दर्शयेत्तिलमध्यस्थं देवदेवमुमापतिम् ॥ ११
पूजयित्वा विधानेन क्रमेण च विसर्जयेत्।
श्रोत्रियाय दरिद्राय दापयेत्तिलपर्वतम् ॥ १२
एवं तिलनगः प्रोक्तः सर्वस्मादधिकः परः ॥ १३
तुलाभारके कृत्यकी भाँति इसमें दक्षिणा देनी चाहिये। हे श्रेष्ठ मुनियो! इस दानमें पूर्वकी भाँति यथावत् होम करना भी बताया गया है। लोकपालोंसे आवृत, तिल पर्वतके मध्यमें विराजमान तथा तिलपर्वतरूपी देवदेवेश्वर शिवका पूजन करना चाहिये। हजार कलशोंसे शिवको अर्चना करनी चाहिये। अपने इष्टजनोंको तिलके मध्यमें स्थित देवाधिदेव उमापतिका दर्शन कराना चाहिये। इस प्रकार विधिपूर्वक उनका पूजन करके विसर्जन करना चाहिये। तत्पश्चात् उस तिलपर्वतको धनहीन श्रोत्रिय [ब्राहाण] को दिला देना चाहिये। इस प्रकार मैंने आपसे तिलपर्वतके दानका वर्णन कर दिया; यह सभी दानोंसे श्रेष्ठ है॥ ९-१३॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे तिलपर्वतदानं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्ग महापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'तिलपर्वतदान' नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥
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