लिंग पुराण : अघोरेश्वररूप भगवान् शिवके निमित्त किये गये जप, हवन एवं पूजनका फल | Linga Purana: Result of chanting, havan and worship done for Lord Shiva in the form of Aghoreshwar

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग उनचासवाँ अध्याय

अघोरेश्वर रूप भगवान् शिव के निमित्त किये गये जप, हवन एवं पूजन का फल

ऋषय ऊचुः

अघोरेशस्य माहातयं भवता कथितं पुरा। 
पूजां प्रतिष्ठां देवस्य भगवन् वक्तुमर्हसि ॥ १

ऋषिगण बोले- [हे भगवन्!] आपने पहले अघोरेश के माहात्म्य का वर्णन किया है; अब उनकी पूजा तथा प्रतिष्ठा का वर्णन करने की कृपा कीजिये ॥ १॥

सूत उवाच

अघोरेणाङ्गयुक्तेन विधिवच्च विशेषतः ।
प्रतिष्ठालिङ्गविधिना नान्यथा मुनिपुङ्गवाः ॥ २

तथाग्निपूजां वै कुर्याद्यथा पूजा तथैव च। 
सहस्त्रं वा तदर्थं वा शतमष्टोत्तरं तु वा ॥ ३

तिलैहोंमः प्रकर्तव्यो दधिमध्वाज्यसंयुतैः । 
घृतसक्तुमधूनां च सर्वदुःखप्रमार्जनम् ।। ४

व्याधीनां नाशनं चैव तिलहोमस्तु भूतिदः । 
सहस्त्रेण महाभूतिः शतेन व्याधिनाशनम् ॥ ५

सर्वदुःखविनिर्मुक्तो जपेन च न संशयः। 
अष्टोत्तरशतेनैव त्रिकाले च यथाविधि ॥ ६

अष्टोत्तरसहस्त्रेण षण्मासाज्जायते ध्रुवम्। 
सिद्धयो नैव सन्देहो राज्यमण्डलिनामपि ॥ ७

सूतजी बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो ! अंगयुक्त अघोरमन्त्रसे शिवलिङ्ग-प्रतिष्ठाकी विधिसे सम्यक् प्रकारसे अधोरेशकी भी प्रतिष्ठा करनी चाहिये; अन्य प्रकारसे नहीं। जैसे लिङ्गपूजा होती है, वैसे ही अग्निपूजा भी करनी चाहिये। दधि, मधु तथा घृतसे युक्त तिलोंसे एक हजार अथवा पाँच सौ अथवा एक सौ आठ बार हवन करना चाहिये। घृत, सत्तू तथा मधुका हवन सभी दुःखोंको दूर करनेवाला तथा व्याधियोंका नाश करनेवाला है। तिलका होम ऐश्वर्य-प्रदायक है। तिलके एक हजार हवनसे महान् ऐश्वर्य और एक सौ हवनसे व्याधिनाश होता है। त्रिकाल विधिपूर्वक अघोर-मन्त्रके एक सौ आठ जपसे मनुष्य सभी दुःखोंसे मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। इसके एक हजार आठ जपसे छः रूपसे सिद्धियाँ प्राप्त हो जाती हैं; इसमें सन्देह नहीं माहके भीतर ही सभी सामन्त राजाओंको भी निश्चित है ॥ २-७॥

सहस्त्रेण ज्वरो याति क्षीरेण च जुहोति यम्। 
त्रिकालं मासमेकं तु सहस्त्रं जुहुयात्पयः ॥ ८

मासेन सिध्यते तस्य महासौभाग्यमुत्तमम् । 
सिद्धयते चाब्दहोमेन क्षौद्राज्यदधिसंयुतम् ॥ ९

यवक्षीराज्यहोमेन जातितण्डुलकेन लके वा।
प्रीयेत भगवानीशो हाघोर: परमेश्वर: । ।९०

जिस व्यक्तिके निमित्त दुग्धसे हजार बार आहुति दी जाती है, उसका ज्वर समाप्त हो जाता है। यदि कोई मनुष्य एक माहतक तीनों कालोंमें दुग्धकी हजार आहुति प्रदान करे, तो महीनेभरमें उसे अत्युत्तम सौभाग्यकी प्राप्ति होती है और मधु, घृत तथा दधिके मिश्रणका नित्य वर्षपर्यन्त हवन करनेसे मनुष्य सिद्ध हो जाता है। जौ, दुग्ध, घृत और जातिपुष्पके समान श्वेत चावलके होमसे भगवान्‌ अघोर परमेश्वर शिव प्रसन्न होते हैं॥८--१०॥

दध्ना पुष्टिनुपाणां च क्षीरहोमेन शान्तिकम्‌। 
षण्मासं तु थृतं हुत्वा सर्वव्याधिविनाशनम्‌॥ ११

राजयक्ष्मा तिलैहोमान्नशयते वत्सरेण तु। 
यवहोमेन चायुष्यं घृतेन च जयस्तदा॥ १२

सर्वकुष्ठक्षयार्थ च मधुनाक्तैश्च तण्डुलै:। 
जुहुयादयुतं नित्यं॑ षण्मासान्नियत: सदा॥ १३

आज्यं क्षीरं मधुश्चैव मधुरत्रयमुच्यते। 
समस्तं तुष्यते तस्य नाशयेद्वे भगन्दरम्‌॥ १४

केवल घृतहोमेन सर्वरोगक्षय: स्मृतः। 
सर्वव्याधिहरं ध्यानं स्थापनं विधिनार्चनम्‌॥ १५

एवं सड्क्षेपतः प्रोक्तमघोरस्यथ महात्मन:। 
प्रतिष्ठा यजनं सर्व नन्दिना कथितं पुरा॥ १६

ब्रह्मपुत्राय शिष्याय तेन व्यासाय सुत्रता:॥ १७

छ: मासतक नित्य दधिके हवनसे राजाओंको पुष्टि प्राप्त होती है, दुग्धके हवनसे शान्ति होती है और घृतके हवनसे उनके सभी रोगोंका नाश होता है। वर्षपर्यन्त तिलोंके हवनसे राजयक्ष्मा नष्ट होता है, जौके हवनसे आयु प्राप्त होती है और घृतके हवनसे विजय मिलती है। सभी प्रकारके कुष्ठोंक नाशके लिये नियमसे युक्त रहकर छ: मासतक प्रतिदिन मधुमिश्रित चावलोंसे दस हजार आहुति प्रदान करनी चाहिये। घृत, दुग्ध और मधुको मधुरत्रय कहा जाता है। इसके हवनसे उस व्यक्तिका भगन्दर रोग नष्ट हो जाता है और सभी लोग उस व्यक्तिसे सन्तुष्ट रहते हैं। केवल घृतके होमसे सभी रोगोंका नष्ट होना बताया गया है। भगवान्‌ अघोरका ध्यान, स्थापन तथा विधिपूर्वक पूजन समस्त कष्टोंको दूर करनेवाला है। हे सुत्रतो! इस प्रकार मेंने संक्षेपमें परमात्मा अघोरके स्थापन तथा पूजनके विषयमें सब कुछ बता दिया, जिसे पूर्वकालमें नन्दीने ब्रह्मपुत्र शिष्य सनत्कुमारसे कहा था और फिर उन्होंने व्यासजीको बताया था॥ ११--१७॥

॥  श्रीलिड्रमहापुराणे उत्तरभागे5योरेशप्रतिष्ठाविधानवर्णन॑ नामेकोनपज्चाशत्तमोउध्याय: ॥ ४९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत उत्तभागमें (अधोरेशप्रतिष्ठाविधानवर्णन ' नामक उनचासवां अध्याय पूर्णहुआ॥ ४९

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