लिंग पुराण : मृत्युं जय हवन-विधान | Linga Purana: Mrityum Jai Havan-Vidhan

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग तिरपनवाँ अध्याय

मृत्युंजयहवन-विधान

मृत्युञ्जयविधिं सूत ब्रह्मक्षत्रविशामपि। 
वक्तुमर्हसि चास्माकं सर्वज्ञोऽसि महामते ॥ १

ऋषिगण बोले- हे सूतजी। ब्राह्मणों, क्षत्रियों और वैश्योंके कल्याणके लिये आप हमलोगोंको मृत्युंजयविधि बतानेकी कृपा कीजिये: है महामते। आप सर्वज्ञ हैं॥ १॥

सूत उवाच

मृत्युञ्जयविधिं वक्ष्ये बहुना किं द्विजोत्तमाः। 
रुद्राध्यायेन विधिना घृतेन नियुतं क्रमात् ॥ २

सघृतेन तिलेनैव कमलेन प्रयत्नतः ।
दूर्वया घृतगोक्षीरमिश्रया मधुना तथा ॥ ३

चरुणा सघृतेनैव केवलं पयसापि वा। 
जुहुयात्कालमृत्योर्वा प्रतीकारः प्रकीर्तितः ॥ ४

सुतजी बोले- हे उत्तम द्विजो। मैं [आपलोगोंको] मृत्युंजय विधान बताऊँगा; बहुत कहनेसे क्या लाभ। रुद्राध्यायके मन्त्रोंद्वार। धृत्तसे एक लाख बार क्रमशः हवन करे अथवा घृतमिश्रित तिलसे, कमल पुष्पसे, गायके घी तथा दूधसे मिश्रित दूर्वासे, मधुसे, घृतयुक्त चरुसे अथवा केवल दुग्धसे ही प्रयत्नपूर्वक हवन करना चाहिये। इस विधानको कालमृत्यु अथवा महामृत्युका प्रतीकार कहा गया है॥ २-४॥

। इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे मृत्युञ्जयविधिवर्णनं नाम त्रिपञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'मृत्युंजयविधिवर्णन' नामक तिरपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५३॥

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