श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग पचपनवाँ अध्याय
योगमार्गके द्वारा भगवान् महेश्वरके ध्यानकी विधि, पाँच प्रकारके योग, शिवपाशुपत- योगकी महिमा, श्रीलिङ्गमहापुराणका परिचय तथा श्रीलिङ्गमहापुराणके श्रवण एवं पठनका माहात्म्य
ऋषय ऊचुः
कथं त्रियम्बको देवो देवदेवो वृषध्वजः ।
ध्येयः सर्वार्थसिद्धयर्थ योगमार्गेण सुव्रत ॥ १
पूर्वमेवापि निखिलं श्रुतं श्रुतिसमं पुनः।
विस्तरेण च तत्सर्वं सङ्क्षेपाद्वक्तुमर्हसि ।। २
ऋषिगण बोले- हे सुव्रत! सभी मनोरथोंकी सिद्धिके लिये योगमार्गके द्वारा तीन नेत्रोंवाले, देवोंके भी देव तथा कृषकी ध्वजावाले भगवान् शिवका ध्यान किस प्रकार करना चाहिये? पूर्वमें भी हम आपसे वेदतुल्य जो सम्पूर्ण प्रसंग विस्तार पूर्वक सुन चुके हैं, वह सब संक्षेपमें बतानेकी कृपा कीजिये ॥ १-२ ॥
सूत उवाच
एवं पैतामहेनैव नन्दी दिनकरप्रभः।
मेरुपृष्ठे पुरा पृष्टो मुनिसङ्गैः समावृतः ॥ ३
सोऽपि तस्मै कुमाराय ब्रह्मपुत्राय सुव्रताः।
मिथः प्रोवाच भगवान् प्रणताय समाहितः ।।४
सूतजी बोले- हे सुव्रतो। इसी प्रकार पूर्वकालमें मेरुपर्वतके शिखरपर ब्रह्मापुत्र सनत्कुमारने सूर्यके समान प्रभावाले तथा मुनियोंसे घिरे हुए नन्दीसे पूछा था। तब भगवान् नन्दी भी उन विनम्र ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारसे समाहितचित्त होकर कहने लगे ॥ ३-४॥
नन्दिकेश्वर उवाच
एवं पुरा महादेवो भगवान्नीललोहितः ।
गिरिपुत्र्याम्बया देव्या भगवत्यैकशव्यया । ५
पृष्टः कैलासशिखरे हृष्टपुष्टतनूरुहः।
नन्दिकेश्वर बोले- यही बात पूर्व समयमें कैलास शिखरपर एक ही शव्यापर साथ-साथ विराजमान हिमालयपुत्री भगवती देवी पार्वतीने पुलकित रोमोंवाले भगवान् नीललोहित महादेवसे पूछा था ॥५॥
श्रीदेव्युवाच
योगः कतिविधः प्रोक्तस्तत्कथं चैव कीदृशम् ॥ ६
ज्ञानं च मोक्षदं दिव्यं मुच्यन्ते येन जन्तवः।
श्रीभगवानुवाच
प्रथमो मन्त्रयोगश्च स्पर्शयोगो द्वितीयकः ॥ ७
भावयोगस्तृतीयः स्यादभावश्च चतुर्थकः ।
सर्वोत्तमो महायोगः पञ्चमः परिकीर्तितः ॥ ८
श्रीदेवी बोर्ली- योग कितने प्रकारका कहा गया है, उसका स्वरूप कैसा है तथा वह किस प्रकारका है? वह दिव्य तथा मोक्षदायक ज्ञान कैसा है, जिसके द्वारा प्राणी [बन्धनसे] मुक्त हो जाते हैं?॥६॥ श्रीभगवान् बोले-पहला मन्त्रयोग है, दूसरा स्पर्शयोग है, तीसरा भावयोग है और चौथा अभाव- योग है; पाँचवाँ महायोग है, जो सर्वोत्तम कहा गया है॥६-८॥
ध्यानयुक्तो जपाभ्यासो मन्त्रयोगः प्रकीर्तितः ।
नाडीशुद्धयधिको यस्तु रेचकादिक्रमान्वितः ॥ ९
समस्तव्यस्तयोगेन जयो वायोः प्रकीर्तितः ।
बलस्थिरक्रियायुक्तो धारणाद्यैश्च शोभनैः ॥ १०
धारणात्रयसन्दीप्तो भेदत्रयविशोधकः ।
कुम्भकावस्थितोऽभ्यासः स्पर्शयोगः प्रकीर्तितः ।। ११
मन्त्रस्पर्शविनिर्मुक्तो महादेवं समाश्रितः ।
बहिरन्तर्विभागस्थस्फुरत्संहरणात्मकः ॥१२
भावयोगः समाख्यातश्चित्तशुद्धिप्रदायकः ।
विलीनावयवं सर्वं जगत्स्थावरजङ्गमम् ॥ १३
शून्यं सर्वं निराभासं स्वरूपं यत्र चिन्त्यते।
अभावयोगः सम्प्रोक्तश्चित्तनिर्वाणकारकः ॥ १४
नीरूपः केवलः शुद्धः स्वच्छन्दं च सुशोभनः ।
अनिर्देश्यः सदालोकः स्वयंवेद्यः समन्ततः ॥ १५
स्वभावो भासते यत्र महायोगः प्रकीर्तितः ।
नित्योदितः स्वयंज्योतिः सर्वचित्तसमुत्थितः ॥ १६
ध्यानसे युक्त जपका अभ्यास मन्त्रयोग कहा गया है। रेचक आदि प्राणायामके द्वारा नाड़ियोंका शुद्धीकरण समस्त-व्यस्त-योगसे प्राणका विजय कहा गया है। वाजीकरण क्रियासे युक्त [वीर्यस्तम्भनरूप] शोभन धारणादि अंगोंसे सम्पन्न, सात्विक आदि त्रिविध धारणासे प्रकाशित, विश्व प्राज्ञ तैजसरूप भेदत्रयका शोधक, कुम्भकमें स्थित ध्यानाभ्यास ही स्पर्शयोग कहा गया है। मन्त्र तथा स्पर्शयोगसे पृथक्, महादेवपर अवलम्बित, बाहर तथा भीतरकी दशाके स्फुरण तथा संहरणसे युक्त और चित्तको शुद्धि प्रदान करनेवाला योग भावयोग कहा गया है। चराचर सम्पूर्ण जगत् जिसमें विलीन है, जिसमें सम्पूर्ण स्वरूपका शून्य तथा आभासहीन रूपमें चिन्तन किया जाता है, चित्तका निर्वाण करनेवाले उस योगको अभावयोग कहा गया है। जो रूपहीन, अद्वितीय, निर्मल, स्वतन्त्र, अत्यन्त सुन्दर, अनिर्देश्य, सर्वदा प्रकाशमान, हर प्रकारसे स्वर्य जाननेयोग्य है तथा जिसमें अपनी आत्माकी सत्ता भासित होती है, उसे महायोग कहा गया है। आत्मा सदा प्रकाशित है, स्वयं ज्योतिर्मय है, सम्पूर्ण चित्तोंसे ऊपर उठा हुआ है, विशुद्ध है तथा अद्वितीय है-यह अनुभव होना महायोग कहा गया है॥ ९-१६ ॥
निर्मलः केवलो ह्यात्मा महायोग इति स्मृतः ।
अणिमादिप्रदाः सर्वे सर्वे ज्ञानस्य दायकाः ॥ १७
उत्तरोत्तरवैशिष्ट्यमेषु योगेष्वनुक्रमात् ।
अहं सङ्गविनिर्मुक्तो महाकाशोपमः परः ॥ १८
सर्वांवरणनिर्मुक्तो ह्याचिन्त्यः स्वरसेन तु।
ज्ञेयमेतत्समाख्यातमग्राह्यमपि दैवतैः ।। १९
प्रविलीनो महान् सम्यक् स्वयंवेद्यः स्वसाक्षिकः ।
चकास्त्यानन्दवपुषा तेन ज्ञेयमिदं मतम् ॥ २०
परीक्षिताय शिष्याय ब्राह्मणायाहिताग्नये।
धार्मिकायाकृतघ्नाय दातव्यं क्रमपूर्वकम् ॥ २१
गुरुदैवतभक्ताय अन्यथा नैव दापयेत्।
निन्दितो व्याधितोऽल्पायुस्तथा चैव प्रजायते ॥ २२
दातुरप्येवमनघे तस्माज्ञात्वैव दापयेत्।
सर्वसङ्गविनिर्मुक्तो मद्भक्तो मत्परायणः ॥ २३
साधको ज्ञानसंयुक्तः श्रौतस्मार्तविशारदः ।
गुरुभक्तश्च पुण्यात्मा योग्यो योगरतः सदा ॥ २४
ये सभी योग अणिमा आदि सिद्धियोंको देनेवाले तथा ज्ञान प्रदान करनेवाले हैं। इन योगोंमें क्रमशः एकके बाद दूसरेमें पूर्वकी अपेक्षा वैशिष्ट्य है। यह महायोग अहंके संगसे रहित, महान् आकाशके तुल्य, सर्वोत्कृष्ट, समस्त आवरणोंसे मुक्त और यथार्थतः अचिन्त्य है। उस ज्ञानको देवताओंके द्वारा भी अग्राह्म कहा गया है। यह परमात्मामें विलीन कर देनेवाला, महान्, स्वयंवेद्य तथा स्वयं अपना साक्षी है और आनन्दपूर्ण शरीरसे प्रकाशित होनेवाला है। यह अहंकाररहित पुरुषके द्वारा ही जाननेयोग्य है। [मेरे द्वारा उपदिष्ट] इस मत (ज्ञान) को परीक्षा किये गये शिष्य, अग्निहोत्री ब्राह्मण, धर्मपरायण, कृतज्ञ और गुरु-देवताकेः प्रति भक्ति रखनेवाले व्यक्तिको ही प्रदान करना चाहिये; अन्यको कभी नहीं देना चाहिये। अनधिकारी व्यक्ति निन्दित, रोगसे पीड़ित तथा अल्प आयुवाला होता है और इसे प्रदान करनेवालेकी भी यही दशा होती है; हे अनथे। इसलिये पूर्णरूपसे परीक्षा करके ही इसे देना चाहिये। इसे प्राप्त करनेवाला मनुष्य सम्पूर्ण आसक्तियोंसे रहित, मेरा भक्त, मेरे प्रति परायण, साधक, ज्ञानवान्, श्रुति-स्मृतिसम्बन्धी कर्मोंका ज्ञान रखनेवाला, गुरुमें भक्ति रखनेवाला, पुण्यात्मा, योग्यतासम्पन्न तथा सर्वदा योगमें निरत रहनेवाला होता है ॥ १७-२४॥
एवं देवि समाख्यातो योगमार्गः सनातनः।
सर्ववेदागमाम्भोजमकरन्दः सुमध्यमे ॥ २५
पीत्वा योगामृतं योगी मुच्यते ब्रह्मवित्तमः ।
एवं पाशुपतं योगं योगैश्वर्यमनुत्तमम् ॥ २६
अत्याश्रममिदं ज्ञेयं मुक्तये केन लभ्यते।
तस्मादिष्टैः समाचारैः शिवार्चनरतैः प्रिये ॥ २७
इत्युक्त्वा भगवान् देवीमनुज्ञाप्य वृषध्वजः ।
शङ्कुकर्णं समासाद्य युद्योजात्मानमात्मनि ॥ २८
हे देवि! है सुमध्यमे। इस प्रकार यह योगमार्ग सनातन और समस्त वेद तथा आगमरूपी कमलका मकरन्द कहा गया है। इस योगरूपी अमृतका पान करके ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ योगी [भवबन्धनसे] मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस प्रकार यह पाशुपतयोग समस्त योगोंका ऐश्वर्य प्रदान करनेवाला तथा सर्वोत्कृष्ट है। इसे ब्रह्मचर्य आदि किसी आश्रमकी अपेक्षा न रखनेवाला जानना चाहिये। अतः हे प्रिये। यह सभी प्राणियोंके हितकी कामना करनेवाले शिवपूजापरायण लोगोंको किसी अनिर्वचनीय सौभाग्यसे ही मुक्तिके लिये प्राप्त होता है। ऐसा कहनेके पश्चात् वृषध्वज भगवान् शिव देवी पार्वतीसे आज्ञा लेकर और अपने गण शंकुकर्णको द्वारपर नियुक्त करके स्वयं समाधिमें लीन हो गये ॥ २५-२८ ॥
शैलादिरुवाच
तस्मात्त्वमपि योगीन्द्र योगाभ्यासरतो भव।
स्वयम्भुव परा मूर्तिर्नूनं ब्रह्ममयी वरा ॥ २९
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन मोक्षार्थी पुरुषोत्तमः।
भस्मस्नायी भवेन्नित्यं योगे पाशुपते रतः ॥ ३०
ध्येया यथाक्रमेणैव वैष्णवी च ततः परा।
माहेश्वरी परा पश्चात्सैव ध्येया यथाक्रमम् ॥ ३१
योगेश्वरस्य या निष्ठा सैषा संहत्य वर्णिता ॥ ३२
शैलादि बोले- अतएव हे योगीन्द्र! आप भी योगाभ्यासमें संलग्न हो जाइये। स्वयंभू शिवकी परामूर्ति निश्चितरूपसे श्रेष्ठ तथा ब्रह्ममयी है। अतः मोक्षकी कामना करनेवाले श्रेष्ठ पुरुषको पूर्ण प्रयत्नसे भस्म- स्नान करके पाशुपतयोगमें नित्य संलग्न रहना चाहिये। सर्वप्रथम ब्राह्मी शक्तिका ध्यान करना चाहिये, इसके बाद परा वैष्णवी शक्तिका और तत्पश्चात् परा माहेश्वरी शक्तिका ध्यान करना चाहिये। इस प्रकार योगेश्वर शिवकी जो पराकाष्ठा है, उसका मैंने संक्षेपमें वर्णन कर दिया ॥ २९-३२॥
सूत उवाच
एवं शिलादपुत्रेण नन्दिना कुलनन्दिना।
योगः पाशुपतः प्रोक्तो भस्मनिष्ठेन धीमता ॥ ३३
सनत्कुमारो भगवान् व्यासायामिततेजसे ।
तस्मादहमपि श्रुत्वा नियोगात्सत्रिणामपि ।। ३४
कृतकृत्योऽस्मि विप्रेभ्यो नमो यज्ञेभ्य एव च।
नमः शिवाय शान्ताय व्यासाय मुनये नमः ॥ ३५
सूतजी बोले- इस प्रकार अपने कुलको आनन्द प्रदान करनेवाले भस्मधारी शिलादपुत्र बुद्धिमान् नन्दौने सनत्कुमारसे पाशुपतयोगका वर्णन किया। भगवान् सनत्कुमारने अमित तेजवाले व्यासजीको इसे बताया और उनसे सुनकर उनके आदेशसे मैंने यज्ञ- सत्रमें उपस्थित मुनियोंको बताया। मैं कृतकृत्य हूँ। विप्रोंको नगरकार है, यज्ञोंको नमस्कार है, शान्त शिवको नमस्कार है और व्यासमुनिको नमस्कार है ॥ ३३-३५ ॥
ग्रन्थैकादशसाहस्त्रं पुराणं लैङ्गमुत्तमम्।
अष्टोत्तरशताध्यायमादिमांशमतः परम् ॥ ३६
षट्चत्वारिंशदध्यायं धर्मकामार्थमोक्षदम् ।
अथ ते मुनयः सर्वे नैमिषेयाः समाहिताः ।। ३७
प्रणेमुर्देवमीशानं प्रीतिकण्टकितत्वचः ।
शाखां पौराणिकीमेवं कृत्वैकादशिकां प्रभुः ॥ ३८
ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवानिदं वचनमब्रवीत् ।
लैङ्गमाद्यन्तमखिलं यः पठेच्छृणुयादपि ॥ ३९
द्विजेभ्यः श्रवयेद्वापि स याति परमां गतिम् ।
तपसा चैव यज्ञेन दानेनाध्ययनेन च ॥ ४०
या गतिस्तस्य विपुला शास्त्रविद्या च वैदिकी।
कर्मणा चापि मिश्रेण केवलं विद्ययापि वा ।। ४१
निवृत्तिश्चास्य विप्रस्य भवेद्धक्तिश्च शाश्वती।
मयि नारायणे देवे श्रद्धा चास्तु महात्मनः ॥ ४२
वंशस्य चाक्षया विद्या चाप्रमादश्च सर्वतः ।
इत्याज्ञा ब्रह्मणस्तस्मात्तस्य सर्वं महात्मनः ॥ ४३
यह उत्तम श्रीलिङ्गपुराण ग्यारह हजार श्लोकोंमें निबद्ध है। इसके प्रथम भागमें एक सौ आठ अध्याय हैं और उत्तर भागमें पचपन अध्याय हैं। यह पुराण धर्म, काम, अर्थ और मोक्ष प्रदान करनेवाला है। तब प्रसन्नताके कारण रोमांचित नैमिषारण्यवासी उन सभी मुनियोंने एकाग्रचित्त होकर भगवान् ईशान (शिव) को प्रणाम किया। पुराणोंकी ग्यारहवीं शाखाकी रचना करके स्वयंभू तथा प्रभुतासम्पन्न भगवान् ब्रह्माने यह वचन कहा था- 'जो मनुष्य इस सम्पूर्ण श्रोलिङ्गपुराणको आदिसे अन्ततक पढ़ता है, सुनता है अथवा द्विजोंको सुनाता है, वह परमगति प्राप्त करता है। तपस्यासे, यज्ञसे, दानसे, वेदाध्ययनसे, उत्तम कर्मसे, कर्म तथा ज्ञानके मिश्रित प्रभावसे अथवा केवल ज्ञानसे उसकी जो गति होती है, वह इस पुराणके पठन-श्रवणसे हो जाती है; उसे विपुल शास्त्रविद्या तथा वैदिकी विद्या प्राप्त हो जाती है; उस विप्रको शाश्वत शिवभक्ति मिल जाती है; उसका मोक्ष हो जाता है और उस महात्माकी ब्रद्धा मुझमें, नारायणमें तथा शिवमें हो जाती है। उसके वंशवें अक्षय विद्या सुलभ रहती है और हर प्रकारसे अप्रमाद विद्यमान रहता है।' यह ब्रह्माजीकी आज्ञा है, अतः यह सब उन्हीं महात्माको कृपासे हुआ है ॥ ३६-४३॥
ऋषय प्रोचुः
ऋषेः सूतस्य चास्माकमेतेषामपि चास्य च।
नारदस्य च या सिद्धिस्तीर्थयात्रारतस्य च ॥ ४४
प्रीतिश्च विपुला यस्मादस्माकं रोमहर्षण ॥ ४५
सा सदास्तु विरूपाक्षप्रसादात्तु समन्ततः ।
एवमुक्तेषु विप्रेषु नारदो भगवानपि ॥ ४६
कराभ्यां सुशुभाग्राभ्यां सूतं पस्पर्शिवांस्त्वचि।
स्वस्त्यस्तु सूत भद्रं ते महादेवे वृषध्वजे ॥ ४७
श्रद्धा तवास्तु चास्माकं नमस्तस्मै शिवाय च ॥ ४८
ऋषिगण बोले- हे रोमहर्षण! आप ऋषि सूतको, हम मुनियोंको, तीर्थयात्रामें रत इन नारदको, जो महान् सिद्धि तथा भगवत्प्रीति प्राप्त हुई; वह विरूपाक्ष भगवान् शिवकी कृपासे चारों ओर विद्यमान रहे। विप्रोंके ऐसा कहनेपर भगवान् नारदने भी अपने पवित्र हाथोंके अग्रभागसे सूतजीके शरीरका स्पर्श किया और इस प्रकार कहा हे सूतजी। आपका मंगल हो, आपका कल्याण हो, वृषध्वज महादेवमें आपकी तथा हमलोगोंकी श्रद्धा रहे; उन भगवान् शिवको नमस्कार है- 'नमस्तस्यै शिवाय च ॥ ४४-४८ ॥
इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभाने पाशुपतयोगमार्गवर्णने लिङ्गपुराण अवणपठनमाहात्यवर्णनं नाम पञ्चपञ्चाशत्तमो ऽध्यायः ॥ ५५ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें पाशुपतयोग मार्ग वर्णन के प्रसंग में 'लिङ्गपुराण श्रवणपठन माहात्म्य वर्णन' नामक पचपनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५५ ॥
॥ सम्पूर्णमिदं श्रीलिङ्गमहापुराणम् ॥ ॥ श्रीलिङ्गमहापुराण पूर्ण हुआ ॥
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