श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग उनतीसवाँ अध्याय
षोडशमहादानान्तर्गत हिरण्य गर्भ दान की विधि
सनत्कुमार उवाच
तुला ते कथिता होषा आद्या सामान्यरूपिणी।
हिरण्यगर्भ वक्ष्यामि द्वितीयं सर्वसिद्धिदम् ॥ १
सनत्कुमार बोले- मैंने आपसे प्रथमतः सामान्यरूपसे तुलादानका वर्णन कर दिया; अब समस्त सिद्धियोंको देनेवाले हिरण्यगर्भदानके विषयमें बताऊँगा ॥ १॥
अधःपात्रं सहस्त्रेण हिरण्येन विधीयते।
ऊर्ध्वपात्रं तदर्धेन मुखं संवेशमात्रकम् ॥ २
इसके लिये हजार स्वर्ण मुद्राओंसे एक नीचेका पात्र बनाना चाहिये और उसके आधे अर्थात् पाँच सौ स्वर्ण मुद्राओंसे उसके प्रवेश-प्रमाण मुखवाला ऊर्ध्वपात्र (ढक्कन) निर्मित कराना चाहिये। उस शुभ स्वर्णपात्रको सभी अलंकारोंसे विभूषित करना चाहिये ॥ २॥
हैममेवं शुभं कुर्यात्सर्वालङ्कारसंयुतम् ।
अधःपात्रे स्मरेद्देवीं गुणत्रयसमन्विताम् ॥ ३
चतुर्विंशतिकां देवीं ब्रह्मविष्ण्वग्निरूपिणीम्।
ऊर्ध्वपात्रे गुणातीतं षड्विंशकमुमापतिम् ॥ ४
तत्पश्चात् नीचेके मुख्य पात्रमें त्रिगुणात्मिका, चतुर्विशति-तत्त्वस्वरूपिणी तथा ब्रह्मा-विष्णु-अग्निस्वरूपा भगवतीका ध्यान करे और ऊपरके पात्रमें छब्बीसवें तत्त्वरूप गुणातीत उमापति सदाशिवका और पचीसवें तत्त्वरूप हिरण्यगर्भ पुरुषका ध्यान करे ॥ ३-४॥
आत्मानं पुरुषं ध्यायेत्पञ्चविंशकमग्रजम् ।
पूर्वोक्तस्थानमध्येऽथ वेदिकोपरि मण्डले ॥ ५
शालिमध्ये क्षिपेन्नीत्वा नववस्त्रैश्च वेष्टयेत् ।
माषकल्केन चालिप्य पञ्चद्रव्येण पूजयेत् ॥ ६
ईशानाद्यैर्यथान्यायं पञ्चभिः परिपूजयेत्।
पूर्ववच्छिवपूजा च होमश्चैव यथाक्रमम् ॥ ७
तदनन्तर पूर्वकी भाँति बताये गये स्थानमें वेदी तथा मण्डल बनाकर पात्रको लेकर शालि (धान) के ऊपर स्थापित कर देना चाहिये और उसे नवीन वस्त्रोंसे बैंक देना चाहिये। पुनः माष (उड़द) के उबटनसे आलेप करके पंचोपचारों से ईशान आदि पाँच मन्त्रोंके द्वारा विधिपूर्वक उस पात्रकी पूजा करनी चाहिये। शिवपूजा तथा होम भी पूर्वकी भाँति क्रमानुसार करना चाहिये ॥ ५-७ ॥
देवीं गायत्रिकां जप्त्वा प्रविशेत्प्राङ्मुखः स्वयम्।
विधिनैव तु सम्पाद्य गर्भाधानादिकां क्रियाम् ॥ ८
कृत्वा षोडशमार्गेण विधिना ब्राह्मणोत्तमः ।
दूर्वाङ्करैस्तु कर्तव्या सेचना दक्षिणे पुटे ॥ ९
औदुम्बरफलैः सार्धमेकविंशत्कुशोदकम् ।
ईशान्यां तावदेवात्र कुर्यात् सीमन्तकर्मणि ॥ १०
उद्वहेत्कन्यकां कृत्वा त्रिंशन्निष्केण शोभनाम् ।
अलङ्कृत्य तथा हुत्वा शिवाय विनिवेदयेत् ॥ ११
अन्नप्राशनके विद्वान् भोजयेत्पायसादिभिः ।
एवं विश्वजितान्ता वै गर्भाधानादिकाः क्रियाः ॥ १२
शक्तिबीजेन कर्तव्या ब्राह्मणैर्वेदपारगैः।
शेष सर्वं च विधिवत्तुलाहेमवदाचरेत् ॥ १३
भगवती गायत्रीका जप करके पूर्वाभिमुख बैठ जाय और स्वयं श्रेष्ठ आचार्य गर्भाधान आदि सोलह संस्कार विधिपूर्वक सम्पन्न करके दूर्वाके अंकुरोंसे दक्षिण पुटमें सेचन करे। गूलरके फलॉसहित इक्कीस कुशाके जलसे ईशान दिशामें सीमन्तकर्म करे। तीस निष्क परिमाणको सुवर्णकी सुन्दर कन्या बनाकर उसे [भूषण-वस्त्र आदिसे] अलंकृत करके हवनकर भगवान् शिवको अर्पित करे। विद्वान्को चाहिये कि अन्नप्राशन संस्कारमें पायस (खीर) आदिका भोजन कराये। इस प्रकार वेदोंके पारगामी ब्राहाणोंको गर्भाधानसे लेकर विश्वजित्पर्यन्त उन सभी संस्कारोंको शक्तिबीजके साथ करना चाहिये। शेष सभी कृत्य स्वर्ण- तुलादानकी भाँति विधिवत् करना चाहिये ॥ ८-१३॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे हिरण्यगर्भदानविधिनवैिकोनत्रिंशोऽध्यायः ॥ २९ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'हिरण्यगर्भदानविधि' नामक उनतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २९ ॥
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