श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग सैंतालीसवाँ अध्याय
लिङ्गमूर्ति की प्रतिष्ठा की विधि
सूत उवाच
इति निशम्य कृताञ्जलयस्तदा दिवि महामुनयः कृतनिश्चयाः ।
शिवतरं शिवमीश्वरमव्ययं मनसि लिङ्गमयं प्रणिपत्य ते ॥१
सकलदेवपतिर्भगवानजो हरिरशेषपतिर्गुरुणा स्वयम् ।
मुनिवराश्च गणाश्च सुरासुरा नरवराः शिवलिङ्गमयाः पुनः ॥ २
सूतजी बोले- यह आकाशवाणी सुनकर दृढ़ संकल्पवाले उन मुनियोंने दोनों हाथ जोड़ लिये। परम कल्याणमय, लिङ्गमय तथा अविनाशी भगवान् शिवको मनमें प्रणाम करके सभी देवताओंके पति इन्द्र, ब्रह्मा, सबके स्वामी भगवान् विष्णु, देवगुरु बृहस्पतिसहित सभी श्रेष्ठ मुनि, सभी गण, देवता, असुर और श्रेष्ठ मनुष्य इन सभीने अपनेको शिवलिङ्गमय अनुभव किया ॥ १-२ ॥
श्रुत्वैवं मुनयः सर्वे षट्कुलीयाः समाहिताः ।
सन्त्यज्य सर्वं देवस्य प्रतिष्ठां कर्तुमुद्यताः ॥ ३
अपृच्छन् सूतमनघं हर्षगद्गदया गिरा।
लिङ्गप्रतिष्ठां विपुलां सर्वे ते शंसितव्रताः ॥ ४
यह सुनकर छहों कुलोंके सभी मुनि सब कुछ छोड़कर समाहितचित्त हो लिङ्गप्रतिष्ठा करनेके लिये उद्यत हुए। संयत व्रतवाले उन सभी मुनियोंने हर्षयुक्त गद्गद वाणीमें पुण्यात्मा सूतजीसे महती लिङ्गप्रतिष्ठाकी विधि पूछी ॥ ३-४ ॥
सूत उवाच
प्रतिष्ठां लिङ्गमूर्तेर्वो यथावदनुपूर्वशः ।
प्रवक्ष्यामि समासेन धर्मकामार्थमुक्तये ॥ ५
कृत्वैव लिङ्गं विधिना भुवि लिङ्गेषु यत्नतः ।
लिङ्गमेकतमं शैलं ब्रह्मविष्णुशिवात्मकम् ॥ ६
हेमरत्नमयं वापि राजतं ताम्रजं तु वा।
सवेदिकं ससूत्रं च सम्यग्विस्तृतमस्तकम् ॥ ७
विशोध्य स्थापयेद्भक्त्या सवेदिकमनुत्तमम्।
लिङ्गवेदी उमा देवी लिङ्ग साक्षान्महेश्वरः ॥ ८
तयोः सम्पूजनादेव देवी देवश्च पूजितौ।
प्रतिष्ठया च देवेशो देव्या सार्धं प्रतिष्ठितः ॥ ९
तस्मात्सवेदिकं लिङ्ग स्थापयेत्स्थापकोत्तमः ॥ १०
सूतजी बोले [हे मुनियो!] धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके लिये मैं आप लोगोंसे संक्षेपमें लिङ्गमूर्तिको प्रतिष्ठाकी विधिका अनुक्रमसे यथावत् वर्णन करूँगा। पृथ्वीलोकमें कहे जानेवाले शैल आदि लिङ्गोंमें पाषाणका, हेमरत्नमय अथवा ताम्रका एक जलहरीसमेत और पंचसूत्र आदिसे युक्त तथा विस्तृत मस्तकवाला ब्रह्म विष्णु-शिवात्मक उत्तम लिङ्ग बनाकर उसे भलीभाँति शोधित करके वेदीसमेत भक्तिपूर्वक स्थापित करे। लिङ्गकी वेदी भगवती उमा हैं और लिङ्ग साक्षात् महेश्वर हैं। उन दोनों (वेदी तथा लिङ्ग) की प्रतिष्ठासे देवी पार्वतीसहित देवेश्वर शिव प्रतिष्ठित हो जाते हैं और उन दोनोंके पूजनसे देवी पार्वती तथा भगवान् शिव स्वयं पूजित हो जाते हैं। अतः श्रेष्ठ स्थापकको वेदीसहित लिङ्गकी प्रतिष्ठा करनी चाहिये ॥ ५-१०॥
मूले ब्रह्मा वसति भगवान् मध्यभागे च विष्णुः
सर्वेशानः पशुपतिरजो रुद्रमूर्तिर्वरेण्यः ।
तस्माल्लिङ्गं गुरुतरतरं पूजयेत्स्थापयेद्वा
यस्मात्पूज्यो गणपतिरसौ देवमुख्यैः समस्तैः ॥ ११
गन्धैः स्त्रग्धूपदीपैः स्नपनहुतबलिस्तोत्रमन्त्रोपहारैर्नित्यं
येऽभ्यर्चयन्ति त्रिदशवरतनुं लिङ्गमूर्ति महेशम्। गर्भा
धानादिनाशक्षयभयरहिता देवगन्धर्वमुख्यैः सिद्धै
बँन्द्याश्च पूज्या गणवरनमितास्ते भवन्त्यप्रमेयाः ॥ १२
तस्माद्भक्त्योपचारेण स्थापवेत्परमेश्वरम् ।
पूजयेच्च विशेषेण लिङ्ग सर्वार्थसिद्धये ॥ १३
शिवलिङ्गके मूलमें ब्रह्मा, मध्यभागमें भगवान् विष्णु और अग्रभागमें सर्वेश्वर रुद्रमूर्ति वरेण्य पशुपति शिव निवास करते हैं। अतः यदि कोई अतिश्रेष्ठ शिवलिङ्गकी स्थापना अथवा पूजा करे, तो वह सभी प्रधान देवताओंका पूज्य और शिवजीका प्रधान गण हो जाता है। जो लोग गन्ध, माल्य, धूप, दीप, स्नान, हवन, नैवेद्य-समर्पण, स्तोत्र, मन्त्र तथा उपहारोंसे देवताओंमें श्रेष्ठ विग्रहवाले लिङ्गमूर्ति महेश्वरका अर्चन करते हैं, वे जन्म-मरण, नाश, क्षय आदिके भयसे रहित हो जाते हैं; प्रधान देवताओं तथा गन्धर्वों और सिद्धोंके बन्दनीय तथा पूजनीय हो जाते हैं; श्रेष्ठ शिवगणोंक नमस्कारयोग्य हो जाते हैं और अपरिमित प्रभाववाले हो जाते हैं। अतः सभी कामनाओंकी सिद्धिके लिये सभी उपचारोंसे भक्तिपूर्वक महेश्वरकी और विशेषरूपसे लिङ्गमूर्तिको स्थापना तथा पूजा करनी चाहिये ॥ ११-१३॥
समर्च्य स्थापयेल्लिङ्ग तीर्थमध्ये शिवासने।
कूर्चवस्त्रादिभिर्लिङ्गमाच्छाद्य कलशैः पुनः ॥ १४
लोकपालादिदैवत्यैः सकूर्वैः साक्षतैः शुभैः ।
उत्कूर्चेः स्वस्तिकाद्यैश्च चित्रतन्तुकवेष्टितैः ।। १५
वज्रादिकायुधोपेतैः सवस्वैः सपिधानकैः ।
लक्षयेत्परितो लिङ्गमीशानेन प्रतिष्ठितम् ॥ १६
धूपदीपसमोपेतं वितानवितताम्बरम् ।
लोकपालध्वजैश्चैव गजादिमहिषादिभिः ।। १७
चित्रितैः पूजितैश्चैव दर्भमाला च शोभना ।
सर्वलक्षणसम्पूर्णा तया बाह्ये च वेष्टयेत् ॥ १८
सम्यक् अर्चन करके तीर्थमें शिवासनपर लिङ्गकी स्थापना करनी चाहिये। कूर्च-वस्त्र आदिसे लिङ्गको आच्छादित करके कूर्चयुक्त, अक्षतयुक्त, स्वस्तिक आदिसे सुशोभित, सुन्दर तन्तुसे वेष्टित, वज्र आदि आयुधोंसे संयुक्त, वस्त्रयुक्त तथा पिधानसमन्वित लोकपाल आदि देवोंके कलशोंसे, ईशानमन्त्रसे प्रतिष्ठित शिवलिङ्गका चारों ओरसे रक्षण करे एक विशाल मण्डपका निर्माण कराये, जो धूप- दीप आदिसे सदा युक्त रहे, पूजित गज-महिष आदिके चित्रोंसे युक्त रहे, लोकपाल आदिके ध्वजोंसे सुशोभित रहे। उस मण्डपके बाहर चारों ओरसे सभी लक्षणोंसे सम्पन्न सुन्दर दर्भमाला वेष्टित कर देनी चाहिये ॥ १४-१८ ॥
ततोऽधिवासयेत्तोये धूपदीपसमन्विते।
पञ्चाहं वा त्र्यहं वाथ एकरात्रमथापि वा ॥ १९
वेदाध्ययनसम्पन्नो नृत्यगीतादिमङ्गलैः ।
किङ्किणीरवकोपेतं तालवीणारवैरपि ॥ २०
ईक्षयेत्कालमव्यग्रो यजमानः समाहितः।
उत्थाप्य स्वस्तिकं ध्यायेन्मण्डपे लक्षणान्विते ॥ २१
संस्कृते वेदिसंयुक्ते नवकुण्डेन संवृते।
पूर्वोक्तविधिना युक्ते सर्वलक्षणसंयुते ॥ २२
अष्टमण्डलसंयुक्ते दिग्ध्वजाष्टकसंयुते ।
पूर्वोक्तलक्षणोपेतैः कुण्डैः प्रागादितः क्रमात् ॥ २३
प्रधानं कुण्डमीशान्यां चतुरस्त्रं विधीयते।
अथवा पञ्चकुण्डैकं स्थण्डिलं चैकमेव च ॥ २४
तदनन्तर उस शिवलिङ्गको पाँच रात अथवा तीन रात अथवा एक रात ही धूप-दीपसे समन्वित जलमें अधिवासित करना चाहिये। यजमानको चाहिये कि वेदाध्ययनपरायण रहते हुए नृत्य, गीत आदि मंगलोंसे, किंकिणीकी ध्वनिसे तथा तालवीणाके स्वरोसे मण्डपको युक्त रखे और अव्यग्र भावसे समय व्यतीत करे। प्रतिष्ठाके समय जलमेंसे शिवलिङ्गको निकालकर समाहितचित्त होकर पुण्याहवाचन करे और लिङ्गको मण्डपमें रखे, जो लक्षणोंसे युक्त हो; भलीभाँति परिष्कृत हो; वेदीसे युक्त हो; नौ कुण्डोंसे आवृत हो; पूर्वोक्त विधिसे सभी लक्षणोंसे समन्वित हो; आठों दिग्पालोंके निमित्त आठ मण्डलोंसे सम्पन्न हो और आठों दिशाओंमें लगायी गयी ध्वजाओंसे सुशोभित हो। पूर्व दिशासे क्रमसे प्रारम्भ करके पूर्वोक्त लक्षणोंसे सम्पन्न कुण्डोंसे यह मण्डप युक्त हो। ईशान दिशामें प्रधान कुण्ड बनाया जाता है, जो चौकोर होता है अथवा पाँच कुण्ड एक ओर हों और एक स्थण्डिल हो ॥ १९-२४ ॥
यज्ञोपकरणैः सर्वैः शिवार्चायां हि भूषणैः।
वेदिमध्ये महाशय्यां पञ्चतूलीप्रकल्पिताम् ॥ २५
कल्पयेत्काञ्चनोपेतां सितवस्त्रावगुण्ठिताम् ।
प्रकल्प्यैवं शिवं चैव स्थापयेत्परमेश्वरम् ॥ २६
प्राक्शिरस्कं न्यसेल्लिङ्गमीशानेन यथाविधि।
रत्नन्यासे कृते पूर्व केवलं कलशं न्यसेत् ॥ २७
लिङ्गमाच्छाद्य वस्त्राभ्यां कूर्चेन च समन्ततः ।
रत्नन्यासे प्रसक्तेऽथ वामाद्या नव शक्तयः ॥ २८
नवरत्नं हिरण्याडौः पञ्चगव्येन संयुतैः।
सर्वधान्यसमोपेतं शिलायामपि विन्यसेत् ॥ २९
स्थापयेद्ब्रह्मलिङ्गं हि शिवगायत्रिसंयुतम्।
शिव की अर्चा में समस्त यज्ञोपकरणों तथा भूषणों से युक्त महाशय्या वेदीके मध्य व्यवस्थित करनी चाहिये, जो पासमें रखे हुए पाँच बत्तियोंवाले दीपकसे सुशोभित हो, सुवर्ण-पट्टियोंसे युक्त हो और श्वेत वस्त्रसे आच्छादित हो ऐसी व्यवस्था करके परमेश्वर शिवको स्थापित करना चाहिये लिङ्गके शिरोभागको पूर्वकी और ईशान मन्त्रके द्वारा विधिपूर्वक स्थापित करना चाहिये। रत्लन्यास करनेके बाद मुख्य कलशको स्थापित करना चाहिये। तत्पश्चात् लिङ्गको दो वस्त्रोंद्वारा कुशसहित चारों ओरसे लपेटकर उसपर रखना चाहिये। रत्नन्यास हो जानेके अनन्तर वाम आदि नौ शक्तियोंको स्थापित करना चाहिये। पंचगव्यसे युक्त हिरण्य (सुवर्ण)-सहित नौ रत्नों, पंचगव्य तथा सब प्रकारके धान्य भी आधारशिलापर रखना चाहिये ॥ २५-२९ ॥
केवलं प्रणवेनापि स्थापयेच्छिवमव्ययम् ।। ३०
ब्रह्मजज्ञानमन्त्रेण ब्रह्मभागं प्रभोस्तथा।
विष्णुगायत्रिया भागं वैष्णवं त्वथ विन्यसेत् ॥ ३१
सूत्रे तत्त्वत्रयोपेते प्रणवेन प्रविन्यसेत्।
सर्व नमः शिवायेति नमो हंसः शिवाय च ।। ३२
रुद्राध्यायेन वा सर्व परिमृज्य च विन्यसेत् ।
स्थापयेद्ब्रह्मभिश्चैव कलशान् वै समन्ततः ।। ३३
भक्तको चाहिये कि शिवगायत्रीमन्त्रका उच्चारण करते हुए ब्रह्मलिङ्गको स्थापित करे अथवा केवल प्रणवके द्वारा भी अव्यय शिवको स्थापित करे। प्रभुकी वेदिकाके अधोभागको ब्रह्य जज्ञानं० (यजु० १३।३) मन्त्रके द्वारा तथा मध्य भागको विष्णुगायत्रीमन्त्रके द्वारा विन्यास करे। वैदिकाके ऊर्ध्व-पूर्व-पश्चिम भागका विन्यास प्रणवमन्त्रके द्वारा करे। नमः शिवाय तथा नमो हंसः शिवाय अथवा रुद्राध्यायमन्त्रके द्वारा शिवलिङ्गको शोधित करके स्थापित करे। कलशोंको चारों ओर पंचब्रह्म- मन्त्रोंसे स्थापित करना चाहिये ॥ ३०-३३ ॥
वेदिमध्ये न्यसेत्सर्वान् पूर्वोक्तविधिसंयुतान्।
मध्यकुम्भे शिवं देवीं दक्षिणे परमेश्वरीम् ॥ ३४
स्कन्दं तयोश्च मध्ये तु स्कन्दकुम्भे सुचित्रिते।
ब्रह्माणं स्कन्दकुम्भे वा ईशकुम्भे हरिं तथा ॥ ३५
अथवा शिवकुम्भे च ब्रह्माङ्गानि च विन्यसेत् ।
शिवो महेश्वरश्चैव रुद्रो विष्णुः पितामहः ॥ ३६
ब्रह्माण्येवं समासेन हृदयादीनि चाम्बिका।
वेदिमध्ये न्यसेत्सर्वान् पूर्वोक्तविधिसंयुतान् ॥ ३७
[अब प्रतिमाके स्थापनकी विधि कही जा रही है-] पूर्वोक्त विधिसे वेदीके मध्यमें उन सबको स्थापित करना चाहिये। मध्य कुम्भपर शिवको और दक्षिण कुम्भपर परमेश्वरी देवी शिवाको रखना चाहिये। उन दोनोंके बीचमें अतिसुन्दर स्कन्दकुम्भपर स्कन्द (कार्तिकेय) को रखे अथवा ब्रह्माको स्कन्दकुम्भपर रखे अथवा विष्णुको ईशकुम्भपर रखे अथवा ब्रह्मांगको शिवकुम्भपर रखेः शिव, महेश्वर, रुद्र, विष्णु और पितामह ये ही ब्रह्मांग हैं, हृदय आदि तथा अम्बिका- इन सबको वेदीके मध्यमें पूर्वोक्त रीतिसे स्थापित करे ॥ ३४-३७ ॥
वर्धन्यां स्थापयेद्देवीं गन्धतोयेन पूर्व च।
हिरण्यं रजतं रत्नं शिवकुम्भे प्रविन्यसेत् ॥ ३८
वर्धन्यामपि यत्नेन गायत्र्यङ्गैश्च सुव्रताः।
विद्येश्वरान् दिशां कुम्भे ब्रह्मकूर्चेन पूरिते ॥ ३९
अनन्तेशादिदेवांश्च प्रणवादिनमोऽन्तकम् ।
नववस्त्रं प्रतिघटमष्टकुम्भेषु दापयेत् ॥ ४०
विद्येश्वराणां कुम्भेषु हेमरत्नादि विन्यसेत् ।
वक्त्रक्रमेण होतव्यं गायत्र्यङ्गक्रमेण च ॥ ४१
जयादिस्विष्टपर्यन्तं सर्वं पूर्ववदाचरेत्।
सेचयेच्छिवकुम्भेन वर्धन्या वैष्णवेन च ॥ ४२
पैतामहेन कुम्भेन ब्रह्मभागं विशेषतः ।
विद्येश्वराणां कुम्भैश्च सेचयेत्परमेश्वरम् ।। ४३
सुगन्धित जलसे वर्धनीकुम्भको भरकर उसमें देवीको स्थापित करे। शिवकुम्भमें स्वर्ण, चाँदी और रत्न डालने चाहिये। हे सुव्रतो! वर्धनीकुम्भमें भी यत्नपूर्वक गायत्री और अंगमन्त्रोंद्वारा विद्येश्वरों तथा अष्ट दिक्पालोंको स्थापित करना चाहिये। अनन्त, ईश आदि अन्य देवताओंके नामके आदिमें प्रणव (ॐ) तथा अन्तमें नमः लगाकर ब्रह्मकूर्चसे पूरित दिशा- कुम्भमें स्थापित करे। आठ कुम्भोंमेंसे प्रत्येक कुम्भको नवीन वस्त्रसे ढक दे। विद्येश्वरोंके कुम्भोंमें सुवर्ण, रत्न आदि डाल दे। गायत्रीके अंगन्यास मन्त्रींद्वारा ईशान आदिके मुख क्रमसे जया आदिसे लेकर स्विष्टपर्यंन्त हवन आदि सभी कर्म पूर्वकी भाँति करना चाहिये। शिवकुम्भसे, वर्धनीकुम्भसे, विष्णुकुम्भसे, पितामह- कुम्भसे तथा विद्येश्वरोंके कुम्भोंसे परमेश्वर शिवका अभिषेक करना चाहिये; ब्रह्मकुम्भसे विशेषकर ब्रह्मभागका अभिषेक करना चाहिये ॥ ३८-४३ ॥
विन्यसेत्सर्वमन्त्राणि पूर्ववत्सुसमाहितः ।
पूजयेत्स्नपनं कृत्वा सहस्त्रादिषु सम्भवैः ॥ ४४
दक्षिणा च प्रदातव्या सहस्त्रपणमुत्तमम् ।
इतरेषां तदर्थं स्यात्तदर्थं वा विधीयते ॥ ४५
वस्त्राणि च प्रधानस्य क्षेत्रभूषणगोधनम्।
उत्सवश्च प्रकर्तव्यो होमयागबलिः क्रमात् ॥ ४६
नवाहं वापि सप्ताहमेकार्ह च त्र्यहं तथा।
होमश्च पूर्ववत्प्रोक्तो नित्यमभ्यर्च्य शङ्करम् ॥ ४७
देवानां भास्करादीनां होमं पूर्ववदेव तु।
अभ्यन्तरे तथा बाहो वह्नौ नित्यं समर्चयेत् ॥ ४८
य एवं स्थापयेल्लिङ्गं स एव परमेश्वरः।
तेन देवगणा रुद्रा ऋषयोऽप्सरसस्तथा ॥ ४९
स्थापिताः पूजिताश्चैव त्रैलोक्यं सचराचरम् ॥ ५०
स्वस्थचित्त होकर ईशान आदि मन्त्रोंका पूर्वकी भाँति क्रमसे विन्यास करना चाहिये और हजार कुम्भोंसे स्नान कराकर पूजन करना चाहिये। तदनन्तर आचार्यको एक हजार पणोंकी उत्तम दक्षिणा देनी चाहिये; अन्य लोगोंको उसकी आधी अथवा उसकी भी आधी दक्षिणा देनेका विधान है। शिवका प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रधान ऋत्विज्ञको वस्त्र, भूमि, आभूषण, धेनु आदि देना चाहिये। इसमें महान् उत्सव करना चाहिये और होम, याग तथा बलि क्रमसे नौ दिन अथवा सात दिन अथवा तीन दिन अथवा एक दिन करना चाहिये। प्रतिदिन शिवका पूजन करके पूर्वकी भाँति होम करना बताया गया है। सूर्य आदि देवताओंके निमित्त होम पूर्ववत् करना चाहिये। आभ्यन्तर अग्नि (हृदयाग्नि) तथा बाह्य अग्निमें नित्य शिवका हवन करना चाहिये। जो व्यक्ति इस प्रकार लिङ्गस्थापन करता है, वह साक्षात् परमेश्वर ही है। ऐसा करके उसने मानो सभी देवताओं, रुद्रों, ऋषियों तथा अप्सराओंकी स्थापना तथा पूजा कर ली और चराचरसहित तीनों लोकोंका पूजन कर लिया ॥ ४४-५०॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे लिङ्गस्थापनं नाम सप्तचत्वारिंशोऽध्यायः ॥ ४७ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'लिङ्गस्थापन' नामक सैंतालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ४७ ॥
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