श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग पचासवाँ अध्याय
विभिन्न कामनाओं के लिये अघोर मन्त्र सिद्धि का विधान
ऋषय ऊचुः
निग्रहः कथितस्तेन शिववक्त्रेण शूलिना।
कृतापराधिनां तं तु वक्तुमईसि सुक्रत॥ १
त्वया न विदितं नास्ति लौकिकं वैदिकं तथा।
श्रौतं स्मार्त महाभाग रोमहर्षण सुत्रत॥ २
ऋषिगण बोले--हे सुत्रत! कल्याणरूप मुखवाले भगवान् शिवने अपने अपराध करनेवालोंके लिये जिस दण्डविधान का वर्णन किया है; उसे आप हमें बताने की कृपा करें। हे महाभाग! हे रोमहर्षण! हे सुब्रत! लौकिक, वैदिक, श्रौत तथा स्मार्त-कोई भी बात आपको अविदित नहीं है॥ १-२॥
पुरा भृगुसुतेनोक्तो हिरण्याक्षाय सुव्रताः।
निग्रहो ऽघोरशिष्येण शुक्रेणाक्षयतेजसा ॥ ३
तस्य प्रसादादैत्येन्द्रो हिरण्याक्षः प्रतापवान्।
त्रैलोक्यमखिलं जित्वा सदेवासुरमानुषम् ॥ ४
उत्पाद्य पुत्रं गणपं चान्धकं चारुविक्रमम्।
रराज लोके देवेन वराहेण निषूदितः ॥ ५
सूतजी बोले- हे सुव्रतो। पूर्वकालमें अघोरके शिष्य परम तेजस्वी भूगुपुत्र शुक्राचार्यने हिरण्याक्षको इस निग्रह (दण्डविधान) का उपदेश किया था। उसके प्रभावसे दैत्यराज हिरण्याक्ष प्रतापी हो गया और देवता, असुर तथा मनुष्योंसहित सम्पूर्ण त्रिलोकीको जीतकर महान् पराक्रमी तथा गणाधिपति अन्धक नामक पुत्रको उत्पन्न करके संसारमें राज्य करने लगा। बादमें वाराहरूपधारी भगवान् विष्णुने उसका वध कर दिया ॥ ३-५ ॥
स्त्रीबाधां बालबाधां च गवामपि विशेषतः ।
कुर्वतो नास्ति विजयो मार्गेणानेन भूतले ॥ ६
तेन दैत्येन सा देवी धरा नीता रसातलम् ।
तेनाघोरेण देवेन निष्फलो निग्रहः कृतः ॥ ७
संवत्सरसहस्त्रान्ते वराहेण च सूदितः।
तस्मादघोरसिद्धयर्थं ब्राह्मणान्नैव बाधयेत् ॥ ८
पृथ्वीलोकमें इस [अनीतिपूर्ण] मार्गसे स्त्री, बालक तथा विशेषकर गौओंको पौड़ा पहुँचानेवालेकी विजय नहीं होती। वह दैत्य देवो पृथ्वीको रसातलमें उठा ले गया था। इस कारण देव अघोरने उसके [पृथ्वी-हरणस्वरूप] निग्रहको निष्फल कर दिया। एक हजार वर्षके पश्चात् भगवान् वाराहके द्वारा वह मारा गया। अतः अघोरसिद्धिके लिये ब्राह्मणों तथा विशेषकर स्वियोंको पीड़ा नहीं पहुँचानी चाहिये; गौओंको तो कभी नहीं पीड़ित करना चाहिये ॥ ६-८ ॥
स्त्रीणामपि विशेषेण गवामपि न कारयेत्।
गुह्याद्गुह्यतमं गोप्यमतिगुह्यं वदामि वः ॥ ९
आततायिनमुद्दिश्य कर्तव्यं नृपसत्तमैः।
ब्राह्मणेभ्यो न कर्तव्यं स्वराष्ट्रेशस्य वा पुनः ।। १०
अतीव दुर्जये प्राप्ते बले सर्वे निषूदिते।
अधर्मयुद्धे सम्प्राप्ते कुर्याद्विधिमनुत्तमम् ॥ ११
अघृणेनैव कर्तव्यो ह्याघृणेनैव कारयेत्।
कृतमात्रे न सन्देहो निग्रहः सम्प्रजायते ॥ १२
लक्षमात्रं पुमाञ्जप्त्वा अघोरं घोररूपिणम्।
दशांशं विधिना हुत्वा तिलेन द्विजसत्तमाः ॥ १३
सम्पूज्य लक्षपुष्येण सितेन विधिपूर्वकम् ।
बाणलिङ्गेऽथवा वह्रौ दक्षिणामूर्तिमाश्रितः ।। १४
सिद्धमन्त्रोऽन्यथा नास्ति द्रष्टा सिद्धयादयः पुनः ।
सिद्धमन्त्रः स्वयं कुर्यात्प्रेतस्थाने विशेषतः ।। १५
मातृस्थानेऽपि वा विद्वान् वेदवेदाङ्गपारगः।
केवलं मन्त्रसिद्धो वा ब्राह्मणः शिवभावितः ॥ १६
[हे मुनियो!] गोपनीयसे भी परम गोपनीय रहस्य मैं आप लोगोंको बता रहा हूँ। श्रेष्ठ राजाओंको चाहिये कि अपनेको मारनेके लिये उद्यत आततायीके लिये यह निग्रह-विधान करे। ब्राह्मणोंके लिये तथा अपने राष्ट्रके स्वामीके लिये इसका प्रयोग नहीं करना चाहिये। महान् पराजयकी स्थिति आ जानेपर, सम्पूर्ण सेनाके नष्ट हो जानेपर अथवा [शत्रुद्वारा] अधर्म युद्ध किये जानेपर इस अत्युत्तम विधानको करना चाहिये। इस निग्रह-विधिको क्रूर व्यक्ति ही करे अथवा इसे किसी क्रूर स्वभाववाले ब्राह्मणसे कराये। इसके कर लिये जानेपर निग्रह हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है॥ ९-१२॥ है श्रेष्ठ द्विजो! भयंकर रूपवाले अघोर मन्त्रका एक लाख जप करके और विधिपूर्वक तिलके द्वारा उसके दशांश (दस हजार) से हवन करके और पुनः बाणलिङ्ग, अग्नि अथवा दक्षिणामूर्ति प्रतिमापर एक लाख श्वेत पुष्पोंके अर्पणद्वारा विधिपूर्वक पूजा करके मनुष्य सिद्धमन्त्र हो जाता है; अन्यथा उसका मन्त्र सिद्ध नहीं होता। वेद-वेदांगमें पारंगत विद्वान् व्यक्तिको चाहिये कि सिद्धमन्त्र होनेके लिये इसे प्रेतस्थान अथवा मातृस्थानमें स्वयं करे; अथवा मन्त्रसिद्ध शिवभक्त बुद्धिमान् ब्राह्मण अपने अथवा राजाके उपकारके लिये इस विधिको सम्पन्न करे ॥ १-१६ ॥
कुर्याद्विधिमिमं धीमानात्मनोऽर्थं नृपस्य वा।
शूलाष्टकं न्यसेद्विद्वान् पूर्वांदीशानकान्तकम् ॥ १७
त्रिशिखं च त्रिशूलं च चतुर्विशच्छिखाग्रतः ।
अधोरविग्रहं कृत्वा सङ्कलीकृतविग्रहः ।। १८
सर्वनाशकरं ध्यात्वा सर्वकर्माणि कारयेत्।
कालाग्निकोटिसङ्काशं स्वदेहमपि भावयेत् ॥ १९
[अब निग्रहविधान बताया जाता है। विद्वान् व्यक्ति पूर्वसे आरम्भ करके ईशान [उत्तर-पूर्व] कोणपर समाप्त होनेवाले आठों दिशाओंमें आठ शूल स्थापित करे। त्रिशूलोंके चौबीस किनारोंक सिरॉपर तीन शिखावाले त्रिशूल बनाये। ऐसा त्रिशूलधारी अघोर-विग्रह बनाकर स्वयं संकुचित विग्रहवाला होकर सबका नाश करनेवाले अघोरेश्वरका ध्यान करनेके पश्चात् सभी कार्य करे। साधकको भी चाहिये कि अपने शरीरको करोड़ कालाग्निके समान अनुभव करे ॥ १७-१९॥
शूलं कपालं पाशं च दण्डं चैव शरासनम् ।
बाणं डमरुकं खड्गमष्टायुधमनुक्रमात् ॥ २०
अष्टहस्तश्च वरदो नीलकण्ठो दिगम्बरः ।
पञ्चतत्त्वसमारूढो ह्यर्थचन्द्रधरः प्रभुः ॥ २१
दंष्ट्राकरालवदनो रौद्रदृष्टिर्भयङ्करः ।
हुंफट्कारमहाशब्दशब्दिताखिलदिङ्मुखः ॥ २२
त्रिनेत्रं नागपाशेन सुबद्धमुकुटं स्वयम्।
सर्वाभरणसम्पन्नं प्रेतभस्मावगुण्ठितम् ॥ २३
भूतैः प्रेतैः पिशाचैश्च डाकिनीभिश्च राक्षसैः ।
संवृतं गजकुकृत्त्या च सर्पभूषणभूषितम् ॥। २४
वृश्चिकाभरणं देवं नीलनीरदनिस्वनम् ।
नीलाञ्जनाद्रिसङ्काशं सिंहचमर्मोत्तरीयकम् ॥ २५
ध्यायेदेवमघोरेशं घोरघोरतरं शिवम्।
षत्रिंशदुक्तमात्राभिः प्राणायामेन सुव्रताः ॥ २६
उन्होंने शूल, कपाल, पाश, दण्ड, धनुष, बाण, डमरू तथा खड्ग-क्रमसे ये आठ आयुध धारण कर रखे है; वरदायक वे प्रभु आठ भुजाओंसे युक्त हैं; उनका कण्ठ नील वर्णका है, वे दिगम्बर हैं; वे पृथ्वी आदि पंचतत्त्वोंसे समन्वित नन्दिकेश्वरपर आरूढ़ हैं; उन प्रभुने अपने मस्तकपर अर्धचन्द्रमाको धारण कर रखा है; वे विशाल दंष्ट्राओंसे युक्त भयावह मुखवाले हैं; वे भयानक दृष्टिवाले हैं; वे भयंकर हैं; वे हुं फट् इन महाशब्दोंसे सभी दिशाओंको मुखरित कर रहे हैं; वे तीन नेत्रोंसे सम्पन्न हैं; उन्होंने नागपाशसे अपने मुकुटको भलीभाँति बाँध रखा है; वे सभी प्रकारके आभरणोंसे सम्पन्न हैं; वे चिताभस्म लगाये हुए हैं; वे भूतों, प्रेतों, पिशाचों, डाकिनियों तथा राक्षसोंसे घिरे हुए हैं; वे गजचर्म पहने हुए हैं; सर्प तथा बिच्छूके आभूषणसे अलंकृत हैं; वे जलमय मेघोंक समान गर्जन कर रहे हैं: ये नीलांजनके पर्वतसदृश विग्रहवाले हैं; वे सिंहचर्मका उत्तरीय धारण किये हुए हैं- हे सुव्रतो ! पूरक, कुम्भक, रेचक-भेदसे कही गयी छत्तीस मात्राओंक साथ प्राणायामके द्वारा इस प्रकारके अत्यन्त भयंकर रूपवाले अघोरेश्वर भगवान् शिवका ध्यान करना चाहिये। साधकको चाहिये कि महामुद्रासे युक्त होकर समस्त कृत्य सम्पन्न करे ॥ २०-२६॥
महामुद्रासमायुक्तः सर्वकर्माणि कारयेत्।
सिद्धमन्त्रश्चिताग्नौ वा प्रेतस्थाने यथाविधि ॥ २७
स्थापयेन्मध्यदेशे तु ऐन्द्रे याम्ये च वारुणे।
कौबेर्या विधिवत्कृत्वा होमकुण्डानि शास्त्रतः ॥ २८
आचायों मध्यकुण्डे तु साथकाश्च दिशासु वै।
परिस्तीर्य विलोमेन पूर्ववच्छूलसम्भृतः ॥ २९
कालाग्निपीठमध्यस्थः स्वयं शिष्यैश्च तादृशैः ।
ध्यात्वा घोरमघोरेशं द्वात्रिंशाक्षरसंयुतम् ॥ ३०
विभीतकेन वै कृत्वा द्वादशाङ्गुलमानतः ।
पीठे न्यस्य नृपेन्द्रस्य शत्रुमङ्गारकेण तु ॥ ३१
कुण्डस्याधः खनेच्छत्रु ब्राह्मणः क्रोधमूच्छितः ।
अधोमुखोर्ध्वपादं तु सर्वकुण्डेषु यत्नतः ॥ ३२
श्मशानाङ्गारमानीय तुषेण सह दाहयेत्।
तत्राग्निं स्थापयेत्तूष्णीं ब्रह्मचर्यपरायणः ॥ ३३
सिद्धमन्त्र-साधक चिताग्निमें अथवा प्रेतस्थानमें यथाविधि मूर्ति स्थापित करे। पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर दिशाओंमें और मध्यमें पाँच होमकुण्ड विधिवत् शास्त्रानुसार बनाकर अग्नि स्थापित करे। आचार्य मध्यदेशके कुण्डके सामने और अन्य ऋत्विञ् चारों दिशाओंके कुण्डोंके सामने बैठें। वह कुशोंको विलोम क्रमले बिछाकर शूलको पकड़ ले। वह स्वयं कालाग्निपीठके मध्य अपने ही सदृश शिष्योंके साथ बैठे। तत्पश्चात् बत्तीस अक्षरोंवाले अघोरमन्त्रसे अघोरेश्वरका ध्यान करके बहेड़ेकी शाखाके बारह अंगुल मापके टुकड़े करके अपने राजाके शत्रुको प्रतिकृति बनाकर कुण्डमें अंगारके साथ पीठपर रखकर वह ब्राह्मण क्रोधयुक्त होकर कुण्डके अन्दर ऊपरकी और पैर तथा नीचेकी ओर मुख करके उस प्रतिकृतिको सभी कुण्डोंमें यलपूर्वक गाड़ दे। तदनन्तर श्मशानसे अग्नि लाकर धानकी भूसीके साथ जला दे। साधक ब्रह्मचर्यपरायण होकर मौन-भावसे वहाँ अग्नि स्थापित करे ॥ २७-३३ ॥
मायूरास्त्रेण नाभ्यां तु ज्वलनं दीपयेत्ततः ।
कञ्चुकं तुषसंयुक्तैः कार्पासास्थिसमन्वितैः ।। ३४
रक्तवस्त्रसमं मिश्रहोंमद्रव्यैर्विशेषतः ।
हस्तयन्त्रोद्भवैस्तैलैः सह होमं तु कारयेत् ॥ ३५
अष्टोत्तरसहस्त्रं तु होमयेदनुपूर्वशः ।
कृष्णपक्षे चतुर्दश्यां समारभ्य यथाक्रमम् ॥ ३६
अष्टम्यन्तं तथाङ्गारमण्डलस्थानवर्जितः ।
एवं कृते नृपेन्द्रस्य शत्रवः कुलजैः सह ॥ ३७
तत्पश्चात् रक्तवस्त्र ओढ़कर साधक कुण्डको नाभिमें मयूरास्त्रसे, भूसी तथा कपासके बीजोंसे अग्निको प्रज्वलित करे, इसके बाद हाथके यन्त्रसे निकाले गये विविध तेलों तथा रक्तवस्त्रके साथ अन्य हवन- सामग्रियोंको मिश्रित करके शिष्यके साथ होम करे। कृष्णपक्षमें चतुर्दशीसे आरम्भ करके अष्टमीतक क्रमशः एक हजार आठ बार हवन करे; अंगार-मण्डलकी जगहका स्पर्श न करे। इस कर्मके सम्पन्न कर लेनेपर उस राजाके शत्रु अपने परिवारजनोंसहित सभी कष्टोंसे पीड़ित होकर यमलोकको प्राप्त होते हैं॥ ३४-३७ ॥
सर्वदुःखसमोपेताः प्रयान्ति यमसादनम्।
मन्त्रेणानेन चादाय नृकपाले नखं तथा। ३८
केशं नृणां तथाङ्गारं तुषं कञ्चुकमेव च।
चीरच्छटां राजधूलीं गृहसम्मार्जनस्य वा ॥ ३९
विषसर्पस्य दन्तानि वृषदन्तानि यानि तु।
गवां चैव क्रमेणैव व्याघ्रदन्तनखानि च ।। ४०
तथा कृष्णमृगाणां च बिडालस्य च पूर्ववत् ।
नकुलस्य च दन्तानि वराहस्य विशेषतः ॥ ४१
दंष्ट्राणि साधयित्वा तु मन्त्रेणानेन सुव्रताः ।
जपेदष्टोत्तरशतं मन्त्रं चाघोरमुत्तमम् ॥ ४२
हे सुव्रतो! इस अघोर मन्त्रका जप करते हुए नाखून, मनुष्यका बाल, अंगार, भूसी, साँपके केचुल, वस्त्रसे झाड़ी गयी धूल, राजमार्गकी धूल, गृहसम्मार्जनकी धूल, विषैले साँपके दाँत, बैलोंके दाँत, गायके दाँत, बाधके दाँत और नाखून, काले हिरन-बिल्ली-नेवले तथा विशेषकर सूअरके दाँतको मृत मनुष्यके कपालमें ले करके और इसी मन्त्रसे इन सबको साधकर उत्तम अघोर मन्त्रको एक सौ आठ बार जपना चाहिये ॥ ३८-४२॥
तत्कपालं नखं क्षेत्रे गृहे वा नगरेऽपि वा।
प्रेतस्थानेऽपि वा राष्ठे मृतवस्त्रेण वेष्टयेत् ॥ ४३
शत्रोरष्टमराशी वा परिविष्टे दिवाकरे।
सोमे वा परिविष्टे तु मन्त्रेणानेन सुव्रताः ॥ ४४
स्थाननाशो भवेत्तस्य शत्रोर्नाशश्च जायते।
शत्रु राज्ञः समालिख्य गमने समवस्थिते ॥ ४५
भूतले दर्पणप्रख्ये वितानोपरि शोभिते।
चतुस्तोरणसंयुक्ते दर्भमालासमावृते ।। ४६
वेदाध्ययनसम्पन्ने राष्ट्रे वृद्धिप्रकाशके।
दक्षिणेन तु पादेन मूर्छिन सन्ताडयेत्स्वयम् ।। ४७
एवं कृते नृपेन्द्रस्य शत्रुनाशो भविष्यति।
स्वराष्ट्रपतिमुद्दिश्य यः कुर्यादाभिचारिकम् ॥ ४८
स आत्मानं निहत्यैव स्वकुलं नाशयेत्कुधीः।
तस्मात्स्वराष्ट्रगोप्तारं नृपतिं पालयेत्सदा ।। ४९
मन्त्रौषधिक्रियाद्यैश्च सर्वयत्नेन सर्वदा।
एतद्रहस्यं कथितं न देयं यस्य कस्यचित् ॥ ५०
हे सुव्रतो! सूर्यग्रहण-चन्द्रग्रहण लगनेपर या शत्रुकी आठवीं राशिमें इनके होनेपर इसी मन्त्रले नख आदिसे युक्त उस कपालको शववस्त्रके टुकड़ेमें लपेट ले और उसे शत्रुके खेत, घर, श्मशानभूमि, नगर या देशमें गाड़ दे। ऐसा करनेपर वह शत्रु अपने पदसे च्युत हो जायगा और उसका नाश हो जायगा। विजयके लिये गमनकाल उपस्थित होनेपर अपने राजाके शत्रुके चित्रको दर्पण- सदृश भूमिपर, जो वितानसे सुशोभित हो, चार तोरणोंसे युक्त हो, कुशकी मालाओंसे सुशोभित हो और जहाँ राष्ट्रको समृद्धिका सूचक वैदिक मन्त्रोच्चार हो रहा हो, लिख करके आचार्य अपने दाहिने पैरसे शत्रुके सिरपर प्रहार करे, ऐसा करनेपर अपने राजाके शत्रुका नाश हो जायगा। जो व्यक्ति अपने देशके राजाको उद्देश्य करके यह अभिचार-कर्म करता है, वह दुर्बुद्धि अपनेको नष्ट करके अपने कुलका नाश कर डालता है। अतः आचार्यको सदा मन्त्रों, औषधियों तथा अनुष्ठानोंके द्वारा सभी प्रयत्नोंसे अपने देशकी रक्षा करनेवाले राजाकी निरन्तर रक्षा करती चाहिये। [हे ऋषियो। मैंने जो यह रहस्य आपलोगोंसे कहा, इसे जिस किसीको नहीं देना चाहिये ॥ ४३-५० ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागेऽघोरमन्त्रसाधनशत्रुनाशविधानवर्णनं नाम पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५०॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें' अघोरमन्त्रसाधनशत्रुनाशविधानवर्णन' नामक पचासौं अध्याय पूर्ण हुआ ॥५०॥
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