श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग चौवनवाँ अध्याय
मृत्युहर त्रियम्बक मन्त्र का माहात्य तथा मन्त्रका व्याख्यान
सूत उवाच
त्रियम्बकेण मन्त्रेण देवदेवं त्रियम्बकम् ।
पूजयेद्वाणलिङ्गे वा स्वयम्भूतेऽपि वा पुनः ॥ १
आयुर्वेदविदैर्वापि यथावदनुपूर्वशः ।
अष्टोत्तरसहस्त्रेण पुण्डरीकेण शङ्करम् ॥ २
कमलेन सहस्त्रेण तथा नीलोत्पलेन वा।
सम्पूज्य पायसं दत्त्वा सघृतं चौदनं पुनः ॥ ३
मुद्द्यान्नं मधुना युक्तं भक्ष्याणि सुरभीणि च।
अग्नौ होमश्च विपुलो यथावदनुपूर्वशः ॥ ४
पूर्वोक्तैरपि पुष्यैश्च चरुणा च विशेषतः।
जपेद्वै नियुतं सम्यक् समाप्य च यथाक्रमम् ॥ ५
ब्राह्मणानां सहस्रं च भोजयेद्वै सदक्षिणम्।
गवां सहस्त्रं दत्त्वा तु हिरण्यमपि दापयेत् ॥ ६
सूतजी बोले- बाणलिङ्गमें अथवा स्वयम्भूलिङ्गमें त्रियम्बकमन्त्रके द्वारा देवाधिदेव त्रियम्बककी पूजा करनी चाहिये। आयुर्वेदके ज्ञाताओंको चाहिये कि पूर्वोक विधिसे एक हजार आठ श्वेत कमलोंसे अथवा एक हजार रक्तकमलोंसे अथवा एक हजार नील कमलोंसे शंकरजीका पूजन करके खीर, घृतयुक्त ओदन (भात), मधुमिश्रित मुद्द्यान्न तथा अन्य सुगन्धित भक्ष्य-पदार्थ अर्पण करके पूर्व अध्यायमें कथित घृत आदि द्रव्योंके क्रमसे, पूर्वोक्त पुष्पोंसे और विशेषकर चरुसे यथाविधि अग्निमें दस हजार हवन करना चाहिये और एक लाख जप करना चाहिये। सम्यक् प्रकारसे उचित क्रममें सम्पूर्ण कार्य सम्पन्न करके हजार ब्राह्मणोंको भोजन कराना चाहिये और उन्हें दक्षिणा भी देनी चाहिये; हजार गायें प्रदान करके स्वर्ण भी देना चाहिये॥ १-६॥
एतद्वः कथितं सर्वं सरहस्यं समासतः ।
शिवेन देवदेवेन शर्वेणात्युग्रशूलिना ॥ ७
कथितं मेरुशिखरे स्कन्दायामिततेजसे ।
स्कन्देन देवदेवेन ब्रह्मपुत्राय धीमते ।। ८
साक्षात्सनत्कुमारेण सर्वलोकहितैषिणा।
पाराशर्याय कथितं पारम्पर्यक्रमागतम् ।। ९
इस प्रकार मैंने रहस्यसहित सम्पूर्ण बातें संक्षेपमें आप लोगोंको बता दीं। अत्यन्त उग्र शूल धारण करनेवाले देवाधिदेव भगवान् शिवने मेरु शिखरपर अमित तेजवाले कार्तिकेयनीको इसे बताया था। तत्पश्चात् देवोंके देव उन कार्तिकेयने बुद्धिमान् ब्रह्मपुत्र सनत्कुमारको बताया और पुनः उन लोकहितैषी सनत्कुमारने इसे पराशरपुत्र व्यासको बताया; इस प्रकार परम्पराक्रमसे यह प्रकाशमें आया ॥ ७-९॥
शुके गते परंधाम दृष्ट्वा रुद्रं त्रियम्बकम् ।
गतशोको महाभागो व्यासः पर ऋषिः प्रभुः ॥ १०
स्कन्दस्य सम्भवं श्रुत्वा स्थिताय च महात्मने।
त्रियम्बकस्य माहात्म्यं मन्त्रस्य च विशेषतः ॥ ११
कथितं बहुधा तस्मै कृष्णद्वैपायनाय वै।
तत्सर्वं कथयिष्यामि प्रसादादेव तस्य वै।। १२
त्रियम्बक रुद्रका दर्शन करके शुकदेवजीके मोक्षपद प्राप्त कर लेनेके अनन्तर महाभाग महर्षि भगवान् व्यासजी शोकको प्राप्त हुए। उस समय स्कन्दके प्रादुर्भावको सुनकर वहाँपर स्थित महात्मा कृष्णद्वैपायन व्यासजीको सनत्कुमारने त्रियम्बकमन्त्रके माहात्म्यको बहुत प्रकारसे बताया था। मैं उन्हींकी कृपासे आप लोगोंको वह सब बताऊँगा ॥ १०-१२॥
देवं सम्पूज्य विधिना जपेन्मन्त्रं त्रियम्बकम्।
मुच्यते सर्वपापैश्च सप्तजन्मकृतैरपि ॥ १३
सङ्ग्रामे विजयं लकवा सौभाग्यमतुलं भवेत् ।
लक्षहोमेन राज्यार्थी राज्यं लब्ध्वा सुखी भवेत् ॥ १४
पुत्रार्थी पुत्रमाप्नोति नियुतेन न संशयः।
धनार्थी प्रयुतेनैव जपेदेव न संशयः ॥ १५
धनधान्यादिभिः सर्वैः सम्पूर्णः सर्वमङ्गलैः।
क्रीडते पुत्रपौत्रैश्च मृतः स्वर्गे प्रजायते ॥ १६
नानेन सदृशो मन्त्रो लोके वेदे च सुव्रताः।
तस्मात्त्रियम्बकं देवं तेन नित्यं प्रपूजयेत् ॥ १७
महादेव की सम्यक् पूजा करके विधिपूर्वक त्रियम्बकमन्त्रका जप करना चाहिये। इसके प्रभावसे मनुष्य सात जन्मोंके किये गये सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है; संग्राममें विजय प्राप्त करके वह अतुलनीय सौभाग्य प्राप्त करता है। राज्यकी कामना करनेवाला व्यक्ति एक लाख हवनसे राज्य प्राप्त करके सुखी हो जाता है। पुत्रकी इच्छावाला एक लाख होमसे पुत्र प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है। धन चाहनेवालेको एक करोड़ त्रियम्बक-मन्त्रका जप करना चाहिये और देव त्रियम्बककी सदा पूजा करनी चाहिये; उससे वह मनुष्य सभी प्रकारके मंगलॉसहित पुत्र-पौत्रोंके साथ सुखमय जीवन व्यतीत करता है और मृत्युके अनन्तर स्वर्गमें प्रतिष्ठा प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है। हे सुव्रतो। इस त्रियम्बकमन्त्रके समान इस लोकमें तथा वेदमें कोई भी मन्त्र नहीं है। अतः इस मन्त्रसे भगवान् त्रियम्बककी नित्य पूजा करनी चाहिये-ऐसा करनेसे अग्निष्टोम यज्ञका आठ गुना फल होता है ॥ १३-१७ ॥
अग्निष्टोमस्य यज्ञस्य फलमष्टगुणं भवेत्।
त्रयाणामपि लोकानां गुणानामपि यः प्रभुः ॥ १८
वेदानामपि देवानां ब्रह्मक्षत्रविशामपि।
अकारोकारमकाराणां मात्राणामपि वाचकः ।। १९
तथा सोमस्य सूर्यस्य वद्धेरग्नित्रयस्य च।
अम्बा उमा महादेवो ह्यम्बकस्तु त्रियम्बकः ।। २०
[त्रियम्बक शब्दकी व्याख्या इस प्रकार है-] यह तीनों लोकों, तीनों गुणों, तीनों वेदों, तीनों देवताओं, ब्राह्मण-क्षत्रिय-वैश्य-इन तीनों वर्षोंका स्वामी है। यह अकार, उकार और मकार-इन तीन मात्राओंका वाचक है। चन्द्र, सूर्य तथा बहिन इन तीनों अग्नियोंकी अम्बा (माता) उना हैं। महादेव इन सबके अम्बक (पिता) हैं, अतः यह त्रियम्बक मन्त्र है॥ १८-२०॥
सुपुष्यितस्य वृक्षस्य यथा गन्धः सुशोभनः।
वाति दूरात्तथा तस्य गन्धः शम्भोर्महात्मनः । २१
तस्मात्सुगन्धो भगवान् गन्धारयति शङ्करः।
गान्धारश्च महादेवो देवानामपि लीलया ॥ २२
सुगन्धस्तस्य लोकेऽस्मिन् वायुर्वाति नभस्तले।
तस्मात्सुगन्धिस्तं देवं सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ॥ २३
जिस प्रकार पुष्पित वृक्षकी अत्यन्त सुन्दर गन्ध बहुत दूरसे ही फैलती है, उसी प्रकार उन परमात्मा शिवकी गन्ध जगत्में सर्वत्र व्याप्त रहती है, अतः भगवान् शिव सुगन्ध हैं। वे महादेव शंकर अपनी लीलासे देवताओंको भी सुगन्धित करते हैं। जब वायु आकाशमण्डलमें प्रवाहित होती है, तब उन शिवकी सुगन्ध जगत्में फैलती है। अतः सुगन्धिमय होनेसे उन प्रभुको 'सुगन्धि' तथा 'पुष्टिवर्धन' कहा जाता है॥ २१-२३॥
यस्य रेतः पुरा शम्भोर्हरेयॉनौ प्रतिष्ठितम्।
तस्य वीर्यादभूदण्डं हिरण्मयमजोद्भवम् ॥ २४
चन्द्रादित्यौ सनक्षत्री भूर्भुवः स्वर्महस्तपः ।
सत्यलोकमतिक्रम्य पुष्टिर्वीर्यस्य तस्य वै ॥ २५
पञ्चभूतान्यहङ्कारो बुद्धिः प्रकृतिरेव च।
पुष्टिर्बीजस्य तस्यैव तस्माद्वै पुष्टिवर्धनः ॥ २६
पूर्वकालमें जिन शम्भुका तेज (वीर्य) भगवान् विष्णुकी योनिमें स्थापित हुआ, उनके उस तेजसे सुवर्णमय अण्ड निर्मित हुआ, जो ब्रह्माकी उत्पत्तिका कारण बना। उनके वीर्यका पोषण चन्द्रमा, सूर्य, सभी नक्षत्र, भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महलोंक, तपः लोक और सत्यलोकसे भी आगे बढ़कर हुआ; उन्होंके बीजसे पंचमहाभूत, अहंकार, बुद्धि, प्रकृति ये सब पुष्टिको प्राप्त हुए। अतः वे शिव पुष्टिवर्धन संज्ञावाले हैं ॥ २४-२६ ॥
तं पुष्टिवर्धनं देवं घृतेन पयसा तथा।
मधुना यवगोधूममाषबिल्वफलेन च॥ २७
कुमुदाकैशमीपत्रगौरसर्षपशालिभिः।
हुत्वा लिङ्गे यथान्यायं भक्त्या देवं यजामहे ॥ २८
ऋतेनानेन मां पाशाद्वन्धनात्कर्मयोगतः ।
मृत्योश्च बन्धनाच्चैव मुक्षीय भव तेजसा । २९
उर्वारुकाणां पक्वानां यथा कालादभूत्पुनः ।
तथैव कालः सम्प्राप्तो मनुना तेन यत्नतः ॥ ३०
घृत, दुग्ध, मधु, जौ, गेहूँ, उड़द, बेलका फल, कुमुद, अर्क, शमीपत्र, श्वेत सरसों तथा शालिधानसे विधिपूर्वक हवन करके हम शिवलिङ्गमें उन पुष्टिवर्धन भगवान् शिवकी भक्तिपूर्वक पूजा करते हैं। है भव ! इस पूजनविधिके प्रभावसे हम कर्मजन्य पाशबन्धनसे और मृत्युबन्धनसे मुक्त हो जायें। जैसे यथासमय पके हुए ककड़ी-फल (फूट) की उसके वृक्षसे मुक्ति हो जाती है, वैसे ही कालके उपस्थित होनेपर उस मन्त्रके प्रभावसे काल-बन्धनसे हमारी मुक्ति हो जाय ॥ २७-३०॥
एवं मन्त्रविधिं ज्ञात्वा शिवलिङ्गं समर्चयेत्।
तस्य पाशक्षयोऽतीव योगिनो मृत्युनिग्रहः ॥ ३१
त्रियम्बकसमो नास्ति देवो वा घुणयान्वितः ।
प्रसादशीलः प्रीतश्च तथा मन्त्रोऽपि सुव्रताः ।। ३२
तस्मात्सर्वं परित्यज्य त्रियम्बकमुमापतिम् ।
त्रियम्बकेण मन्त्रेण पूजयेत्सुसमाहितः ।। ३३
सर्वांवस्थां गतो वापि मुक्तोऽयं सर्वपातकैः ।
शिवध्यानान्न सन्देहो यथा रुद्रस्तथा स्वयम् ॥ ३४
हत्वा भित्त्वा च भूतानि भुक्त्वा चान्यायतोऽपि वा।
शिवमेकं सकृत्स्मृत्वा सर्वपापैः प्रमुच्यते ॥ ३५
इस प्रकार मन्त्रकी विधिको जानकर शिवलिङ्गकी पूजा करनी चाहिये। ऐसा करनेसे उस योगीके पास (बन्धन) का पूर्णरूपसे विनाश और उसके मृत्युका निग्रह हो जाता है। हे सुव्रतो । त्रियम्बकके समान कोई अन्य देवता दयालु नहीं हैं; वे सरलतासे प्रसन्न होनेवाले तथा प्रेममय हैं, उनका मन्त्र भी वैसा ही है। अतः सब कुछ छोड़कर दत्तचित्त होकर त्रियम्बकमन्त्रसे उमापत्ति त्रियम्बककी पूजा करनी चाहिये। किसी भी दशाको प्राप्त मनुष्य शिवके ध्यानसे सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है और जैसे रुद्र हैं, वैसे ही स्वयं हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। प्राणियोंका छेदन-भेदन करके तथा अन्यायपूर्वक वस्तुओंका भोग करके भी मनुष्य एकमात्र शिवका केवल एक बार ध्यान करके सभी पापोंसे मुक्त हो जाता है ॥ ३१-३५॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे सार्थत्रियम्बकमन्त्रवर्णनं नाम चतुष्पञ्चाशत्तमोऽध्यायः ॥ ५४॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तर भागमें 'सार्थत्रियम्बकमन्त्रवर्णन' नामक चौवनवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ५४॥
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