श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग अट्ठाईसवाँ अध्याय
स्वायम्भुव मनुके प्रति सनत्कुमार प्रोक्त षोडश महा दानों में तुला पुरुष दान की विधि का वर्णन
सूत उवाच
स्नात्वा देवं नमस्कृत्य देवदेवमुमापतिम् ।
दिव्येन चक्षुषा रुद्रं नीललोहितमीश्वरम् ॥ १
दृष्ट्वा तुष्टाव वरदं रुद्राध्यायेन शङ्करम् ।
देवोऽपि तुष्ट्या निर्वाणं राज्यान्ते कर्मणैव तु ॥ २
सूतजी बोले- तदनन्तर इस विधिसे स्नान करके देवदेव उमापति नीललोहित भगवान् रुद्रको नमस्कारकर रुद्राध्याय के द्वारा वरदायक शंकरकी स्तुति करने लगे। तथा दिव्य दृष्टिसे उन्हें देखकर वे स्वायम्भुव मनु भगवान् शिव भी उनकी स्तुतिसे प्रसन्न होकर '[दीर्घकालतक] राज्य करके अन्तमें सत्कर्मसे तुम्हारा मोक्ष होगा' ऐसा एक बार कहकर वहींपर अन्तर्धान हो गये ॥ १-२ ॥
तवास्तीति सकृच्चोक्त्वा तत्रैवान्तरधीयत।
स्वायम्भुवो मनुर्देवं नमस्कृत्य वृषध्वजम् ॥ ३
आरुरोह महामेरुं महावृषमिवेश्वरः ।
तत्र देवं हिरण्याभं योगैश्वर्यसमन्वितम् ॥ ४
सनत्कुमारं वरदमपश्यद्ब्रह्मणः सुतम् ।
नमश्चकार वरदं ब्रह्मण्यं ब्रहारूपिणम् ॥ ५
कृताञ्जलिपुटो भूत्वा तुष्टाव च महाद्युतिः ।
सोऽपि दृष्ट्वा मनुं देवो हृष्टरोमाभवन्मुनिः ॥ ६
वृषभध्वज भगवान् शिवको नमस्कार करके स्वायम्भुव मनु मेरुशृंगपर उसी प्रकार आरूढ़ हुए, जैसे सदाशिव महावृषभपर आरूढ़ होते हैं। वहाँपर उन्होंने स्वर्णकी आभावाले, योगके प्रतापसे युक्त तथा वर प्रदान करनेवाले ब्रह्मापुत्र सनत्कुमारको देखा। [उन्हें देखकर] महातेजस्वी मनुने उन वरदायक, ब्रह्मज्ञानी तथा ब्रह्मरूप [सनत्कुमार] को नमस्कार किया और दोनों हाथ जोड़कर उनकी स्तुति की। मनुको देखकर मुनि सनत्कुमार भी हर्षके कारण पुलकित हो उठे और 'हे कृपानिधे!' इस प्रकार सम्बोधित करके दयापूर्वक उनसे कहने लगे ॥ ३-६ ॥
सनत्कुमारः प्राहेदं घृणया च घृणानिधे।
सनत्कुमार उवाच
दृष्ट्वा सर्वेश्वराच्छान्ताच्छङ्करान्नीललोहितात् ॥ ७
लब्ध्वाभिषेकं सम्प्राप्तो विवक्षुर्वेद यद्यपि।
तस्य तद्वचनं श्रुत्वा प्रणिपत्य कृताञ्जलिः ॥ ८
विज्ञापयामास कथं कर्मणा निर्वृतिर्विभो।
वक्तुमर्हसि चास्माकं कर्मणा केवलेन च ॥ ९
ज्ञानेन निर्वृतिः सिद्धा विभो मिश्रेण वा क्वचित् ।
अथ तस्य वचः श्रुत्वा श्रुतिसारविदां निधिः ॥ १०
सनत्कुमारो भगवान् कर्मणा निर्वृतिं क्रमात् ।
मिश्रेण च क्रमादेव क्षणाञ्जानेन वै मुने ॥ ११
सनत्कुमार बोले- शान्तस्वभाववाले नीललोहित सर्वेश्वर शिवका दर्शन करके उनसे जयाभिषेक प्राप्त करके आप यहाँ आये हैं। यदि आप कुछ और पूछने के इच्छुक हैं, तो पूछिये। तब उनका वचन सुनकर दोनों हाथ जोड़कर उन्हें प्रणाम करके मनुने कहा- है विभो! कर्मके द्वारा मुक्ति कैसे हो सकती है? हे विभो! आप हम लोगोंको कृपा करके यह बतायें कि केवल कर्मसे अथवा ज्ञानसे अथवा ज्ञान-कर्मके मिश्रित प्रभावसे किस प्रकार मुक्ति मिलती है? उनका वचन सुनकर वेदरहस्योंको जाननेवालोंमें श्रेष्ठ भगवान् सनत्कुमारने कहा- हे मुने। कर्मके द्वारा क्रमसे मुक्ति हो जाती है, कर्मयुक्त ज्ञानसे भी क्रमशः मुक्ति होती है, किंतु शुद्ध ज्ञानसे क्षणमात्रमें मोक्ष हो जाता है ॥ ७-११॥
पुरामानेन चोष्ट्रत्वमगमं नन्दिनः प्रभोः।
शापात्पुनः प्रसादाद्धि शिवमभ्यर्च्य शङ्करम् ॥ १२
प्रसादान्नन्दिनस्तस्य कर्मणैव सुतो ह्यहम्।
श्रुत्वोत्तमां गतिं दिव्यामवस्थां प्राप्तवानहम् ॥ १३
शिवार्चनप्रकारेण शिवधर्मेण नान्यथा।
राज्ञां षोडशदानानि नन्दिना कथितानि च ॥ १४
धर्मकामार्थमुक्त्यर्थं कर्मणैव महात्मना।
तुलादिरोहणाद्यानि शृणु तानि यथातथम् ॥ १५
पूर्वकालमें प्रभु नन्दीका अपमान करनेके कारण उनके शापसे मैं ऊँटकी योनिको प्राप्त हो गया था; पुनः उन्हींकी कृपासे कल्याणकारी भगवान् शिवका अर्चन करके उस शिवार्चनरूप कर्मके कारण ही मैं ब्रह्माजीका पुत्र हुआ और उन्हीं नन्दीके अनुग्रहसे उत्तम मुक्तिमार्गका श्रवण करके शिवधर्मरूप शिवार्चनकी रीतिसे दिव्य अवस्थाको प्राप्त हुआ हूँ; इसमें सन्देह नहीं है महात्मा नन्दिकेश्वरने राजाओंको [दानरूप] कर्मके द्वारा धर्म, अर्थ, काम, मोक्षकी प्राप्तिके लिये तुलारोहण आदि सोलह दानोंका वर्णन किया है; उन्हें आप यथाविधि सुनिये ॥ १२-१५ ॥
ग्रहणादिषु कालेषु शुभदेशेषु शोभनम् ।
विंशब्द्धस्तप्रमाणेन मण्डपं कूटमेव च ॥ १६
यथाष्टादशहस्तेन कलाहस्तेन वा पुनः।
कृत्वा वेदिं तथा मध्ये नवहस्तप्रमाणतः ।। १७
अष्टहस्तेन वा कार्या सप्तहस्तेन वा पुनः ।
द्विहस्ता सार्धहस्ता वा वेदिका चातिशोभना ॥ १८
द्वादशस्तम्भसंयुक्ता साधुरम्या भ्रमन्तिका।
परितो नव कुण्डानि चतुरस्राणि कारयेत् ॥ १९
ऐन्द्रिकेशानयोर्मध्ये प्रधानं ब्रह्मणः सुत।
अथवा चतुरस्त्रं च योन्याकारमतः परम् ॥ २०
स्त्रीणां कुण्डानि विप्रेन्द्रा योन्याकाराणि कारयेत्।
अर्धचन्द्रं त्रिकोणं च वर्तुलं कुण्डमेव च ॥ २१
षडस्त्रं सर्वतो वापि त्रिकोणं पद्यसन्निभम्।
अष्टास्त्रं सर्वमाने तु स्थण्डिलं केवलं तु वा ॥ २२
ग्रहण आदि कालोंमें तीर्थ आदि उत्तम स्थानों में बोस हाथ, अठारह हाथ अथवा सोलह हाथ-प्रमाणका सुन्दर कूटयुक्त मण्डप बनाकर उसके मध्यमें नौ हाथ, आठ हाथ, सात हाथ, दो हाथ अथवा डेढ़ हाथ विस्तारवाली एक अत्यन्त सुन्दर वैदिकाका निर्माण कराना चाहिये। उसके चारों ओर बारह स्तम्भ हों और एक सुन्दर तथा रम्य तुला स्थापित कर देनी चाहिये। उसके चारों ओर नौ चौकोर कुण्डोंका निर्माण कराना चाहिये। हे ब्रह्मपुत्र! पूर्व तथा ईशानकोणके मध्य प्रधान कुण्ड बनाना चाहिये, जो चौकोर या योनिके आकारका हो। हे विप्रेन्द्रो ! स्त्रियोंके लिये कुण्ड यौनिके आकारवाले ही बनाने चाहिये। कुण्ड अर्धचन्द्र, त्रिकोण, वर्तुल, षडस्न, त्रिकोण, पद्माकार तथा अष्टास्न बनाना चाहिये अथवा कुण्डोंके स्थानपर स्थण्डिल ही बना लेना चाहिये ॥ १६-२२॥
चतुर्दारसमोपेतं चतुस्तोरणभूषितम् ।
दिग्गजाष्टकसंयुक्तं दर्भमालासमावृतम् ॥ २३
अष्टमङ्गलसंयुक्तं वितानोपरिशोभितम् ।
तुलास्तम्भद्रुमाश्चात्र बिल्वादीनि विशेषतः ॥ २४
बिल्वाश्वत्थपलाशाद्याः केवलं खादिरं तु वा।
येन स्तम्भः कृतः पूर्व तेन सर्वं तु कारयेत् ।। २५
अथवा मिश्रमार्गेण वेणुना वा प्रकल्पयेत्।
अष्टहस्तप्रमाणं तु हस्तद्वयसमायुतम् ॥ २६
तुलास्तम्भस्य विष्कम्भोऽनाहतस्त्रिगुणो मतः ।
द्वयङ्गुलेन विहीनं तु सुवृत्तं निर्वणं तथा ॥ २७
उभयोरन्तरं चैव षड्डस्तं नृपते स्मृतम् ।
द्वयोश्चतुर्हस्तकृतमन्तरं स्तम्भयोरपि ॥ २८
षड्डुस्तमन्तरं ज्ञेयं स्तम्भयोरुपरि स्थितम् ।
वितस्तिमात्रं विस्तारो विष्कम्भस्तावदुत्तरम् ॥ २९
चार द्वारोंसे समन्वित, चार तोरणोंसे सुशोभित, आठों दिशाओंमें अष्ट दिग्गजोंसे समन्वित, दर्भमालासे युक्त, आठ मंगलोंसे संयुक्त और ऊपर वितान (चंदोवा)- से सुशोभित मण्डपका निर्माण कराना चाहिये। तुलास्तम्भ विशेषरूपसे बिल्व वृक्षोंके होने चाहिये। बेल, पीपल, पलाश अथवा खदिर (खैर) की लकड़ीके स्तम्भ बनाने चाहिये। जिस वृक्षको लकड़ीका प्रथम स्तम्भ हो, उसीसे अन्य भी निर्मित करने चाहिये अथवा अनेक काष्ठोंके मिश्रणसे अथवा केवल बाँससे ही स्तम्भ आदि बना लेने चाहिये। आठ हाथ-प्रमाणका स्तम्भ होना चाहिये; उसका दो हाथ भाग भूमिमें गाड़ देना चाहिये। तुलास्तम्भका ऊपरी अनाच्छादित भाग आच्छादित भागका तीन गुना बताया गया है। तुलाका दूसरा स्तम्भ पूर्ण गोलाकार तथा व्रणरहित होना चाहिये। हे राजन्। नीचेसे दोनों स्तम्भोंमें परस्पर दो अंगुल कम छः हाथका अन्तर कहा गया है; दोनों स्तम्भोंके बीच चार हाथका भी अन्तर रखा जा सकता है। दोनों स्तम्भोंके ऊपरी भागोंके बीच छः हाथका अन्तर जानना चाहिये। दोनों स्तम्भोंका विस्तार एक वितस्ति (बारह अंगुल) होना चाहिये और उतने ही परिमाणका दूसरा विष्कम्भ भी होना चाहिये ॥ २३-२९ ॥
स्तम्भयोस्तु प्रमाणेन उत्तरद्वारसम्मितम् ।
षट्त्रिंशन्मात्रसंयुक्तं व्यायामं तु तुलात्मकम् ॥ ३०
विष्कम्भमष्टमात्रं तु यवपञ्चकसंयुतम्।
षट्त्रिंशन्मात्रनाभं स्यान्निर्माणाद्वर्तुलं शुभम् ॥ ३१
अग्रे मूले च मध्ये च हेमपट्टेन बन्धयेत्।
पट्टमध्ये प्रकर्तव्यमवलम्बनकत्रयम् ॥ ३२
ताम्रेण च प्रकर्तव्यमवलम्बनकत्रयम् ।
आरेण वा प्रकर्तव्यमायसं नैव कारयेत् ॥ ३३
ऊपरके भागमें तुलाकी छड़ दोनों स्तम्भोंकी लम्बाईक अनुकूल हो और तुलाका सन्तुलन करनेवाले छड़की लम्बाई छत्तीस अंगुल होनी चाहिये। विष्कम्भ आठ अंगुल और पाँच यव हो। नाभि छत्तीस अंगुल लम्बी होनी चाहिये और इसे गोल तथा सुन्दर बनाना चाहिये। सिरेपर, मध्यमें और नौचेके भागमें सोनेका पट्ट लगाना चाहिये। मध्यके पट्टमें तीन अवलम्बक लगाने चाहिये। इन अवलम्बकोंको ताम्रका अथवा पीतलका बनाना चाहिये; लोहेका कदापि नहीं बनाना चाहिये ॥ ३०-३३ ॥
मध्ये चोर्ध्वमुखं कार्यमवलम्बः सुशोभनः ।
रश्मिभिस्तोरणाग्रे वा बन्धयेच्च विधानतः ॥ ३४
जिह्वामेकां तुलामध्ये तोरणं तु विधीयते।
उत्तरस्य च मध्ये च शङ्कु दृढमनुत्तमम् ॥ ३५
वितानेनोपरि च्छाद्य दृढं सम्यक्प्रयोजयेत्।
शङ्कोः सुषिरसम्पन्नं वलयं कारयेन्मुने ॥ ३६
तुलामध्ये वितानेन तुलया लम्बके तथा।
वलयेन प्रयोक्तव्यं कुण्डलं वावलम्बनम् ॥ ३७
सुदृढं च तुलामध्ये नवमाङ्गुलमानतः ।
पट्टस्यैव तु विस्तारं पञ्चमात्रप्रमाणतः ।॥ ३८
पट्टको बीचमें लगानेका अवलम्ब सुन्दर हो तथा उसका मुख ऊपरकी ओर होना चाहिये। तोरणके ऊपरी सिरेपर इसे डोरियोंसे विधिवत् बाँध देना चाहिये। तुलाके मध्यमें तोरण बनाया जाता है, जो जिह्वाके आकारका होता है। उत्तर तथा दक्षिणके मध्यमें एक दृढ़ एवं सुन्दर शंकु होना चाहिये; वितानके सिरेपर दृढ़तापूर्वक इसे भलीभाँति लगा देना चाहिये। हे मुने। शंकुके वलयको छिद्रयुक्त बनाना चाहिये। तुलामध्यमें आलम्बनार्थ वितानके साथ वलय अथवा कुण्डलाकृतिविशेषका प्रयोग करना चाहिये। तुलाके पट्टके बीचसे नौ अंगुल मानमें इसे दृढ़तापूर्वक जड़ देना चाहिये; बँधनेवाले पट्टका विस्तार पाँच वितरित होना चाहिये ॥ ३४-३८॥
अपरौ सुदृढौ पिण्डौ शुभद्रव्येण कारयेत्।
शिक्याधस्तात्प्रकर्तव्यौ पञ्चप्रादेशविस्तरौ।
सहस्त्रेण तु कर्तव्यौ पलानां धारकावुभौ ॥ ३९
शताष्टकेन वा कुर्यात्पलैः षट्शतमेव वा।
चतुस्तालं च कर्तव्यो विस्तारो मध्यमस्तथा ॥ ४०
सार्धत्रितालविस्तारः कलशस्य विधीयते।
बध्नीयात्पञ्चपात्रं तु त्रिमात्रं षट्कमुच्यते ।। ४१
चतुर्द्वारसमोपेतं द्वारमङ्गुलमात्रकम् ।
कुण्डलैश्च समोपेतैः शुक्लशुद्धसमन्वितैः ॥ ४२
कुण्डले कुण्डले कार्य श्रृङ्खलापरिमण्डलम् ।
शृङ्खलाधारवलयमवलम्बेन योजयेत् ॥ ४३
शुभ द्रव्यसे दो अन्य सुदृढ़ गोलक बनवाने चाहिये। लटकनेवाली डोरीके नीचे पाँच प्रादेश (अंगुष्ठ तथा तर्जनीके बीचकी दूरी) विस्तारवाले दो धारक (पलड़े) बनवाने चाहिये; उन्हें एक हजार पल सुवर्णसे बनवाना चाहिये अथवा आठ सौ अथवा छः सौ पलोंसे बनवाना चाहिये। तुलाका मध्यम विस्तार चार ताल (मध्यमासे अंगुष्ठके बीचकी दूरी) प्रमाणवाला बनाना चाहिये। कलशका विस्तार साढ़े तीन तालका बनानेका विधान है। वहाँपर एक विस्तृत पात्र बाँधना चाहिये; उसे तीन अथवा छः अवधृति प्रमाणवाला कहा जाता है। वह चार छिद्रोंसे युक हो तथा प्रत्येक छिद्र एक अंगुल प्रमाणका हो। वह छिद्र श्वेत तथा शुद्ध द्रव्योंसे युक्त कुण्डलोंसे समन्वित हो। प्रत्येक कुण्डलमें जंजीर बाँध देनी चाहिये। कुण्डलमें बँधी हुई जंजीरको तुलादण्डके अवलम्ब (वलय) से जोड़ देना चाहिये। भूमिसे प्रादेशमात्र अथवा चार अंगुल छोड़कर पलड़ोंको लटकाना चाहिये ॥ ३९-४३ ॥
प्रादेशं वा चतुर्मात्रं भूमेस्त्यक्त्वावलम्बयेत्।
घटौ पुरुषमात्रौ तु कर्तव्यौ शोभनावुभौ॥ ४४
तौ वालुकाभिः सम्पूर्य शिवं तत्र विनिःक्षिपेत्।
द्विहस्तमात्रमवटे स्थापनीयौ प्रयत्नतः ॥ ४५
निःशेषं पूरयेद्विद्वान् वालुकाभिः समन्ततः ।
येन निश्चलतां गच्छेत्तेन मार्गेण कारयेत् ॥ ४६
श्रूयतां परमं गुह्यं वेदिकोपरिमण्डलम् ।
अष्टमाङ्गुलसंयुक्तं मङ्गलाङ्कुरशोभितम् ॥ ४७
फलपुष्पसमाकीर्णं धूपदीपसमन्वितम्।
वेदिमध्ये प्रकर्तव्यं दर्पणोदरसन्निभम् ॥ ४८
आलिखेन्मण्डलं पूर्व चतुर्द्वारसमन्वितम्।
शोभोपशोभासम्पन्नं कर्णिकाकेसरान्वितम् ॥ ४९
पुरुषप्रमाण (फैलानेपर दोनों हाथोंके बीचकी दूरी) वाले दो सुन्दर घट बनाने चाहिये और उन दोनोंको बालूसे भरकर उनमें शिवकी स्थापना करनी चाहिये। दो हाथ गहरे गड्ढे में उन घटोंको प्रयत्नपूर्वक स्थापित करना चाहिये और गड्डठ्ठोंके रिक्त भागको चारों ओरसे बालूसे इस प्रकार भर देना चाहिये कि वे स्थिर हो जायें अब परम रहस्यकी बात सुनिये। वेदीके ऊपर आठ अंगुल प्रमाणवाला, मांगलिक अंकुरोंसे सुशोभित, फल- पुष्पोंसे परिपूर्ण एवं धूप-दीपसे समन्वित परिमण्डल बनाना चाहिये। वेदीके मध्यमें दर्पणके उदरभागके समान मण्डल बनाना चाहिये। पहले चार द्वारोंसे युक्त, शोभा तथा उपशोभासे सम्पन्न एवं कर्णिका केसरसे समन्वित मण्डलकी रचना करनी चाहिये, उसे नानाविध रंगोंसे युक्त अथवा पाँच रंगोंसे बनाना चाहिये ॥ ४४-४९ ॥
वर्णजातिसमोपेतं पञ्चवर्णं तु कारयेत्।
वज्रं प्रागन्तरे भागे आग्नेय्यां शक्तिमुज्वलाम् ॥ ५०
आलिखेद्दक्षिणे दण्डं नैर्ऋत्यां खड्ङ्गमालिखेत्।
पाशश्च वारुणे लेख्यो ध्वजं वै वायुगोचरे ॥ ५१
कौबेर्या तु गदा लेख्या ऐशान्यां शूलमालिखेत्।
शूलस्य वामदेशेन चक्रं पां तु दक्षिणे ॥ ५२
मण्डलके पूर्वदिशामें वज्र, अग्निकोणमें उज्वल शक्ति, दक्षिणमें दण्ड, नैऋत्यकोणमें खड्ग, पश्चिममें पाश, वायव्य कोण में ध्वज, उत्तरमें गदा और ईशानकोणमें शूल तथा शूलके वामभागमें चक्र एवं दक्षिण भागमें पद्मकी रचना करनी चाहिये। इस प्रकार आयुधोंको रचना करके बादमें होमकर्म करना चाहिये ॥ ५०-५२ ॥
एवं लिखित्वा पश्चाच्च होमकर्म समाचरेत् ।
प्रधानहोमं गायत्र्या स्वाहा शक्राय वह्नये ॥ ५३
यमाय राक्षसेशाय वरुणाय च वायवे।
कुबेरायेश्वरायाथ विष्णवे ब्रह्मणे पुनः ॥ ५४
स्वाहान्तं प्रणवेनैव होतव्यं विधिपूर्वकम्।
स्वशाखाग्निमुखेनैव जयादिप्रतिसंयुतम् ॥। ५५
स्विष्टान्तं सर्वकार्याणि कारयेद्विधिवत्तदा।
सर्वहोमाग्रहोमे च समित्पालाशमुच्यते ।
एकविंशतिसंख्यातं मन्त्रेणानेन होमयेत् ॥ ५६
अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्धवर्धय
चास्मान्प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा
भूः स्वाहा भुवः स्वाहा स्वः स्वाहा भूर्भुवः स्वस्तथैव च।
समिद्धोमश्च चरुणा घृतस्य च यथाक्रमम् ।
शुक्लान्नपायसं चैव मुद्द्यान्नं चरवः स्मृताः ।। ५७
सहस्त्रं वा तदर्थं वा शतमष्टोत्तरं तु वा ॥ ५८
प्रधान होम गायत्रीमन्त्रसे करना चाहिये; इसके बाद ॐ शक्राय स्वाहा, ॐ वहह्नये स्वाहा, ॐ यमाय स्वाहा, ॐ राक्षसेशाय स्वाहा, ॐ वरुणाय स्वाहा, ॐ वायवे स्वाहा, ॐ कुबेराय स्वाहा, ॐ ईश्वराय स्वाहा, ॐ विष्णवे स्वाहा तथा ॐ ब्रह्मणे स्वाहा- इन मन्त्रोंको बोलकर विधिपूर्वक हवन करना चाहिये। उस समय अपनी शाखामें उक्त अग्निविधानके अनुसार जयाहोमसे लेकर स्विष्टकृत् होमपर्यन्त सभी कार्य विधिवत् कराना चाहिये। सभी होमों तथा प्रधान होममें पलाशकी समिधा बतायी गयी है। इस मन्त्रसे इक्कीस आहुतियाँ देकर होम करना चाहिये-अयन्त इध्म आत्मा जातवेदस्तेनेध्यस्व वर्धस्व चेद्धवर्धय चास्मान्प्रजया पशुभिर्ब्रह्मवर्चसेनान्नाद्येन समेधय स्वाहा भूः स्वाहा भुवः स्वाहा स्वः स्वाहा भूर्भुवः स्वः स्वाहा। समिधाहोम चरु तथा घृतसे यथाक्रम करना चाहिये; श्वेत अन्नका पायस तथा कृशरान्न- ये चरु कहे गये हैं। एक हजार, उसका आधा (पाँच सौ) अथवा एक सौ आठ आहुतियाँ देनी चाहिये ॥ ५३-५८ ॥
अग्न आयूंषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः।
आरे बाधस्व दुच्छुनाम् । अग्निऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः।
तमीमहे महागयम्। अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्।
दधद्रयिं मयि पोषम्।
प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव।
यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयः स्याम पतयो रयीणाम्।
गायत्र्या च प्रधानस्य समिद्धोमस्तथैव च।
चरुणा च तथाज्यस्य शक्रादीनां च होमयेत् ॥ ५९
वज्रादीनां च होतव्यं सहस्त्रार्धं ततः क्रमात् ।
ब्रह्म जज्ञेति मन्त्रेण ब्रह्मणे विष्णवे पुनः ॥ ६०
नारायणाय विद्यहे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ।
अयं विशेषः कथितो होममार्गः सुशोभनः।
दूर्वया क्षीरयुक्तेन पञ्चविंशत्पृथक्पृथक् ॥ ६१
त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ॥ ६२
दूर्वाहोमः प्रशस्तो यं वास्तुहोमएच सर्वधा।
प्रायश्चित्तमघोरेण सर्पिषा च शतं शतम्॥ ६३
अग्न आयूःषि पवस आ सुवोर्जमिषं च नः। आरे बाधस्व दुच्छुनाम् ।। (यजु० १९। ३८) अग्निऋषिः पवमानः पाञ्चजन्यः पुरोहितः। तमीमहे महागयम् ॥ (यजु० २६।९) अग्ने पवस्व स्वपा अस्मे वर्चः सुवीर्यम्। दधद्रयिं मयि पोषम् ॥ (यजु० ८।३८) प्रजापते न त्वदेतान्यन्यो विश्वा जातानि परि ता बभूव। यत्कामास्ते जुहुमस्तन्नो अस्तु वयः स्याम पतयो रयीणाम् ॥ (कृष्णयजु० १।८।१४) इन मन्त्रोंसे आहुतियाँ प्रदान करनी चाहिये। रुद्रगायत्रीमन्त्रसे समिधाओंके द्वारा प्रधान देवताके लिये हवन करना चाहिये; चरु तथा घृतसे इन्द्र आदि देवताओंके लिये हवन करना चाहिये। तत्पश्चात् क्रमसे वज्र आदिके निमित्त पाँच सौ आहुतियाँ देनी चाहिये। ब्रह्माके लिये 'ब्रह्म जज्ञानं' इस मन्त्रसे और विष्णुके लिये 'नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि। तन्नो विष्णुः प्रचोदयात्'- इस मन्त्रसे होम करना चाहिये; यह परम सुन्दर मुख्य होमविधान कहा गया है। क्षीरयुक्त दूर्वाक द्वारा पृथक् पृथक् पचीस आहुतियाँ 'त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्। उर्वारुकमिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्॥' मन्त्रसे देनी चाहिये। ये दूर्वाहोम तथा वास्तुहोम सर्वथा प्रशस्त हैं। घृतके द्वारा अघोर मन्त्रसे दस हजार आहुतियाँ प्रदान करके प्रायश्चित्त करना चाहिये॥ ५९--६३ ॥
ब्रह्माणं दक्षिणे वामे विष्णुं विश्वगुरु शिवम्।
मध्ये देव्या सम॑ ज्यमिन्द्रादिगणसंवृतम् हक ।। ६४
आदित्य॑ भास्कर भानुं रविं देवं दिवाकरम्।
उषां प्रभां तथा प्रज्ञां सन्ध्यां सावित्रिमेव च॥ ६५
पञ्चप्रकारविधिना खखोल्काय महात्मने।
विष्टरां सुभगां चेव वर्धनीं च प्रदक्षिणाम्॥ ६६
आप्यायनीं च सम्पूज्य देवीं पद्मासने रविम्।
प्रभूतं वाथ कर्तव्यं विमल॑ दक्षिणे तथा॥ ६७
सारं पश्चिमभागे च आश्यं चोत्तरे यजेत्।
मध्ये सुखं विजानीयात्केसरेषु यथाक्रमम्॥ ६८
दीप्तां सूक्ष्मां जयां भद्गां विभूतिं विमलां क्रमात्।
अमोघां विद्युतां चेव मध्यतः सर्वतोमुखीम॥ ६९
सोममड़ारकं॑ चैव बुधं गुरुमनुक्रमात्।
भार्गव च तथा मन्दं राहुं केतुं तथेव च।॥ ७०
पूजयेद्धोमयेदेवे दापयेच्य विशेषत:।
योगिनो भोजतसयेत्तत्र शिवतत्त्वैकपारगानू॥ ७१
[देवतामण्डलके] दाहिने भागमें ब्रह्मा, बायें भागमें विष्णु, मध्यमें देवी पार्वतीके साथ इन्द्र आदि गणोंसे आबृत विश्वगुरु शिवको जानना चाहिये। [ ग्रहमण्डलका निरूपण किया जा रहा है--] आदित्य, भास्कर, भानु, रवि, भगवान् दिवाकर, उषा, प्रभा, प्रज्ञा, सन्ध्या तथा सावित्री--पंच प्रकार विधिसे “महात्मने खखोल्काय नम: '--ऐसा कहकर इनकी स्थापना-पूजा करनी चाहिये। विष्टरा, सुभगा, वर्धनी, प्रदक्षिणा तथा देवी आप्यायनीकी पूजा करके पद्मासनपर रविकी पूजा करनी चाहिये। प्रारम्भमें प्रभूतकी, दक्षिणमें विमलकी, पश्चिम भागमें सारकी, उत्तरमें आराध्यकी तथा मध्यमें सुखकी पूजा करनी चाहिये। कमलके दलोंमें क्रमश: दीप्ता, सूक्ष्म, जया, भद्रा, विभूति, विमला, अमोघा, विद्युताकों और मध्यमें सर्वतोमुखीको जानना चाहिये। तत्पश्चात् चन्द्र, मंगल, बुध, बृहस्पति, शुक्र, शनि, राहु तथा केतुकी स्थापना करके इनके निमित्त पूजन-हवनदान कराना चाहिये। इस प्रकार सभी विधान विस्तारपूर्वक करके इस अवसरपर शिवतत्त्वके पारगामी विद्ठान् एवं वेदाध्ययनसे सम्पन्न योगियोंकोीं भोजन कराना चाहिये॥ ६४--७१ ॥
दिव्याध्ययनसम्पन्नान् कृत्वैवं विधिविस्तरम्।
होमे प्रवर्तमाने च पूर्वदिक्स्थानमध्यमे॥ ७२
आरोहयेद्विधानेन रुद्राध्यायेन वे नृपम्।
धारयेत्तत्र भूपालं॑ घटिकैकां विधानतः॥ ७३
यजमानो जपेन्मन्त्र रुद्रगायत्रिसंज्ञकम्।
घटिकार्ध' तदर्ध वा तत्रैवासनमारभेत्॥ ७४
आलोक्य वारुणं धीमान् कूर्चहस्तः समाहित: ।
नृपश्च भूषणैर्युक्त: खड्गखेटकधारकः ॥ ७५
स्वस्तिरित्यादिभिए्चादावन्ते चैव विशेषतः ।
पुण्याहं ब्राह्मणै: कार्य वेदवेदाड्भपारगैः॥ ७६
जयमङ्गलशब्दादिब्रह्मघोषैः सुशोभनैः ।
नृत्यवाद्यादिभिर्गीतैः सर्वशोभासमन्वितैः ॥ ७७
स्वमेवं चन्द्रदिग्भागे सुवर्ण तत्र विक्षिपेत् ।
तुलाधारौ समौ वृत्तौ तुलाभारः सदा भवेत् ॥ ७८
शतनिष्काधिकं श्रेष्ठं तदर्थं मध्यमं स्मृतम्।
तस्यार्धं च कनिष्ठं स्यात्त्रिविधं तत्र कल्पितम् ॥ ७९
हवन-कार्यके आरम्भ हो जानेपर पूर्वदिशाके मध्यभागमें रुद्राध्यायका पाठ करते हुए विधानपूर्वक राजाको तुलापर चढ़ाये और विधानपूर्वक वहाँ राजाको एक घड़ीतक बैठाये रखे। उस समय यजमान [राजा] रुद्रगायत्री नामक मन्त्रका जप करे। वह एक घटिकाका आधा अथवा उसके भी आधे समयतक आसन लगाये रखे सूर्यबिम्बको देखकर बुद्धिमान् ब्राह्मण समाहितचित्त होकर हाथमें कूर्च धारण किये रहे एवं सभी आभूषणोंसे युक्त राजा हाथमें खड्ग तथा खेटक धारण किये रहे। कर्मके आदि तथा अन्तमें वेदवेदांगमें पारंगत ब्राह्मणोंके द्वारा विशेषरूपसे स्वस्तिवाचनके साथ पुण्याहवाचन किया जाना चाहिये और जय आदि मांगलिक शब्दों, परम सुन्दर वेदध्वनियों तथा सब प्रकारकी शोभासे युक्त नृत्य-वाद्य-गीत आदिके साथ उत्तर दिशाभागमें स्थित पलड़ेपर अपने भारके बराबर सुवर्ण रखे, ताकि तुलाके दोनों पलड़े समान हो जायें; इस प्रकार तुलाभार सदा अक्षय बना रहे। सौ निष्कसे अधिक परिमाणवाली तुला श्रेष्ठ, पचास निष्कवाली मध्यम और पचीस निष्कवाली कनिष्ठ कही गयी है-इस प्रकार तुला तीन प्रकारकी कही गयी है॥ ७२-७९॥
वस्त्रयुग्ममधोष्णीषं कुण्डलं कण्ठशोभनम्।
अङ्गुलीभूषणं चैव मणिबन्धस्य भूषणम् ॥ ८०
एतानि चैव सर्वाणि प्रारम्भे धर्मकर्मणि।
पाशुपतव्रतायाथ भस्माङ्गाय प्रदापयेत् ॥ ८१
पूर्वोक्तभूषणं सर्वं सोष्णीषं वस्त्रसंयुतम् ।
दद्यादेतत्प्रयोक्तृभ्य आच्छादनपटं बुधः ॥ ८२
दक्षिणां च शतं सार्धं तदर्थ वा प्रदापयेत्।
योगिनां चैव सर्वेषां पृथङ्निष्कं प्रदापयेत् ॥ ८३
यागोपकरणं दिव्यमाचार्यांय प्रदापयेत्।
इतरेषां यतीनां तु पृथङ्निष्कं प्रदापयेत् ॥ ८४
तुलारोहसुवर्ण च शिवाय विनिवेदयेत्।
प्रासादं मण्डपं चैव प्राकारं भूषणं तथा ॥ ८५
सुवर्णपुष्यं पटहं खड्गं वै कोशमेव च।
कृत्वा दत्त्वा शिवायाथ किञ्चिच्छेषं च बुद्धिमान् ॥ ८६
आचार्येभ्यः प्रदातव्यं भस्माङ्गेभ्यो विशेषतः ।
बन्दीकृतान् विसृज्याथ कारागृहनिवासिनः ॥ ८७
सहस्त्रकलशैस्तत्र सेचयेत्परमेश्वरम् ।
घृतेन केवलेनापि देवदेवमुमापतिम् ॥ ८८
पयसा वाथ दध्ना वा सर्वद्रव्यैरथापि वा।
ब्रह्मकूर्चेन वा देवं पञ्चगव्येन वा पुनः ॥ ८९
गायत्र्या चैव गोमूत्रं गोमयं प्रणवेन वा।
आप्यायस्वेति वै क्षीरं दधिक्राव्योति वै दधि ॥ ९०
तेजोऽसीत्याज्यमीशानमन्त्रेणैवाभिषेचयेत् ।
देवस्यत्वेति देवेशं कुशाम्बुकलशेन वै। ९१
रुद्राध्यायेन वा सर्वं स्नापयेत्परमेश्वरम् ।
सहस्त्रकलशं शम्भोर्नाम्नां चैव सहस्त्रकैः ॥ ९२
विष्णुना कथितैर्वापि तण्डिना कथितैस्तु वा।
दक्षेण मुनिमुख्येन कीर्तितैरथ वा पुनः ॥ ९३
अग्र पूजा के प्रारम्भमें दोनों वस्त्र, उष्णीष, कुण्डल, कण्ठहार, अँगूठी तथा मणिबन्धभूषण (कंकण) ये सभी वस्तुएँ भस्मराग धारण किये हुए पाशुपतव्रतमें निरत शैवाचार्यको प्रदान कराने चाहिये। बुद्धिमान्को चाहिये कि पूर्वोक्त आभूषण, वस्त्रयुक्त उष्णीष एवं उत्तरीय-यह सब ऋत्विजोंको प्रदान करे और एक सौ पचास अथवा उसका आधा निष्क सुवर्णकी दक्षिणा प्रदान करे। साथ ही सभी योगियोंको अलगसे सुवर्णमुद्रा प्रदान करे। इस अवसरपर दिव्य यागोपकरण आचार्यको प्रदान करे और अन्य यतियोंको पृथक् रूपसे सुवर्णमुद्रा प्रदान करे। बुद्धिमान्को चाहिये कि तुलापर रखे हुए सुवर्ण तथा प्रासाद, मण्डप, प्राकार, आभूषण, सुवर्णपुष्प, पटह, खड्ग, कोश इन सबको एकत्र करके इनमेंसे कुछ भाग बचाकर शिवको प्रदान कर दे और बचे हुए भागको विशेषरूपसे भस्मधारी आचार्योंको प्रदान करे। कारागारमें स्थित बन्दियोंको मुक्त करके सहस्र कलशोंके जलसे अथवा केवल घृतसे, दूधसे, दहीसे अथवा नारिकेल आदिके जलसे देवदेव परमेश्वर उमापतिका अभिषेक करना चाहिये; अथवा ब्रह्मकूर्चके द्वारा पंचगव्यसे शिवजीका अभिषेक करना चाहिये। गायत्रीमन्त्रसे गोमूत्र, प्रणवमन्त्रसे गोमय, 'आप्यायस्व०' मन्त्रसे दूध, 'दधिक्राव्णो०'- मन्त्रसे दही तथा 'तेजोऽसीति०- मन्त्रसे घृत ग्रहणकर ईशानमन्त्रसे ही अभिषेक करना चाहिये। 'देवस्य त्वा०' इस मन्त्रके द्वारा कलशमें स्थित कुशाम्बुसे देवेशका अभिषेक करे अथवा रुद्राध्यायके द्वारा परमेश्वर शिवका अभिषेक करे। भगवान् विष्णुके द्वारा कहे गये अथवा [शिवभक्त] तण्डीके द्वारा कहे गयेरे अथवा मुनिश्रेष्ठ दक्षके द्वारा कहे गये शिवके हजार नामोंसे हजार कलशोंके जलसे शिवका अभिषेक करे ॥ ८०-९३॥
महापूजा प्रकर्तव्या महादेवस्य भक्तितः ।
शिवार्चकाय दातव्या दक्षिणा स्वगुरोः सदा ॥ ९४
देहार्णवं च सर्वेषां दक्षिणा च यथाक्रमम्।
दीनान्धकृपणानां च बालवृद्धकृशातुरान् ॥ ९५
भोजयेच्च विधानेन दक्षिणामपि दापयेत् ॥ ९६
भक्तिपूर्वक अपने गुरु महादेवकी सदा महापूजा करनी चाहिये और शिवपूजकको दक्षिणा प्रदान करनी चाहिये। तुलाद्रव्य और दक्षिणा यथाक्रम ऋत्विज्ञ आदि तथा दीनों, अन्धों, दरिद्रोंको देनी चाहिये; साथ ही बालकों, वृद्धों, निर्बलों तथा रोगियोंको विधान- पूर्वक भोजन कराना चाहिये और दक्षिणा भी देनी चाहिये ॥ ९४-९६ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे तुलापुरुषदानविधिर्नामाष्टाविंशत्तमोऽध्यायः ॥ २८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'तुलापुरुषदानविधि' नामक अट्ठाईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २८ ॥
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