लिंग पुराण : हृदय देश में भगवान् शिव की मानसपूजा एवं न्यासयोगका वर्णन | Linga Purana: Description of mental worship and Nyasayoga of Lord Shiva in Hridaya Desh

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग तेईसवाँ अध्याय

हृदय देश में भगवान् शिव की मानस पूजा एवं न्यास योग का वर्णन

शैलादिरुवाच

अथ ते सम्प्रवक्ष्यामि शिवार्चनमनुत्तमम् । 
त्रिसन्ध्यमर्चयेदीशमग्निकार्य च शक्तितः ॥ १

शैलादि बोले- हे सनत्कुमार! अब मैं आपको अत्युत्तम शिव-पूजनकी विधि बताऊँगा। तीनों कालोंमें भगवान् महेश्वर का पूजन करना चाहिये और सामर्थ्यानुसार हवन भी करना चाहिये ॥ १ ॥

शिवस्नानं पुरा कृत्वा तत्त्वशुद्धिं च पूर्ववत् । 
पुष्पहस्तः प्रविश्याथ पूजास्थानं समाहितः ॥ २

प्राणायामत्रयं कृत्वा दाहनाप्लावनानि च। 
गन्धादिवासितकरो महामुद्रां प्रविन्यसेत् ॥ ३

सर्वप्रथम शिवस्नान करके पूर्वकी भाँति तत्त्वशुद्धि करे और हाथमें पुष्प आदि लेकर पूजा स्थान में प्रवेश करके समाहितचित्त हो तीन प्राणायाम करके दाहन, आप्लावन आदि शुद्धि करके गन्ध आदिसे हाथोंको सुगन्धित करके [योगशास्त्रमें कही गयी। महामुद्राकी रचना करनी चाहिये ॥ २-३ ॥ 

विज्ञानेन तनुं कृत्वा ब्रह्माग्नेरपि यत्नतः। 
अव्यक्तबुद्धयहङ्कारतन्मात्रासम्भवां तनुम् ॥ ४

शिवामृतेन सम्पूतं शिवस्य च यथातथम्।
अधोनिष्ठ्या वितस्त्यां तु नाभ्यामुपरि तिष्ठति ॥ ५

हृदयं तद्विजानीयाद्विश्वस्यायतनं महत्।
हृत्पद्मकणिकायां तु देवं साक्षात्सदाशिवम् ॥ ६

पञ्चवक्त्रं दशभुजं सर्वाभरणभूषितम्।
प्रतिवक्त्रं त्रिनेत्रं च शशाङ्ककृतशेखरम् ॥ ७

बद्धपद्मासनासीनं शुद्धस्फटिकसन्निभम्
ऊर्ध्वं वक्त्रं सितं ध्यायेत्पूर्व कुङ्कुमसन्निभम् ॥ ८

नीलाभं दक्षिणं वक्त्रमतिरक्तं तथोत्तरम्।
गोक्षीरधवलं दिव्यं पश्चिमं परमेष्ठिनः ॥ ९

शूलं परशुखड्गं च वज्रं शक्तिं च दक्षिणे।
बद्धपद्मासनासीनं शुद्धस्फटिकसन्निभम्।
वामे पाशाङ्कुशं घण्टां नागं नाराचमुत्तमम् ॥ १०

वरदाभयहस्तं वा शेषं पूर्ववदेव तु ।
सर्वाभरणसंयुक्तं चित्राम्बरधरं शिवम् ॥ ११

ब्रह्माङ्ग‌विग्रहं देवं सर्वदेवोत्तमोत्तमम् ।
पूजयेत्सर्वभावेन ब्रह्माङ्गैर्ब्रह्मणः पतिम् ॥ १२

अव्यक्त, बुद्धि, अहंकार तथा पंचतन्मात्राओंसे उत्पन्न शरीरको प्रयत्नपूर्वक शुद्ध ज्ञानसे तथा ज्ञानाग्निसे दग्ध करके कल्याणमय अमृतके द्वारा शिवके योग्य पवित्र देह बनाये। ग्रीवासे एक वितस्ति नीचे तथा नाभिसे एक वितस्ति ऊपर हृदयदेश विराजमान है, उसीको विश्वका महान् स्थान समझना चाहिये; उसो हृदयकमलकी कर्णिकामें साक्षात् भगवान् सदाशिवका ध्यान करना चाहिये। वे पाँच मुखों तथा दस भुजाओंसे युक्त हैं, सभी आभरणोंसे सुशोभित हैं, उन्होंने प्रत्येक मुखमें तीन नेत्र धारण कर रखा है, उनके मस्तकपर चन्द्रमा विराजमान है, वे बद्ध पद्मासन लगाकर बैठे हुए हैं, शुद्ध स्फटिकके समान उनका वर्ण है, उनका ऊर्ध्व मुख श्वेतवर्ण है, पूर्व मुख कुंकुमसदृश है, दक्षिण मुख नील आभावाला है और उत्तर मुख अत्यन्त रक्तवर्ण है। उन परमेष्ठी शिवका पश्चिम मुख गोदुग्धके समान धवल तथा दिव्य है। उन्होंने दाहिने हाथमें शूल, परशु, खड्ग, वज्र तथा शक्ति और बायें हाथमें पाश, अंकुश, घंटा, नाग तथा श्रेष्ठ नाराच धारण कर रखा है, वे समस्त आभरणोंसे समन्वित हैं, अद्भुत वस्त्र पहने हुए हैं और वरद तथा अभय मुद्रा धारण किये हुए हैं- इस प्रकार सद्योजात आदि अंगविग्रहवाले, सभी देवताओंमें अतिश्रेष्ठ तथा ब्रह्माके पति भगवान् शिवका ध्यान करना चाहिये तथा [सद्योजातादि] ब्रह्ममन्त्रोंसे सम्यक् प्रकारसे उनका पूजन करना चाहिये ॥ ४-१२॥ 

उक्तानि पञ्च ब्रह्माणि शिवाङ्गानि शृणुष्व मे।
शक्तिभूतानि च तथा हृदयादीनि सुव्रत ॥ १३

ॐ ईशानः सर्वविद्यानां हृदयाय शक्तिबीजाय नमः ।
ॐ ईश्वरः सर्वभूतानाममृताय शिरसे नमः ॥ १४

ॐ ब्रह्माधिपतये कालाग्निरूपाय शिखायै नमः ।
ॐ ब्रह्मणोऽधिपतये कालचण्डमारुताय कवचाय नमः ।। १५

ॐ ब्रह्मणे बृंहणाय ज्ञानमूर्तये नेत्राय नमः ।
ॐ शिवाय सदाशिवाय पाशुपतास्त्राय अप्रतिहताय फट् फट् ॥ १६

ॐ सद्योजाताय भवे भवे नातिभवे भवस्य मां
भवोद्भवाय शिवमूर्तये नमः। 

ॐ हंसशिखाय विद्यादेहाय आत्मस्वरूपाय 
परापराय शिवाय शिवतमाय नमः ।। १७

कथितानि शिवाङ्गानि मूर्तिविद्या च तस्य वै।
ब्रह्माङ्गमूर्ति विद्याङ्गसहितां शिवशासने ॥ १८

सौराणि च प्रवक्ष्यामि बाष्कलाद्यानि सुव्रत।
अङ्गानि सर्ववेदेषु सारभूतानि सुव्रत ॥ १९ 

हे सुव्रत! पंचब्रह्म और शिवांग पहले ही कहे गये हैं; अब शक्तिभूत हृदय आदि मन्त्रोंको सुनिये। ॐ ईशानः सर्वविद्यानां हृदयाय शक्तिबीजाय नमः। ॐ ईश्वरः सर्वभूतानाममृताय शिरसे नमः। ॐ ब्रह्माधिपतये कालाग्निरूपाय शिखायै नमः। ॐ ब्रह्मणोऽधिपतये कालचण्डमारुताय कवचाय नमः। ॐ ब्रह्मणे बृंहणाय ज्ञानमूर्तये नेत्राय नमः। ॐ शिवाय सदाशिवाय पाशुपतास्त्राय अप्रतिहताय फट् फट् । ॐ सद्योजाताय भवे भवे नातिभवे भवस्य मां भवोद्भवाय शिवमूर्तये नमः । ॐ हंसशिखाय विद्यादेहाय आत्मस्वरूपाय परापराय शिवाय शिवतमाय नमः ये शिवांगमन्त्र, उनके मूर्तिमन्त्र तथा विद्यामन्त्र कहे गये हैं। विद्यांगसहित ब्रह्मांग-मूर्तिको शिवशास्त्रमें विद्यमान जानना चाहिये। हे सुव्रत । सभी वेदोंक सारभूत सूर्यसम्बन्धी बाष्कल आदि तथा अंगमन्त्रोंको मैं [प्रसंगवश फिरसे] बताऊँगा ॥ १३-१९ ॥

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः
ॐ तपः ॐ सत्यम् ॐ ऋतम् ॐ ब्रह्म।
नवाक्षरमयं मन्त्रं बाष्कलं परिकीर्तितम्।
न क्षरतीति लोकेऽस्मिस्ततो ह्यक्षरमुच्यते।
सत्यमक्षरमित्युक्तं प्रणवादिनमोऽन्तकम् ॥ २०

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात् ।
नमः सूर्याय खखोल्काय नमः ॥ २१ 

मूलमन्त्रमिति प्रोक्तं भास्करस्य महात्मनः ।
नवाक्षरेण दीप्ताद्या मूलमन्त्रेण भास्करम् ॥ २२

पूजयेदङ्गमन्त्राणि कथयामि समासतः ।
वेदादिभिः प्रभूताद्यं प्रणवेन तु मध्यमम् ॥ २३

ॐ भूः ब्रह्मणे हृदयाय नमः। ॐ भुवः विष्णवे शिरसे नमः ।
ॐ स्वः रुद्राय शिखायै नमः।
ॐ भूर्भुवः स्वः ज्वालामालिन्यै देवाय नमः।
ॐ महः महेश्वराय कवचाय नमः।
ॐ जनः शिवाय नेत्रेभ्यो नमः ।
ॐ तपस्तापनाय अस्त्राय नमः ।
एवं प्रसङ्गादेवेह सौराणि कथितानि ह।
शैवानि च समासेन न्यासयोगेन सुव्रत ।। २४

ॐ भूः ॐ भुवः ॐ स्वः ॐ महः ॐ जनः ॐ तपः ॐ सत्यम् ॐ ऋतम् ॐ ब्रह्म यह नौ अक्षरोंवाला बाष्कलमन्त्र कहा गया है। चूंकि नष्ट नहीं होता, अतः इस लोकमें उसे अक्षर कहा जाता है। आदिमें प्रणव तथा अन्तमें नमःसे युक्त मन्त्रको सत्य तथा अक्षर कहा गया है। ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात् ॥ नमः सूर्याय खखोल्काय नमः- यह महात्मा भास्करका मूलमन्त्र कहा गया है। नवाक्षरमन्त्रसे दीप्ता आदि शक्तियोंकी तथा मूलमन्त्रसे भास्करकी पूजा करनी चाहिये। अब संक्षेपमें अंगमन्त्र बता रहा हूँ। अंगमन्त्र आदिमें प्रणव तथा मध्यमें व्याहृतियोंसे युक्त है। ॐ भूः ब्रह्मणे हृदयाय नमः, ॐ भुवः विष्णवे शिरसे नमः, ॐ स्वः रुद्राय शिखायै नमः, ॐ भूर्भुवः स्वः ग्वालामालिन्यै देवाय नमः, ॐ महः महेश्वराय कवचाय नमः, ॐ जनः शिवाय नेत्रेभ्यो नमः, ॐ तपस्तापनाय अस्त्राय नमः। हे सुव्रत। इस प्रकार मैंने यहाँ प्रसंगवश संक्षेपमें न्यासयोगसे सौर तथा शैव मन्त्रोंको कह दिया ॥ २०-२४॥ 

इत्थं मन्त्रमयं देवं पूजयेद्धदयाम्बुजे।
नाभौ होमं तु कर्तव्यं जनयित्वा यथाक्रमम् ॥ २५

मनसा सर्वकार्याणि शिवाग्नी देवमीश्वरम् ।
पञ्चब्रह्माङ्गसम्भूतं शिवमूर्ति सदाशिवम् ॥ २६

रक्तपद्मासनासीनं शकलीकृत्य यत्नतः ।
मूलेन मूर्तिमन्त्रेण ब्रह्माङ्गाद्यैस्तु सुव्रत ॥ २७

समिदाज्याहुतीहुत्वा मनसा चन्द्रमण्डलात्।
चन्द्रस्थानात्समुत्पन्नां पूर्णधारामनुस्मरेत् ॥ २८

पूर्णाहुतिविधानेन ज्ञानिनां शिवशासने।
शिवं वक्त्रगतं ध्यायेत्तेजोमात्रं च शाङ्करम् ॥ २९

ललाटे देवदेवेशं भ्रूमध्ये वा स्मरेत्पुनः ।
यच्च हृत्कमले सर्वं समाप्य विधिविस्तरम् ॥ ३०

शुद्धदीपशिखाकारं भावयेद्भवनाशनम्।
लिङ्गे च पूजयेद्देवं स्थण्डिले वा सदाशिवम् ॥ ३१

इस प्रकार हृदयकमलमें मन्त्रमय भगवान् शिवकी पूजा करे तथा नाभिस्थानमें यथाविधि अग्नि उत्पन्न करके होम करे; सभी कार्य मनसे ही सम्पन्न करना चाहिये। रक्तकमलके आसनपर बैठे हुए पंचब्रह्मांगसम्भूत कल्याणमूर्ति भगवान् सदाशिवको सकलीकृत करके यत्नपूर्वक मूलमन्त्र, मूर्तिमन्त्र, ब्रह्ममन्त्र और अंगमन्त्रोंसे शिवाग्निमें मनसे ही समिधा और घृतकी आहुति प्रदान करके ज्ञानियोंके लिये शिवशास्त्रमें कही गयी तथा चन्द्रमण्डलमें चन्द्रस्थानसे उत्पन्न अमृतधाराका पूर्णाहुतिके विधानसे स्मरण करना चाहिये। कल्याणकारी तेजोमय शिव मेरे मुखमें प्रविष्ट हैं- ऐसा ध्यान करना चाहिये। ललाटमें अथवा भूमध्यस्थानमें उन देवदेवेश शिव का स्मरण करना चाहिये। इस प्रकार विधिपूर्वक समस्त कृत्य सम्पन्न करके अपने हृदयकमलमें शुद्ध दीपशिखाके आकारवाले भवनाशक शिवकी भावना करनी चाहिये और शिवलिङ्ग अथवा स्थण्डिलमें प्रभु सदाशिवकी पूजा करनी चाहिये॥ २५-३१॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवार्चनविधिवर्णनं नाम त्रयोविंशतितमोऽध्यायः ॥ २३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवार्चनविधिवर्णन' नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २३ ॥

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