श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग अड़तालीसवाँ अध्याय
देवताओं की प्रतिमाओं की संक्षेप में प्रतिष्ठा-विधि तथा विविध देवताओं के गायत्रीमन्त्र
सूत उवाच
सर्वेषामपि देवानां प्रतिष्ठामपि विस्तरात् ।
स्वैर्मन्त्रैर्यागकुण्डानि विन्यस्यैकैकमेव च ॥ १
स्थापयेदुत्सवं कृत्वा पूजयेच्च विधानतः ।
भानोः पञ्चाग्निना कार्य द्वादशाग्निक्रमेण वा ॥ २
सूतजी बोले [हे ऋषियो!] अब मैं अन्य देवताओंकी भी प्रतिष्ठाका विस्तारसे वर्णन करता हूँ। देवताओंके अपने-अपने मन्त्रोंसे यागकुण्डका निर्माण करके प्रत्येक देवताकी स्थापना करनी चाहिये और उत्सव मनाकर विधानपूर्वक उन की पूजा करनी चाहिये। सूर्यका स्थापन पंचाग्नि अथवा द्वादश-अग्निक्रमसे करना चाहिये। हे सुव्रतो! सूर्यस्थापनमें सभी कुण्ड गोल तथा पद्मके आकारके बनाने चाहिये ॥ १-२ ॥
सर्वकुण्डानि वृत्तानि पद्माकाराणि सुव्रताः ।
अम्बाया योनिकुण्डे स्याद्वर्धन्येका विधीयते ॥ ३
शक्तीनां सर्वकार्येषु योनिकुण्डं विधीयते।
गायत्रीं कल्पयेच्छम्भोः सर्वेषामपि यत्नतः ।
सर्वे रुद्रांशजा यस्मात्सङ्क्षेपेण बदामि वः ॥ ४
तत्पुरुषाय विद्यहे वाग्विशुद्धाय धीमहि।
तन्नः शिवः प्रचोदयात् ॥ ५
गणाम्बिकायै विद्यहे कर्मसिद्धयै च धीमहि।
तन्नो गौरी प्रचोदयात् ॥ ६
तत्पुरुषाय विदाहे महादेवाय धीमहि।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ ७
तत्पुरुषाय विद्महे वक्रतुण्डाय धीमहि।
तन्नो दन्तिः प्रचोदयात् ॥ ८
महासेनाय विद्महे वाग्विशुद्धाय धीमहि।
तन्नः स्कन्दः प्रचोदयात् ॥ ९
तीक्ष्णशृङ्गाय विद्महे वेदपादाय धीमहि।
तन्नो वृषः प्रचोदयात् ॥ १०
हरिवक्त्राय विद्महे रुद्रवक्त्राय धीमहि।
तन्नो नन्दी प्रचोदयात् ।। ११
नारायणाय विद्महे वासुदेवाय धीमहि।
तन्नो विष्णुः प्रचोदयात् ॥ १२
महाम्बिकायै विद्यहे कर्मसिद्धयै च धीमहि।
तन्नो लक्ष्मीः प्रचोदयात् ॥ १३
समुद्धृतायै विद्यहे विष्णुनैकेन धीमहि।
तन्नो धरा प्रचोदयात् ॥ १४
वैनतेयाय विद्यहे सुवर्णपक्षाय धीमहि।
तन्नो गरुडः प्रचोदयात् ॥ १५
पद्मोद्भवाय विद्यहे वेदवक्त्राय धीमहि।
तन्नः स्रष्टा प्रचोदयात् ॥ १६
शिवास्यजायै विद्यहे देवरूपायै धीमहि।
तन्नो वाचा प्रचोदयात् ॥ १७
देवराजाय विदाहे वज्रहस्ताय धीमहि।
तन्नः शक्रः प्रचोदयात् ॥ १८
रुद्रनेत्राय विद्महे शक्तिहस्ताय धीमहि।
तन्नो वहिनः प्रचोदयात् ॥ १९
वैवस्वताय विद्यहे दण्डहस्ताय धीमहि।
तन्नो यमः प्रचोदयात् ॥ २०
निशाचराय विद्यहे खड्गहस्ताय धीमहि।
तन्नो निर्ऋतिः प्रचोदयात् ॥ २१
शुद्धहस्ताय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि।
तन्नो वरुणः प्रचोदयात् ॥ २२
सर्वप्राणाय विद्महे यष्टिहस्ताय धीमहि।
तन्नो वायुः प्रचोदयात् ॥ २३
यक्षेश्वराय विद्यहे गदाहस्ताय धीमहि।
तन्नो यक्षः प्रचोदयात् ॥ २४
सर्वेश्वराय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि।
तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ २५
कात्यायन्यै विग्रहे कन्याकुमार्यै धीमहि।
तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥ २६
एवं प्रभिद्य गायत्रीं तत्तदेवानुरूपतः ।
पूजयेत्स्थापयेत्तेषामासनं प्रणवं स्मृतम् ॥ २७
अथवा विष्णुमतुलं सूक्तेन पुरुषेण वा।
विष्णुं चैव महाविष्णुं सदाविष्णुमनुक्रमात् ॥ २८
स्थापयेद्देवगायत्र्या परिकल्प्य विधानतः।
वासुदेवः प्रधानस्तु ततः सङ्कर्षणः स्वयम् ॥ २९
प्रद्युम्नो हह्यनिरुद्धश्च मूर्तिभेदास्तु वै प्रभोः।
बहूनि विविधानीह तस्य शापोद्भवानि च ॥ ३०
सर्वावर्तेषु रूपाणि जगतां च हिताय वै।
मत्स्यः कूर्मोऽथ वाराहो नारसिंहोऽथ वामनः॥ ३१
रामो रामश्च कृष्णश्च बौद्धः कल्की तथैव च।
तथान्यानि न देवस्य हरेः शापोद्भवानि च ॥ ३२
तेषामपि च गायत्रीं कृत्वा स्थाप्य च पूजयेत् ।
गुह्यानि देवदेवस्य हरेर्नारायणस्य च ॥ ३३
विज्ञानानि च यन्त्राणि मन्त्रोपनिषदानि च।
पञ्चब्रह्माङ्गजानीह पञ्चभूतमयानि च ।। ३४
भगवती के स्थापन में योनिकुण्ड होना चाहिये और इसमें एक वर्धनी भी स्थापित करनी चाहिये। देवियोंके सभी कार्योमें योनिकुण्ड ही बनाया जाता है। शम्भुकी तथा सभी देवताओंकी गायत्रीकों यलपूर्वक कल्पित करना चाहिये। सभी देवता रुद्रके ही अंशसे उत्पन हुए हैं। अतः सभी देवताओंकी भिन्न-भिन्न गायत्री हैं; मैं उन्हें संक्षेपमें आप लोगोंको बताता हूँ तत्पुरुषाय विद्हे वाग्विशुद्धाय धीमहि। तननः शिव: प्रचोदयात्॥ गणाम्बिकाये विद्दहे कर्मसिद्धवे॑ च धीमहि। तन्नो गौरी प्रचोदयात्॥ तत्पुरुषाय विद्दाह महादेवाय धीमहि। तन्नो रुद्र: प्रचोदयात्॥ तत्पुरुषाय विद्यहे वक्रतुण्डाय धीमहि। तन्नो दन्ति: प्रचोदयात्॥ महासेनाय विद्यहे वाग्विशुद्धाय धीमहि। तनन्नः स्कन्दः प्रचोदयात्॥ तीक्ष्णश्रुद्राय विद्येह वेदपादाय धीमहि। तनन्नो वृष: प्रचोदयात्॥ हरिवक्त्राय विदाहे रुद्रवक्त्राय धीमहि। तन्नो नन्दी प्रचोदयात्॥ नारायणाय विदाहे वासुदेवाय धीमहि। तनन्नो विष्णु: प्रचोदयात्॥ महाम्बिकाये विद्हे कर्मसिद्धये च धीमहि। तन्नो लक्ष्मी: प्रचोदयात्॥ समुद्धृताये विद्यहे विष्णुनैकेन धीमहि। तन्नो धरा प्रचोदयात्॥ बैनतेयाय विदाहे सुवर्णपक्षाय धीमहि। तन्नो गरुड: प्रचोदयात्॥ पद्मोद्धवाय विद्हे वेदवक्त्राय धीमहि। तनन्नः स्त्रष्टा प्रचोदयात्॥ शिवास्यजाये विद्यहे देवरूपाये धीमहि। तन्नो वाचा प्रचोदयात्॥ देवराजाय विदाहे वज्रहस्ताय धीमहि। तनन्नः शक्रः प्रचोदयात्॥ रुद्रनेत्राय विद्दहे शक्तिहस्ताय धीमहि। तन्नो वहिनः प्रचोदयात्॥ वैवस्वताय विद्यहे दण्डहस्ताय धीमहि। तन्नो यमः प्रचोदयात् ॥ निशाचराय विग्रहे खड्गहस्ताय धीमहि। तन्नो निर्ऋतिः प्रचोदयात् ॥ शुद्धहस्ताय विद्महे पाशहस्ताय धीमहि। तन्नो वरुणः प्रचोदयात् ॥ सर्वप्राणाय विद्यहे यष्टिहस्ताय धीमहि। तन्नो वायुः प्रचोदयात् ।। यक्षेश्वराय विद्यहे गदाहस्ताय धीमहि। तन्नो यक्षः प्रचोदयात् ॥ सर्वेश्वराय विद्महे शूलहस्ताय धीमहि। तन्नो रुद्रः प्रचोदयात् ॥ कात्यायन्यै विदाहे कन्याकुमार्यै धीमहि। तन्नो दुर्गा प्रचोदयात् ॥ स प्रकार उन-उन देवताओंके अनुरूप पृथक्पृथक् गायत्रीका उच्चारणकर उनका स्थापन तथा पूजन करना चाहिये। प्रणणको उनका आसन कहा गया है। अथवा अतुलनीय विष्णुका स्थापन-पूजन पुरुषसूक्तसे करे। विष्णु, महाविष्णु तथा सदाविष्णुको कल्पना करके अनुक्रमसे विष्णुगायत्रीके द्वारा विधानपूर्वक उनकी स्थापना करनी चाहिये। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्यम्म और अनिरुद्ध-ये उन प्रभुकी व्यूहमूर्तियोंके भेद हैं। सत्ययुग आदि युगोंमें लोकोंके कल्याणके लिये शापोंके कारण उनके अनेकविध अवतार हुए हैं। मत्स्य, कूर्म, वाराह, नृसिंह, वामन, राम, परशुराम, कृष्ण, बुद्ध, कल्की तथा और भी उन प्रभुके अन्य अवतार शापके कारण हुए हैं। उनकी भी गायत्रीकी कल्पना करके उनकी स्थापनाकर पूजन करना चाहिये। शिवजी और भगवान् विष्णुके गुप्तरूप, यन्त्र, मन्त्र, उपनिषद्, पृथ्वी आदि पंचभूतमय मूर्तियों और सद्योजात आदि पंचब्रह्मोंका स्थापन करके पूजन करना चाहिये॥ ३--३४॥
नमो नारायणायेति मन्त्रः परमशोभनः ।
हरेरष्टाक्षराणीह प्रणवेन समासतः ॥ ३५
नमो वासुदेवाय नमः सड्डर्षणाय च्च।
प्रद्यम्नाय प्रधानाय अनिरुद्धाय बै नम:॥ ३६
एवमेकेन मन्त्रेण स्थापयेत्परमेश्वरम्।
बिम्बानि यानि देवस्य शिवस्य परमेष्ठिन:॥ ३७
प्रतिष्ठा चेव पूजा च लिड्रवन्मुनिसत्तमा: ।
रलविन्याससहित॑ कौतुकानि हरेरपि॥ ३८
अचले कारयेत्सर्व चलेउप्येव॑ विधानत:।
तनेत्रोन्मीलनं॑ कुर्यन्नेत्रमन्त्रेण सुव्रता:॥ ३९
क्षेत्रप्रदक्षिणं चैव आरामस्य पुरस्थ च।
जलाधिवासनं चैव पूर्ववत्परिकीर्तितम्॥ ४०
कुण्डमण्डपनिर्माणं शयनं च विधीयते।
हुत्वा नवाग्निभागेन नवकुण्डे यथाविधि॥ ४१
अथवा पज्चकुण्डेषु प्रधाने केवलेडथ वा।
प्रतिष्ठा कथिता दिव्या पारम्पर्यक्रमागता॥ ४२
शिलोद्धवानां बिम्बानां चित्राभासस्य वा पुन: ।
जलाधिवासमन प्रोक्त वृषेन्द्रस्थ प्रकीर्तितम्॥ ४३
प्रासादस्य प्रतिष्ठायां प्रतिष्ठा परिकीर्तिता।
प्रासादाड़स्य सर्वस्य यथाड्नां तनोरिव॥ ४४
प्रणणसहित नमो नारायणाय (३० नमी नारायणाय )--यह विष्णुका अत्यन्त उत्तम अष्टक्षिर मन्र है। '३७ नमो वासुदेवाय, ३४ नमः सड्डूर्षणाय, नम: प्रद्युम्नाय, ३७ नम: प्रधानाय, 3 नमः अनिरुद्धाय '--इस प्रकार उन-उन मन्त्रोंमेंसे एकके द्वारा परमेश्वर विष्णुका स्थापन करना चाहिये। हे श्रेष्ठ मुनिगण! परमेष्ठी शिवके जो रूप पूर्वमें बताये जा चुके हैं, उनकी भी प्रतिष्ठा तथा पूजा लिड्भरकी ही भाँति करनी चाहिये। विष्णुकी भी प्रतिष्ठामें [शिवप्रतिष्ठाकी भाँति] रलविन्याससहित मंगलोत्सव करना चाहिये। अचल प्रतिष्ठामें जो किया जाता है, वह सब चलमूर्तिकी भी प्रतिष्ठामें विधानपूर्वक करना चाहिये। हे सुत्रतो! उन सावयव मूर्तियोंका नेत्रोन्मीलन नेत्रमन्त्रसे करे। उद्यान, नगर तथा क्षेत्रकी प्रदक्षिणा तथा जलाधिवासन पूर्वको भाँति कहा गया है। कुण्ड-मण्डपनिर्माण तथा शयन भी पूर्वकी भाँति किया जाता है। नवाग्निभागसे नौ कुण्डोंमें अथवा पाँच कुण्डोंमें अथवा केवल प्रधान कुण्डमें आहुति देकर हवन करे। मैंने परम्पराक्रमसे प्राप्त यह दिव्य प्रतिष्ठा कही है । पाषाणकी बनायी गयी मूर्तियोंका जलाधिवासन करना चाहिये, किंतु चित्रित प्रतिमाओंका जलाधिवासन नहीं करना चाहिये और वृषेन्द्रको मूर्तिका अधिवासन अवश्य करना चाहिये। देवालय-प्रतिष्ठामें तथा उसके भागोंकी प्रतिष्ठामें उसी तरहकी प्रतिष्ठा-विधि बतायी गयी है, जैसी शरीरके अंगोंकी ॥ ३५--४४ ॥
वृषाग्निमातृविध्नेशकुमारानपि. यलतः।
श्रेष्ठां दुर्गा तथा चण्डीं गायत्र्या वै यथधाविधि ॥ ४५
प्रागाद्य॑ स्थापयेच्छम्भोरष्टावरणमुत्तमम् ।
लोकपालगण्शाद्यानपि शम्भो: प्रविन्यसेत्॥ ४६
उमा चण्डी च नन्दी च महाकालो महामुनि:।
विघ्नेश्वरो महाभूड़ी स्कन्दः सौम्यादितः क्रमात्॥ ४७
इन्द्रादीन् स्वेषु स्थानेषु ब्रह्माणं च जनार्दनम्।
स्थापयेच्चैव यल्लेन क्षेत्रेशं वेशगोचरे॥ ४८
सिंहासने हानन्तादीन् विद्येशामपि च क्रमात् ।
स्थापयेत्प्रणवेनेव गुह्याड्रादीनि पड्डजे॥ ४९
एवं सद्धक्षेपतः प्रोक्ते चलस्थापनमुत्तमम्।
सर्वेषामपि देवानां देवीनां च विशेषतः ॥ ५०
वृष, अग्नि, मातृका, विध्नेश (गणपति), कुमार (कार्तिकेय), श्रेष्ठा, दुर्गा तथा चण्डी--ये आठ शिवप्रतिष्ठाके आवरण-देवता हैं; इनकी भी अपनी-अपनी गायत्रीसे यथाविधि पूर्व आदिके क्रमसे प्रतिष्ठा करनी चाहिये। शिवके प्रासादके चारों ओर लोकपाल, गणपति आदिकी भी स्थापना करनी चाहिये। उत्तर दिशासे लेकर क्रमसे उमा, चण्डी, नन्दी, महाकाल, महामुनि [लकुलीश], विघ्नेश्वर, महाभृंगी और स्कन्दकी स्थापना करनी चाहिये। इन्द्र आदि लोकपालों, ब्रह्मा तथा जनार्दनकी स्थापना अपनी-अपनी दिशाओंमें और क्षेत्रयालकी स्थापना ईशानकोण में यलपूर्वक करनी
चाहिये। अनन्त आदि तथा वागीश्वरीकी स्थापना सिंहासनपर और धर्म आदिकी स्थापना कमलके आसनपर प्रणवके साथ करनी चाहिये। इस प्रकार मैंने संक्षेपमें समस्त देवताओं तथा विशेषरूपसे देवियोंकी उत्तम चलप्रतिष्ठाका वर्णन कर दिया ॥ ४५-५०॥
॥ श्रीलिड्रमहापुराणे उत्तरभागे चलमूर्तिस्थापनवर्णनं नामाष्टचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४८ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिड़गहाएयणके अन्तर्गत उत्त भाग में चलमयूर्तिस्थापनवर्णन ' नामक अड़वालीसवा अध्याय पूर्ण हुआ ॥
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