मत्स्य पुराण पचीसवाँ अध्याय
कचका शिष्यभाव से शुक्राचार्य और देवयानीकी सेवामें संलग्न होना और अनेक कष्ट सहने के पश्चात् मृत संजीविनी-विद्या प्राप्त करना
ऋषय ऊचुः
किमर्थं पौरवो वंशः श्रेष्ठत्वं प्राप भूतले।
ज्येष्ठस्यापि यदोर्वंशः किमर्थं हीयते श्रिया ॥ १
अन्यद् ययातिचरितं सूत विस्तरतो वद।
यस्मात् तत्पुण्यमायुष्यमभिनन्द्यं सुरैरपि ॥ २
ऋषियोंने पूछा- सूतजी! (अनुज होकर भी) पूरुका वंश भूतलपर श्रेष्ठताको क्यों प्राप्त हुआ और ज्येष्ठ होते हुए भी यदुका वंश (राज्य) लक्ष्मीसे हौन क्यों हो गया ? इसका तथा ययातिके चरितका विस्तारपूर्वक वर्णन कीजिये; क्योंकि यह पुण्यप्रद, आयुवर्धक और देवताओंद्वारा भी अभिनन्दनीय है ॥१-२॥
सूत उवाच
एतदेव पुरा पृष्टः शतानीकेन शौनकः ।
पुण्यं पवित्रमायुष्यं ययातिचरितं महत् ॥ ३
सूतजी कहते हैं- ऋषियो । पूर्वकालमें शतानीकने (भी) महर्षि शौनकसे ययातिके इसी पुण्यप्रद, परम पवित्र, आयुवर्धक एवं महत्त्वशाली चरित के विषय में (इस प्रकार) प्रश्न किया था॥३॥
शतानीक उवाच
ययातिः पूर्वजोऽस्माकं दशमो यः प्रजापतेः ।
कथं स शुक्रतनयां लेभे परमदुर्लभाम् ॥ ४
एतदिच्छाम्यहं श्रोतुं विस्तरेण तपोधन।
आनुपूर्व्याच्च मे शंस पूरोर्वंशधरान् नृपान् ॥ ५
शतानीकने पूछा- तपोधन। हमारे पूर्वज महाराज ययातिने, जो प्रजापतिसे दसवीं पीढ़ीमें उत्पन्न हुए थे, शुक्राचार्यकी अत्यन्त दुर्लभ पुत्री देवयानीको पनीरूपमें कैसे प्राप्त किया? मैं इस वृत्तान्तको विस्तारके साथ सुनना चाहता हूँ। आप मुझसे पूरुके सभी वंश-प्रवर्तक राजाओंका क्रमशः पृथक् पृथक् वर्णन कीजिये ॥४-५ ॥
शौनक उवाच
ययातिरासीद् राजर्षिर्देवराजसमद्युतिः ।
तं शुक्रवृषपर्वाणी वनाते वै यथा पुरा ॥ ६
तत्तेऽहं सम्प्रवक्ष्यामि पृच्छतो राजसत्तम।
देवयान्याश्च संयोगं ययातेर्नाहुषस्य च ॥ ७
सुराणामसुराणां च समजायत वै मिथः ।
ऐश्वर्यं प्रति सङ्घर्षस्त्रैलोक्ये सचराचरे ॥ ८
जिगीषया ततो देवा वनुराङ्गिरसं मुनिम्।
पौरोहित्ये च यज्ञार्थे काव्यं तूशनर्स परे ॥ ९
ब्राह्मणौ तावुभौ नित्यमन्योन्यं स्पर्धिनी भृशम् ।
तत्र देवा निजघ्नुर्यान् दानवान् युधि संगतान् ॥ १०
तान् पुनर्जीवयामास काव्यो विद्याबलाश्रयात् ।
ततस्ते पुनरुत्थाय योधयाञ्चक्रिरे सुरान् ॥ ११
असुरास्तु निजघ्नुर्यान् सुरान् समरमूर्धनि।
न तान् स जीवयामास बृहस्पतिरुदारधीः ॥ १२
न हि वेद स तां विद्यां यां काव्यो वेद वीर्यवान्।
सञ्जीवनीं ततो देवा विषादमगमन् परम् ॥ १३
शौनकजीने कहा- राजसत्तम। राजर्षि ययाति देवराज इन्द्रके समान तेजस्वी थे। पूर्वकालमें शुक्राचार्य और वृषपर्वाने ययातिका अपनी-अपनी कन्याके पतिरूपमें जिस प्रकार वरण किया था, वह सब प्रसङ्ग तुम्हारे पूछनेपर मैं तुमसे कहूँगा। साथ ही यह भी बताऊँगा कि नहुषनन्दन ययाति तथा देवयानीका संयोग किस प्रकार हुआ। एक समय चराचर प्राणियोंसहित समस्त त्रिलोकीके ऐश्वर्यके लिये देवताओं और असुरोंमें परस्पर बड़ा भारी संघर्ष हुआ, उसमें विजय पानेकी इच्छासे देवताओंने यज्ञ-कार्यक लिये अङ्गिरा मुनिके पुत्र बृहस्पतिका पुरोहितके पदपर वरण किया और दैत्योंने शुक्राचार्यको पुरोहित बनाया। वे दोनों ब्राह्मण सदा आपसमें बहुत लाग-डॉट रखते थे। देवता उस युद्धमें आये हुए जिन दानवोंको मारते थे, उन्हें शुक्राचार्य अपनी संजीविनी-विद्याके बलसे पुनः जीवित कर देते थे। वे पुनः उठकर देवताओंसे युद्ध करने लगते; परंतु असुरगण युद्धके मुहानेपर जिन देवताओंको मारते, उन्हें उदारबुद्धि बृहस्पति जीवित नहीं कर पाते; क्योंकि शक्तिशाली शुक्राचार्य जिस संजीविनी-विद्याको जानते थे, उसका ज्ञान बृहस्पतिको न था। इससे देवताओंको बड़ा विषाद हुआ ॥६-१३॥
अथ देवा भयोद्विग्ग्राः काव्यादुशनसस्तदा।
ऊचुः कचमुपागम्य ज्येष्ठं पुत्रं बृहस्पतेः ॥ १४
भजमानान् भजस्वास्मान् कुरु साहाय्यमुत्तमम् ।
यासौ विद्या निवसति ब्राह्मणेऽमिततेजसि ॥ १५
शुक्रे तामाहर क्षिप्रं भागमग्ग्रौ भविष्यसि।
वृषपर्वणः समीपेऽसौ शक्यो द्रष्टुं त्वया द्विजः ॥ १६
रक्षते दानवांस्तत्र न स रक्षत्यदानवान्।
तमाराधयितुं शक्तो नान्यः कश्चिदूते त्वया ।। १७
देवयानी च दयिता सुता तस्य महात्मनः ।
तामाराधयितुं शक्तो नान्यः कश्चन विद्यते ॥ १८
शीलदाक्षिण्यमाधुर्यैराचारेण दमेन च।
देवयान्यां तु तुष्टायां विद्यां तां प्राप्स्यसि ध्रुवम् ॥ १९
तदा हि प्रेषितो देवैः समीपे वृषपर्वणः ।
तथेत्युक्त्वा तु स प्रायाद् बृहस्पतिसुतः कचः ॥ २०
स गत्वा त्वरितो राजन् देवैः सम्पूजितः कचः ।
असुरेन्द्रपुरे शुक्रं प्रणम्येदमुवाच ह। २१
ऋषेरङ्गिरसः पौत्रं पुत्रं साक्षाद् बृहस्पतेः।
नाम्ना कचेति विख्यातं शिष्यं गृह्णातु मां भवान् ॥ २२
ब्रह्मचर्यं चरिष्यामि त्वय्यहं परमं गुरो।
अनुमन्यस्व मां ब्रह्मन् सहस्त्रपरिवत्सरान् ॥ २३
देवता शुक्राचार्यके भयसे उद्विग्र हो गये। तब वे बृहस्पतिके ज्येष्ठ पुत्र कचके पास जाकर बोले- 'ब्रहान् । हम तुम्हारी शरणमें हैं। तुम हमें अपनाओ और हमारी उत्तम सहायता करो। अमित तेजस्वी ब्राह्मण शुक्राचार्यक पास जो मृतसंजीविनी-विद्या है, उसे तुम शीघ्र सीख लो, इससे तुम हम देवताओंके साथ यज्ञमें भाग प्राप्त कर सकोगे। राजा वृषपर्वाके समीप तुम्हें विप्रवर शुक्राचार्यका दर्शन हो सकता है। वहाँ रहकर वे दानवोंकी रक्षा करते हैं; किंतु जो दानव नहीं हैं, उनकी रक्षा नहीं करते। उनकी आराधना करनेके लिये तुम्हारे अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं है। उन महात्माकी प्यारी पुत्रीका नाम देवयानी है, उसे अपनी सेवाओंद्वारा तुम्हीं प्रसत्र कर सकते हो। दूसरा कोई इसमें समर्थ नहीं है। अपने शील स्वभाव, उदारता, मधुर व्यवहार, सदाचार तथा इन्द्रियसंयमद्वारा देवयानीको संतुष्ट कर लेनेपर तुम निश्चय ही उस विद्याको प्राप्त कर लोगे।' तब 'बहुत अच्छा' कहकर बृहस्पति-पुत्र कच देवताओंसे सम्मानित हो वहाँसे वृषपवकि समीप गया। राजन्। देवताओंद्वारा भेजा गया कच तुरंत दानवराज वृषपवकि नगरमें जाकर शुक्राचार्यसे मिला और उन्हें प्रणाम करके इस प्रकार बोला- 'भगवन्। मैं अङ्गिरा ऋषिका पौत्र तथा साक्षात् बृहस्पतिका पुत्र हूँ। मेरा नाम कच है। आप मुझे अपने शिष्यके रूपमें ग्रहण करें। ब्रहान्। आप मेरे गुरु हैं। मैं आपके समीप रहकर एक हजार वर्षोंतक उत्तम ब्रह्मचर्यका पालन करूँगा। इसके लिये आप मुझे अनुमति दें' ॥ १४-२३॥
शुक्र उवाच
कच सुस्वागतं तेऽस्तु प्रतिगृह्णामि ते वचः ।
अर्चयिष्येऽहमर्थ्यं त्वामर्चितोऽस्तु बृहस्पतिः ॥ २४
शुक्राचार्यने कहा- कच। तुम्हारा भलीभाँति स्वागत है, मैं तुम्हारी प्रार्थना स्वीकार करता हूँ। तुम मेरे लिये आदरके पात्र हो, अतः मैं तुम्हारा सम्मान एवं सत्कार करूँगा। तुम्हारे आदर-सत्कारसे मेरे द्वारा बृहस्पतिका (ही) आदर-सत्कार होगा ॥ २४ ॥
शौनक उवाच
कचस्तु तं तथेत्युक्त्वा प्रतिजग्राह तद् व्रतम् ।
आदिष्टं कविपुत्रेण शुक्रेणोशनसा स्वयम् ॥ २५
व्रतं च व्रतकालं च यथोक्तं प्रत्यगृह्नत।
आराधयन्नुपाध्यायं देवयानीं च भारत । २६
नित्यमाराधयिष्यंस्तां युवा यौवनगोचराम्।
गायन् नृत्यन् वादयंश्च देवयानीमतोषयत् ॥ २७
संशीलयन् देवयानीं कन्यां सम्प्राप्तयौवनाम् ।
पुष्यैः फलैः प्रेषणैश्च तोषयामास भार्गवीम् ॥ २८
देवयान्यपि तं विप्रं नियमव्रतचारिणम्।
अनुगायन्ती ललना रहः पर्यचरत् तदा। २९
पञ्चवर्षशतान्येवं कचस्य चरतो भृशम्।
तत्तत्तीनं व्रतं बुद्ध्वा दानवास्तं ततः कचम् ॥ ३०
गा रक्षन्तं वने दृष्ट्वा रहस्येनममर्षिताः ।
जष्ठबृहस्पतेद्वेषान्निजरक्षार्थमेव च ॥ ३१
हत्वा सालावृकेभ्यश्च प्रायच्छंस्तिलशः कृतम् ।
ततो गावो निवृत्तास्ता अगोपाः स्वनिवेशनम् ॥ ३२
ता दृष्ट्वा रहिता गास्तु कचो नाभ्यागतो वनात्।
उवाच वचनं काले देवयान्यथ भार्गवम् ॥ ३३
हुतं चैवाग्निहोत्रं ते सूर्यश्चास्तं गतः प्रभो।
अगोपाश्चागता गावः कचस्तात न दृश्यते ।। ३४
व्यक्तं हतो धृतो वापि कचस्तात भविष्यति ।
तं विना नैव जीवामि वचः सत्यं ब्रवीम्यहम् ॥ ३५
शौनकजी कहते हैं तब कचने 'बहुत अच्छा' कहकर महाकान्तिमान् कविपुत्र शुक्राचार्यके आदेशके अनुसार स्वयं ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण किया। राजन् ! नियत समयतकके लिये व्रतकी दीक्षा लेनेवाले कचको शुक्राचार्यने भलीभाँति अपना लिया। कच आचार्य शुक्र तथा उनकी पुत्री देवयानी दोनोंकी नित्य आराधना करने लगा। वह नवयुवक था और जवानीमें प्रिय लगनेवाले कार्य-गायन और नृत्य करके भाँति-भाँतिके बाजे बजाकर देवयानीको संतुष्ट रखता था। आचार्यकन्या देवयानी भी युवावस्थामें पदार्पण कर चुकी थी। कच उसके लिये फूल और फल ले आता तथा उसकी आज्ञाके अनुसार कार्य करता। (इस प्रकार उसकी सेवामें संला रहकर वह सदा उसे प्रसन्न रखता था।) देवयानी भी नियमपूर्वक ब्रह्मचर्य धारण करनेवाले कचके ही समीप रहकर गाती और आमोद-प्रमोद करती हुई एकान्तमें उसकी सेवा करती थी।
इस प्रकार वहाँ रहकर ब्रह्मचर्य- व्रतका पालन करते हुए कचके पाँच सौ वर्ष व्यतीत हो गये। तब दानवोंको यह बात मालूम हुई। तदनन्तर कचको वनके एकान्त प्रदेशमें अकेले गौएँ चराते देख बृहस्पतिके द्वेषसे और संजीविनी-विद्याकी रक्षाके लिये क्रोधमें भरे हुए दानवोंने कचको मार डाला। उन्होंने मारनेके बाद उसके शरीरको टुकड़े-टुकड़े कर कुत्तों और सियारोंको बाँट दिया। उस दिन गौएँ बिना रक्षकके ही अपने स्थानपर लौटीं। जब देवयानीने देखा, गौएँ तो वनसे लौट आर्यों, पर उनके साथ कच नहीं है, तब उसने उस समय अपने पितासे इस प्रकार कहा- 'प्रभो! आपने अग्रिहोत्र कर लिया और सूर्यदेव भी अस्ताचलको चले गये। गौएँ भी आज बिना रक्षकके ही लौट आयी हैं। तात। तो भी कच नहीं दिखायी देता। पिताजी। अवश्य ही कच या तो मारा गया है या पकड़ लिया गया है। मैं आपसे सच कहती हूँ, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकूँगी ॥ २५-३५ ॥
शुक्र उवाच
अथेोहीति शब्देन मृतं संजीवयाम्यहम्।
ततः संजीवनीं विद्यां प्रयुक्त्वा कचमाह्वयत् ॥ ३६
आहूतः प्राद्रवद् दूरात् कचः शुक्रं ननाम सः ।
हतोऽहमिति चाचख्यौ राक्षसैर्धिषणात्मजः ॥ ३७
स पुनर्देवयान्योक्तः पुष्पाहारे यदृच्छया।
वनं ययौ कचो विप्रः पठन् ब्रह्म च शाश्वतम् ।। ३८
वने पुष्पाणि चिन्वन्तं ददृशुर्दानवाश्च तम्।
ततो द्वितीये तं हत्वा दग्धं कृत्वा च चूर्णवत् ।
प्रायच्छन् ब्राह्मणायैव सुरायामसुरास्तदा ॥ ३९
देवयान्यथ भूयोऽपि पितरं वाक्यमब्रवीत्।
पुष्पाहारप्रेषणकृत्कचस्तात न दृश्यते ॥ ४०
व्यक्तं हतो मृतो वापि कचस्तात भविष्यति।
तं विना नैव जीवामि वचः सत्यं ब्रवीमि ते ।। ४१
शुक्राचार्यने कहा- (बेटी! चिन्ता न करो।) मैं मरे हुए कचको अभी 'आओ, आओ-इस प्रकार बुलाकर जीवित किये देता हूँ। ऐसा कहकर उन्होंने संजीविनी-विद्याका प्रयोग किया और कचको पुकारा। फिर तो गुरुके पुकारनेपर सरस्वतीनन्दन कच दूरसे ही दौड़ पड़ा और शुक्राचार्यके निकट आकर उन्हें प्रणाम कर बोला- 'गुरो। राक्षसोंने मुझे मार डाला था।' पुनः देवयानीने स्वेच्छानुसार वनसे पुष्प लानेके लिये कचको आज्ञा दी, तब ब्राह्मण कच सनातन ब्रह्म (वेद) का पाठ करते हुए वनमें गया। दानवोंने वनमें उसे पुष्पोंका चयन करते हुए देख लिया। तत्पश्चात् असुरोंने दूसरी बार मारकर आगमें जलाया और उसकी जली हुई लाशका चूर्ण बनाकर मदिरामें मिला दिया तथा उसे शुक्राचार्यको हो पिला दिया। अब देवयानी पुनः अपने पितासे यह बात बोली- 'पिताजी! आज मैंने उसे फूल लानेके लिये भेजा था, परंतु अभीतक वह दिखायी नहीं दिया। तात। जान पड़ता है कि वह मार दिया गया या मर गया। मैं आपसे सच कहती हूँ, मैं उसके बिना जीवित नहीं रह सकती' ॥ ३६-४१॥
शुक्र उवाच
बृहस्पतेः सुतः पुत्रि कचः प्रेतगतिं गतः ।
विद्यया जीवितोऽप्येवं हन्यते करवाणि किम् ॥ ४२
मैवं शुचो मा रुद देवयानि न त्वादृशी मर्त्यमनु प्रशोचेत्।
यस्यास्तव ब्रह्म च ब्राह्मणाश्च सेन्द्रा देवा वसवोऽश्विनी च ॥ ४३
सुरद्विषश्चैव जगच्च सर्व- मुपस्थितं मत्तपसः प्रभावात्।
अशक्योऽयं जीवयितुं द्विजातिः स जीवितो यो वध्यते चैव भूयः ॥ ४४
शुक्राचार्यने कहा-बेटी! बृहस्पतिका पुत्र कच मर गया। मैंने विद्यासे उसे कई बार जिलाया तो भी वह इस प्रकार मार दिया जाता है, अब मैं क्या करूँ। देवयानि तुम इस प्रकार शोक न करो, रोओ मत। तुम-जैसी शक्तिशालिनी स्त्री किसी मरनेवालेके लिये शोक नहीं करती। तुम्हें तो वेद, ब्राह्मण, इन्द्रसहित सब देवता, वसुगण, अश्विनीकुमार, दैत्य तथा सम्पूर्ण जगत्के प्राणी मेरे प्रभावसे तीनों संध्याओंके समय मस्तक झुकाकर प्रणाम करते हैं। अब उस ब्राह्मणको जिलाना असम्भव है। यदि जीवित हो जाय तो फिर दैत्योंद्वारा मार डाला जायगा (अतः उसे जिलानेसे कोई लाभ नहीं है।) ॥४२-४४॥
देवयान्युवाच
यस्याङ्गिरा वृद्धतमः पितामहो बृहस्पतिश्चापि पिता तपोनिधिः ।
ऋषेः सुपुत्रं तमथापि पौत्रं कथं न शोचे यमहं न रुद्याम् ॥ ४५
स ब्रह्मचारी च तपोधनश्च सदोत्थितः कर्मसु चैव दक्षः।
कचस्य मार्ग प्रतिपत्स्ये न भोक्ष्ये प्रियो हि मे तात कचोऽभिरूपः ।। ४६
देवयानी बोली- पिताजी। अत्यन्त वृद्ध महर्षि अङ्गिरा जिसके पितामह हैं, तपस्याके भण्डार बृहस्पति जिसके पिता हैं, जो ऋषिका पुत्र और ऋषिका ही पौत्र है, उस ब्रह्मचारी कचके लिये मैं कैसे शोक न करूँ और कैसे न रोकै ? तात! वह ब्रह्मचर्यपालनमें रत था, तपस्या हो उसका धन था। वह सदा ही सजग रहनेवाला और कार्य करनेमें कुशल था। इसलिये कच मुझे बहुत प्रिय था। वह सदा मेरे मनके अनुरूप चलता था। अब मैं भोजनका त्याग कर दूँगी और कच जिस मार्गपर गया है, वहीं में भी चली जाऊँगी ॥ ४५-४६ ॥
शौनक उवाच
स त्वेवमुक्तो देवयान्या महर्षिः संरम्भेण व्याजहाराथ काव्यः ।
असंशयं मामसुरा द्विषन्ति ये मे शिष्यानागतान् सूदयन्ति ॥ ४७
अब्राह्मणं कर्तुमिच्छन्ति रौद्रा एभिर्व्यर्थं प्रस्तुतो दानवैर्हि।
तत्कर्मणाप्यस्य भवेदिहान्तः कं ब्रह्महत्या न दहेदपीन्द्रम् ।। ४८
स तेनापृष्टो विद्यया चोपहूतो शनैर्वाचं जठरे व्याजहार।
तमब्रवीत् केन चेहोपनीतो ममोदरे तिष्ठसि ब्रूहि वत्स ॥ ४९
शौनकजी कहते हैं- शतानीक। देवयानीके कहनेसे उसके दुःखसे दुःखी महर्षि शुक्राचार्यने कचको पुकारा और दैत्योंके प्रति कुपित होकर बोले 'इसमें तनिक भी संशय नहीं है कि असुरलोग मुझसे द्वेष करते हैं। तभी तो यहाँ आये हुए मेरे शिष्योंको ये लोग मार डालते हैं। ये भयंकर स्वभाववाले दैत्य मुझे ब्राह्मणत्वसे गिराना चाहते हैं। इसीलिये प्रतिदिन मेरे विरुद्ध आचरण कर रहे हैं। इस पापका परिणाम यहाँ अवश्य प्रकट होगा। ब्रह्महत्या किसे नहीं जला देगी, चाहे वह इन्द्र ही क्यों न हों?' जब गुरुने विद्याका प्रयोग करके बुलाया, तब उनके पेटमें बैठा हुआ कच भयभीत हो धीरेसे बोला। (उसकी आवाज सुनकर) शुक्राचार्यने पूछा- 'वत्स । किस मार्गसे जाकर तुम मेरे उदरमें स्थित हो गये। ठीक-ठीक बताओ' ॥ ४७-४९ ॥
कच उवाच
भवत्प्रसादान्न जहाति मां स्मृतिः सर्वं स्मरेयं यच्च यथा च वृत्तम्।
न त्वेवं स्यात् तपसः क्षयो मे ततः क्लेशं घोरतरं स्मरामि ॥ ५०
असुरैः सुरायां भवतोऽस्मि दत्तो हत्वा दग्ध्वा चूर्णयित्वा च काव्य।
ब्राह्मीं मायां त्वासुरीं त्वत्र माया त्वयि स्थिते कथमेवाभिबाधते ॥ ५१
शुक्र उवाच
किं ते प्रियं करवाण्यद्य वत्से विनैव मे जीवितं स्यात् कचस्य।
नान्यत्र कुक्षेर्मम भेदनाच्च दृश्येत् कचो मगतो देवयानि ॥ ५२
कचने कहा- गुरुदेव। आपके प्रसादसे मेरी स्मरणशक्तिने साथ नहीं छोड़ा है। जो बात जैसे हुई, वह सब मुझे स्मरण है। इस प्रकार पेट फाड़कर निकल जानेसे मेरी तपस्याका नाश होगा। वह न हो, इसलिये मैं यहाँ घोर क्लेश सहन करता हूँ। आचार्यपाद। असुरोंने मुझे मारकर मेरे शरीरको जलाया और चूर्ण बना दिया। फिर उसे मदिरामें मिलाकर आपको पिला दिया। विप्रवर! आप ब्राह्मी, आसुरी और दैवी- तीनों प्रकारकी मायाओंको जानते हैं। आपके होते हुए कोई इन मायाओंका उल्लङ्घन कैसे कर सकता है? शुक्राचार्य बोले- वेटी देवयानि। अब तुम्हारे लिये कौन-सा प्रिय कार्य करूँ। मेरे वधसे ही कचका जीवित होना सम्भव है। मेरे उदरको विदीर्ण करनेके अतिरिक्त और कोई ऐसा उपाय नहीं है, जिससे मेरे शरीरमें बैठा हुआ कच बाहर दिखायी दे॥५०-५२॥
देवयान्युवाच
द्वौ मां शोकावग्निकल्पौ दहेतां कचस्य नाशस्तव चैवोपघातः ।
कचस्य नाशे मम नास्ति शर्म तवोपघाते जीवितुं नास्मि शक्ता ॥ ५३
शुक्र उवाच
संसिद्धरूपोऽसि बृहस्पतेः सुत यत् त्वां भक्तं भजते देवयानी।
विद्यामिमां प्राप्नुहि जीवनीं त्वं न चेदिन्द्रः कचरूपी त्वमद्य ॥ ५४
न निवर्तेत पुनर्जीवन् कश्चिदन्यो ममोदरात्।
ब्राह्मणं वर्जयित्वैकं तस्माद् विद्यामवाप्नुहि ॥ ५५
पुत्रो भूत्वा निष्क्रमस्वोदरान्मे भित्त्वा कुक्षि जीवय मां च तात।
अवेक्षेथा धर्मवतीमवेक्षां गुरोः सकाशात् प्राप्तविद्यां सविद्यः ।। ५६
देवयानीने कहा- पिताजी। कचका नाश और आपका वध ये दोनों हो शोक अग्निके समान मुझे जला देंगे। कचके नष्ट होनेपर मुझे शान्ति नहीं मिलेगी और आपके मरनेपर मैं जीवित न रह सकूँगी शुक्राचार्य बोले- बृहस्पतिके पुत्र कच! अब तुम सिद्ध हो गये; क्योंकि तुम देवयानीके भक्त हो और वह तुम्हें चाहती है। यदि कचके रूपमें तुम इन्द्र नहीं हो तो मुझसे मृतसंजीविनी-विद्या ग्रहण करी। केवल एक ब्राह्मणको छोड़कर दूसरा कोई ऐसा नहीं है, जो मेरे पैटसे पुनः जीवित निकल सके। इसलिये तुम विद्या ग्रहण करो। तात! मेरे इस शरीरसे जीवित निकलकर मेरे लिये पुत्रके तुल्य हो मुझे पुनः जिला देना। मुझ गुरुसे विद्या प्राप्त करके विद्वान् हो जानेपर भी मेरे प्रति धर्मयुक्त दृष्टिसे ही देखना ॥ ५३-५६॥
शौनक उवाच
गुरोः सकाशात् समवाप्य विद्यां भित्त्वा कुक्षि निर्विचक्राम विप्रः ।
प्रालेयाद्रेः शुक्लमुद्भिद्य शृङ्ग रात्र्यागमे पौर्णमास्यामिवेन्दुः ।। ५७
दृष्ट्वा च तं पतितं वेदराशि- मुत्थापयामास ततः कचोऽपि।
विद्यां सिद्धां तामवाप्याभिवाद्य ततः कचस्तं गुरुमित्युवाच ॥ ५८
निधिं निधीनां वरदं वराणां ये नाद्रियन्ते गुरुमर्चनीयम् ।
प्रालेयाद्रिप्रोज्वलद्भालसंस्थ पापाँल्लोकांस्ते व्रजन्त्यप्रतिष्ठाः ॥ ५९
शौनक उवाच
सुरापानाद् वञ्चनात् प्रापयित्वा संज्ञानाशं चेतसश्चापि घोरम्।
दृष्ट्वा कचं चापि तथाभिरूपं पीतं तथा सुरया मोहितेन ॥ ६०
समन्युरुत्थाय महानुभाव- स्तदोशना विप्रहितं चिकीर्षुः ।
काव्यः स्वयं वाक्यमिदं जगाद सुरापानं प्रत्यसौ जातशङ्कः ॥ ६१
शौनकजी कहते हैं- शतानीक ! गुरुसे संजीविनी- विद्या प्राप्त करके विप्रवर कच तत्काल हो महर्षि शुक्राचार्यका पेट फाड़कर ठीक उसी तरह निकल आया, जैसे दिन बीतनेपर पूर्णिमाकी संध्याके समय हिमालय पर्वतके थेत शिखरको भेदकर चन्द्रमा प्रकट हो जाते हैं। मूर्तिमान् वेदराशिके तुल्य शुक्राचार्यको भूमिपर पड़ा देख कचने भी अपने मरे हुए गुरुको (संजीविनी)-विद्याको प्राप्त कर लेनेपर गुरुको प्रणाम कर वह इस प्रकार बोला 'जो लोग निधियोंके भी निधि, श्रेष्ठ लोगोंको भी वरदान देनेवाले, मस्तकपर हिमालय पर्वतके समान वेत केशधारी पूजनीय गुरुदेवका (उनसे विद्या प्राप्त करके भी) आदर नहीं कर शौनकजी कहते हैं- शतानीक। विद्वान् शुक्राचार्य मदिरापानसे ठगे गये थे और उस अत्यन्त भयानक परिस्थितिको पहुँच गये थे, जिसमें तनिक भी चेत नहीं रह जाता। मदिरासे मोहित होनेके कारण ही वे उस समय अपने मनके अनुकूल चलनेवाले प्रिय शिष्य ब्राह्मणकुमार कचको भी पी गये थे। यह सब देख और सोचकर वे महानुभाव कविपुत्र शुक्र कुपित हो उठे। मदिरा-पानके प्रति उनके मनमें क्रोध और घृणाका भाव जाग उठा और उन्होंने ब्राह्मणोंका हित करनेकी इच्छासे स्वयं इस प्रकार घोषणा की ॥ ५७-६१ ॥
शुक्र उवाच
यो ब्राह्मणोऽद्यप्रभृतीह कश्चि- न्मोहात् सुरां पास्यति मन्दबुद्धिः ।
अपेतधर्मा ब्रह्महा चैव स स्या दस्मिल्लोके गर्हितः स्यात् परे च ।। ६२
मया चेमां विप्रधर्मोक्तसीमां मर्यादां वै स्थापितां सर्वलोके।
सन्तो विप्राः शुश्रुवांसो गुरूणां देवा दैत्याश्चोपशृण्वन्तु सर्वे ॥ ६३
शौनक उवाच
इतीदमुक्त्वा स महाप्रभाव- स्ततो निधीनां निधिरप्रमेयः।
तान् दानवांश्चैव निगूढबुद्धी- निदं समाहूय वचोऽभ्युवाच ॥ ६४
शुक्र उवाच
आचक्षे वो दानवा बालिशाः स्थ शिष्यः कचो वत्स्यति मत्समीपे ।
संजीवनीं प्राप्य विद्यां मयायं तुल्यप्रभावो ब्राह्मणो ब्रह्मभूतः ॥ ६५
शौनक उवाच
गुरोरुष्य सकाशे च दशवर्षशतानि सः।
अनुज्ञातः कचो गन्तुमियेष त्रिदशालयम् ॥ ६६
शुक्राचार्यने कहा-आजसे (इस जगत्का) जो कोई भी मन्दबुद्धि ब्राह्मण अज्ञानसे भी मदिरापान करेगा, वह धर्मसे भ्रष्ट हो ब्रह्महत्याके पापका भागी होगा तथा इहलोक और परलोक दोनोंमें निन्दित होगा। धर्मशास्त्रोंमें ब्राह्मण-धर्मकी जो सीमा निर्धारित की गयी है, उसीमें मेरे द्वारा स्थापित की हुई यह मर्यादा भी रहे और सम्पूर्ण लोकमें मान्य हो। साधु पुरुष, ब्राह्मण, गुरुओंके समीप अध्ययन करनेवाले शिष्य, देवता और समस्त जगत्के मनुष्य मेरी बाँधी हुई इस मर्यादाको अच्छी तरह सुन लें शौनकजी कहते हैं- ऐसा कहकर तपस्याकी निधियोंकी निधि, अप्रमेय शक्तिशाली महानुभाव शुक्राचार्यने, दैवने जिनकी बुद्धिको मोहित कर दिया था, उन दानवोंको बुलाया और इस प्रकार कहा शुक्राचार्यंने कहा- 'दानवो। तुम सब (बड़े) मूर्ख हो। मैं तुम्हें बताये देता हूँ- (महात्मा) कच मुझसे संजीवनी-विद्या पाकर सिद्ध हो गया है। इसका प्रभाव मेरे ही समान है। यह ब्राह्मण ब्रह्मस्वरूप है शौनकजी कहते हैं- कचने (इस प्रकार) एक हजार वर्षांतक गुरुके समीप रहकर अपना व्रत पूरा कर लिया। तब (गुरुसे) घर जानेकी अनुमति मिल जानेपर उसने देवलोकमें जानेका विचार किया ॥ ६२-६६ ॥
॥ इति श्रीमात्स्ये महापुराणे सोमवंशे ययातिचरिते पञ्चविंशोऽध्यायः ॥ २५ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोम-वंश-वर्णन-प्रसंगमें ययाति-चरित नामक पचीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २५॥
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