इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंश का वर्णन | ilaaka vrttaant tatha ikshvaaku vansh ka varnan

मत्स्य पुराण बारहवाँ अध्याय

इलाका वृत्तान्त तथा इक्ष्वाकु वंश का वर्णन

सूत उवाच

अथान्विषन्तो राजानं भ्रातरस्तस्य मानवाः ।
इक्ष्वाकुप्रमुखा जग्मुस्तदा शरवणान्तिकम् ॥ १

सूतजी कहते हैं- ऋषियो। (बहुत दिनोंतक राजा इलके राजधानी न लौटनेपर सशङ्कित होकर) उनके छोटे भाई मनु-पुत्र इक्ष्वाकु आदि राजा इल (सुद्युम्न) का अन्वेषण करते हुए उसी शरवणके निकट जा पहुँचे।

ततस्ते ददृशुः सर्वे वडवामग्रतः स्थिताम्।
रत्रपर्याणकिरणदीप्तकायामनुत्तमाम् ॥ २

पर्याणप्रत्यभिज्ञानात् सर्वे विस्मयमागताः । 
अयं चन्द्रप्रभो नाम वाजी तस्य महात्मनः ॥ ३

अगमद् वडवारूपमुत्तमं केन हेतुना। 
ततस्तु मैत्रावरुणिं पप्रच्छुस्ते पुरोधसम् ॥ ४

किमित्येतदभूच्चित्रं वद योगविदां वर।
वसिष्ठश्चान्नवीत् सर्वं दृष्ट्वा तद् ध्यानचक्षुषा ।। ५

समयः शम्भुदयिताकृतः शरवणे पुरा। 
यः पुमान् प्रविशेदत्र स नारीत्वमवाप्स्यति ॥ ६

अयमश्वोऽपि नारीत्वमगाद् राज्ञा सहैव तु।
पुनः पुरुषतामेति यथासौ धनदोपमः ॥ ७

तथैव यत्नः कर्त्तव्यश्चाराध्यैव पिनाकिनम्। 
ततस्ते मानवा जग्मुर्यंत्र देवो महेश्वरः ॥ ८

तुष्टुवुर्विविधैः स्तोत्रैः पार्वतीपरमेश्वरी। 
तावूचतुरलङ्ख्योऽयं समयः किंतु साम्प्रतम् ॥ ९

इक्ष्वाकोरश्वमेधेन यत् फलं स्यात् तदावयोः । 
दत्त्वा किम्पुरुषो वीरः स भविष्यत्यसंशयम् ॥ १०

तथेत्युक्तास्ततस्ते तु जग्मुर्वैवस्वतात्मजाः ।
इश्वाकोश्चाश्वमेधेन चेलः किम्पुरुषोऽभवत् ॥ ११

मासमेकं पुमान् वीरः स्त्री च मासमभूत् पुनः । 
बुधस्य भवने तिष्ठन्निलो गर्भधरोऽभवत् ॥ १२

अजीजनत् पुत्रमेकमनेकगुणसंयुतम् । 
बुधश्चोत्पाद्य तं पुत्रं स्वर्लोकमगमत् ततः ॥ १३

वहाँ उन सभीने मार्गक अग्रभागमें खड़ी हुई एक अनुपम घोड़ीको देखा, जिसका शरीर रत्ननिर्मित जीनकी किरणोंसे उद्दीस हो रहा था। तत्पश्चात् जीनको पहचानकर वे सभी बन्धु आश्चर्यचकित हो गये (और परस्पर कहने लगे) 'अरे! यह तो हमारे भाई महात्मा राजा इलका चन्द्रप्रभ नामक घोड़ा है। किस कारण यह सुन्दर घोड़ीके रूपमें परिणत हो गया। तब वे सभी लौटकर अपने कुल पुरोहित महर्षि वसिष्ठके पास जाकर पूछने लगे- 'योगवेत्ताओंमें श्रेष्ठ महर्षे! ऐसी आश्चर्यजनक घटना क्यों घटित हुई? इसका रहस्य हमें बतलाइये।' तब महर्षि वसिष्ठ ध्यानदृष्टिद्वारा सारा वृत्तान्त जानकर इक्ष्वाकु आदिसे बोले- 'राजपुत्रो! पूर्वकालमें शम्भु- पत्नी उमाने इस शरवणके विषयमें ऐसा समय (शर्त) निर्धारित कर रखा है कि 'जो पुरुष इस शरवणमें प्रवेश करेगा, वह स्त्री-रूपमें परिवर्तित हो जायगा।' इसी कारण राजा इलके साथ-ही-साथ यह घोड़ा भी स्त्रीत्वको प्राप्त हो गया है। 

अब जिस प्रकार राजा इल कुबेरकी भाँति पुनः पुरुषत्वको प्रास कर सकें, तुमलोगोंको पिनाकधारी शंकरकी आराधना करके वैसा ही प्रयत्न करना चाहिये।' महर्षि वसिष्ठकी आज्ञा पाकर वे सभी मनु-पुत्र वहाँ गये, जहाँ देवाधिदेव महेश्वर विराजमान थे। वहाँ उन्होंने विभिन्न स्तोत्रोंद्वारा पार्वती और परमेश्वरका स्तवन किया। (उस स्तवनसे प्रसन्न होकर) पार्वती और परमेश्वरने कहा-'राजकुमारी ! यद्यपि मेरे इस नियम (शर्त) का उल्लङ्घन नहीं किया जा सकता, तथापि इस समय उसके निवारणके लिये मैं एक उपाय बतला रहा हूँ। यदि इक्ष्वाकुद्वारा किये गये अश्वमेध यज्ञका जो कुछ फल हो, वह सारा-का-सारा हम दोनोंको समर्पित कर दिया जाय तो राजा इल निःसंदेह किम्पुरुष (किलर) हो जायेंगे।' यह सुनकर 'बहुत अच्छा, ऐसा ही होगा'- यों कहकर वैवस्वत मनुके वे सभी पुत्र राजधानीको लौट आये। घर आकर इक्ष्वाकुने अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान किया और उसका पुण्य फल पार्वती परमेश्वरको अर्पित कर दिया, जिसके परिणामस्वरूप इल किम्पुरुष हो गये। वहाँ वे बौरवर एक मास पुरुषरूपमें रहकर पुनः एक मास स्त्री हो जाते थे। बुधके भवनमें स्त्रीरूपसे रहते समय इलने गर्भ धारण कर लिया था। उस गर्भसे अनेक गुणोंसे सम्पन्न एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उस पुत्रको उत्पन्नकर बुध भूलोकसे पुनः स्वर्गलोकको चले गये ॥ २-१३॥ 

इलस्य नाम्ना तद् वर्षमिलावृतमभूत्तदा। 
सोमार्कवंशयोरादाविलोऽभून्मनुनन्दनः ॥ १४

एवं पुरूरवाः पुंसोरभवद् वंशवर्धनः । 
इक्ष्वाकुरर्कवंशस्य तथैवोक्तस्तपोधनाः ॥ १५

इलः किम्पुरुषत्वे च सुद्युम्न इति चोच्यते। 
पुनः पुत्रत्रयमभूत् सुद्युम्नस्यापराजितम् ॥ १६

उत्कलो वै गयस्तद्वद्धरिताश्वश्च वीर्यवान्। 
उत्कलस्योत्कला नाम गयस्य तु गया मता ॥ १७

हरिताश्वस्य दिक्पूर्वा विश्रुता कुरुभिः सह।
प्रतिष्ठानेऽभिषिच्याथ स पुरूरवर्स सुतम् ॥ १८

जगामेलावृतं भोक्तुं वर्ष दिव्यफलाशनम्।
इक्ष्वाकुज्येष्ठदायादो मध्यदेशमवाप्तवान् ॥ १९

नरिष्यन्तस्य पुत्रोऽभूच्छुचो नाम महाबलः । 
नाभागस्याम्बरीषस्तु धृष्टस्य च सुतत्रयम् ॥ २०

धृष्टकेतुश्चित्रनाथो रणधृष्टश्च वीर्यवान्।
आनर्त्ता नाम शर्यातेः सुकन्या चैव दारिका ॥ २१

आनर्तस्याभवत् पुत्रो रोचमानः प्रतापवान्।
आनर्ती नाम देशोऽभून्त्रगरी च कुशस्थली ॥ २२

रोचमानस्य पुत्रोऽभूद् रेवो रैवत एव च।
ककुद्मी चापरं नाम ज्येष्ठः पुत्रशतस्य च ॥ २३

रेवती तस्य सा कन्या भार्या रामस्य विश्रुता।
करूषस्य तु कारूषा बहवः प्रथिता भुवि ॥ २४

तभीसे इलके नामपर उस वर्षका नाम इलावृत पड़ गया। इस प्रकार चन्द्रवंश और सूर्यवंशके आदिमें सर्वप्रथम मनु-नन्दन इल ही राजा हुए थे। तपोधन ऋषियो ! जैसे इलकी पुरुषावस्थामें उत्पन्न हुए राजा पुरूरवा चन्द्रवंशकी वृद्धि करनेवाले थे, वैसे ही महाराज इक्ष्वाकु सूर्य-वंशके विस्तारक कहे गये हैं। किम्पुरुषयोनिमें रहते समय इल सुद्युम्न नामसे कहे जाते थे। उन सुद्युम्नके पुनः उत्कल, गय और पराक्रमी हरिताश्व नामक तीन अपराजेय पुत्र उत्पन्न हुए थे। इलने (अपने इन चारों पुत्रोंमेंसे) उत्कलको उत्कल (उड़िसा), गयको गयाप्रदेश और हरिताश्वको कुरुप्रदेशकी सीमावर्तिनी पूर्व दिशाका प्रदेश (राज्य) समर्पित किया। तत्पश्चात् अपने ज्येष्ठ पुत्र पुरूरवाका प्रतिष्ठानपुर में अभिषेक करके वे स्वयं दिव्य फलाहारका उपभोग करनेके लिये इलावृत वर्ष में चले गये। (सुद्युम्नके बाद) मनुके ज्येष्ठ पुत्र इक्ष्वाकु मध्यदेशके अधिकारी हुए। (मनुके अन्य पुत्रोंमें) नरिष्यन्तके शुच नामक महाबली पुत्र हुआ। नाभागके अम्बरीष और धृष्टके धृष्टकेतु, चित्रनाथ और रणधृष्ट नामक पुत्र तथा सुकन्या नाम्नी एक पुत्री हुई। आनर्तक रोचमान तीन पराक्रमी पुत्र हुए। शर्यातिके आनर्त नामक एक नामका एक प्रतापी पुत्र हुआ। आनर्तद्वारा शासित देशका नाम आनर्त (गुजरात) पड़ा और कुशस्थली (द्वारका) नगरी उसकी राजधानी हुई। रोचमानका पुत्र रेव हुआ, जो सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ था। उसके रेवती नामकी एक कन्या उत्पन्न रैवत और ककुद्मी नामसे भी पुकारा जाता था। वह रोचमानके हुई, जो बलरामजीकी भार्यारूपसे विख्यात है। करूषके बहुत-से पुत्र थे, जो भूतलपर कारूष नामसे विख्यात हुए। पृषघ्र गौकी हत्या कर देनेके कारण गुरुके शापसे शूद्र हो गया ॥ १४-२४॥

पृषधो गोवधाच्छूद्रो गुरुशापादजायत।
इक्ष्वाकुवंशं वक्ष्यामि शृणुध्वमृषिसत्तमाः ॥ २५ 

इक्ष्वाकोः पुत्रतामाप विकुक्षिर्नाम देवराट्। 
ज्येष्ठः पुत्रशतस्यासीद् दश पञ्च च तत्सुताः ॥ २६

मेरोरुत्तरतस्ते तु जाताः पार्थिवसत्तमाः ।
चतुर्दशोत्तरं चान्यच्छतमस्य तथाभवत् ॥ २७

मेरोर्दक्षिणतो ये वै राजानः सम्प्रकीर्तिताः ।
ज्येष्ठः ककुत्स्थो नाम्नाभूत्तत्सुतस्तु सुयोधनः ॥ २८

तस्य पुत्रः पृथुर्नाम विश्वगश्च पृथोः सुतः । 
इन्दुस्तस्य च पुत्रोऽभूद् युवनाश्वस्ततोऽभवत् ॥ २९

श्रावस्तश्च महातेजा वत्सकस्तत्सुतोऽभवत् । 
निर्मिता येन श्रावस्ती गौडदेशे द्विजोत्तमाः ॥ ३०

श्रावस्ताद् बृहदश्वोऽभूत् कुवलाश्वस्ततोऽभवत् ।
धुन्धुमारत्वमगमद् धुन्धुनाना हतः पुरा ॥ ३१

तस्य पुत्रास्त्रयो जाता दृढाश्वो दण्ड एव च।
कपिलाश्वश्च विख्यातो धौन्धुमारिः प्रतापवान् ॥ ३२

दृढाश्वस्य प्रमोदक्ष हर्यश्वस्तस्य चात्मजः ।
हर्यश्वस्य निकुम्भोऽभूत् संहताश्वस्ततोऽभवत् ॥ ३३

अकृताश्वो रणाश्वश्च संहताश्वसुतावुभौ
युवनाश्वो रणाश्वस्य मान्धाता च ततोऽभवत् ॥ ३४

मान्धातुः पुरुकुत्सोऽभूद् धर्मसेनश्च पार्थिवः ।
मुचुकुन्दश्च विख्यातः शत्रुजिच्च प्रतापवान् ॥ ३५

पुरुकुत्सस्य पुत्रोऽभूद वसुदो नर्मदापतिः। 
सम्भूतिस्तस्य पुत्रोऽभूत् त्रिधन्वा च ततोऽभवत् ॥ ३६

त्रिधन्वनः सुतो जातस्त्रय्यारुण इति स्मृतः ।
तस्मात् सत्यव्रतो नाम तस्मात् सत्यरथः स्मृतः ॥ ३७

तस्य पुत्रो हरिश्चन्द्रो हरिश्चन्द्राच्च रोहितः ।
रोहिताच्च वृको जातो वृकाद् बाहुरजायत ॥ ३८

सगरस्तस्य पुत्रोऽभूद् राजा परमधार्मिकः ।
द्वे भार्ये सगरस्यापि प्रभा भानुमती तथा ॥ ३९

ताभ्यामाराधितः पूर्वमौर्वोऽग्निः पुत्रकाम्यया।
और्वस्तुष्ठस्तयोः प्रादाद् यथेष्टं वरमुत्तमम् ॥ ४०

एका षष्टिसहस्त्राणि सुतमेकं तथापरा। 
गृह्णातु वंशकर्तारं प्रभागृह्लाद बडूंस्तदा ।। ४१

एकं भानुमती पुत्रमगृह्लादसमञ्जसम् । 
ततः षष्टिसहस्त्राणि सुषुवे यादवी प्रभा ॥ ४२

श्रेष्ठ ऋषियो। अब मैं इक्ष्वाकु वंशका वर्णन करने जा रहा हूँ आपलोग ध्यानपूर्वक सुनिये। देवराज विकुक्षि इक्ष्वाकुके पुत्ररूपमें उत्पन्न हुए। वे इक्ष्वाकुके सौ पुत्रोंमें ज्येष्ठ थे। उन (विकुक्षि) के पंद्रह पुत्र थे, जो सुमेरुगिरिकी उत्तर दिशामें श्रेष्ठ राजा हुए। विकुक्षिके एक सौ चौदह पुत्र और हुए थे, जो सुमेरुगिरिको दक्षिण दिशाके शासक कहे गये हैं। विकुक्षिका ज्येष्ठ पुत्र ककुत्स्थ नामसे विख्यात था। उसका पुत्र सुयोधन हुआ। सुयोधनका पुत्र पृथु, पृथुका पुत्र विश्वग, विश्वगका पुत्र इन्दु और इन्दुका पुत्र युवनाश्व हुआ। युवनाश्वका पुत्र श्रावस्त हुआ, जिसे वत्सक भी कहा जाता था। द्विजवरो! उसीने गौडदेशमें श्रावस्ती नामकी नगरी बसायी थी। 

श्रावस्तसे बृहदश्व और उससे कुबलाश्वका जन्म हुआ, जो पूर्वकालमें धुन्धुद्वारा मारे जानेके कारण धुन्धुमार नामसे विख्यात था। धुन्धुमारके दृढाश्व, दण्ड और कपिलाश्च नामक तीन पुत्र हुए थे, जिनमें प्रतापी कपिलाश्व धौन्धुमारि नामसे भी प्रसिद्ध था। दृढाश्वका पुत्र प्रमोद और उसका पुत्र हर्यश्च हुआ। हर्यश्वका पुत्र निकुम्भ तथा उससे संहताश्वका जन्म हुआ। संहताश्वके अकृताश्व और रणाश्च नामक दो पुत्र हुए। उनमें रणाश्वका पुत्र युवनाश्व हुआ तथा उससे मान्धाताकी उत्पत्ति हुई। मान्धाताके पुरुकुत्स, राजा धर्मसेन और शत्रुओंको पराजित करनेवाले सुप्रसिद्ध प्रतापी मुचुकुन्द ये तीन पुत्र हुए। इनमें पुरुकुत्सका पुत्र नर्मदापति बसुद हुआ। उसका पुत्र सम्भूति हुआ और सम्भूतिसे त्रिधन्वाका जन्म हुआ। त्रिधन्वासे उत्पन्न हुआ पुत्र त्रय्यारुण नामसे प्रसिद्ध हुआ। उससे सत्यव्रत और सत्यव्रतसे सत्यरथका जन्म हुआ। सत्यरथसे हरिश्चन्द्र, हरिश्चन्द्रसे रोहित, रोहितसे वृक और वृकसे बाहुकी उत्पत्ति हुई। बाहुके पुत्र राजा सगर हुए, जो परम धर्मात्मा थे। 

उन सगरके प्रभा और भानुमती नामवाली दो पत्नियों थीं। उन दोनोंने पूर्वकालमें पुत्रकी कामनासे और्वानिकी आराधना की थी। उनकी आराधनासे संतुष्ट होकर उन्हें यथेष्ट उत्तम वर प्रदान करते हुए और्वने कहा- 'तुम दोनोंमेंसे एकको साठ हजार पुत्र होंगे और दूसरीको केवल एक वंशप्रवर्तक पुत्र होगा। (तुम दोनोंमें जिसकी जैसी इच्छा हो, वह वैसा वरदान ग्रहण करे।) ' तब प्रभाने साठ हजार पुत्रोंको स्वीकार किया और भानुमतीने एक ही पुत्र माँगा। कुछ दिनोंके पश्चात् भानुमतीने असमञ्जसको पैदा किया तथा यदुवंशकी कन्या प्रभाने साठ हजार पुत्रोंको जन्म दिया, जो अश्वमेध- यज्ञके अश्वकी खोजमें जिस समय पृथ्वीको खोद रहे थे, उसी समय उन्हें विष्णु (भगवदवतार कपिल)-ने जलाकर भस्म कर दिया ॥ २५-४२॥

खनन्तः पृथिवीं दग्धा विष्णुना येऽश्वमार्गणे।
असमञ्जसस्तु तनयो योंऽशुमान् नाम विश्रुतः ॥ ४३ 

तस्य पुत्रो दिलीपस्तु दिलीपात्तु भगीरथः । 
येन भागीरथी गङ्गा तपः कृत्वावतारिता ॥ ४४

भगीरथस्य तनयो नाभाग इति विश्रुतः । 
नाभागस्याम्बरीषोऽभूत् सिन्धुद्वीपस्ततोऽभवत् ।। ४५ 

तस्यायुतायुः पुत्रोऽभूद् ऋतुपर्णस्ततोऽभवत्।
तस्य कल्माषपादस्तु सर्वकर्मा ततः स्मृतः ॥ ४६ 

तस्यानरण्यः पुत्रोऽभून्निघ्नस्तस्य सुतोऽभवत् ।
निघ्नपुत्रावुभौ जातावनमित्ररघू नृपौ ।। ४७

अनमित्रो वनमगाद् भविता स कृते नृपः।
रघोरभूद् दिलीपस्तु दिलीपादजकस्तथा ॥ ४८

दीर्घबाहुरजाज्जातश्चाजपालस्ततो नृपः । 
तस्माद् दशरथो जातस्तस्य पुत्रचतुष्टयम् ॥ ४९

नारायणात्मकाः सर्वे रामस्तेष्वग्रजोऽभवत् । 
रावणान्तकरस्तद्वद् रघूणां वंशवर्धनः ॥ ५०

वाल्मीकिस्तस्य चरितं चक्रे भार्गवसत्तमः । 
तस्य पुत्रौ कुशलवाविक्ष्वाकुकुलवर्धनौ ॥ ५१

अतिथिस्तु कुशाज्जज्ञे निषधस्तस्य चात्मजः । 
नलस्तु नैषधस्तस्मान्नभास्तस्मादजायत ॥ ५२

नभसः पुण्डरीकोऽभूत् क्षेमधन्वा ततः स्मृतः । 
तस्य पुत्रोऽभवद् वीरो देवानीकः प्रतापवान् ॥ ५३

अहीनगुस्तस्य सुतः सहस्त्राश्वस्ततः परः। 
ततश्चन्द्रावलोकस्तु तारापीडस्ततोऽभवत् ॥ ५४

तस्यात्मजश्चन्द्रगिरिर्भानुश्चन्द्रस्ततोऽभवत् । 
श्रुतायुरभवत्तस्माद् भारते यो निपातितः ॥ ५५

नलौ द्वावेव विख्यातौ वंशे कश्यपसम्भवे।
वीरसेनसुतस्तद्वन्नैषधश्च नराधिपः ॥ ५६

एते वैवस्वते वंशे राजानो भूरिदक्षिणाः। 
इक्ष्वाकुवंशप्रभवाः प्राधान्येन प्रकीर्तिताः ॥ ५७

असमञ्जसका पुत्र अंशुमान् नामसे विख्यात हुआ। उसके पुत्र दिलीप और दिलीपसे भगौरथ हुए, जो तपस्या करके भागीरथी गङ्गाको स्वर्गसे भूतलपर ले आये। भगीरथके पुत्र नाभाग नामसे प्रसिद्ध हुए। नाभागके पुत्र अम्बरीष और उनसे सिन्धुद्वीपका जन्म हुआ। सिन्धुद्वीपका पुत्र अयुतायु हुआ तथा उससे ऋतुपर्णकी उत्पत्ति हुई। ऋतुपर्णका पुत्र कल्माषपाद और उससे सर्वकर्मा पैदा हुआ। उसका पुत्र अनरण्य और अनरण्यका पुत्र निघ्न हुआ। निघ्नके अनमित्र और राजा रघु नामके दो पुत्र हुए, जिनमें अनमित्र वनमें चला गया, जो कृतयुगमें राजा होगा। रघुसे दिलीप तथा दिलीपसे अज हुए। अजसे दीर्घबाहु और उससे राजा अजपाल हुए। अजपालसे दशरथ पैदा हुए, जिनके चार पुत्र थे। वे सब-के-सब नारायणके अंशसे प्रादुर्भूत हुए थे। उनमें श्रीराम सबसे ज्येष्ठ थे, जो रावणका अन्त करनेवाले तथा रघुवंशके प्रवर्धक थे। भृगुवंशप्रवर महर्षि वाल्मीकिने श्रीरामके चरित्रका (रामायणरूपमें विस्तारपूर्वक) वर्णन किया है। श्रीरामके कुश और लव नामक दो पुत्र हुए, जो इक्ष्वाकु कुलके विस्तारक थे। कुशसे अतिथि और उससे निषधका जन्म हुआ। निषधका पुत्र नल हुआ और उससे नभकी उत्पत्ति हुई। नभसे पुण्डरीकका तथा उससे क्षेमधन्वाका जन्म हुआ। क्षेमधन्वाका पुत्र प्रतापी वीरवर देवानीक हुआ। उसका पुत्र अहीनगु तथा उससे सहलाश्वका जन्म हुआ। सहस्राश्वसे चन्द्रावलोक और उससे तारापीडकी उत्पत्ति हुई। तारापीडसे चन्द्रागिरि और उससे भानुचन्द्र पैदा हुआ। भानुचन्द्रका पुत्र श्रुतायु हुआ, जो महाभारत युद्धमें मारा गया था। महर्षि कश्यपद्वारा उत्पन्न हुए इस वंशमें नल नामसे दो राजा विख्यात हुए हैं, उनमें एक वीरसेनका पुत्र तथा दूसरा राजा निषधका पुत्र था। इस प्रकार वैवस्वतवंशीय महारान इक्ष्वाकुके वंशमें उत्पन्न होनेवाले ये सभी राजा अतिशय दानशील थे। मैंने इनका मुख्यरूपसे वर्णन कर दिया ॥ ४३-५७॥

इति श्रीमालये महापुराणे सूर्यवंशानुकीर्तनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें सूर्यवंशानुकीर्तन नामक बारहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १२॥

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