द्वापर और कलयुग की प्रवृत्ति तथा उनके स्वभाव का वर्णन | dvaapar aur kalayug kee pravrtti tatha unake svabhaav ka varnan |

मत्स्य पुराण एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय

द्वापर और कलयुग की प्रवृत्ति तथा उनके स्वभाव का वर्णन, राजा प्रमति का वृत्तान्त तथा पुनः कृतयुग के प्रारम्भ का वर्णन 

सूत उवाच

अत ऊर्ध्व प्रवक्ष्यामि द्वापरस्य विधिं पुनः । 
तत्र त्रेतायुगे क्षीणे द्वापरं प्रतिपद्यते ॥ १

सूतजी कहते हैं- ऋषियो। इसके बाद अब मैं द्वापरयुग की विधि का वर्णन कर रहा हूँ। त्रेतायुगके क्षीण हो जाने पर द्वापरयुग को प्रवृत्ति होती है। 

द्वापरादौ प्रजानां तु सिद्धिस्त्रेतायुगे तु या।
परिवृत्ते युगे तस्मिस्ततः सा सम्प्रणश्यति ॥ २

ततः प्रवर्तिते तासां प्रजानां द्वापरे पुनः। 
लोभोऽधृतिर्वणिग्युद्धं तत्त्वानामविनिश्चयः ॥ ३

प्रध्वंसश्चैव वर्णानां कर्मणां तु विपर्ययः । 
याच्ञा वधः पणो दण्डो मानो दम्भोऽक्षमा बलम् ॥ ४

तथा रजस्तमो भूयः प्रवृत्तिपिरे स्मृता। 
आद्ये कृते तु धर्मोऽस्ति स त्रेतायां प्रपद्यते ॥ ५

द्वापरे व्याकुलो भूत्वा प्रणश्यति कलौ पुनः । 
वर्णानां द्वापरे धर्माः संकीर्यन्ते तथाऽऽश्रमाः ॥ ६

द्वैधमुत्पद्यते चैव युगे तस्मिञ्श्रुतौ स्मृतौ। 
द्वैधाच्छ्रुतेः स्मृतेश्चैव निश्चयो नाधिगम्यते ॥ ७

अनिश्चयावगमनाद् धर्मतत्त्वं न विद्यते। 
धर्मतत्त्वे ह्यविज्ञाते मतिभेदस्तु जायते ॥ ८

परस्परं विभिन्नैस्तैर्दृष्टीनां विभ्रमेण तु । 
अयं धर्मो हायं नेति निश्चयो नाधिगम्यते ॥ ९

द्वापरयुगके प्रारम्भ-कालमें प्रजाओंको त्रेतायुगकी भाँति ही सिद्धि प्राप्त होती है किंतु जब द्वापरयुगका प्रभाव पूर्णरूपसे व्याप्त हो जाता है, तब वह सिद्धि नष्ट हो जाती है। उस समय प्रजाओंमें लोभ, धैर्यहीनता, वाणिज्य, युद्ध, सिद्धान्तोंकी अनिश्चितता, वर्णोंका विनाश, कर्मीका उलट-फेर, याच्ञा (भिक्षावृत्ति), संहार, परायापन, दण्ड, अभिमान, दम्भ, असहिष्णुता, बल तथा रजोगुण एवं तमोगुण बढ़ जाते हैं। सर्वप्रथम कृतयुगमें तो अधर्मका लेशमात्र भी नहीं रहता, किंतु त्रेतायुगमें उसकी कुछ-कुछ प्रवृत्ति होती है। पुनः द्वापरयुगमें वह विशेषरूपसे व्याप्त होकर कलियुगमें युग-समाप्तिके समय विनष्ट हो जाता है। द्वापरयुगमें चारों वर्णों तथा आश्रमोंके धर्म परस्पर घुल-मिल जाते हैं। इस युगमें श्रुतियों और स्मृतियोंमें भेद उत्पन्न हो जाता है। इस प्रकार श्रुति और स्मृतिकी मान्यतामें भेद पड़नेके कारण किसी विषयका ठीक निश्चय नहीं हो पाता। अनिश्चितताके कारण धर्मका तत्त्व लुप्त हो जाता है। धर्मतत्त्वका ज्ञान न होनेपर बुद्धिमें भेद उत्पन्न हो जाता है। बुद्धिमें भेद पड़नेके कारण उनके विचार भी भ्रान्त हो जाते हैं और फिर धर्म क्या है और अधर्म क्या है, यह निश्चय नहीं हो पाता ॥ -९॥ 

एको वेदश्चतुष्पादः त्रेताष्विह विधीयते। 
संक्षेपादायुषश्चैव व्यस्यते द्वापरेष्विह ॥ १०

वेदश्चैकश्चतुर्धा तु व्यस्यते द्वापरादिषु। 
ऋषिपुत्रैः पुनर्वेदा भिद्यन्ते दृष्टिविभ्रमैः ॥ ११

मन्त्रब्राह्मणविन्यासैः स्वरक्रमविपर्ययैः । 
संहिता ऋग्यजुःसाम्नां संहन्यन्ते श्रुतर्षिभिः ॥ १२

सामान्याद् वैकृताच्चैव दृष्टिभिन्नैः क्वचित् क्वचित् ।
ब्राह्मणं कल्पसूत्राणि भाष्यविद्यास्तथैव च ॥ १३

अन्ये तु प्रस्थितास्तान् वै केचित् तान् प्रत्यवस्थिताः । 
द्वापरेषु प्रवर्तन्ते भिन्नार्थेस्तैः स्वदर्शनैः ॥ १४

एकमाध्वर्यवं पूर्वमासीद् द्वैधं तु तत्पुनः । 
सामान्यविपरीतार्थैः कृतं शास्त्राकुलं त्विदम् ॥ १५

आध्वर्यवं च प्रस्थानैर्बहुधा व्याकुलीकृतम् । 
तथैवाथर्वणां साम्नां विकल्पैः स्वस्य संक्षयैः ॥ १६

व्याकुलो द्वापरेष्वर्थः क्रियते भिन्नदर्शनैः । 
द्वापरे संनिवृत्ते तु वेदा नश्यन्ति वै कलौ ॥ १७

तेषां विपर्ययोत्पन्ना भवन्ति द्वापरे पुनः । 
अदृ‌ष्टिर्मरणं चैव तथैव व्याध्युपद्रवाः ॥ १८ 

बाङ्‌मनः कर्मभिर्दुःखैर्निर्वेदो जायते ततः । 
निर्वेदाज्जायते तेषां दुःखमोक्षविचारणा ॥ १९

विचारणायां वैराग्यं वैराग्याद् दोषदर्शनम्। 
दोषाणां दर्शनाच्चैव ज्ञानोत्पत्तिस्तु जायते ॥ २० 

पहले त्रेताके प्रारम्भमें आयुके संक्षिप्त हो जानेके कारण एक ही वेद ऋक्, यजुः, अथर्वण, साम-चार नामोंसे विभक्त कर दिया जाता है। फिर द्वापरमें विभिन्न विचारवाले ऋषिपुत्रोंद्वारा उन वेदोंका पुनः (शाखा-प्रशाखा आदिमें) विभाजन कर दिया जाता है। वे महर्षिगण मन्त्र-ब्राह्मणों, स्वर और क्रमके विपर्ययसे ऋक्, यजुः और सामवेदकी संहिताओंका अलग-अलग संघटन करते हैं। भिन्न विचारवाले श्रुतर्षियोंने ब्राह्मणभाग, कल्पसूत्र तथा भाष्यविद्या आदिको भी कहीं-कहीं सामान्य रूपसे और कहीं-कहीं विपरीतक्रमसे परिवर्तित कर दिया है। कुछ लोगोंने तो उनका समर्थन और कुछ लोगोंने अवरोध किया है। इसके बाद प्रत्येक द्वापरयुगमें भिन्नार्थदर्शी ऋषिवृन्द अपने-अपने विचारानुसार वैदिक प्रथामें अर्थभेद उत्पन्न कर देते हैं। 

पूर्वकालमें यजुर्वेद एक ही था, परंतु ऋषियोंने उसे बादमें सामान्य और विशेष अर्थसे कृष्ण और यजुः रूपमें दो भागोंमें विभक्त कर दिया, जिससे शास्त्रमें भेद हो गया। इस प्रकार इन लोगोंने यजुर्वेदको अनेकों उपाख्यानों तथा प्रस्थानों, खिलांशों द्वारा विस्तृत कर दिया है। इसी प्रकार अथर्ववेद और सामवेदके मन्त्रोंका भी ह्यास एवं विकल्पोंद्वारा अर्थ परिवर्तन कर दिया है। इस तरह प्रत्येक द्वापरयुगमें (पूर्वपरम्परासे चले आते हुए) वेदार्थको भिन्नदर्शी ऋषिवृन्द परिवर्तित करते हैं। फिर द्वापरके बीत जानेपर कलियुगमें वे वेदार्थ शनैः शनैः नष्ट हो जाते हैं। वेदार्थका विपर्यय हो जानेके कारण द्वापरके अन्तमें ही यथार्थ दृष्टिका लोप, असामयिक मृत्यु और व्याधियोंके उपद्रव प्रकट हो जाते हैं। तब मन-वचन- कर्मसे उत्पन्न हुए दुःखोंके कारण लोगोंके मनमें खेद  उत्पन्न होता है। खेदाधिक्यके कारण दुःखसे मुक्ति पानेके लिये उनके मनमें विचार जाग्रत् होता है। फिर विचार उत्पन्न होनेपर वैराग्य, वैराग्यसे दोष-दर्शन और दोषोंके प्रत्यक्ष होनेपर ज्ञानकी उत्पत्ति होती है॥ १०-२० ॥

तेषां मेधाविनां पूर्वं मत्यें स्वायम्भुवेऽन्तरे । 
उत्पत्स्यन्तीह शास्त्राणां द्वापरे परिपन्थिनः ॥ २९

आयुर्वेदविकल्पाश्च अङ्गानां ज्यौतिषस्य च। 
अर्थशास्त्रविकल्पाश्च हेतुशास्त्रविकल्पनम् ॥ २२

प्रक्रियाकल्पसूत्राणां भाष्यविद्याविकल्पनम् । 
स्मृतिशास्त्रप्रभेदाश्च प्रस्थानानि पृथक् पृथक् ॥ २३

द्वापरेष्वभिवर्तन्ते मतिभेदास्तथा नृणाम्। 
मनसा कर्मणा वाचा कृच्छ्राद् वार्ता प्रसिद्धयति ।। २४

द्वापरे सर्वभूतानां कायक्लेशः परः स्मृतः । 
लोभोऽधृतिर्वणिग्युद्धं तत्त्वानामविनिश्चयः ॥ २५

वेदशास्त्रप्रणयनं धर्माणां संकरस्तथा। 
वर्णाश्रमपरिध्वंसः कामद्वेषौ तथैव च ॥ २६

पूर्ण वर्षसहस्त्रे द्वे परमायुस्तदा नृणाम्। 
निःशेषे द्वापरे तस्मिंस्तस्य संध्या तु पादतः ॥ २७

प्रतिष्ठिते गुणैर्हीना धर्मोऽसौ द्वापरस्य तु। 
तथैव संध्यापादेन अंशस्तस्यां प्रतिष्ठितः ॥ २८ 

इस प्रकार पूर्वकालमें स्वायम्भुव मन्वन्तरके द्वापरयुगमें उन मेधावी ऋषियोंके वंशमें इस भूतलपर शास्त्रोंके विरोधी लोग उत्पन्न होते हैं और उस युगमें आयुर्वेदमें विकल्प, ज्योतिषशास्त्रके अङ्गोंमें विकल्प, अर्थशाखमें विकल्प, हेतुशास्त्रमें विकल्प, कल्पसूत्रोंकी प्रक्रियामें विकल्प, भाष्यविद्यामें विकल्प, स्मृतिशास्त्रोंमें नाना प्रकारके भेद, पृथक् पृथक् मार्ग तथा मनुष्योंकी बुद्धियोंमें भेद प्रचलित हो जाते हैं। तब मन-वचन-कर्मसे लगे रहनेपर भी बड़ी कठिनाईसे लोगोंकी जीविका सिद्ध हो पाती है। इस प्रकार द्वापरयुगमें सभी प्राणियोंका जीवन भी कष्टसे ही चल पाता है। उस समय जनतामें लोभ, धैर्यहीनता, वाणिज्य-व्यवसाय, युद्ध, तत्त्वोंकी अनिश्चितता, वेदों एवं शास्त्रोंकी मनः कल्पित रचना, धर्मसंकरता, वर्णाश्रम-धर्मका विनाश तथा काम और द्वेषकी भावना आदि दुर्गुणोंका प्राबल्य हो जाता है। उस समय लोगोंकी दो हजार वर्षोंकी पूर्णायु होती है। द्वापरकी समाप्तिके समय उसके चतुर्थांशमें उसकी संध्याका काल आता है। उस समय लोग धर्मके गुणोंसे हीन हो जाते हैं। उसी प्रकार संध्याके चतुर्थ चरणमें संध्यांशका समय उपस्थित होता है ॥ २१-२८ ॥

द्वापरस्य तु पर्याये पुष्यस्य च निबोधत । 
द्वापरस्यांशशेषे तु प्रतिपत्तिः कलेरथ ॥ २९

हिंसा स्तेयानृतं माया वधश्चैव तपस्विनाम् । 
एते स्वभावाः पुष्यस्य साधयन्ति च ताः प्रजाः ॥ ३० 

एष धर्मः स्मृतः कृत्स्नो धर्मश्च परिहीयते। 
मनसा कर्मणा वाचा वार्ता सिद्ध्यति वा न वा ।। ३१

कलौ प्रमारको रोगः सततं चापि क्षुद्भयम्। 
अनावृष्टिभयं घोरं देशानां च विपर्ययः ॥ ३२

न प्रमाणं स्मृतश्चास्ति पुष्ये घोरे युगे कलौ। 
गर्भस्थो नियते कश्चिद्यौवनस्थस्तथापरः ॥ ३३

स्थविरे मध्यकौमारे नियन्ते च कलौ प्रजाः । 
अल्पतेजोबलाः पापा महाकोपा ह्यधार्मिकाः ॥ ३४

अनृतव्रतलुब्धाश्च पुष्ये चैव प्रजाः स्थिताः ।
दुरिष्टैर्दुरधीतैश्च दुराचारैर्दुरागमैः ।। ३५ 

विप्राणां कर्मदोषैश्च प्रजानां जायते भयम्। 
हिंसमानस्तथेर्ष्या च क्रोधोऽसूयाक्षमः कृतम् ॥ ३६ 

पुष्ये भवन्ति जन्तूनां लोभो मोहश्च सर्वशः। 
संक्षोभो जायतेऽत्यर्थं कलिमासाद्य वै युगम् ॥ ३७

नाधीयन्ते तथा वेदा न यजन्ते द्विजातयः । 
उत्सीदन्ति तथा चैव वैश्यैः सार्धं तु क्षत्रियाः ॥ ३८

शूद्राणां मन्त्रयोनिस्तु सम्बन्धो ब्राह्मणैः सह। 
भवतीह कलौ तस्मिञ्शयनासनभोजनैः ॥ ३९

राजानः शूद्रभूयिष्ठाः पाखण्डानां प्रवर्तकाः । 
काषायिणश्च निष्कच्छास्तथा कापालिनश्च ह ।। ४०

अब द्वापरयुगके बाद आनेवाले कलियुगका वृत्तान्त सुनिये। द्वापरकी समाप्तिके समय जब अंशमात्र शेष रह जाता है, तब कलियुगकी प्रवृत्ति होती है। जीव-हिंसा चोरी, असत्यभाषण, माया (छल-कपट दम्भ) और तपस्वियोंकी हत्या-ये कलियुगके स्वभाव (स्वाभाविक गुण) हैं। वह प्रजाओंको भलीभाँति चरितार्थ कर देता है। यही उसका अविकल धर्म है। यथार्थ धर्मका तो विनाश हो जाता है। उस समय मन-वचन-कर्मसे प्रयत्न करनेपर भी यह संदेह बना रहता है कि जीविकाकी सिद्धि होगी या नहीं। कलियुगमें विसूचिका, प्लेग आदि महामारक रोग होते हैं। इस घोर कलियुगमें भुखमरी और अकालका सदा भय बना रहता है। देशोंका उलट-फेर तो होता ही रहता है। किसी प्रमाणमें स्थिरता नहीं रहती। कोई गर्भमें ही मर जाता है 

तो कोई नौजवान होकर, कोई मध्य जवानीमें तो कोई बुढ़ापामें। इस प्रकार लोग कलियुगमें अकालमें ही कालके शिकार बन जाते हैं। उस समय लोगोंका तेज और बल घट जाता है। उनमें पाप, क्रोध और धर्महीनता बढ़ जाती है। वे असत्यभाषी और लोभी हो जाते हैं। ब्राह्मणोंके अनिष्ट-चिन्तन, अल्पाध्ययन, दुराचार और शास्त्र-ज्ञान-हीनता-रूप कर्मदोषोंसे प्रजाओंको सदा भय बना रहता है। कलियुगमें जीवों में हिंसा, अभिमान, ईर्ष्या, क्रोध, असूया, असहिष्णुता, अधीरता, लोभ, मोह और संक्षोभआदि दुर्गुण सर्वथा अधिक मात्रामें बढ़ जाते हैं। कलियुगके आनेपर ब्राह्मण न तो वेदोंका अध्ययन करते हैं और न यज्ञानुष्ठान ही करते हैं। क्षत्रिय भी वैश्योंके साथ (कर्मभ्रष्ट होकर) विनष्ट हो जाते हैं। कलियुगमें शूद्र मन्त्रोंके ज्ञाता हो जाते हैं और उनका शयन, आसन एवं भोजनके समय ब्राह्मणोंके साथ सम्पर्क होता है।शूद्र ही अधिकतर राजा होते हैं। पाखण्डका प्रचार बढ़ जाता है। शूद्रलोग गेरुआ वस्त्र धारण कर हाथमें नारियलका कपाल लेकर काछ खोले हुए (संन्यासीके वेषमें) घूमते रहते हैं॥ २९-४० ॥

ये चान्ये देवव्रतिनस्तथा ये धर्मदूषकाः । 
दिव्यवृत्ताश्च ये केचिद् वृत्त्यर्थं श्रुतिलिङ्गिनः ॥ ४१

एवंविधाश्च ये केचिद्भवन्तीह कलौ युगे। 
अधीयन्ते तदा वेदाञ्शूद्रान् धर्मार्थकोविदाः ॥ ४२

यजन्ति ह्यश्वमेधैस्तु राजानः शूद्रयोनयः । 
स्त्रीबालगोवधं कृत्वा हत्वा चैव परस्परम् ॥ ४३

उपहृत्य तथान्योन्यं साधयन्ति तथा प्रजाः।
दुःखप्रचुरताल्पायुर्देशोत्सादः सरोगता ॥ ४४

अधर्माभिनिवेशित्वं तमोवृत्तं कलौ स्मृतम्। 
भ्रूणहत्या प्रजानां च तदा होवं प्रवर्तते ॥ ४५

तस्मादायुर्बलं रूपं प्रहीयन्ते कलौ युगे। 
दुःखेनाभिप्लुतानां परमायुः शतं नृणाम् ॥ ४६

भूत्वा च न भवन्तीह वेदाः कलियुगेऽखिलाः । 
उत्सीदन्ते तथा यज्ञाः केवलं धर्महेतवः ।॥ ४७

एषा कलियुगावस्था संध्यांशौ तु निबोधत । 
युगे युगे तु हीयन्ते त्रींस्त्रीन्यादांश्च सिद्धयः ॥ ४८

युगस्वभावाः संध्यासु अवतिष्ठन्ति पादतः । 
संध्यास्वभावाः स्वांशेषु पादेनैवावतस्थिरे ॥ ४९ 

कुछ लोग देवताओंकी पूजा करते हैं तो कुछ लोग धर्मको दूषित करते हैं। कुछ लोगोंके आचार-विचार दिव्य होते हैं तो कुछ लोग जीविकोपार्जनके लिये साधुका वेष बनाये रहते हैं। कलियुगमें अधिकतर इसी प्रकारके लोग होते हैं। उस समय शूद्रलोग धर्म और अर्थके ज्ञाता बनकर वेदोंका अध्ययन करते हैं। शूद्रयोनिमें उत्पन्न नृपतिगण अश्वमेध यज्ञोंका अनुष्ठान करते हैं। उस समय लोग स्त्री, बालक और गौओंकी हत्या कर, परस्पर एक-दूसरेको मारकर तथा अपहरण कर अपना स्वार्थ सिद्ध करते हैं। कलियुगमें कष्टका बाहुल्य हो जाता है। प्राणियोंकी आयु थोड़ी हो जाती है। देशोंमें उथल-पुथल होता रहता है। व्याधिका प्रकोप बढ़ जाता है। अधर्मकी और लोगोंकी विशेष रुचि हो जाती है। सभीके आचार-विचार तामसिक हो जाते हैं। प्रजाओंमें भ्रूणहत्याकी प्रवृत्ति हो जाती है। इसी कारण कलियुगमें आयु, बल और रूपकी क्षीणता हो जाती है। दुःखोंसे संतप्त हुए लोगोंकी परमायु सौ वर्षकी होती है। कलियुगमें सम्पूर्ण वेद विद्यमान रहते हुए भी नहींके बराबर हो जाते हैं तथा धर्मके एकमात्र कारण यज्ञोंका विनाश हो जाता है। यह तो कलियुगकी दशा बतलायी गयी, अब उसकी संध्या और संध्यांशका वर्णन सुनिये। प्रत्येक युगमें तीन-तीन चरण व्यतीत हो जानेके बाद सिद्धियाँ घट जाती हैं, अर्थात् धर्मका हास हो जाता है। उनकी संध्याओंमें युगका स्वभाव चतुर्थांश मात्र रह जाता है। उसी प्रकार संध्यांशोंमें संध्याका स्वभाव भी चतुर्थांश ही शेष रहता है॥ ४१-४९ ॥

एवं संध्यांशके काले सम्प्राप्ते तु युगान्तिके। 
तेषामधर्मिणां शास्ता भृगूणां च कुले स्थितः ॥ ५०

गोत्रेण वै चन्द्रमसो नाम्ना प्रमतिरुच्यते । 
कलिसंध्यांशभागेषु मनोः स्वायम्भुवेऽन्तरे ॥ ५१

समास्त्रिंशत्तु सम्पूर्णाः पर्यटन् वै वसुन्धराम् । 
अस्त्रकर्मा स वै सेनां हस्त्यश्वरथसंकुलाम् ॥ ५२

प्रगृहीतायुधैर्विप्रैः शतशोऽथ सहस्त्रशः । 
स तदा तैः परिवृतो म्लेच्छान् सर्वान्निजघ्निवान् ॥ ५३ 

स हत्वा सर्वशश्चैव राजानः शूद्रयोनयः । 
पाखण्डान् स तदा सर्वान्निः शेषानकरोत् प्रभुः ॥ ५४

अधार्मिकाश्च ये केचित्तान् सर्वान् हन्ति सर्वशः । 
औदीच्यान्मध्यदेशांश्च पार्वतीयांस्तथैव च ॥ ५५ 

प्राच्यान्प्रतीच्यांश्च तथा विन्ध्यपृष्ठापरान्तिकान् ।
तथैव दाक्षिणात्यांश्च द्रविडान्सिंहलैः सह । ५६

गान्धारान्पारदांश्चैव पह्नवान् यवनाञ्छकान् । 
तुषारान्बर्वराञ्छ्वेतान्हलिकान्दरदान्खसान् ॥ ५७

लम्पकानान्धकांश्चापि चोरजातींस्तथैव च। 
प्रवृत्तवको वलवाञ्शूद्राणामन्तकृद् बभौ ।। ५८ 

इस प्रकार स्वायम्भुव मन्वन्तरमें कलियुगके अन्तिम समयमें प्राप्त हुए संध्यांशकालमें उन अधर्मियोंका शासन करने के लिये भृगुवंशमें चन्द्रगोत्रीय प्रमति नामक राजा उत्पन्न होता है। वह अत्रधारी नरेश हाथी, घोड़े और  रथोंसे भरी हुई सेनाको साथ लेकर तीस वर्षोंतक पृथ्वीपर भ्रमण करता है। उस समय उसके साथ आयुधधारी सैकड़ों-हजारों ब्राह्मण भी रहते हैं। वह सामर्थ्यशाली वीर सभी म्लेच्छोंका विनाश कर देता है तथा शूद्रयोनिमें उत्पन्न हुए राजाओंका सर्वथा संहार करके सम्पूर्ण पाखण्डोंको भी निर्मूल कर देता है। वह सर्वत्र घूम-घूमकर सभी धर्महीनोंका वध कर देता है। शूद्रोंका विनाश करनेवाला वह महाबली राजा उत्तर दिशाके निवासी, मध्यदेशीय, पर्वतीय, पौरस्त्य, पाश्चात्त्य, विन्ध्याचलके ऊपर तथा तलहटियोंमें स्थित, दाक्षिणात्य, सिंहलोंसहित द्रविड, गान्धार, पारद, पल्लव, यवन, शक, तुषार, बर्बर, श्वेत, हलीक, दरद, खस, लम्पक, आन्ध्रक तथा चोर जातियोंका संहारकर अपना शासनचक्र प्रवृत्त करता है। वह समस्त अधार्मिक प्राणियोंको खदेड़कर इस पृथ्वीपर विचरण करता हुआ सुशोभित होता है॥ ५०-५८॥ 

विद्राव्य सर्वथैतानि चचार वसुधामिमाम् । 
मानवस्य तु वंशे तु नृदेवस्येह जज्ञिवान् ॥ ५९

पूर्वजन्मनि विष्णुश्च प्रमतिर्नाम वीर्यवान्। 
स्वतः स वै चन्द्रमसः पूर्वं कलियुगे प्रभुः ॥ ६०

द्वात्रिंशेऽभ्युदिते वर्षे प्रकान्ते विंशतिं समाः । 
निजघ्ने सर्वभूतानि मानुषाण्येव सर्वशः ॥ ६१

कृत्वा बीजावशिष्टां तां पृथ्वीं कूरेण कर्मणा। 
परस्परनिमित्तेन कालेनाकस्मिकेन च ॥ ६२

संस्थिता सहसा या तु सेना प्रमतिना सह। 
गङ्गायमुनयोर्मध्ये सिद्धिं प्राप्ता समाधिना ।। ६३

ततस्तेषु प्रनष्टेषु संध्यांशे क्रूरकर्मसु। 
उत्साद्य पार्थिवान् सर्वांस्तेष्वतीतेषु वै तदा ॥ ६४

ततः संध्यांशके काले सम्प्राप्ते च युगान्तके। 
स्थितास्वल्पावशिष्टासु प्रजास्विह क्वचित्नचित् ।। ६५ 

स्वाप्रदानास्तदा ते वै लोभाविष्टास्तु वृन्दशः । 
उपहिंसन्ति चान्योन्यं प्रलुम्पन्ति परस्परम् ॥ ६६

अराजके युगांशे तु संक्षये समुपस्थिते। 
प्रजास्ता वै तदा सर्वाः परस्परभयार्दिताः ॥ ६७

व्याकुलास्ताः परावृत्तास्त्यक्त्वा देवगृहाणि तु। 
स्वान् स्वान् प्राणानवेक्षन्तो निष्कारुण्यात्सुदुःखिताः ॥ ६८ 

नष्टे श्रौतस्मृते धर्मे कामक्रोधवशानुगाः । 
निर्मर्यादा निरानन्दा निःस्नेहा निरपत्रपाः ॥ ६९ 

नष्टे धर्मे प्रतिहता ह्रस्वकाः पञ्चविंशकाः । 
हित्वा दारांश्च पुत्रांश्च विषादव्याकुलप्रजाः ॥ ७० 

अनावृष्टिहतास्ते वै वार्तामुत्सृज्य दुःखिताः । 
आश्रयन्ति स्म प्रत्यन्तान् हित्वा जनपदान् स्वकान् ।। ७१ 

पराक्रमी प्रमति पूर्व जन्ममें विष्णु था और इस जन्ममें महाराज मनुके वंशमें भूतलपर उत्पन्न हुआ था। पहले कलियुगमें वह वीर चन्द्रमाका पुत्र था। बत्तीस वर्षकी अवस्था होनेपर उसने बीस वर्षीतक भूतलपर सर्वत्र घूम-घूमकर सभी धर्महीन मानवों एवं अन्य प्राणियोंका संहार कर डाला। उसने आकस्मिक कालके वशीभूत हो बिना किसी निमित्तके क्रूर कर्मद्वारा उस पृथ्वीको बीजमात्र अवशेष कर दिया। तत्पश्चात् प्रमतिके साथ जो विशाल सेना थी, वह सहसा गङ्गा और यमुनाके मध्यभागमें स्थित हो गयी और समाधिद्वारा सिद्धिको प्राप्त हो गयी। इस प्रकार युगके अन्तमें संध्यांशकालके प्राप्त होनेपर सभी अधार्मिक राजाओंका विनाश होता है। उन क्रूरकर्मियोंके नष्ट हो जानेपर भूतलपर कहीं-कहीं थोड़ी-बहुत प्रजाएँ अवशिष्ट रह जाती हैं। वे लोग अपनी वस्तु दूसरेको देना नहीं चाहते। उनमें लोभकी मात्रा अधिक होती है। वे लोग यूथ-के-यूथ एकत्र होकर परस्पर एक-दूसरेकी वस्तु लूट-खसोट लेते हैं तथा उन्हें मार भी डालते हैं। 

उस विनाशकारी संध्यांशके उपस्थित होनेपर अराजकता फैल जाती है। उस समय सारी प्रजामें परस्पर भय बना रहता है। लोग व्याकुल होकर देवताओं और गृहोंको छोड़कर उनसे मुख मोड़ लेते हैं। सभीको अपने-अपने प्राणोंकी रक्षाकी चिन्ता लगी रहती है। क्रूरताका बोलबाला होनेके कारण लोग अत्यन्त दुःखी रहते हैं। श्रीत एवं स्मार्त धर्म नष्ट हो जाता है। सभी लोग काम और क्रोधके वशीभूत हो जाते हैं। वे मर्यादा, आनन्द, स्नेह और लज्जासे रहित हो जाते हैं। धर्मक नष्ट हो जानेपर वे भी विनष्ट हो जाते हैं। उनका कद छोटा हो जाता है और उनकी आयु पचीस वर्षकी हो जाती है। विषादसे व्याकुल हुए लोग अपनी पत्नी और पुत्रोंको भी छोड़ देते हैं। वे अकालसे पीड़ित होनेके कारण जीविकाके साधनोंका परित्याग कर कष्ट झेलते हैं तथा अपने जनपदोंको छोड़कर निकटवर्ती देशोंकी शरण लेते हैं॥ ५९-७१ ॥

सरितः सागरानूपान् सेवन्ते पर्वतानपि। 
चीरकृष्णाजिनधरा निष्क्रिया निष्परिग्रहाः ॥ ७२

वर्णाश्रमपरिभ्रष्टाः संकरं घोरमास्थिताः । 
एवं कष्टमनुप्राप्ता हृाल्पशेषाः प्रजास्ततः ॥ ७३

जन्तवश्च क्षुधाविष्टा दुःखान्निर्वेदमागमन् । 
संश्रयन्ति च देशांस्तांश्चक्रवत् परिवर्तनाः ॥ ७४ 

ततः प्रजास्तु ताः सर्वा मांसाहारा भवन्ति हि। 
मृगान् वराहान् वृषभान् ये चान्ये वनचारिणः ॥ ७५

भक्ष्यांश्चैवाप्यभक्ष्यांश्च सर्वांस्तान् भक्षयन्ति ताः । 
समुद्रसंश्रिता यास्तु नदीश्चैव प्रजास्तु ताः ॥ ७६

तेऽपि मत्स्यान् हरन्तीह आहारार्थ च सर्वशः । 
अभक्ष्याहारदोषेण एकवर्णगताः प्रजाः ॥ ७७

यथा कृतयुगे पूर्वमेकवर्णमभूत् किल । 
तथा कलियुगस्यान्ते शूद्रीभूताः प्रजास्तथा ॥ ७८

एवं वर्षशतं पूर्ण दिव्यं तेषां न्यवर्तत। 
ष‌ट्त्रिंशच्च सहस्त्राणि मानुषाणि तु तानि वै ॥ ७९

अथ दीर्घेण कालेन पक्षिणः पशवस्तथा। 
मत्स्याश्चैव हताः सर्वैः क्षुधाविष्टैश्च सर्वशः ॥ ८०

निःशेषेष्वथ सर्वेषु मत्स्यपक्षिपशुष्वथ। 
संध्यांशे प्रतिपन्ने तु निःशेषास्तु तदा कृताः ॥ ८१ 

ततः प्रजास्तु सम्भूय कन्दमूलमथोऽखनन् । 
फलमूलाशनाः सर्वे अनिकेतास्तथैव च ॥ ८२ 

वल्कलान्यथ वासांसि अधः शय्याश्च सर्वशः । 
परिग्रहो न तेष्वस्ति धनं शुद्धिरथापि वा ॥ ८३

कुछ लोग भागकर नदियों, समुद्र तटवर्ती भागों तथा पर्वतोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। वल्कल और काला मृगचर्म ही उनका परिधान होता है। वे क्रियाहीन और परिग्रहरहित हो जाते हैं तथा वर्णाश्रमधर्मसे भ्रष्ट होकर घोर संकर-धर्ममें आस्था करने लगते हैं। उस समय स्वल्प मात्रामें बची हुई प्रजा इस प्रकार कष्ट झेलती है। क्षुधासे पीड़ित जीव-जन्तु दुःखके कारण अपने जीवनसे ऊब जाते हैं, किंतु चक्रकी तरह घूमते हुए पुनः उन्हीं देशोंका आश्रय ग्रहण करते हैं। तदनन्तर वे सारी प्रजाएँ मांसाहारी हो जाती हैं। उनमें भक्ष्याभक्ष्यका विचार लुप्त हो जाता है। वे मृगों, सूकरों, वृषभों तथा अन्यान्य सभी वनचारी जीवोंको खाने लगती हैं। जो प्रजाएँ नदियों और समुद्रोंके तटपर निवास करती हैं, वे भी भोजनके लिये सर्वत्र मछलियोंको पकड़ती हैं। 

इस प्रकार अभक्ष्य भोजनके दोषके कारण सारी प्रजा एक वर्णकी हो जाती हैं, अर्थात् वर्णधर्म नष्ट हो जाता है। जैसे पहले कृतयुगमें एक ही (हंसनामका) वर्ण था, उसी तरह कलियुगके अन्तमें सारी प्रजाएँ शूद्रवर्णकी हो जाती हैं। इस प्रकार उन प्रजाओंके पूरे एक सौ दिव्य वर्ष तथा मानुष गणनाके अनुसार छत्तीस हजार वर्ष व्यतीत होते हैं। इतने लम्बे समयमें क्षुधासे पीड़ित वे सभी लोग सर्वत्र पशुओं, पक्षियों और मछलियोंको मारकर खा डालते हैं। इस प्रकार जब संध्यांशके प्रवृत्त होनेपर सारे मछली, पक्षी और पशु मारकर निःशेष कर दिये जाते हैं, तब पुनः लोग कन्द-मूल खोदकर खाने लगते हैं। उस समय वे सभी गृहरहित होकर फल-मूलपर ही जीवन-निर्वाह करते हैं। वल्कल ही उनका वस्त्र होता है। वे सर्वत्र भूमिपर ही शयन करते हैं। उनके परिग्रह (स्त्री-परिवार आदि), अर्थशुद्धि और शौचाचार आदि सब नष्ट हो जाते हैं॥ ७२-८३॥ 

एवं क्षयं गमिष्यन्ति ह्यल्पशिष्टाः प्रजास्तदा । 
तासामल्पावशिष्टानामाहाराद् वृद्धिरिष्यते ॥ ८४

एवं वर्षशतं दिव्यं संध्यांशस्तस्य वर्तते । 
ततो वर्षशतस्यान्ते अल्पशिष्टाः स्त्रियः सुताः ॥ ८५

मिथुनानि तु ताः सर्वा ह्यन्योन्यं सम्प्रजज्ञिरे। 
ततस्तास्तु नियन्ते वै पूर्वोत्पन्नाः प्रजास्तु याः ॥ ८६

जातमात्रेष्वपत्येषु ततः कृतमवर्तत । 
यथा स्वर्गे शरीराणि नरके चैव देहिनाम् ॥ ८७

उपभोगसमर्थानि एवं कृतयुगादिषु। 
एवं कृतस्य संतानः कलेश्चैव क्षयस्तथा ॥ ८८

विचारणात्तु निर्वेदः साम्यावस्थात्मना तथा। 
ततश्चैवात्मसम्बोधः सम्बोधाद्धर्मशीलता ॥ ८९

कलिशिष्टेषु तेष्वेवं जायन्ते पूर्ववत् प्रजाः । 
भाविनोऽर्थस्य च बलात्ततः कृतमवर्तत ॥ ९०

अतीतानागतानि स्युर्यानि मन्वन्तरेष्विह। 
एते युगस्वभावास्तु मयोक्तास्तु समासतः ॥ ९९

इस प्रकार उस समय थोड़ी बची हुई प्रजाएँ नष्ट हो जाती हैं। उनमें भी जो थोड़ी शेष रह जाती हैं, उनकी आहार-शुद्धिके कारण वृद्धि होती है। इस प्रकार कलियुगका संध्यांश एक सौ दिव्य वर्षोंका होता है। उन सौ वर्षोंके बीत जानेपर जो अल्पजीवी संतानोत्पत्ति होती है और इसके पूर्व जो प्रजाएँ उत्पन्न हुई थीं, वे सभी मर जाती हैं। उन संतानोंके उत्पन्न होनेपर कृतयुगका प्रारम्भ होता है। जैसे (मृत्युके पश्चात् प्राप्त हुए) प्राणियोंके शरीर स्वर्ग और नरकमें उपभोगके योग्य होते हैं, उसी तरह कृतयुग आदि युगोंमें भी होता है। उसी प्रकार वह नूतन संतान कृतयुगकी वृद्धि और कलियुगके विनाशका कारण होता है। आत्माकी साम्यावस्थाके विचारसे विरक्ति उत्पन्न होती है, उससे आत्मज्ञान होता है और ज्ञानसे धर्म-बुद्धि होती है। इसी कारण कलियुगके अन्तमें बचे हुए लोगोंमें भावी प्रयोजनके प्रभावसे पुनः पूर्ववत् प्रजाएँ उत्पन होती हैं। तदनन्तर कृतयुगका आरम्भ होता है। उस समय मन्वन्तरोंमें जो भूत एवं भावी कर्म होते रहे हैं, वे सभी आवृत्त होने लगते हैं। इस प्रकार मैंने संक्षेपसे युगोंके स्वभावका वर्णन कर दिया ॥ ८४-९१॥

विस्तरेणानुपूर्व्याच्च नमस्कृत्य स्वयम्भुवे। 
प्रवृत्ते तु ततस्तस्मिन् पुनः कृतयुगे तु वै ॥ ९२

उत्पन्नाः कलिशिष्टेषु प्रजाः कार्तयुगास्तथा। 
तिष्ठन्ति चेह ये सिद्धा अदृष्टा विहरन्ति च ॥ ९३

सह सप्तर्षिभिर्ये तु तत्र ये च व्यवस्थिताः । 
ब्रह्मक्षत्रविशः शूद्रा बीजार्थे य इह स्मृताः ॥ ९४

तेषां सप्तर्षयो धर्म कथयन्तीह तेषु च ॥ 
वर्णाश्रमाचारयुतं श्रौतस्मार्तविधानतः । 
एवं तेषु क्रियावत्सु प्रवर्तन्तीह वै कृते ॥ ९५

श्रौतस्मार्तस्थितानां तु धर्मे सप्तर्षिदर्शिते । 
ते तु धर्मव्यवस्थार्थं तिष्ठन्तीह कृते युगे ॥ ९६

मन्वन्तराधिकारेषु तिष्ठन्ति ऋषयस्तु ते। 
यथा दावप्रदग्धेषु तृणेश्वेवापरं तृणम् ॥ ९७

वनानां प्रथमं वृष्ट्या तेषां मूलेषु सम्भवः । 
एवं युगाद्युगानां वै संतानस्तु परस्परम् ॥ ९८

प्रवर्तते ह्यविच्छेदाद् यावन्मन्वन्तरक्षयः । 
सुखमायुर्बलं रूपं धर्मार्थी काम एव च ॥ ९९ 

युगेष्वेतानि हीयन्ते त्रयः पादाः क्रमेण तु। 
इत्येष प्रतिसंधिर्वः कीर्तितस्तु मया द्विजाः ॥ १००

अब मैं पुनः कृतयुगके प्रवृत्त होनेपर ब्रह्माको नमस्कार करके उसका विस्तारपूर्वक आनुपूर्वी वर्णन कर रहा हूँ। कलियुगके अन्तमें बचे हुए लोगोंमें कृतयुगकी तरह ही संतानोत्पत्ति होती है। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र जातियोंके बीजकी रक्षाके लिये जो सिद्धगण अदृष्टरूपसे विचरण करते हुए वर्तमान रहते हैं, वे सभी तथा सप्तर्षियोंके साथ जो अन्य लोग स्थित रहते हैं, वे सभी मिलकर कृतयुगमें क्रियाशील संततियोंके प्रति व्यवस्थाका विधान करते हैं और सप्तर्षिगण उन्हें श्रौत एवं स्मार्त विधिके अनुसार वर्ण एवं आश्रमके आचारसे सम्पन्न धर्मका उपदेश देते हैं। इस प्रकार सप्तर्षियोंद्वारा प्रदर्शित धर्ममार्गपर चलती हुई सारी प्रजा श्रौत एवं स्मार्त विधिका पालन करती है। वे सप्तर्षि धर्मकी व्यवस्था करनेके लिये कृतयुगमें स्थित रहते हैं। वे ही ऋषिगण मन्वन्तरोंके कार्य काल तक स्थित रहते हैं। जैसे वनोंमें दावाग्निसे जली हुई घासोंकी जड़में प्रथम वृष्टि होनेपर पुनः अङ्कुर उत्पन्न हो जाते हैं, उसी प्रकार मन्वन्तरकी समाप्तिपर्यन्त एकसे दूसरे युगमें अविच्छिन्नरूपसे प्रजाओंमें परस्पर संतानकी परम्परा चलती रहती है। सुख, आयु, बल, रूप, धर्म, अर्थ, काम ये सब क्रमशः आनेवाले युगोंमें तीन चरणसे हीन हो जाते हैं। द्विजवरो! इस प्रकार मैंने आप-लोगोंसे युगकी प्रतिसंधिका वर्णन किया ॥ ९२-१०० ॥ 

चतुर्युगाणां सर्वेषामेतदेव प्रसाधनम् । 
एषां चतुर्युगाणां तु गणिता होकसप्ततिः ॥ १०१

क्रमेण परिवृत्तास्ता मनोरन्तरमुच्यते। 
युगाख्यासु तु सर्वासु भवतीह यदा च यत् ॥ १०२ 

तदेव च तदन्यासु पुनस्तद्वै यथाक्रमम्। 
सर्गे सर्गे यथा भेदा ह्युत्पद्यन्ते तथैव च ॥ १०३

चतुर्दशसु तावन्तो ज्ञेया मन्वन्तरेष्विह। 
आसुरी यातुधानी च पैशाची यक्षराक्षसी ॥ १०४ 

युगे युगे तदा काले प्रजा जायन्ति ताः शृणु। 
यथाकल्पं युगैः सार्धं भवन्ते तुल्यलक्षणाः ॥ १०५ 

इत्येतल्लक्षणं प्रोक्तं युगानां वै यथाक्रमम् । 
मन्वन्तराणां परिवर्तनानि चिप्रवृत्तानि युगस्वभावात् ।
क्षणं न संतिष्ठति जीवलोकः क्षयोदयाभ्यां परिवर्तमानः ॥ १०६ 

एते युगस्वभावा वः परिक्रान्ता यथाक्रमम् । 
मन्वन्तराणि यान्यस्मिन् कल्पे वक्ष्यामि तानि च ॥ १०७

यही नियम सभी चारों युगोंके लिये हैं। ये चारों युग जब क्रमशः इकहत्तर बार बीत जाते हैं, तब उसे एक मन्वन्तरका समय कहा जाता है। एक मन्वन्तरके युगोंमें जैसा कार्यक्रम होता है, वैसा ही अन्य मन्वन्तरके युगोंमें भी क्रमशः होता रहता है। प्रत्येक सर्गमें जैसे भेद उत्पन्न होते हैं, वैसे ही चौदहों मन्वन्तरोंमें समझना चाहिये। प्रत्येक युगमें समयानुसार असुर, यातुधान, पिशाच, यक्ष और राक्षस स्वभाववाली प्रजाएँ उत्पन्न होती हैं। अब उनके विषयमें सुनिये। कल्पानुसार युगोंके साथ-साथ उन्हींके अनुरूप लक्षणोंवाली प्रजाएँ उत्पन्न होती है। इस प्रकार क्रमशः युगोंका यह लक्षण बतलाया गया। मन्वन्तरोंका यह परिवर्तन युगोंके स्वभावानुसार चिरकालसे चला आ रहा है। इसलिये यह जीवलोक उत्पत्ति और विनाशके चक्करमें फँसा हुआ क्षणमात्र भी स्थिर नहीं रहता। इस प्रकार आपलोगोंको ये युगस्वभाव क्रमशः बतलाये जा चुके। अब इस कल्पमें जितने मन्वन्तर हैं, उनका वर्णन करूँगा ॥ १०१-१०७॥ 

इति श्रीमात्स्ये महापुराणे मन्वन्तरानुकीर्तनयुगवर्तनं नाम चतुश्चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ ९४४ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें मन्वन्तरानुकीर्तनयुगवर्तन नामक एक सौ चौवालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४४॥

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