देवताओं और दानवों का भीषण संग्राम, नन्दीश्वर द्वारा विद्युन्माली का वध, मयका पलायन तथा शङ्कर जी की त्रिपुरपर विजय | devataon aur daanavon ka bheeshan sangraam, nandeeshvar dvaara vidyunmaalee ka vadh, mayaka palaayan tatha shankar jee kee tripurapar vijay

मत्स्य पुराण एक सौ चालीसवाँ अध्याय 

देवताओं और दानवों का भीषण संग्राम, नन्दीश्वर द्वारा विद्युन्माली का वध, मयका पलायन तथा शङ्कर जी की त्रिपुरपर विजय

सूत उवाच

उदिते तु सहस्त्रांशौ मेरी भासाकरे रखौ।
नदद्देव बलं कृत्त्रं युगान्त इव सागराः ॥ १

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! प्रकाश बिखेरनेवाले सहस्त्रांशुमाली सूर्य के मेरुगिरि पर उदित होते ही सारी-की सारी देवसेना प्रलयकालीन सागरकी तरह उच्च स्वरसे गर्जना करने लगी। 

सहस्त्रनयनो देवस्ततः शक्रः पुरन्दरः । 
सवित्तदः सवरुणस्त्रिपुरं प्रययौ हरः ॥ २

ते नानाविधिरूपाश्च प्रमथातिप्रमाथिनः ।
ययुः सिंहरवैर्घोरैर्वादित्रनिनदैरपि ॥ ३

ततो वादितवादित्रैश्चातपत्रैर्महाद्रुमैः ।
बभूव तद्बलं दिव्यं वनं प्रचलितं यथा ॥ ४

तदापतन्तं सम्प्रेक्ष्य रौद्रं रुद्रबलं महत्।
संक्षोभो दानवेन्द्राणां समुद्रप्रतिमो बभौ ॥ ५

ते चासीन् पट्टिशान् शक्तीः शूलदण्डपरश्वधान् । 
शरासनानि वज्राणि गुरूणि मुसलानि च ॥ ६

प्रगृह्य कोपरक्ताक्षाः सपक्षा इव पर्वताः ।
निजघ्नुः पर्वतघ्नाय घना इव तपात्यये ॥ ७

तब भगवान् शङ्कर सहस्रनेत्रधारी पुरन्दर इन्द्र, कुबेर और वरुणको साथ लेकर त्रिपुरकी ओर प्रस्थित हुए। उनके पीछे विभिन्न रूपधारी शत्रुविनाशक प्रमथगण भीषण सिंहनाद करते और बाजा बजाते हुए चले। उस समय बजते हुए बाजों, छत्रों और विशाल वृक्षोंसे युक्त होनेके कारण वह देवसेना ऐसी लग रही थी, मानो चलता-फिरता वन हो। तत्पश्चात् शङ्करजीकी उस विशाल भयंकर सेनाको आक्रमण करते देखकर दानवेन्द्रोंका समूह सागरकी तरह संक्षुब्ध हो उठा। फिर तो पंखधारी पर्वतोंकी भाँति विशालकाय दानवोंके नेत्र क्रोधसे लाल हो गये। वे खड्ग, पट्टिश (पट्टे), शक्ति, शूल, दण्ड, कुठार, धनुष, वज्र तथा बड़े-बड़े मूसलोंको लेकर एक साथ ही इन्द्रपर इस प्रकार प्रहार करने लगे, जैसे ग्रीष्म ऋतुके बीत जानेपर बादल जलकी वृष्टि करते हैं ॥-७॥ 

सविद्युन्मालिनस्ते वै समया दितिनन्दनाः।
मोदमानाः समासेदुर्देवदेवैः सुरारयः ॥ ८

मर्तव्यकृतबुद्धीनां जये चानिश्चितात्मनाम्।
अबलानां चमूर्हासीदबलावयवा इव ॥ ९

विगर्जन्त इवाम्भोदा अम्भोदसदृशत्विषः । 
प्रयुध्य युद्धकुशलाः परस्परकृतागसः ॥ १०

धूमायन्तो ज्वलद्भिश्च आयुधैश्चन्द्रवर्चसैः । 
कोपाद् वा युद्धलुब्धाश्च कुट्टयन्ते परस्परम् ॥ ११

वज्राहताः पतन्त्यन्ये बाणैरन्ये विदारिताः । 
अन्ये विदारिताश्चकैः पतन्ति ह्युदधेर्जले ॥ १२

छिन्नस्त्रग्दामहाराश्च प्रमृष्टाम्बरभूषणाः । 
तिमिनक्रगणे चैव पतन्ति प्रमथाः सुराः ॥ १३

गदानां मुसलानां च तोमराणां परश्वधाम्। 
वज्रशूलष्टिपातानां पट्टिशानां च सर्वतः ॥ १४

गिरिशृङ्गोपलानां च प्रेरितानां प्रमन्युभिः। 
सजवानां दानवानां सधूमानां रवित्विषाम्। 
आयुधानां महानाघः सोगरौधे पतत्यपि ॥ १५ 

प्रवृद्धवेगैस्तैस्तत्र सुरासुरकरेरितैः । 
आयुधैस्त्रस्तनक्षत्रः क्रियते संक्षयो महान् ॥ १६ 

क्षुद्राणां गजयोर्युद्धे यथा भवति सङ्ख्यः । 
देवासुरगणैस्तद्वत् तिमिनक्रक्षयोऽभवत् ॥ १७

इस प्रकार मयसहित देवशत्रु दैत्यगण विद्युन्मालीके साथ होकर प्रसन्नतापूर्वक देवेश्वरोंसे टक्कर लेने लगे। उनके मनमें विजयकी आशा तो थी ही नहीं, अतः वे मरनेपर उतारू हो गये थे। उन बलहीनोंकी सेना स्त्रियोंक अवयवोंको तरह दुर्बल थी। मेघकी-सी कान्तिवाले युद्धकुशल दैत्य परस्पर एक-दूसरेपर प्रहार करते हुए लड़ रहे थे और मेघके समान गरज रहे थे। बुद्धलोभी सैनिक प्रज्वलित अग्रि एवं चन्द्रमाके समान तेजस्वी अस्त्रोंद्वारा क्रोधपूर्वक परस्पर एक-दूसरेको मार-पीट-कूट रहे थे। कुछ लोग वज्रसे घायल होकर, कुछ लोग बाणोंसे विदीर्ण होकर और कुछ लोग चक्रोंसे छिन्न-भिन्न होकर समुद्रके जलमें गिर रहे थे। (दैत्योंकी मारसे) जिनकी मालाओंके सूत्र और हार टूट गये थे तथा जिनके वस्त्र और आभूषण नष्ट-भ्रष्ट हो गये थे, वे देवता और गणेश्वर समुद्रमें मगरमच्छों एवं नाकोंके मध्यमें गिर रहे थे। धूमयुक्त सूर्यकी-सी कान्तिवाले वेगशाली दानवोंद्वारा क्रोधपूर्वक चलाये गये गदा, मुसल, तोमर, कुठार, वज्र, शूल, ऋष्टि, पट्टिश, पर्वतशिखर और शिलाखण्ड आदि आयुधोंका महान् समूह सागरमें गिर रहा था। देवताओं और असुरोंके हाथोंसे वेगपूर्वक चलाये गये आयुधोंसे नक्षत्रगण (भी) त्रस्त हो रहे थे। और महान् संहार हो रहा था। जैसे दो हाथियोंके लड़ते समय क्षुद्र जीवोंका विनाश हो जाता है, उसी तरह देवताओं और असुरोंके संग्रामसे मगरमच्छ और नाकोंका संहार होने लगा ॥ ८-१७॥

विद्युन्माली च वेगेन विद्युन्माली इवाम्बुदः ।
विद्युन्मालं घनोन्नादो नन्दीश्वरमभिद्रुतः ॥ १८

स तं तमोऽरिवदनं प्रणदन् वदतां वरः। 
उवाच युधि शैलादिं दानवोऽम्बुधिनिःस्वनः ॥ १९

युद्धाकाङ्क्षी तु बलवान् विद्युन्माल्यहमागतः । 
यदि त्विदानीं मे जीवन्मुच्यसे नन्दिकेश्वर। 
न विद्युन्मालिहननं वचोभिर्युधि दानवम् ॥ २०

तमेवंवादिनं दैत्यं नन्दीशस्तपर्ता वरः।
उवाच प्रहरंस्तत्र वाक्यालङ्कारकोविदः ॥ २१

दानवाधम कामानां नैषोऽवसर इत्युत। 
शक्तो हन्तुं किमात्मानं जातिदोषाद् विबृंहसि ॥ २२

यदि तावन्मया पूर्व हतोऽसि पशुवद् यथा। 
इदानीं वा कथं नाम न हिंस्ये क्रतुदूषणम् ॥ २३

सागरं तरते दोर्थ्यां पातयेद् यो दिवाकरम्। 
सोऽपि मां शक्नुयान्त्रैव चक्षुर्थ्यां समवीक्षितुम् ॥ २४

इत्येवंवादिनं तत्र नन्दिनं तन्निभो बले। 
बिभेदैकेषुणा दैत्यः करेणार्क इवाम्बुदम् ॥ २५ 

वक्षसः स शरस्तस्य पपौ रुधिरमुत्तमम् । 
सूर्यस्त्वात्मप्रभावेण नद्यर्णवजलं यथा ॥ २६

स तेन सुप्रहारेण प्रथमं च तिरोहितः । 
हस्तेन वृक्षमुत्पाट्य चिक्षेप गजराडिव ॥ २७

वायुनुन्नः स च तरुः शीर्णपुष्पो महारवः । 
विद्युन्मालिशरैश्च्छिन्त्रः पपात पतगेशवत् ॥ २८ 

तत्पश्चात् विद्युत्समूहोंसे युक्त मेघकी तरह कान्तिमान् विद्युन्मालीने बिजलीसे युक्त बादलकी तरह गरजते हुए नन्दीश्वरपर वेगपूर्वक धावा किया। उस समय वक्ताओंमें श्रेष्ठ दानव विद्युन्माली बादलकी तरह गरजता हुआ युद्धस्थलमें सूर्यके समान तेजस्वी मुखवाले नन्दीश्वरसे बोला- 'नन्दिकेश्वर। मैं बलवान् विद्युन्माली हूँ और युद्ध करनेकी इच्छासे तुम्हारे सम्मुख खड़ा हूँ। अब तुम्हारा मेरे हाथोंसे जीवित बच पाना असम्भव है। युद्धस्थलमें वचनोंद्वाय दानव विद्युन्मालीका हनन नहीं किया जा सकता।' तब वाक्यके अलंकारोंके ज्ञाता एवं श्रेष्ठ तेजस्वी नन्दीश्वरने ऐसा कहनेवाले दैत्य विद्युन्मालीपर प्रहार करते हुए कहा- 'दानवाधम । तुमलोग इस समय कामासक्त ही हो, जिसका यह अवसर नहीं है। तुम मुझे मारनेमें समर्थ हो तो उसे कर दिखाओ, किंतु जाति-दोषके कारण तुम अपने प्रति ऐसी डींग क्यों मार रहे हो। 

यदि इससे भी पहले मैंने तुम्हें पशुकी तरह बहुत मारा है तो इस समय तुझ यज्ञविध्वंसीका हनन कैसे नहीं करूँगा? (तुम समझ लो) जो हाथोंसे सागरको तैरनेकी तथा सूर्यको आकाशसे गिरा देनेकी शक्ति रखता हो, वह भी मेरी ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता।' तब नन्दीश्वरके समान ही बलशाली विद्युन्मालीने इस प्रकार कहते हुए नन्दीश्वरको एक बाणसे वैसे ही बींध दिया, जैसे सूर्य अपनी किरणसे बादलका भेदन करते हैं। वह बाण नन्दीश्वरके वक्षःस्थलपर जा लगा और उनका शुद्ध रक्त इस प्रकार पीने लगा जैसे सूर्य अपने प्रभावसे नदी और समुद्रके जलको पीते हैं। उस प्रथम प्रहारसे अत्यन्त क्क्रुद्ध हुए नन्दीश्वरने अपने हाथसे एक वृक्ष उखाड़कर गजराजकी भाँति विद्युन्मालीके ऊपर फेंका। वायुसे प्रेरित हुआ वह वृक्ष घोर शब्द करता और पुष्पोंको बिखेरता हुआ आगे बढ़ा, किंतु विद्युन्मालीके बाणोंसे छिन्न-भिन्न होकर एक बड़े पक्षीकी तरह भूतलपर बिखर गया ॥ १८-२८॥

वृक्षमालोक्य तं छिन्नं दानवेन वरेषुभिः । 
रोषमाहारयत् तीव्र नन्दीश्वरः सुविग्रहः ॥ २९

सोद्यम्य करमारावे रविशक्रकरप्रभम्।
दुद्राव हन्तुं स क्रूरं महिषं गजराडिव ॥ ३०

तमापतन्तं वेगेन वेगवान् प्रसभं बलात्। 
विद्युन्माली शरशतैः पूरयामास नन्दिनम् ॥ ३१

शरकण्टकिताङ्गो वै शैलादिः सोऽभवत् पुनः । 
अरेगृह्य रथं तस्य महतः प्रययौ जवात् ॥ ३२

विलम्बिताश्वो विशिरो भ्रमितश्च रणे रथः। 
पपात मुनिशापेन सादित्योऽर्करथो यथा ॥ ३३

अन्तरान्निर्गतश्चैव मायया स दितेः सुतः। 
आजघान तदा शक्त्या शैलादिं समवस्थितम् ॥ ३४

तामेव तु विनिष्क्रम्य शक्तिं शोणितभूषिताम्। 
विद्युन्मालिनमुद्दिश्य चिक्षेप प्रमथाग्रणीः ॥ ३५

तया भिन्नतनुत्राणो विभिन्नहृदयस्त्वपि। 
विद्युन्माल्यपतद् भूमौ वज्राहत इवाचलः ॥ ३६ 

विद्युन्माली द्वारा श्रेष्ठ बाणोंके प्रहारसे उस वृक्षको छिन्न-भिन्न हुआ देखकर महाबली नन्दीश्वर अत्यन्त क्क्रुद्ध हो उठे। फिर तो वे सूर्य और इन्द्रके हाथके समान प्रभावशाली अपने हाथको उठाकर सिंहनाद करते हुए उस क्रूर राक्षसका वध करनेके लिये इस प्रकार झपटे, जैसे गजराज भैंसेपर टूट पड़ता है। नन्दीश्वरको वेगपूर्वक आक्रमण करते देखकर वेगशाली विद्युन्मालीने बलपूर्वक नन्दीश्वरके शरीरको सैकड़ों बाणोंसे व्याप्त कर दिया। उस समय नन्दीश्वरका शरीर बाणरूपी कौंटोंसे भरा हुआ दिखायी पड़ने लगा; तब उन्होंने अपने शत्रु विद्युन्मालीके रथको पकड़‌कर बड़े वेगसे दूर फेंक दिया। उस समय उस रथके घोड़े उसमें लटके हुए थे और उसका अग्रभाग टूट गया था तथा वह चक्कर काटता हुआ रणभूमिमें उसी प्रकार गिर पड़ा, जैसे मुनिके शापसे सूर्यसहित सूर्यका रथ गिर पड़ा था। तब दितिपुत्र विद्युन्माली मायाके बलसे अपनेको सुरक्षित रखकर रथके भीतरसे निकल पड़ा और उसने सामने खड़े हुए नन्दीश्वरपर शक्तिसे प्रहार किया। प्रमथगणोंके नायक नन्दीश्वरने रक्तसे लथपथ हुई उस शक्तिको हाथमें लेकर विद्युन्मालीको लक्ष्य करके फेंक दिया। फिर तो उस शक्तिने विद्युन्मालीके कवचको फाड़कर उसके हृदयको भी विदीर्ण कर दिया, जिससे वह वज्रसे मारे गये पर्वतकी तरह धराशायी हो गया॥ २९-३६॥

विद्युन्मालिनि निहते सिद्धचारणकिन्नराः ।
साधु साध्विति चोक्त्वा ते पूजयन्त उमापतिम् ॥ ३७

नन्दिना सादिते दैत्ये विद्युन्मालौ हते मयः ।
ददाह प्रमथानीकं वनमग्निरिवोद्धतः ॥ ३८

शूलनिर्दारितोरस्का गदाचूर्णितमस्तकाः ।
इषुभिर्गाढविद्धाश्च पतन्ति प्रमथार्णवे ॥ ३९

अथ वज्रधरो यमोऽर्थदः स च नन्दीस च षण्मुखो गुहः।
मयमसुरवीरसम्प्रवृत्तं विविधुः शस्त्रवरैर्हतारयः ॥ ४०

नागं तु नागाधिपतेः शताक्ष मयो विदार्येषु वरेण तूर्णम्।
यमं च वित्ताधिपतिं च विद्धवा ररास मत्ताम्बुदवत् तदानीम् ॥ ४१

ततः शरैः प्रमथगणैश्च दानवा दृढाहताश्चोत्तमवेगविक्रमाः ।
भृशानुविद्धास्त्रिपुरं प्रवेशिता यथासुराश्चक्रधरेण संयुगे ॥ ४२

ततस्तु शङ्खानक भेरिमर्दलाः ससिंहनादा दनुपुत्रभङ्गदाः ।
कपर्दिसैन्ये प्रबभुः समन्ततो निपात्यमाना युधि वज्रसंनिभाः॥ ४३

अथ दैत्यपुराभावे पुष्ययोगो बभूव ह।
बभूव चापि संयुक्तं तद्योगेन पुरत्रयम् ॥ ४४

इस प्रकार विद्युन्मालीके मारे जानेपर सिद्ध, चारण और किन्नरोंके समूह 'ठीक है, ठीक है' ऐसा कहते हुए शंकरजीकी पूजा करने लगे। इधर नन्दीश्वरद्वारा दैत्य विद्युन्मालीके मारे जानेपर मयने प्रमथोंकी सेनाको उसी प्रकार जलाना आरम्भ किया, जैसे उद्दीप्त दावाग्नि वनको जला डालती है। उस समय शूलके आघातसे जिनके वक्षःस्थल फट गये थे एवं गदाके प्रहारसे मस्तक चूर्ण हो गये थे और जो बाणोंकी मारसे अत्यन्त घायल हो गये थे, ऐसे प्रमथगण समुद्रमें गिर रहे थे। तदनन्तर शत्रुओंके विनाशक वज्रधारी इन्द्र, यमराज, कुबेर, नन्दीश्वर तथा छः मुखवाले स्वामिकार्तिक- ये सभी असुर-वीरोंसे घिरे हुए मयको श्रेष्ठ अस्त्रोंद्वारा बींधने लगे। 

उस समय मयने शीघ्र ही एक श्रेष्ठ बाणसे गजारूढ सौ नेत्रोंवाले इन्द्रको तथा ऐरावत नागको विदीर्ण कर यमराज और कुबेरको भी बाँध दिया। फिर वह घुमड़ते हुए बादलकी तरह गर्जना करने लगा। इधर प्रमथगणोंद्वारा छोड़े गये बाणोंसे उत्तम वेग एवं पराक्रम शाली दानव बुरी तरह घायल हो रहे थे। वे अत्यन्त घायल होनेके कारण भागकर त्रिपुरमें उसी प्रकार घुस रहे थे, जैसे युद्धस्थलमें चक्रपाणि विष्णुके प्रहारसे असुर। तत्पश्चात् रणभूमिमें शंकरजीकी सेनामें चारों ओर शङ्ख, ढोल, भेरी और मृदङ्ग बज उठे। वीरोंका सिंहनाद वज्रकी गड़गड़ाहटकी भाँति गूँज उठा, जो दानवोंकी पराजयको सूचित कर रहा था। इसी समय उस दैत्यपुरका विनाशक पुष्ययोग आ गया। उस योगके प्रभावसे तीनों पुर संयुक्त हो गये ॥ ३७-४४॥ 

ततो बाणं त्रिधा देवस्त्रिदैवतमयं हरः। 
मुमोच त्रिपुरे तूर्ण त्रिनेत्रस्त्रिपथाधिपः ।। ४५

तेन मुक्तेन बाणेन बाणपुष्पसमप्रभम् । 
आकाशं स्वर्णसंकाशं कृतं सूर्येण रञ्जितम् ॥ ४६

मुक्त्वा त्रिदैवतमयं त्रिपुरे त्रिदशः शरम्। 
धिग्धि‌मामेति चक्रन्द कष्टं कष्टमिति बुवन् ॥ ४७

वैधुर्य दैवतं दृष्ट्वा शैलादिर्गजवद्गतिः ।
किमिदं त्विति पप्रच्छ शूलपाणिं महेश्वरम् ॥ ४८ 

ततः शशाङ्कतिलकः कपर्दी परमार्तवत्। 
उवाच नन्दिनं भक्तः स मयोऽद्य विनश्यति ॥ ४९ 

अथ नन्दीश्वरस्तूर्ण मनोमारुतवद् बली। 
शरे त्रिपुरमायाति त्रिपुरं प्रविवेश सः ॥ ५०

स मयं प्रेक्ष्य गणपः प्राह काञ्चनसंनिभः । 
विनाशस्त्रिपुरस्यास्य प्राप्तो मय सुदारुणः ॥५१

अनेनैव गृहेण त्वमपक्राम ब्रवीम्यहम् । 
श्रुत्वा तन्नन्दिवचनं दृढभक्तो महेश्वरे। 
तेनैव गृहमुख्येन त्रिपुरादपसर्पितः ॥ ५२

सोऽपीषुः पत्रपुटवद् दग्ध्वा तन्नगरत्रयम्। 
त्रिधा इव हुताशश्च सोमो नारायणस्तथा ॥ ५३

शरतेजः परीतानि पुराणि द्विजपुङ्गवाः । 
दुष्युत्रदोषाद् दह्यन्ते कुलान्यूर्वं यथा तथा ॥ ५४ 

तब त्रैलोक्याधिपति त्रिनेत्रधारी भगवान् शंकरने शीघ्र ही अपने त्रिदेवमय बाणको तीन भागोंमें विभक कर त्रिपुरपर छोड़ दिया। उस छूटे हुए बाणने (तीनों देवताओंके अंशसे तीन प्रकारकी प्रभासे युक्त होकर) बाण वृक्षके पुष्पके समान नीले आकाशको स्वर्ण-सदृश प्रभाशाली और सूर्यकी किरणोंसे उद्दीप्त कर दिया। देवेश्वर शम्भु त्रिपुरपर त्रिदेवमय बाण छोड़कर 'मुझे धिक्कार है, धिक्कार है, हाय! बड़े कष्टकी बात हो गयी' यों कहते हुए चिल्ला उठे। इस प्रकार शंकरजीको व्याकुल देखकर गजराजकी चालसे चलनेवाले नन्दीश्वर शूलपाणि महेश्वरके निकट पहुँचे और पूछने लगे- 'कहिये, क्या बात है?' तब चन्द्रशेखर जटाजूटधारी भगवान् शंकरने अत्यन्त दुःखी होकर नन्दीश्वरसे कहा-' आज मेरा वह भक्त मय भी नष्ट हो जायगा।' 

यह सुनकर मन और वायुके समान वेगशाली महाबली नन्दीश्वर तुरंत उस बाणके त्रिपुरमें पहुँचनेके पूर्व ही वहाँ जा पहुँचे। वहाँ स्वर्ण-सरीखे कान्तिमान् गणेश्वर नन्दीने मयके निकट जाकर कहा-'मय! इस त्रिपुरका अत्यन्त भयंकर विनाश आ पहुँचा है, इसलिये मैं तुम्हें बतला रहा हूँ। तुम अपने इस गृहके साथ इससे बाहर निकल जाओ।' तब महेश्वरके प्रति दृढ़ भक्ति रखनेवाला मय नन्दीश्वरके उस वचनको सुनकर अपने उस मुख्य गृहके साथ त्रिपुरसे निकलकर भाग गया। तदनन्तर वह बाण अग्नि, सोम और नारायणके रूपसे तीन भागोंमें विभक्त होकर उन तीनों नगरोंको पत्तेके दोनेकी तरह जलाकर भस्म कर दिया। द्विजवरो! वे तीनों पुर बाणके तेजसे उसी प्रकार जलकर नष्ट हो रहे थे, जैसे कुपुत्रके दोषसे आगेकी पीढ़ियाँ नष्ट हो जाती हैं॥४५-५४॥

मेरुकैलासकल्पानि मन्दराग्रनिभानि च। 
सकपाटगवाक्षाणि बलिभिः शोभितानि च ॥ ५५ 

सप्रासादानि रम्याणि कूटागारोत्कटानि च। 
सजलानि समाख्यानि सावलोकनकानि च ॥ ५६ 

बद्धध्वजपताकानि स्वर्णरौप्यमयानि च। 
गृहाणि तस्मिस्त्रिपुरे दानवानामुपद्रवे। 
दह्यन्ते दहनाभानि दहनेन सहस्त्रशः ॥ ५७

प्रासादाग्रेषु रम्येषु वनेषूपवनेषु च। 
वातायनगताश्चान्याश्चाकाशस्य तलेषु च ॥ ५८

रमणैरुपगूढाश्च रमन्त्यो रमणैः सह। 
दह्यन्ते दानवेन्द्राणामग्निना ह्यपि ताः स्त्रियः ॥ ५९

काचित्प्रियं परित्यज्य अशक्ता गन्तुमन्यतः । 
पुरः प्रियस्य पञ्चत्वं गताग्निवदने क्षयम् ॥ ६०

उवाच शतपत्राक्षी सास्त्राक्षीव कृताञ्जलिः । 
हव्यवाहन भार्याहं परस्य परतापन। 
धर्मसाक्षी त्रिलोकस्य न मां स्प्रष्टुमिहार्हसि ॥ ६१

शायितं च मया देव शिवया च शिवप्रभ। 
शरेण प्रेहि मुक्त्वेदं गृहं च दयितं हि मे ॥ ६२

एका पुत्रमुपादाय बालकं दानवाङ्गना। 
हुताशनसमीपस्था इत्युवाच हुताशनम् ॥ ६३

बालोऽयं दुःखलब्धश्च मया पावक पुत्रकः ।
नार्हस्येनमुपादातुं दयितं षण्मुखप्रिय ॥ ६४

काश्चित् प्रियान् परित्यज्य पीडिता दानवाङ्गनाः ।
निपतन्त्यर्णवजले शिञ्जमानविभूषणाः ॥ ६५ 

तात पुत्रेति मातेति मातुलेति च विह्वलम्।
चक्रन्दुस्त्रिपुरे नार्यः पावकज्वालवेपिताः ॥ ६६

यथा दहति शैलाग्निः साम्बुजं जलजाकरम्। 
तथा स्त्रीवकापद्यानि चादहत् पुरेऽनलः ॥ ६७

उस त्रिपुर में ऐसे गृह बने थे जो सुमेरु, कैलास और मन्दराचलके अग्रभागकी तरह दीख रहे थे। जिनमें बड़े-बड़े किंवाड़ और झरोखे लगे हुए थे तथा छज्जाओंकी विचित्र छटा दीख रही थी। जो सुन्दर महलों, उत्कृष्ट कूटागारों (ऊपरी छतके कमरों), जल रखनेकी वेदिकाओं और खिड़‌‌िकयोंसे सुशोभित थे। जिनके ऊपर सुवर्ण एवं चाँदीके बने हुए डंडोंमें बँधे हुए ध्वज और पताकाएँ फहरा रही थीं। ये सभी हजारोंकी संख्यामें दानवोंके उस उपद्रवके समय अग्निद्वारा जलाये जा रहे थे, जो आगकी तरह धधक रहे थे। दानवेन्द्रोंको खियाँ, जिनमें कुछ महलोंके रमणीय शिखरोंपर बैठी थीं, कुछ वनों और उपवनोंमें घूम रही थीं, कुछ झरोखोंमें बैठकर दृश्य देख रही थीं कुछ मैदानमें घूम रही थीं ये सभी अग्निद्वारा जलायी जा रही थीं। कोई अपने पतिको छोड़कर अन्यत्र जानेमें असमर्थ थी, अतः पतिके सम्मुख ही अग्निकी लपटोंमें आकर दग्ध हो गयी। 

कोई कमलनयनी नारी आँखों में आँसू भरे हुए हाथ जोड़कर कह रही थी- 'हव्यवाहन। मैं दूसरेकी पत्नी हूँ। परतापन! आप त्रिलोकीके धर्मके साक्षी हैं, अतः यहाँ मेरा स्पर्श करना आपके लिये उचित नहीं है।' (कोई कह रही थी) 'शिवके समान कान्तिमान् अग्निदेव । मुझ पतिव्रताने इस घरमें अपने पतिको सुला रखा है, अतः इसे छोड़कर आप दूसरी ओरसे चले जाइये; क्योकि यह गृह मुझे परम प्रिय है।' एक दानवपत्नी अपने शिशु पुत्रको गोदमें लेकर अग्निके समीप गयी और अग्निसे कहने लगी- 'स्वामीकार्तिक के प्रेमी पावक । मुझे यह शिशु पुत्र बड़े दुःखसे प्राप्त हुआ है, अतः इसे ले लेना आपके लिये उचित नहीं है। यह मुझे परम प्रिय है।' कुछ पीड़ित हुई दानव-पत्नियाँ अपने पतियोंको छोड़कर समुद्रके जलमें कूद रही थीं। उस समय उनके आभूषणोंसे शब्द हो रहा था। त्रिपुरमें आगकी लपटोंके भयसे काँपती हुई नारियाँ 'हा तात, हा पुत्र।, हा माता।, हा मामा।' कहकर विह्नलतापूर्वक करुण क्रन्दन कर रही थीं। जैसे पर्वताग्रि (दावाग्नि) कमलोंसहित सरोवरको जला देती है उसी प्रकार अग्निदेव त्रिपुरमें स्त्रियोंके मुखरूपों कमलोंको जला रहे थे॥ ५५-६७॥

तुषारराशिः कमलाकराणां यथा दहत्यम्बुजकानि शीते।
तथैव सोऽग्निस्त्रिपुराङ्गनानां ददाह वक्त्रेक्षणपङ्कजानि ॥ ६८

शराग्निपातात् समभिद्रुतानां तत्राङ्गनानामतिकोमलानाम् ।
बभूव काञ्चीगुणनूपुराणा- माक्क्रन्दितानां च रवोऽति मिश्रः ॥ ६९

दग्धार्धचन्द्राणि सवेदिकानि विशीर्णहर्याणि सतोरणानि।
दग्धानि दग्धानि गृहाणि तत्र पतन्ति रक्षार्थमिवार्णवौघे ॥ ७०

गृहैः पतद्भिर्व्वलनावली है- रासीत् समुद्रे सलिलं प्रतप्तम्। 
कुपुत्रदोषैः प्रहतानुविद्धं यथा कुलं याति धनान्वितस्य ॥ ७१

गृहप्रतापैः क्वथितं समन्तात् तदार्णवे तोयमुदीर्णवेगम् ।
वित्रासयामास तिमीन् सनक्रां -स्तिमिङ्गिलांस्तत्क्वथितांस्तथान्यान् ॥ ७२

सगोपुरो मन्दरपादकल्पःप्राकारवर्यस्त्रिपुरे च सोऽथ।
तैरेव सार्धं भवनैः पपात शब्दं महान्तं जनयन् समुद्रे ॥ ७३

सहस्त्रशृङ्गैर्भवनैर्यदासीत् सहस्त्रशृङ्गः स इवाचलेशः ।
नामावशेषं त्रिपुरं प्रजज्ञे हुताशनाहारबलिप्रयुक्तम् ॥ ७४

प्रदह्यमानेन पुरेण तेन जगत्सपातालदिवं प्रतप्तम्।
दुःखं महत्प्राप्य जलावमग्नं हित्वा महान् सौधवरो मयस्य ।। ७५ 

तद् देवेशो वचः श्रुत्वा इन्द्रो वज्रधरस्तदा। 
शशाप तद्गृहं चापि मयस्यादितिनन्दनः ॥ ७६ 

असेव्यमप्रतिष्ठं च भयेन च समावृतम् । 
भविष्यति मयगृहं नित्यमेव यथानलः ॥ ७७

यस्य यस्य तु देशस्य भविष्यति पराभवः । 
द्रक्ष्यन्ति त्रिपुरं खण्डं तत्रेदं नाशगा जनाः। 
तदेतदद्यापि गृहं मयस्यामयवर्जितम् ॥ ७८ 

जिस प्रकार शीतकालमें तुषारराशि कमलोंसे भरे हुए सरोवरोंके कमलोंको नष्ट कर देती है उसी तरह अग्निदेव त्रिपुर-निवासिनी नारियोंके मुख और नेत्ररूप कमलोंको जला रहे थे। त्रिपुरमें बाणाग्रिके गिरनेसे भयभीत होकर भागती हुई अत्यन्त कोमलाङ्गी सुन्दरियोंकी करधनीकी लड़ियों और पायजेबोंका शब्द आक्रन्दन के शब्दों से मिलकर अत्यन्त भयंकर लग रहा था। जिनमें अर्धचन्द्रसे सुशोभित वेदिकाएँ जल गयी थीं तथा तोरणसहित अट्टालिकाएँ जलकर छिन्न-भिन्न हो गयी थीं। ऐसे गृह जलते जलते समुद्रमें इस प्रकार गिर रहे थे मानो वे रक्षाके लिये उसमें कूद रहे हों। अग्निको लपटोंसे झुलसे हुए गृहोंके समुद्रमें गिरनेसे उसका जल ऐसा संतप्त हो उठा था, जैसे सम्पत्तिशाली व्यक्तिका कुल कुपुत्रके दोषसे नष्ट-भ्रष्ट हो जाता है। उस समय समुद्रमें चारों ओर गिरते हुए गृहोंकी उष्णतासे खौलते हुए जलमें तूफान आ गया, जिससे मगरमच्छ, नाक, तिमिंगिल तथा अन्यान्य जलजन्तु संतप्त होकर भयभीत हो उठे। उसी समय त्रिपुरमें लगा हुआ मन्दराचलके समान ऊँचा परकोटा फाटकसहित उन गिरते हुए भवनोंके साथ-ही-साथ महान् शब्द करता हुआ समुद्रमें जा गिरा। 

जो त्रिपुर थोड़ी देर पहले सहस्रों ऊँचे-ऊँचे भवनोंसे युक्त होनेके कारण सहस्र शिखरवाले पर्वतकी भाँति शोभा पा रहा था वही अग्निके आहार और बलिके रूपमें प्रयुक्त होकर नाममात्र अवशेष रह गया। जलते हुए उस त्रिपुरके तापसे पाताल और स्वर्गलोकसहित सारा जगत् संतस हो उठा। इस प्रकार महान् कष्ट झेलता हुआ वह त्रिपुर समुद्रके जलमें निमग्र हो गया। इसमें एकमात्र मयका महान् भवन ही बच गया था। अदिति-नन्दन वज्रधारी देवराज इन्द्रने जब ऐसी बात सुनी तो मयके उस गृहको शाप देते हुए बोले- 'मयका वह गृह किसीके सेवन करनेयोग्य नहीं होगा। उसकी संसारमें प्रतिष्ठा नहीं होगी। वह अग्रिकी तरह सदा भयसे युक्त बना रहेगा। जिस-जिस देशकी पराजय होनेवाली होगी उस-उस देशके विनाशोन्मुख निवासी इस त्रिपुर-खण्डका दर्शन करेंगे।' मयका वह गृह आज भी आपत्तियोंसे रहित है॥ ६८-७८॥

ऋषय ऊचुः

भगवन् स मयो येन गृहेण प्रपलायितः ।
तस्य नो गतिमाख्याहि मयस्य चमसोद्भव ॥ ७९

ऋषियोंने पूछा- चमससे उत्पन्न होनेवाले ऐश्वर्यशाली सूतजी! वह मय जिस गृहको साथ लेकर भाग गया था, उस मयकी आगे चलकर क्या गति हुई ? यह हमें बतलाइये ॥ ७९ ॥ 

सूत उवाच

दृश्यते दृश्यते यत्र ध्रुवस्तत्र मयास्पदम् । 
देवद्विट् तु मयश्चातः स तदा खिन्नमानसः । 
ततश्च युतोऽन्यलोकेऽस्मिंस्वाणार्थ स चकार सः ।। ८०

तत्रापि देवताः सन्ति आप्तोर्यामाः सुरोत्तमाः । 
तत्राशक्तं ततो गन्तुं तं चैकं पुरमुत्तमम् ॥ ८१

शिवः सृष्ट्वा गृहं प्रादान्मयायैव गृहार्थिने। 
विरराम सहस्त्राक्षः पूजयामास चेश्वरम् । 
पूज्यमानं च भूतेशं सर्वे तुष्टुवुरीश्वरम् ॥ ८२

सम्पूज्यमानं त्रिदशैः समीक्ष्य गणैर्गणेशाधिपतिं तु मुख्यम् । 
हर्षाद्ववल्गुर्जहसुश्च देवा जग्मुर्ननर्दुस्तु विषक्तहस्ताः ।। ८३

पितामहं वन्द्य ततो महेशं प्रगृह्य चापं प्रविसृज्य भूतान् ।
रथाच्च सम्पत्य हरेषुदग्धं क्षिप्तं पुरं तन्मकरालये च ॥ ८४

य इमं रुद्रविजयं पठते विजयावहम् । 
विजयं तस्य कृत्येषु ददाति वृषभध्वजः ॥ ८५ 

पितृणां वापि श्राद्धेषु य इमं श्रावयिष्यति। 
अनन्तं तस्य पुण्यं स्यात् सर्वयज्ञफलप्रदम् ॥ ८६ 

इदं स्वस्त्ययनं पुण्यमिदं पुंसवनं महत्। 
इदं श्रुत्वा पठित्वा च यान्ति रुद्रसलोकताम् ॥ ८७

सूतजी कहते हैं-ऋषियो। जहाँ ध्रुव दिखलायी पड़ते हैं वहीं मयका भी स्थान दीख पड़ता था, क्तु कुछ समयके बाद देवशत्रु मयका मन खिन्न हो गया, तब वह अपनी रक्षाके निमित्त वहाँसे हटकर अन्य लोकमें चला गया। वहाँ भी आप्तोर्याम नामक श्रेष्ठ देवता निवास करते थे, परंतु अब मयमें वहाँसे अन्यत्र जानेकी शक्ति नहीं रह गयी थी। तब भक्तवत्सल शंकरजीने एक उत्तम पुर और गृहका निर्माण कर गृहार्थी मयको प्रदान कर दिया। यह देखकर सहस्त्र नेत्रधारी इन्द्र शान्त हो गये। तत्पश्चात् उन्होंने महेश्वरकी पूजा की। उस समय सभी देवताओंने पूजित होते हुए भूतपति शंकरकी स्तुति की। तदनन्तर देवताओं और गणेश्वरोंद्वारा प्रधान गणेशाधिपति महेश्वरकी पूजा होते देखकर देवगण हाथ उठाकर हर्षपूर्वक जय-जयकार, अट्टहास और सिंहनाद करने लगे। 

इसके बाद रथसे निकलकर उन्होंने ब्रह्मा और शंकरजीकी वन्दना की। फिर हाथमें धनुष ग्रहणकर और भूतगणोंसे विदा होकर वे अपने-अपने स्थानके लिये प्रस्थित हुए: क्योंकि शंकरजीके बाणसे भस्म हुआ त्रिपुर महासागरमें निमग्न हो चुका था। जो मनुष्य विजय प्रदान करनेवाले इस रुद्रविजयका पाठ करता है, उसे भगवान् शंकर सभी कार्योंमें विजय प्रदान करते हैं। जो मनुष्य पितरोंके श्राद्धोंके अवसरपर इसे पढ़कर सुनाता है उसे सम्पूर्ण यज्ञोंका फल प्रदान करनेवाले अनन्त पुण्यकी प्राप्ति होती है। यह रुद्रविजय महान् मङ्गलकारक, पुण्यप्रद और संतानप्रदायक है। इसे पढ़ और सुनकर लोग रुद्रलोकमें चले जाते हैं॥ ८०-८७॥ 

इति श्रीमास्त्ये महापुराणे त्रिपुरोपाख्याने त्रिपुरदाहो नाम चत्वारिंशदधिकशततमोऽध्यायः ॥ १४०॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके त्रिपुरोपाख्यानमें त्रिपुरदाह नामक एक सी चालीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४०॥

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