चन्द्रमा की उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्ऱ्याओंके साथ विवाह | chandramaakee utpatti, unaka daksh prajaapatikee kanryaonke saath vivaah |

मत्स्य पुराण तेईसवाँ अध्याय

चन्द्रमा की उत्पत्ति, उनका दक्ष प्रजापतिकी कन्ऱ्याओं के साथ विवाह, चन्द्रमा द्वारा राजसूय- यज्ञका अनुष्ठान, उनकी तारापर आसक्ति, उनका भगवान् शङ्करके साथ युद्ध तथा ब्रह्माजीका बीच-बचाव करके युद्ध शान्त करना

ऋषय ऊचुः

सोमः पितृणामधिपः कथं शास्त्रविशारद । 
तद्वंश्या ये च राजानो बभूवुः कीर्तिवर्धनाः ॥ ९

ऋषियोंने पूछा- शास्त्रविशारद सूतजी। पितरोंक अधिपति चन्द्रमाकी उत्पत्ति कैसे हुई? आप यह सब हमें बतलाइये तथा चन्द्रवंशमें जो कीर्तिवर्धक राजा हो गये हैं, उनके विषयमें भी हमलोग सुनना चाहते हैं, कृपया वह सब भी विस्तारसे बतलायें ॥ १ ॥

सूत उवाच

आदिष्टो ब्रह्मणा पूर्वमत्रिः सर्गविधौ पुरा। 
अनुत्तरं नाम तपः सृष्टवर्थ तप्तवान् प्रभुः ॥ २

यदानन्दकरं ब्रह्म जगत्क्लेशविनाशनम् । 
ब्रह्मविष्णवर्करुद्राणामभ्यन्तरमतीन्द्रियम् ॥ ३

शान्तिकृच्छान्तमनसस्तदन्तर्नयने स्थितम्। 
माहात्म्यात्तपसा विप्राः परमानन्दकारकम् ॥ ४

यस्मादुमापतिः सार्धमुमया तमधिष्ठितः । 
तं दृष्ट्वा चाष्टमांशेन तस्मात् सोमोऽभवच्छिष्णुः ॥ ५

अधः सुस्त्राव नेत्राभ्यां धाम तच्वाम्बुसम्भवम् । 
दीपयद् विश्वमखिलं ज्योत्स्त्रया सचराचरम् ॥ ६

तद्दिशो जगृहुर्धाम स्त्रीरूपेण सुतेच्छया। 
गर्भोऽभूत् त्वदुदरे तासामास्थितोऽब्दशतत्रयम् ॥ ७

आशास्तं मुमुचुर्गर्भमशक्ता धारणे ततः । 
समादायाथ तं गर्भमेकीकृत्य चतुर्मुखः ॥ ८

युवानमकरोद् ब्रह्मा सर्वायुधधरं नरम्। 
स्यन्दनेऽथ सहस्त्राश्वे वेदशक्तिमये प्रभुः ॥ ९

यस्मादुमापतिः सार्धमुमया तमधिष्ठितः । 
तं दृष्ट्वा चाष्टमांशेन तस्मात् सोमोऽभवच्छिष्णुः ॥ ५

आरोप्य लोकमनयदात्मीयं स पितामहः । 
तत्र ब्रह्मर्षिभिः प्रोक्तमस्मत् स्वामी भवत्वयम् ॥ १०

पितृभिर्देवगन्धर्वैरोषधीभिस्तथैव च। 
तुष्टुवुः सोमदेवत्यैर्ब्रह्माद्यैर्मन्त्रसंग्रहैः ॥ ११

स्तूयमानस्य तस्याभूदधिको धामसम्भवः । 
तेजोवितानाद्भवद् भुवि दिव्यौषधीगणः ॥ १२

तद्दीप्तिरधिका तस्माद् रात्रौ भवति सर्वदा। 
तेनौषधीशः सोमोऽभूद् द्विजेशश्चापि गद्यते ॥ १३

वेदधामरसं चापि यदिदं चन्द्रमण्डलम्।
क्षीयते वर्धते चैव शुक्ले कृष्णे च सर्वदा ॥ १४

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! पूर्वकालमें ब्रह्माने अपने मानसपुत्र अत्रिको सृष्टि-रचनाके लिये आज्ञा दी। उन सामर्थ्यशाली महर्षिने सृष्टि-रचनाके निमित्त अनुत्तर' नामक (भीषण) तप किया। उस तपके प्रभावसे जगत्‌के कष्टोंका विनाशक, शान्तिकर्ता, इन्द्रियोंसे परे जो परमानन्द है तथा जो ब्रह्मा, विष्णु, सूर्य और रुद्रके अन्तः प्रदेशमें निवास करनेवाला है, वही ब्रह्म उन प्रशान्त मनवाले महर्षिके (मन एवं) नेत्रोंके भीतर स्थित हो गया। चूंकि उस समय उमासहित उमापति शंकरने भी अत्रिके मन-नेत्रोंको अधियम बनाया था, अतः उन्हें देखकर शिवके या उनके अष्टमांशसे शिशु (ललाटस्थ चन्द्रके) रूपमें चन्द्रमा प्रकट हो गये। उस समय महर्षि अत्रिके नेत्रोंसे जलसम्भूत धाम (तेज) नीचेकी ओर बह चला। उसने अपने प्रकाशसे अखिल चराचर विश्वको उद्दीत कर दिया। दिशाओंने उस तेजको स्त्री-रूपसे धारणकर पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे ग्रहण कर लिया। 

वह उनके उदरमें गर्भरूप होकर तीन सौ वर्षोंतक स्थित रहा। जब दिशाएँ उस गर्भको धारण करनेमें असमर्थ हो गयीं, तब उन्होंने उसका परित्याग कर दिया। तत्पश्चात् चतुर्मुख ब्रह्माने उस गर्भको उठाकर उसे एकत्र कर सर्वायुधधारी तरुण पुरुषके रूपमें परिणत कर दिया तथा वे शक्तिशाली पितामह सहस्र घोड़ोंसे जुते हुए वेदशक्तिमय रथपर उसे बैठाकर अपने लोकको ले गये। वहाँ (उस पुरुषको देखकर) ब्रह्मर्षियोंने कहा- 'ये हम लोगोंक स्वामी हों।'उसी समय पितर, ब्रह्मादि देवता, गन्धर्व और ओषधियोंने 'सोमदैवत्य' नामक वैदिक मन्त्रसमूहोंसे उनकी स्तुति की। इस प्रकार स्तुति किये जानेपर चन्द्रमाका तेज और अधिक बढ़ गया। तब उस तेजसमूहसे भूतलपर दिव्य ओषधियोंका प्रादुर्भाव हुआ। इसी कारण रात्रिमें उन ओषधियोंकी कान्ति सर्वदा अधिक हो जाती है। इसी हेतु चन्द्रमा ओषधीश कहलाये तथा उन्हें द्विजेश भी कहा जाता है। वेदोंके तेजरूप रससे उत्पन्न हुआ जो यह चन्द्रमण्डल है, वह सर्वदा शुक्लपक्षमें बढ़ता है और कृष्णपक्षमें क्षीण होता रहता है॥ २-१४ ॥

विंशतिं च तथा सप्त दक्षः प्राचेतसो ददौ।
रूपलावण्यसंयुक्तास्तस्मै कन्याः सुवर्चसः ॥ १५

ततः समासहस्राणां सहस्त्राणि दशैव तु। 
तपश्चचार शीतांशुर्विष्णुध्यानैकतत्परः ॥ १६

ततस्तुष्टस्तु भगवांस्तस्मै नारायणो हरिः । 
वरं वृणीष्व प्रोवाच परमात्मा जनार्दनः ॥ १७

ततो वने वरान् सोमः शक्रलोकं जयाम्यहम्। 
प्रत्यक्षमेव भोक्तारो भवन्तु मम मन्दिरे ॥ १८

राजसूये सुरगणा ब्रह्माद्याः सन्तु मे द्विजाः। 
रक्षःपालः शिवोऽस्माकमास्तां शूलधरो हरः ॥ १९

तथेत्युक्तः स आजहे राजसूयं तु विष्णुना। 
होतात्रिभृगुरध्वर्युरुद्‌गाताभूच्चतुर्मुखः॥ २०

ब्रह्मत्वमगमत् तस्य उपद्रष्टा हरिः स्वयम्। 
सदस्याः सनकाद्यास्तु राजसूयविधौ स्मृताः ॥ २१

चमसाध्वर्यवस्तत्र विश्वेदेवा दशैव तु।
त्रैलोक्यं दक्षिणा तेन ऋत्विग्भ्यः प्रतिपादितम् ॥ २२

ततः समाप्तेऽवभृथे तद्रूपालोकनेच्छवः । 
कामबाणाभितप्ताङ्ग‌यो नव देव्यः सिषेविरे ॥ २३

लक्ष्मीर्नारायणं त्यक्त्वा सिनीवाली च कर्दमम् ।
द्युतिर्विभावसुं तद्वत् तुष्टिर्धातारमव्ययम् ॥ २४

प्रभा प्रभाकरं त्यक्त्वा हविष्मन्तं कुरुः स्वयम् । 
कीर्तिर्जयन्तं भत्तारं वसुर्मारीचकश्यपम् ॥ २५

धृतिस्त्यक्त्वा पतिं नन्दि सोममेवाभजंस्तदा।
स्वकीया इव सोमोऽपि कामयामास तास्तदा ॥ २६

एवं कृतापचारस्य तासां भर्तृगणस्तदा।
न शशाकापचाराय शापैः शस्त्रादिभिः पुनः ।। २७

तथाप्यराजत विधुर्दशधा भावयन् दिशः ।
सोमः प्राप्याथ दुष्प्राप्यमैश्वर्यं सृष्टिसंस्कृतम् ।
सप्तलोकैकनाथत्वमवाप तपसा तदा ॥ २८

तदनन्तर प्रचेता-नन्दन दक्षने चन्द्रमाको अपनी सत्ताईस कन्याएँ जो रूप लावण्यसे सम्पन्न तथा परम तेजस्विनी थीं, पत्नीरूपमें प्रदान की। तब शीत किरणोंवाले चन्द्रमाने एकमात्र भगवान् विष्णुके ध्यानमें तत्पर होकर १० लाख वर्षातक तपस्या की। उससे प्रभावित होकर भगवान् (ऐश्वर्यशाली) जनार्दन (दुष्टविनाशक), परमात्मा (परम आत्मबलसे सम्पन्न), नारायण (जलशायी) हैं, वे श्रीहरि चन्द्रमापर प्रसन्न हो गये और (उनके समक्ष प्रकट होकर) बोले- 'वर माँगो!' इस प्रकार कहे जानेपर चन्द्रमाने वर माँगते हुए कहा- 'भगवन्! मैं इन्द्रलोकको जीत लेना चाहता हूँ, जिससे देवतालोग प्रत्यक्षरूपसे मेरे भवनमें आकर अपना-अपना भाग ग्रहण करें। मेरे राजसूय यज्ञमें ब्रह्मा आदि देवगण ब्राह्मण हों तथा त्रिशूलधारी मङ्गलमय भगवान् शंकर हम सभीके दिव्य रक्षः पाल (राक्षसोंसे रक्षा करनेवाले या सभी प्रकारके रक्षक) रूपमें उपस्थित रहें।' भगवान् विष्णुके 'तथेति'- 'ऐसा ही हो' यों कहकर स्वीकार कर लेनेपर चन्द्रमाने राजसूय यज्ञका आयोजन किया। उस यज्ञमें महर्षि अत्रि होता (ऋवेदके पाठक), भूगु अध्वर्यु (यजुर्वेदके पाठक) और चतुर्मुख ब्रह्मा उद्‌गाता (सामवेदके गायक) थे। स्वयं श्रीहरिने उस यज्ञका उपद्राष्टा होकर ब्रह्म (अथर्ववेदका पाठक) का पद ग्रहण किया। 

उस राजसूय यज्ञमें सनक आदि सदस्य और दसों विश्वेदेव चमसाध्वर्यु (यज्ञमें सोमरस पीनेवाले) बने- ऐसा सुना जाता है। उस समय चन्द्रमाने ऋत्विजोंको तीनों लोक दक्षिणारूपमें प्रदान कर दिये थे। तत्पश्चात् अवभृघस्नान (यज्ञान्तमें होनेवाला स्नान) की समाप्तिपर (चन्द्रमाके रूपपर मुग्ध होकर) उसके सौन्दर्यका अवलोकन करनेकी इच्छासे युक्त सिनीवाली आदि नौ देवियाँ उनकी सेवामें उपस्थित हुईं। लक्ष्मी नारायणको, सिनीवाली कर्दमको, द्युति विभावसुको, तुष्टि अविनाशी ब्रह्माको, प्रभा प्रभाकरको, कुहू स्वयं हविष्मान्‌को, कीर्ति जयन्तको, वसु मरीचिनन्दन कश्यपको और धृति अपने पति नन्दिको छोड़कर उस समय चन्द्रमाकी सेवामें नियुक्त हुई। चन्द्रमा उस समय दसों दिशाओं को उद्भासित करते हुए सुशोभित हो रहे थे तथा उन्होंने समस्त सृष्टिमें संस्कृत एवं दुर्लभ ऐश्वर्यको प्राप्तकर सातों लोकोंका एकच्छत्र आधिपत्य प्राप्त किया' ॥ १५-२८॥

कदाचिदुद्यानगतामपश्य- दनेकपुष्पाभरणैश्च शोभिताम् ।
बृहन्नितम्बस्तनभारखेदात्-पुष्पस्य भङ्गे ऽप्यतिदुर्बलाङ्गीम् ॥ २९

भार्या च तां देवगुरोरनङ्ग बाणाभिरामायतचारुनेत्राम् ।
तारां स ताराधिपतिः स्मरार्तः केशेषु जग्राह विविक्तभूमौ ।। ३०

सापि स्मरार्ता सह तेन रेमे तरूपकान्त्या हृतमानसेन।
चिरं विहृत्याथ जगाम तारां विधुर्गृहीत्वा स्वगृहं ततोऽपि ॥ ३१

न तृप्तिरासीच्च गृहेऽपि तस्य तारानुरक्तस्य सुखागमेषु।
बृहस्पतिस्तद्विरहाग्ग्रिदग्ध-स्तद्धधाननिष्ठकमना बभूव ॥ ३२

शशाक शापं न च दातुमस्मै न मन्त्रशस्त्राग्निविषैरशेषैः ।
तस्यापकर्तुं विविधैरुपायै- नैवाभिचारैरपि वागधीशः ॥ ३३

स याचयामास ततस्तु दैन्यात् सोमं स्वभार्यार्थमनङ्गतप्तः ।
स याच्यमानोऽपि ददौ न तारां बृहस्पतेस्तत्सुखपाशबद्धः ॥ ३४

महेश्वरेणाथ चतुर्मुखेण साध्यैर्मरु‌द्भिः सह लोकपालैः ।
ददौ यदा तां न कथंचिदिन्दु- स्तदा शिवः क्रोधपरो बभूव ।। ३५

यो वामदेवः प्रथितः पृथिव्या- मनेकरुद्रार्चितपादपद्मः ।
ततः सशिष्यो गिरिशः पिनाकी बृहस्पतिस्नेहवशानुबद्धः ।। ३६

धनुर्गृहीत्वाजगवं पुरारि- जंगाम भूतेश्वरसिद्धजुष्टः ।
युद्धाय सोमेन विशेषदीप्त-तृतीयनेत्रानलभीमवक्त्रः॥ ३७

इसके कुछ दिन बाद चन्द्रमा एक बार कभी ताराको साथ लेकर अपने घर चले गये। बृहस्पतिके कहनेपर भी उन्होंने ताराको उन्हें समर्पित नहीं किया। तत्पश्चात् महेश्वर, ब्रह्मा, साध्यगण तथा लोकपालीसहित मरुद्रणके समझानेपर भी जब चन्द्रमाने ताराको किसी प्रकार नहीं लौटाया, तब भगवान् शिव, जो भूतलपर  वामदेव नामसे विख्यात हैं तथा अनेकों रुद्र जिनके चरणकमलोंकी अर्चना किया करते हैं, क्रुद्ध हो उठे। तदनन्तर त्रिपुरासुरके शत्रु एवं पिनाक धारण करने वाले भगवान् शंकर बृहस्पतिके प्रति स्नेहके वशीभूत हो शिष्योंके साथ 'आजगव' नामक धनुष लेकर चन्द्रमाके साथ युद्ध करनेके लिये प्रस्थित हुए। उस समय उनका मुख विशेषरूपसे उद्दीत हुए तृतीय नेत्रकी अग्निसे बड़ा भयानक दीख रहा था॥ २९-३७ ॥

सहैव जग्मुश्च गणेशकाद्या विंशच्चतुःषष्टिगणास्त्रयुक्ताः।
यक्षेश्वरः कोटिशतैरनेकै-र्युतोऽन्वगात् स्यन्दनसंस्थितानाम् ।। ३८

वेतालयक्षोरगकिंनराणां पद्येन चैकेन तथार्बुदेन।
लक्षैस्त्रिभिर्द्वादशभी रथानां सोमोऽप्यगात् तत्र विवृद्धमन्युः ॥ ३९

नक्षत्रदैत्यासुरसैन्ययुक्तः शनैश्चराङ्गारकवृद्धतेजाः।
जग्मुर्भयं सप्त तथैव लोका- शुचाल भूर्वीपसमुद्रगर्भा ॥ ४०

स सोममेवाभ्यगमत् पिनाकी गृहीतदीप्तास्त्रविशालवह्निः।
अथाभवद् भीषणभीमसेन-सैन्यद्वयस्यापि महाहवोऽसौ ॥ ४१

अशेषसत्त्वक्षयकृत्प्रवृद्ध-स्तीक्ष्णायुधास्त्रज्वलनैकरूपः।
शस्त्रैरथान्योऽन्यमशेषसैन्यं द्वयोर्जगाम क्षयमुग्रतीक्ष्णैः ॥ ४२

पतन्ति शस्त्राणि तथोज्वलानि स्वर्भूमिपातालमथो दहन्ति ।
रुद्रः कोपाद् ब्रह्मशीर्ष मुमोच सोमोऽपि सोमास्त्रममोघवीर्यम् ॥ ४३

तयोर्निपातेन समुद्रभूम्यो-रधान्तरिक्षस्य च भीतिरासीत् ।
तदस्त्रयुग्मंजगतां क्षयाय प्रवृद्धमालोक्य पितामहोऽपि ॥ ४४

अन्तः प्रविश्याथ कथं कथंचि- त्रिवारयामास सुरैः सहैव ।
अकारणं किं क्षयकृज्जनानां सोम त्वयापीत्थमकारि कार्यम् ॥ ४५

यस्मात् परस्त्रीहरणाय सोम त्वया कृतं युद्धमतीव भीमम् ।
पापग्रहस्त्वं भविता जनेषु शान्तोऽप्यलं नूनमथो सितान्ते ॥
भार्यामिमामर्पय वाक्पतेस्त्वं न चावमानोऽस्ति परस्वहारे ।। ४६

उनके साथ भूतेश्वरों और सिद्धोंका समुदाय भी था तथा शस्त्रास्त्रसे सुसज्जित गणेश आदि चौरासी गण भी साथ ही रवाना हुए। उसी प्रकार यक्षराज कुबेरने भी अनेकों शतकोटि सेनाओंके साथ-साथ रथारूढ़ एक पद्म वेताल, एक अरब यक्ष, तीन लाख नाग और बारह लाख कित्ररोंको साथ लेकर शिवजीका अनुसरण किया। उधर चन्द्रमा भी क्रोधाविष्ट हो नक्षत्रों, दैत्यों और असुरोंकी सेनाओंके साथ शनैश्वर और मंगलके सहयोगके कारण उद्दीप्त तेजसे सम्पन्न हो रणभूमिमें आ डटे। उस समाहारको देखकर सातों लोक भयभीत हो उठे तथा द्वीपों एवं समुद्रोंसहित पृथ्वी काँपने लगी। शिवजीने प्रकाशमान एवं विशाल आग्नेयास्त्रको लेकर चन्द्रमापर आक्रमण किया। फिर तो दोनों सेनाओंमें अत्यन्त भीषण युद्ध छिड़ गया। धीरे-धीरे उस युद्धने उग्ररूप धारण कर लिया। उसमें सम्पूर्ण जीवोंका संहार हो रहा था तथा अग्निके समान प्रज्वलित हथियार चमक रहे थे। 

इस प्रकार एक-दूसरेके प्रति अत्यन्त तीखे शस्त्रोंके प्रहारसे दोनों सेनाएँ समग्ररूपसे नष्ट होने लगीं। उस समय ऐसे जाज्वल्यमान शस्त्रोंकी वर्षा हो रही थी, जो स्वर्गलोक, भूतल और पातालको भस्म कर डालते थे। यह देख सदने क्रुद्ध होकर ब्रह्मशीर्ष नामक अस्व चलाया, तब चन्द्रमाने भी अपने अचूक लक्ष्यवाले सोमास्त्रका प्रयोग किया। उन दोनों अस्त्रोंके टकरानेसे समुद्र, भूमि और अन्तरिक्ष आदि सभी भयसे काँप उठे। इस प्रकार उन दोनों अस्त्रोंको जगत्‌का विनाश करनेके लिये बढ़ता हुआ देखकर देवताओंके साथ ब्रह्माने उनके भीतर प्रवेश करके किसी-किसी प्रकारसे उनका निवारण किया (और कहा-) 'सोम ! तुमने अकारण ही ऐसा कार्य क्यों किया, यह तो लोगोंका विनाशक है। सोम। चूँकि तुमने दूसरेकी स्वीका अपहरण करनेके लिये इतना भयंकर युद्ध किया है, इसलिये शान्तस्वरूप होनेपर भी तुम शुक्लपक्षके अन्तमें अर्थात् कृष्णपक्षमें निक्षय ही जनतामें पापग्रहके रूपसे प्रसिद्ध होओगे। तुम बृहस्पतिकी इस भार्याको उन्हें समर्पित कर दो। दूसरेका धन लेकर उसे लौटा देनेमें अपमान नहीं होता ॥ ३८-४६॥

सूत उवाच

तथेति चोवाच हिमांशुमाली युद्धादपाक्रामदतः प्रशान्तः ।
बृहस्पतिःस्वामपगृह्य तारां हृष्टो जगाम स्वगृहं सरुद्रः ।। ४७

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! तब चन्द्रमाने 'तथेति- ऐसा ही हो' यों कहकर ब्रह्माकी आज्ञा स्वीकार कर ली और वे शान्त होकर युद्धसे हट गये। इधर बृहस्पति भी अपनी पत्नी ताराको ग्रहण करके शिवजीके साथ प्रसन्नतापूर्वक अपने घरको चले गये ॥ ४७ ॥

इति श्रीमाल्ये महापुराणे सोमवंशाख्याने सोमापचारो नाम त्रयोविंशोऽध्यायः ॥ २३ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके सोमवंशाख्यानमें सोमापचार नामक तेईसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २३॥

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