ब्रह्मदत्त का वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकों की गति का वर्णन | brahmadatt ka vrttaant tatha chaar chakravaakon kee gati ka varnan

मत्स्य पुराण इक्कीसवाँ अध्याय

ब्रह्मदत्त का वृत्तान्त तथा चार चक्रवाकों की गति का वर्णन

ऋषय ऊचुः

कथं सत्त्वरुतज्ञोऽभूद् ब्रह्मदत्तो धरातले।
तच्चाभवत् कस्य कुले चक्रवाकचतुष्टयम् ॥ १

ऋषियोंने पूछा- सूतजी। ब्रहादत्त इस भूतलपर जन्म लेकर समस्त प्राणियोंकी बोलीके ज्ञाता कैसे हो गये ? तथा वे चारों चक्रवाक किसके कुलमें उत्पन्न हुए ? ॥ १॥

सूत उवाच

तस्मिन्नेव पुरे जातास्ते च चक्राङ्ख्यास्तदा। 
वृद्धद्विजस्य दायादा विप्रा जातिस्मराः पुरा ॥ २

धृतिमांस्तत्त्वदर्शी च विद्याचण्डस्तपोत्सुकः ।
नामतः कर्मतश्चैते सुदरिद्रस्य ते सुताः ॥ ३

तपसे बुद्धिरभवत् तदा तेषां द्विजन्मनाम् ।
यास्यामः परमां सिद्धिमित्यूचुस्ते द्विजोत्तमाः ॥ ४

ततस्तद्वचनं श्रुत्वा सुदरिद्रो महातपाः ।
उवाच दीनया वाचा किमेतदिति पुत्रकाः ॥ ५

अधर्म एष इति वः पिता तानभ्यवारयत् ।
वृद्धं पितरमुत्सृज्य दरिद्रं वनवासिनः ॥ ६

को नु धर्मोऽत्र भविता मत्त्यागाद् गतिरेव वा।
ऊचुस्ते कल्पिता वृत्तिस्तव तात वदस्व तत् ॥ ७

वित्तमेतत् पुरो राज्ञः स ते दास्यति पुष्कलम्।
धनं ग्रामसहस्त्राणि प्रभाते पठतस्तव ।। ८

ये विप्रमुख्याः कुरुजाङ्गलेषु दाशास्तथा दाशपुरे मृगाश्च।
कालंजरे सप्त च चक्रवाका ये मानसे तेऽत्र वसन्ति सिद्धाः ॥ ९

इत्युक्त्वा पितरं जग्मुस्ते वनं तपसे पुनः।
वृद्धोऽपि राजभवनं जगामात्मार्थसिद्धये ॥ १०

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! वे चारों चक्रवाक उसी ब्रह्मदत्तके नगरमें एक वृद्ध ब्राह्मणके पुत्ररूपसे उत्पन हुए थे। उस जन्ममें भी वे ब्राह्मण पूर्ववत् जातिस्मर बने रहे। (उस समय उनके) धृतिमान्, तत्त्वदर्शी, विद्याचण्ड और तपोत्सुक ये चार नाम थे। वे कर्मानुसार एक अत्यन्त सुदरिद्र (उस ब्राह्मणका नाम भी सुदरिद्र था) ब्राह्मणके पुत्र थे। बचपनमें ही इन ब्राह्मणोंकी बुद्धि तपस्याकी ओर प्रवृत्त हो गयी। तब ये द्विजश्रेष्ठ पितासे प्रार्थना करते हुए बोले- 'पिताजी! हमलोग तपस्या करके परम सिद्धि प्राप्त करना चाहते हैं।' उनके इस कथनको सुनकर महातपस्वी सुदरिद्र दीन वाणीमें बोले- 'पुत्रो! यह कैसी बात कह रहे हो ? मुझ दरिद्र बूढ़े पिताको छोड़कर तुमलोग वनवासी होना चाहते हो, भला मेरा परित्याग कर देनेसे तुमलोगोंको कौन-सा धर्म प्राप्त होगा तथा तुम्हारी क्या गति होगी? यह तो महान् अधर्म है।' ऐसा कहकर पिताने उन्हें मना कर दिया। 

यह सुनकर उन पुत्रोंने कहा- 'तात ! हमलोगोंने आपके जीविकोपार्जनका प्रबन्ध कर लिया है। इसके अतिरिक्त आपको और क्या चाहिये, सो बतलाइये। यदि आप प्रातः काल राजा ब्रह्मदत्तके समक्ष जाकर (आगे बताये जानेवाले श्लोकका) पाठ कीजियेगा तो वे आपको प्रचुर धन-सम्पत्ति एवं सहस्रों ग्राम प्रदान करेंगे। (उस श्लोकका अर्थ यों है-)' जो कुरुक्षेत्रमें श्रेष्ठ ब्राह्मण, दाशपुर (मंदसौर) में व्याध, कालञ्जर पर्वतपर मूग और मानसरोवरमें सात चक्रवाक थे, वे सिद्ध (होकर) यहाँ निवास करते हैं।' पितासे ऐसा कहकर वे सभी तपस्या करनेके लिये वनमें चले गये। इधर वृद्ध सुदरिद्र भी अपनी स्वार्थ- सिद्धिके लिये राजभवनकी ओर चल पड़े ॥ २-१०॥

अणुहो नाम वैभ्राजः पाञ्चालाधिपतिः पुरा।
पुत्रार्थी देवदेवेशं हरिं नारायणं प्रभुम् ॥ ११

आराधयामास विभुं तीव्रव्रतपरायणः ।
ततः कालेन महता तुष्टस्तस्य जनार्दनः ॥ १२

वरं वृणीष्व भद्रं ते हृदयेनेप्सितं नृप।
एवमुक्तस्तु देवेन वने स वरमुत्तमम् ॥ १३

पुत्रं मे देहि देवेश महाबलपराक्रमम् ।
पारगं सर्वशास्त्राणां धार्मिकं योगिनां परम् ॥ १४

सर्वसत्त्वरुतज्ञं मे देहि योगिनमात्मजम्।
एवमस्त्विति विश्वात्मा तमाह परमेश्वरः ॥ १५

पश्यतां सर्वदेवानां तत्रैवान्तरधीयत।
ततः स तस्य पुत्रोऽभूद् ब्रह्मदत्तः प्रतापवान् ॥ १६

सर्वसत्त्वानुकम्पी च सर्वसत्त्वबलाधिकः ।
सर्वसत्त्वरुतज्ञश्च सर्वसत्त्वेश्वरेश्वरः ॥ १७

(अब ब्रह्मदत्तकी उत्पत्ति-कथा बतलाते हैं-) पूर्वकालमें पञ्चाल देशके एक अणुह नामक नरेश हो गये हैं, जो विभ्राट्‌के पुत्र थे। वे पुत्र-प्राप्तिकी कामनासे कठोर व्रतमें तत्पर होकर सामर्थ्यशाली एवं सर्वव्यापक देवदेवेश्वर नारायण श्रीहरिकी आराधना करने लगे। तत्पश्चात् अधिक काल व्यतीत होनेपर भगवान् जनार्दन उनकी आराधनासे प्रसत्र हुए (और उनके समक्ष प्रकट होकर बोले- 'राजन्। तुम्हारा कल्याण हो, अब तुम अपना मनोऽभिलषित वरदान माँग लो।' भगवान् विष्णुके ऐसा कहनेपर राजाने उत्तम वरकी याचना करते हुए कहा-'देवेश। मुझे ऐसा पुत्र प्रदान कीजिये, जो महान्  बल-पराक्रमसे सम्पन्न, सम्पूर्ण शास्त्रोंका पारगामी विद्वान, धार्मिक, श्रेष्ठ योगी, सम्पूर्ण प्राणियोंकी बोलीका ज्ञाता और योगाभ्यासी हो। भगवन्! मुझे ऐसा ही औरस पुत्र दीजिये।' यह सुनकर विश्वात्मा परमेश्वर राजासे 'ऐसा ही हो' यों कहकर समस्त देवताओंके देखते-देखते वहीं अन्तर्हित हो गये। तदनन्तर समयानुसार वही प्रतापी ब्रह्मदत्त उस राजा अणुहका पुत्र हुआ, जो आगे चलकर सम्पूर्ण जीवोंपर दयालु, समस्त प्राणियोंमें अमित बलसम्पन्न, सम्पूर्ण प्राणियोंकी भाषाका ज्ञाता और समस्त प्राणियोंके राजाधिराज-सम्राट् हुआ ॥ ११-१७॥

अहसत् तेन योगात्मा स पिपीलिकरागतः ।
यत्र तत्कीटमिथुनं रममाणमवस्थितम् ॥ १८

ततः सा संनतिर्दृष्ट्वा तं हसन्तं सुविस्मिता।
किमप्याशङ्कय मनसा तमपृच्छन्नरेश्वरम् ॥ १९

तत्पश्चात् जहाँ वे कीट दम्पति (चोंटे चींटी) बातें करते हुए स्थित थे, वहाँ पहुँचनेपर चींटेकी कामचेष्टाको देखकर योगात्मा ब्रह्मदत्तको हँसी आ गयी। राजाको हँसते देखकर महारानी संनति आश्चर्यचकित हो उठी और मनमें किसी भावी अनर्थकी आशङ्का करके नरेश्वर ब्रह्मदत्तसे प्रश्न कर बैठी ॥ १८-१९॥

संनतिरुवाच
अकस्मादतिहासस्ते किमर्थमभवन्नृप।
हास्यहेतुं न जानामि यदकाले कृतं त्वया ॥ २०

संनतिने पूछा- राजन् ! अकस्मात् आपका यह अट्टहास किसलिये हुआ है? असमयमें आपको जो यह हँसी आयी है, इस हास्यका कारण मैं नहीं समझ पा रही हूँ ॥ २० ॥

सूत उवाच

अवदद् राजपुत्रोऽपि स पिपीलिकभाषितम्।
रागवाग्भिः समुत्पन्नमेतद्धास्यं वरानने । २१

न चान्यत्कारणं किंचिद्धास्यहेतौ शुचिस्मिते।
न सामन्यत् तदा देवी प्राहालीकमिदं वचः ॥ २२

अहमेवाद्य हसिता न जीविष्ये त्वयाधुना।
कथं पिपीलिकालापं मर्यो वेत्ति विना सुरान् ॥ २३

तस्मात् त्वयाहमेवेह हसिता किमतः परम्।
ततो निरुत्तरो राजा जिज्ञासुस्तत्पुरो हरेः ॥ २४

आस्थाय नियमं तस्थौ सप्तरात्रमकल्मषः ।
स्वप्ने प्राह हृषीकेशः प्रभाते पर्यटन् पुरम् ॥ २५

वृद्धद्विजो यस्तद्वाक्यात् सर्वं ज्ञास्यस्यशेषतः ।
इत्युक्त्वान्तर्दधे विष्णुः प्रभातेऽथ नृपः पुरात् ॥ २६

निर्गच्छन्मन्त्रिसहितः सभार्यों वृद्धमग्रतः ।

सूतजी कहते हैं- ऋषियो ! तब राजकुमार ब्रह्मदत्तने (महारानी संनतिसे) चींटे चींटीके उस सारे वार्तालापको सुनाते हुए कहा- 'वरानने। इनके प्रेमालापपूर्ण वचनोंको सुननेसे मुझे ऐसी हँसी आ गयी है। शुचिस्मिते! मेरी हँसीके विषयमें कोई अन्य कारण नहीं है।' पंरतु रानी संनतिने (राजाके उस कथनपर) विश्वास नहीं किया और कहा- 'राजन्! आपका यह कथन सरासर असत्य है। अभी-अभी आपने मेरे ही किसी विषयको लेकर हास्य किया है, अतः अब मैं जीवन धारण नहीं करूँगी। भला, देवताओंके अतिरिक्त मृत्युलोकनिवासी प्राणी चींटे-चींटीके वार्तालापको कैसे जान सकता है। इसलिये यहाँ आपने मेरी ही हँसी उड़ायी है। इसके अतिरिक्त और क्या हो सकता है?' रानीकी बात सुनकर निष्पाप राजा ब्रह्मदत्त कुछ उत्तर न दे सके। फिर इस रहस्यको जाननेकी इच्छासे वे श्रीहरिके समक्ष नियमपूर्वक आराधना करते हुए सात राततक बैठे रहे। अन्तमें भगवान् इषीकेशने स्वप्रमें राजासे कहा- 'राजन् ! प्रातःकाल तुम्हारे नगरमें घूमता हुआ एक वृद्ध ब्राह्मण जो कुछ कहेगा, उसके उन वचनोंसे तुम्हें सारा रहस्य ज्ञात हो जायगा।' यों कहकर भगवान् विष्णु अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर प्रातःकाल जब राजा ब्रह्मदत्त अपनी पत्नी और दोनों मन्त्रियोंके साथ नगरसे निकल रहे थे, उसी समय उन्होंने अपने समक्ष आते हुए उस वृद्ध ब्राह्मणको देखा, जो इस प्रकार कह रहा था॥ २१-२७॥

ब्राह्मण उवाच

गदन्तं विप्रमायान्तं तं वृद्धं संददर्श ह॥ २७
ये विप्रमुख्याः कुरुजाङ्गलेषु दाशास्तथा दाशपुरे मृगाल।

ब्राह्मण कह रहा था- 'जो (पहले) कुरुक्षेत्रमें श्रेष्ठ ब्राह्मण के रूप में, दाशपुर (मंदसौर) में व्याधके रूप में कालञ्जरे सप्त च चक्रवा का ये मानसे तेऽत्र वसन्ति सिद्धाः कालञ्जर-पर्वतपर मृग-योनिमें और मानसरोवरमें सात चक्रवाकके रूपमें उत्पन्न हुए थे, वे ही (व्यक्ति अब) सिद्ध (होकर) यहाँ निवास कर रहे हैं॥ २८ ॥

सूत उवाच

इत्याकर्ण्य वचस्ताभ्यां स पपात शुचा ततः । 
जातिस्मरत्वमगमत् तौ च मन्त्रिवरावुभौ ॥ २९

कामशास्वप्रणेता च बाभ्रव्यस्तु सुबालकः । 
पाञ्चाल इति लोकेषु विश्रुतः सर्वशास्त्रवित् ॥ ३०

कण्डरीकोऽपि धर्मात्मा वेदशास्त्रप्रवर्तकः । 
भूत्वा जातिस्मरौ शोकात् पतितावग्रतस्तदा ॥ ३१

हा वयं योगविभ्रष्टाः कामतः कर्मबन्धनाः ।
एवं विलप्य बहुशस्वयस्ते योगपारगाः ॥ ३२

विस्मयाच्छ्राद्धमाहात्म्यमभिनन्द्य पुनः पुनः। 
ततस्तस्मै धनं दत्त्वा प्रभूतग्रामसंयुतम् ॥ ३३

विसृज्य ब्राह्मणं तं च वृद्धं धनमुदान्वितम्। 
आत्मीयं नृपतिः पुत्रं नृपलक्षणसंयुतम् ॥ ३४

विष्वक्सेनाभिधानं तु राजा राज्येऽभ्यषेचयत् । 
मानसे मिलिताः सर्वे ततस्ते योगिनो वराः ।। ३५

ब्रह्मदत्तादयस्तस्मिन् पितृसक्ता विमत्सराः । 
संनतिश्चाभवद् भ्रष्टा मयैतत् किल दर्शितम् ॥ ३६

राज्यत्यागफलं सर्वं यदेतदभिलक्ष्यते ।
तथेति प्राह राजा तु पुनस्तामभिनन्दयन् ॥ ३७

त्वत्प्रसादादिदं सर्वं मयैतत् प्राप्यते फलम्। 
ततस्ते योगमास्थाय सर्व एव वनौकसः ॥ ३८

ब्रह्मरन्श्रेण परमं पदमापुस्तपोबलात्। 
एवमायुर्धनं विद्यां स्वर्ग मोक्षं सुखानि च ॥ ३९

प्रयच्छन्ति सुतान् राज्यं नृणां प्रीताः पितामहाः ।
य इदं पितृमाहात्म्यं ब्रह्मदत्तस्य च द्विजाः ॥ ४०

द्विजेभ्यः श्रावयेद् यो वा शृणोत्यथ पठेत्तु वा। 
कल्पकोटिशतं साग्रं ब्रह्मलोके महीयते ॥ ४१

सूतजी कहते हैं- ऋषियो! ब्राह्मणकी ऐसी बात सुनकर राजा शोकाकुल हो अपने दोनों मन्त्रियोंके साथ भूतलपर गिर पड़े। उस समय उन्हें जातिस्मरत्व (पूर्वजन्मके वृत्तान्तोंके ज्ञातृत्व) की प्राप्ति हो गयी। उन दोनों श्रेष्ठ मन्त्रियोंमें एक बाभ्रव्य सुबालक कामशास्त्रका प्रणेता और सम्पूर्ण शास्त्रोंका ज्ञाता था। वह संसारमें पाञ्चाल नामसे विख्यात था। दूसरा कण्डरीक भी धर्मात्मा और वेद- शास्त्रका प्रवर्तक था। वे दोनों भी उस समय राजाके अग्रभागमें शोकाविष्ट हो धराशायी हो गये और उन्हें भी जातिस्मरत्वकी प्राप्ति हुई। (उस समय वे विलाप करते हुए कहने लगे) हाय। हमलोग लोलुप हो कर्मबन्धनमें फैसकर योगसे पूर्णतया भ्रष्ट हो गये।' इस तरह अनेकविध विलाप करके वे तीनों योगके पारदर्शी विद्वान् विस्मयाविष्ट हो बारंबार श्राद्धके माहात्म्यका अभिनन्दन करने लगे। 

तत्पश्चात् राजाने उस ब्राह्मणको अनेक गाँवोंसहित प्रचुर धन-सम्पत्ति प्रदान की। इस प्रकार धनकी प्राप्तिसे हर्षित हुए उस वृद्ध ब्राह्मणको विदाकर राजा ब्रह्मदत्तने राजलक्षणोंसे युक्त अपने विष्वक्सेन नामक औरस पुत्रको राज्यपर युक्त अपने विष्वक्सेन नामक औरस पुत्रको राज्य पर अभिषिक्त कर दिया (और स्वयं जंगलकी राह ली)। तदनन्तर ब्रह्मदत्त आदि वे सभी श्रेष्ठ योगी मत्सररहित एवं पितृभक्त होकर उस मानसरोवरमें परस्पर आ मिले। संनतिका अमर्ष गल गया और वह राजासे कहने लगी- 'राजन् । आप जो यह अभिलाषा कर रहे हैं, वह सब राज्य- त्यागका ही परिणाम है और निश्चय ही मेरे द्वारा घटित हुआ है।' राजाने 'तथेति'- ऐसा ही है कहकर उसकी बातको स्वीकार किया और पुनः उसका अभिनन्दन करते हुए कहा- 'यह तुम्हारी ही कृपा है, जो मुझे यह सारा फल प्राप्त हो रहा है।' तदनन्तर वे सभी वनवासी योगका आश्रय लेकर अपने तपोबलके प्रभावसे ब्रह्मरन्ध्रद्वारा प्राणत्याग करके परमपदको प्रास हो गये। इस प्रकार प्रसन्न हुए पितामह- पितरलोग मनुष्योंको, आयु, धन, विद्या, स्वर्ग, मोक्ष, सुख, पुत्र और राज्य प्रदान करते हैं। द्विजवरी। जो मनुष्य ब्रह्मदत्तके इस पितृमाहात्म्यको ब्राह्मणोंको सुनाता है या स्वयं श्रवण करता है अथवा पढ़ता है, वह सौ करोड़ कल्पोंतक ब्रह्मलोकमें प्रशंसित होता है ॥ २९-४१ ॥

इति श्रीमालये महापुराणे श्राद्धकल्पे पितुमाहात्यं नामैकविंशोऽध्यायः ॥ २१ ॥

इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणके ब्राद्धकल्पमें पितुमाहात्म्य नामक इक्कीसवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ २१ ॥

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