मत्स्य पुराण चौदहवाँ अध्याय
अच्छोदा का पितृलोक से पतन तथा उसकी प्रार्थना पर पितरों द्वारा उस का पुनरुद्धार
सूत उवाच
लोकाः सोमपथा नाम यत्र मारीचनन्दनाः।
वर्तन्ते देवपितरो देवा यान् भावयन्त्यलम् ॥ ९
सूतजी कहते हैं-ऋषियो। मरीचि के वंशज देवताओं के पितृगण जहाँ निवास करते हैं, वे लोक सोमपथ के नाम से विख्यात है। देवता लोग उन पितरों का ध्यान किया करते हैं। वे यज्ञपरायण पितृगण अग्रिष्वात्त नामसे प्रसिद्ध हैं।
अग्निष्वात्ता इति ख्याता यज्वानो यत्र संस्थिताः ।
अच्छोदा नाम तेषां तु मानसी कन्यका नदी ॥ २
अच्छोदं नाम च सरः पितृभिर्निर्मितं पुरा।
अच्छोदा तु तपश्चक्रे दिव्यं वर्षसहस्त्रकम् ॥ ३
आजग्मुः पितरस्तुष्टाः किल दातुं च तां वरम्।
दिव्यरूपधराः सर्वे दिव्यमाल्यानुलेपनाः ॥ ४
सर्वे युवानो बलिनः कुसुमायुधसंनिभाः ।
तन्मध्येऽमावसुं नाम पितरं वीक्ष्य साङ्गना ॥ ५
वने वरार्थिनी सङ्गं कुसुमायुधपीडिता ।
योगाद् भ्रष्टा तु सा तेन व्यभिचारेण भामिनी ॥ ६
धरां तु नास्पृशत् पूर्व पपाताथ भुवस्तले।
तिथावमावसुर्यस्यामिच्छां चक्रे न तां प्रति ॥ ७
धैर्येण तस्य सा लोकैरमावास्येति विश्रुता।
पितॄणां वल्लभा तस्मात्तस्यामक्षयकारकम् ॥ ८
जहाँ वे रहते हैं, वहीं अच्छोदा नामकी एक नदी प्रवाहित होती है, जो उन्हीं पितरोंकी मानसी कन्या है। प्राचीनकालमें पितरोंने वहीं एक अच्छोद नामक सरोवरका भी निर्माण किया था। पूर्वकालमें अच्छोदाने एक सहस्र दिव्य वर्षोंतक घोर तपस्या की। उसकी तपस्यासे संतुष्ट होकर पितृगण उसे वर प्रदान करनेके लिये उसके समीप पधारे। वे सब-के- सब पितर दिव्य रूपधारी थे। उनके शरीरपर दिव्य सुगन्धका अनुलेप लगा हुआ था तथा गलेमें दिव्य पुष्पमाला लटक रही थी। वे सभी नवयुवक, बलसम्पन्न एवं कामदेवके सदृश सौन्दर्यशाली थे। उन पितरोंमें अमावसु नामक पितरको देखकर वरकी अभिलाषावाली सुन्दरी अच्छोदा व्यग्र हो उठी और उनके साथ रहनेकी याचना करने लगी। इस मानसिक कदाचारके कारण सुन्दरी अच्छोदा योगसे भ्रष्ट हो गयी और (उसके परिणामस्वरूप वह स्वर्गलोकसे) भूतलपर गिर पड़ी। उसने पहले कभी पृथ्वीका स्पर्श नहीं किया था। जिस तिथिको अमावसुने अच्छोदाके साथ निवास करनेकी अनिच्छा प्रकट की, वह तिथि उनके धैर्यके प्रभावसे लोगोंद्वारा अमावस्या नामसे प्रसिद्ध हुई। इसी कारण यह तिथि पितरोंको परम प्रिय है। इस तिथिमें किया हुआ श्रद्धादि कार्य अक्षय फलदायक होता है ॥ २-८ ॥
अच्छोदाधोमुखी दीना लज्जिता तपसः क्षयात् ।
सा पितॄन् प्रार्थयामास पुरे चात्मप्रसिद्धये ॥ ९
विलप्यमाना पितृभिरिदमुक्ता तपस्विनी।
भविष्यमर्थमालोक्य देवकार्य च ते तदा ॥ १०
इदमूचुर्महाभागाः प्रसादशुभया गिरा।
दिवि दिव्यशरीरेण यत्किञ्चित् क्रियते बुधैः ॥ ११
तेनैव तत्कर्मफलं भुज्यते वरवर्णिनि।
सद्यः फलन्ति कर्माणि देवत्वे प्रेत्य मानुषे ॥ १२
तस्मात् त्वं पुत्रि तपसः प्राप्स्यसे प्रेत्य तत्फलम् ।
अष्टाविंशे भवित्री त्वं द्वापरे मत्स्ययोनिजा ॥ १३
व्यतिक्रमात् पितॄणां त्वं कष्टं कुलमवाप्स्यसि।
तस्माद् राज्ञो वसोः कन्या त्वमवश्यं भविष्यसि ॥ १४
कन्या भूत्वा च लोकान् स्वान् पुनरापयसि दुर्लभान्।
पराशरस्य वीर्येण पुत्रमेकमवाप्स्यसि ॥ १५
द्वीपे तु बदरीप्राये बादरायणमच्युतम् ।
स वेदमेकं बहुधा विभजिष्यति ते सुतः ॥ १६
पौरवस्यात्मजौ द्वौ तु समुद्रांशस्य शंतनोः ।
विचित्रवीर्यस्तनयस्तथा चित्राङ्गदो नृपः ॥ १७
इमावुत्पाद्य तनयौ क्षेत्रजावस्य धीमतः।
प्रौष्ठपद्यष्टकारूपा पितृलोके भविष्यसि ॥ १८
नाम्ना सत्यवती लोके पितृलोके तथाष्टका।
आयुरारोग्यदा नित्यं सर्वकामफलप्रदा ॥ १९
भविष्यसि परे काले नदीत्वं च गमिष्यसि ।
पुण्यतोया सरिच्छ्रेष्ठा लोके ह्यच्छोदनामिका ॥ २०
इत्युक्त्वा स गणस्तेषां तत्रैवान्तरधीयत।
साप्यवाप च तत् सर्वं फलं यदुदितं पुरा ॥ २१
इस प्रकार (बहुकालार्जित) तपस्याके नष्ट हो जानेसे अच्छोदा लज्जित हो गयी। वह अत्यन्त दीन होकर नीचे मुख किये हुए देवपुरमें पुनः अपनी प्रसिद्धिके लिये पितरोंसे प्रार्थना करने लगी। तब रोती हुई उस तपस्विनीको पितरोंने सान्त्वना दी। वे महाभाग पितर भावी देव-कार्यका विचार कर प्रसन्नता एवं मङ्गलसे परिपूर्ण वाणीद्वारा उससे इस प्रकार बोले- 'वरवर्णिनि । बुद्धिमान् लोग स्वर्गलोकमें दिव्य शरीरद्वारा जो कुछ शुभाशुभ कर्म करते हैं, वे उसी शरीरसे उन कर्मोंके फलका उपभोग करते हैं; क्योंकि देव- योनिमें कर्म तुरन्त फलदायक हो जाते हैं। उसके विपरीत मानव-योनिमें मृत्युके पश्चात् (जन्मान्तरमें) कर्मफल भोगना पड़ता है। इसलिये पुत्रि! तुम मृत्युके पश्चात् जन्मान्तरमें अपनी तपस्याका पूर्ण फल प्राप्त करोगी। अट्ठाईसवें द्वापरमें तुम मत्स्य-योनिमें उत्पन्न होओगी। पितृकुलका व्यतिक्रमण करनेके कारण तुम्हें उस कष्टदायक योनिकी प्राप्ति होगी। पुनः उस योनिसे मुक्त होकर तुम राजा (उपरिचर) वसुकी कन्या होओगी। कन्या होनेपर तुम अपने दुर्लभ लोकोंको अवश्य प्राप्त करोगी। उस कन्यावस्थामें तुम्हें बदरी (बेर)- के वृक्षोंसे व्याप्त द्वीपमें महर्षि पराशरसे एक ऐसे पुत्रकी प्राप्ति होगी, जो बादरायण नामसे प्रसिद्ध होगा और कभी अपने कर्मसे च्युत न होनेवाले नारायणका अवतार होगा। तुम्हारा वह पुत्र एक ही वेदको अनेक (चार) भागोंमें विभक्त करेगा। तदनन्तर समुद्रके अंशसे उत्पन्न हुए पुरुवंशी राजा शंतनुके संयोगसे तुम्हें विचित्रवीर्य एवं महाराज चित्राङ्गद नामक दो पुत्र प्राप्त होंगे। बुद्धिमान् विचित्रवीर्यके दो क्षेत्रज धृतराष्ट्र और पाण्डु पुत्रोंको उत्पन्न कराकर तुम प्रौष्ठपदी (भाद्रपदकी पूर्णिमा और पौषकृष्णाष्टमी आदि) में अष्टकारूपसे पितृलोकमें जन्म ग्रहण करोगी। इस प्रकार मनुष्य-लोकमें सत्यवती और पितृलोकमें आयु एवं आरोग्य प्रदान करनेवाली तथा नित्य सम्पूर्ण मनोवाञ्छित फलोंकी प्रदात्री अष्टका नामसे तुम्हारी ख्याति होगी। कालान्तरमें तुम मनुष्यलोकमें नदियोंमें श्रेष्ठ पुण्यसलिला अच्छोदा नामसे नदीरूपमें जन्म धारण करोगी। ऐसा कहकर पितरोंका वह समुदाय वहीं अन्तर्हित हो गया तथा अच्छोदाको अपने उन समस्त कर्मफलोंकी प्राप्ति हुई, जो पहले कहे जा चुके हैं ॥ ९-२१॥
इति श्रीमात्स्ये महापुराणे पितृवंशानुकीर्तनं नाम चतुर्दशोऽध्यायः ॥ १४ ॥
इस प्रकार श्रीमत्स्यमहापुराणमें पितृवंशानुकीर्तन नामक चौदहवाँ अध्याय सम्पूर्ण हुआ ॥ १४॥
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