लिंग पुराण : नन्दी के जन्मका वृत्तान्त, ब्रह्मा तथा विष्णु का परस्पर संवाद और शिद द्वारा दोनों पर अनुग्रह करना | The story of Nandi's birth, the mutual conversation between Brahma and Vishnu and Shid's blessings on both of them

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] सैंतीसवाँ अध्याय 

नन्दी के जन्मका वृत्तान्त, ब्रह्मा तथा विष्णु का परस्पर संवाद और शिद द्वारा दोनों पर अनुग्रह करना

सनत्कुमार उवाच

भवान्‌ कथमनुप्राप्तो महादेवमुमापतिम्‌।
श्रोतुमिच्छामि तत्सर्व वक्तुमईहसि में प्रभो॥१

शैलादिस्वाच

प्रजाकाम: शिलादोभूत्पिता मम महामुने।
सोप्यन्ध: सुचिरं कालं तपस्तेपे सुदुश्चरम्‌॥ २

तपतस्तस्य तपसा सनन्‍तुष्टो वज्रधूक्‌ प्रभुः।
शिलादमाह तुष्टोउस्मि वरयस्व वरानिति॥ ३

ततः प्रणम्य देवेशं सहस्राक्षं सहामरेः।
प्रोवाच मुनिशार्दूल कृताञ्जलिपुटो हरिम्‌॥ ४

सनत्कुमार बोले--[हे नन्दीश्वर!] आपको पार्वतीपति महादेवका सान्निध्य कैसे प्राप्त हुआ? हे प्रभो! में इससे सम्बन्धित सम्पूर्ण वृत्तान्त सुनना चाहता हूँ; आप उसे बतायें नन्दी कहते हैं--हे महामुने! मेरे पिता शिलादको एक बार संतानकी कामना उत्पन्न हुई और उन्होंने अन्धे होनेपर भी दीर्घकालतक कठोर तपस्या की तपस्यामें रत उन मेरे पिताके तपसे प्रसन्‍न होकर वज्रधारी इन्द्रने शिलादसे कहा--मैं तुमपर अति प्रसन्न हूँ; अतएवं बर माँगो तब देवताओंसमेत सहरुनेत्र देवेन्द्रको प्रणाम करके मुनिश्रेष्ठ शिलादने दोनों हाथ जोड़कर उनसे कहा॥ १ - ४॥

शिलाद उवाच

भगवन्‌ देवतारिष्न सहस्त्राक्ष वरप्रद।
अयोनिजं मृत्युहीन॑ पुत्रमिच्छामि सुव्रत॥ ५

शक्र उवाच

पुत्र॑ दास्यामि विप्र्ष योनिजं मृत्युसंयुतम्‌।
अन्यथा ते न दास्यामि मृत्युहीना न सन्ति वै॥ ६

शिलाद बोले--हे भगवन्‌! हे असुर-दलन। हे सहस्ननयन! हे वरप्रद! हे सुत्रत! में अयोनिज तथा अमर पुत्र चाहता हँ
इन्द्र बोले--हे विप्रवर! मैं तुम्हें योनिज तथा मरणधर्मा पुत्रका वर दे सकता हूँ; क्योंकि मरणहीन तो कोई भी नहीं है॥५ - ६॥

न दास्यति सुतं तेउत्र मृत्युहीनमयोनिजम्‌। 
पितामहोपि भगवान्‌ किमुतान्ये महामुने। ७

सो5पि देव: स्वयं ब्रह्मा मृत्युहीनो न चेश्वरः । 
योनिजएच महातेजाश्चाण्डज: पद्मसम्भव:॥ ८

महेश्वराड़्रजश्चैव भवान्यास्तनयः प्रभु: । 
तस्थाप्यायु: समाख्यातं परार्धद्वयसम्मितम्‌॥ ९

कोटिकोटिसहस्त्राणि अहर्भूतानि यानि वै। 
समतीतानि कल्पानां तावच्छेषा: परत्र ये॥ १०

तस्मादयोनिजे पुत्रे मृत्युहीने प्रयतलतः। 
परित्यजाशां विप्रेन्न गृहाणात्मसमं सुतम्‌॥ ११

हे महामुने! अयोनिज तथा मृत्युसे हीन पुत्र ते तुम्हें भगवान्‌ ब्रह्मा भी नहीं दे सकते; अन्य लोगोंकी ते बात ही क्‍या ?
साक्षात्‌ वे पर मेश्वर ब्रह्म देव भी मृत्युहीन नहीं हैं महान्‌ तेजस्वी ब्रह्मा भी योनिज है; क्योंकि उनकी भी उत्पत्ति अण्ड तथा कमलसे हुई है। वे प्रभु ब्रह्मा महेश्व एवं भवानीके पुत्र हैं। उनकी भी आयु दो परार्धके बराबर कही गयी है। प्रथम परार्धमें हजारों करोड़ कल्प भी ब्रह्मके दिनके रूपमें व्यतीत हो चुके हैं और द्वितीय परार्धमें उतने ही कल्प शेष हैं
अतएव हे विप्रेन्द्र! अयोनिज तथा मृत्युहीन पुत्रकी आशा प्रयलपूर्वक छोड़ दीजिये और अपने तुल्य पुत्र ग्रहण कीजिये॥ ७ - ११॥

शैलादिस्वाच

तस्य तद्बचनं श्रुत्वा पिता मे लोकविश्रुत:। 
शिलाद इति पुण्यात्मा पुनः प्राह शचीपतिम्‌॥ १२

शिलाद उवाच

भगवन्नण्डयोनित्व॑ पद्ययोनित्वमेव च। 
महेश्वराड्रयोनित्वं श्रुत॑ वे ब्रह्मणो मया॥ १३

पुरा महेन्द्र दायादाद्‌ गदतश्चास्य पूर्वजात्‌। 
नारदाद्दे महाबाहो कथमत्राशु नो वद॥ १४

दाक्षायणी सा दक्षोपि देव: पद्मोद्धवात्मज: । 
पौत्री कनकगर्भस्य कथ॑ तस्याः सुतो विभु:॥ १५

नन्दीश्वर बोले--उनका वह वचन सुनकर शिलाद नामसे लोक-विख्यात मेरे पुण्यात्मा पिताने शचीपत्इन्द्रसे पुन: कहा
शिलाद बोले--हे भगवन्‌! हे महेन्द्र! मैंने पूर्वकालमें इन ब्रह्माके पूर्वोत्पन्न नारद नामक पुत्रद्वारा ऐसा कहते हुए सुन रखा है कि ये ब्रह्मा अण्ड, कमल और शिवजीके अंगसे उत्पन्न हैं; तो हे महाबाहो! मुझे आप शीघ्र बताइये कि ऐसा कैसे है ? दक्षप्रजापति तो पद्मयोनि ब्रह्माजीके पुत्र हैं। इस प्रकार दक्षकी पुत्री हिरण्यगर्भ ब्रह्माकी पौत्री हुईं; तो फिर वे प्रभु ब्रह्मा उन दाक्षायणीके पुत्र केसे हुए ॥ १२--१५॥

शक्र उवाच

स्थाने संशयितुं विप्र तब वक्ष्यामि कारणम्‌।
 कल्पे तत्पुरुषे वृत्तं ब्रह्मण: परमेष्ठिन:॥ १६

ससर्ज सकल ध्यात्वा ब्रह्मणं परमेश्वर:। 
जनार्दनो जगन्नाथ: कलपे वै मेघवाहने॥ १७

दिव्यं वर्षसहसत्र॑ तु मेघो भूत्वावहद्धरम। 
नारायणो महादेव॑ बहुमानेन सादरम्‌॥ १८

दृष्ट्वा भावं महादेवो हरे: स्वात्मनि श्र: । 
प्रददौ तस्य सकल सत्रष्टुं वै ब्रह्मणा सह॥ १९

तदा त॑ कल्पमाहुर्वे मेघवाहनसंज्ञया। 
हिरण्यगर्भस्तं दृष्ट्वा तस्य देहोद्धवस्तदा॥ २० 

इन्द्र बोले--हे विप्र! इस स्थितिमें आपका संदेह करना युक्तिपूर्ण है; किंतु मैं आपको इसका कारण बी रहा हूँ। तत्पुरुष नामक कल्पमें परमेष्ठी शिवकी सृष्टि करनेकी इच्छा हुई और उन परमेश्वरने ध्यान करके कलायुक्त ब्रह्माजीको उत्पन्न किया। जनार्दन जगत्पर्ति नारायण विष्णुभगवान्‌ मेघवाहन कल्पमें हजार दि वर्षोतक मेघ बनकर अत्यन्त सम्मान तथा आदरके सॉर्थ महादेव शिवके वाहन बने रहे महादेव शिवने अपनेमें भगवान्‌ विष्णुकी भक्ति देखक उन्हें ब्रह्माजीसहित सम्पूर्ण जगत्‌ रचनेकी आज्ञा दी तभी से उस कल्पको “मेघवाहन' नामसे कहा जाता है। उन विष्णुको देखकर उन्हींके देहसे उत्पन्न जनार्दनपुत्र हिरण्यगर्भ ब्रह्माने अपनी तपस्यासे शंकरजीको प्राप्कर उनसे कहा--॥ १६ - २० ॥

जनार्दनसुतः प्राह तपसा प्राप्य शद्भूरम। 
तब वामाडुजो विष्णुर्दक्षिणाडुभवो हाहम्‌॥ २१

मया सह जगत्सर्व तथाप्यसृजदच्युत: । 
जगन्मयोवहटद्यस्मान्मेघो भूत्वा दिवानिशम्‌॥ २२

भवन्तमदहद्विष्णुर्देवदेवं जगदगुरुम । 
नारायणादपि विभो भक्तोह॑ तव शड्भर॥ २३

प्रसीद देहि मे सर्व सर्वात्मत्वं तब प्रभो।

तदाथ लब्ध्वा

भगवान्‌ भवात्सवबत्मतां क्षणात्‌॥ २४

त्वरमाणोथ सड्डम्य ददर्श पुरुषोत्तमम्‌। 
एकार्णवालये शुभ्र त्वन्धकारे सुदारुणे॥ २५ 

हेमरलचिते दिव्ये मनसा च विनिर्मिते। 
दुष्प्राप्पे दुर्जनीः पुण्यै: सनकादैरगोचरे॥ २६

जगदावासहदयं ददर्श पुरुषं॑ त्वज:। 
अनन्तभोगशय्यायां शायिनं पड्डूजेक्षणम्‌॥ २७

शट्डचक्रगदापदं धारयन्त॑ चतुर्भुजम्‌। 
सर्वाभरणसंयुक्ते. शशिमण्डलसन्निभम्‌॥ २८

श्रीवत्सलक्षणं देवं प्रसन्‍नास्यं जनार्दनम्‌। 
रमामृदुकराम्भोजस्पर्शरक्तपदाम्बुजमू. ॥ २९

परमात्मानमीशानं तमसा कालरूपिणम्‌। 
रजसा सर्वलोकानां सर्गलीलाप्रवर्तकम्‌॥ ३०

सत्त्वेन सर्वभूतानां स्थापकं परमेश्वरम्‌। 
सर्वात्मानं महात्मानं परमात्मानमीश्वरम्‌॥ ३१

विष्णु आपके वाम अंगसे उत्पन्न हैं तथा मैं आपके दायें अंगसे उत्पन्न हूँ; फिर भी उन विष्णुने मेरे साथ सम्पूर्ण जगत्‌की रचना की यद्यपि जगन्मय विष्णुने मेघ बनकर आप देवदेव जगदगुरु महेश्वरका दिन-रात वहन किया है; फिर भी हे विभो! हे शंकर! मैं उन नारायणसे भी बढ़कर आपका भक्त हूँ। अतएव हे प्रभो! मेरे ऊपर प्रसन्‍न होइये और मुझे अपना सर्वात्मित्व प्रदान कीजिये तत्पश्चात्‌ महादेवजीसे सर्वात्मत्वको प्राप्ति करके ब्रह्माजीने शीघ्रतापूर्वक क्षीरसागर पहुँचकर वहाँ एकार्णवमें पुरुषोत्तम विष्णुको भीषण अन्धकारमें मानसनिर्मित, स्वर्णरत्न-खचित, दुर्जनोंद्वारा दुष्प्राप्प तथा सनक आदि पुण्यात्माओंद्वार अगोचर शुभ्र एवं दिव्य भवनमें देखा ब्रह्माजीने जगत्‌को अपने हृदयमें धारण करनेवाले, चारों भुजाओंमें शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण करनेवाले, सभी आशभूषणोंसे युक्त, चन्द्र-मण्डलतुल्य आभावाले, अपने वक्ष:स्थलपर ' श्री ' चिह्न धारण करनेवाले, तमोगुणसे युक्त होनेपर कालरूप, रजोगुणसे युक्त होनेपर सभी लोकोंकी सृजन-लीलाके प्रवर्तक, सत्त्वगुणसे युक्त होनेपर सभी प्राणियोंके स्थापक, कमलनयन, प्रसन्‍नमुख, जनार्दन, परमपुरुष, परमात्मा, ईशान, सर्वात्मा, महात्मा, देवरूप ईश्वर विष्णुकी उस अमृतमय क्षीरसागरमें अनन्त शेषनागकी शय्यापर योगनिद्रामें सोये हुए देखा; उस समय उनके रक्त-कमल-सदृश चरणोंको लक्ष्मीजी अपने अरविन्दतुल्य कोमल हाथोंसे दबा रही थीं॥२१ - ३१॥

क्षीरार्णवेईमृतमये . शायिनं योगनिद्रया। 
तं दृष्ट्वा प्राह वै ब्रह्मा भगवन्तं जनार्दनम्‌॥ ३२

ग्रसामि त्वां प्रसादेन यथापूर्व भवानहम्‌। 
स्मयमानस्तु भगवान्‌ प्रतिबुध्य पितामहम्‌॥ ३२

उदैक्षत महाबाहुः स्मितमीषच्चयकार सः। 
विवेश चाण्डजं तं तु ग्रस्तस्तेन महात्मना॥ ३४

ततस्तं चासूजद्‌ ब्रह्मा ध्रुवोर्मध्येन चाच्युतम्‌। 
सुष्टस्तेन हरिः प्रेक्ष्य स्थितस्तस्याथ सन्निधौ॥ ३५

एतस्मिन्नन्तरे. रुद्रः सर्वदेवभवोद्धव: । 
विकृतं रूपमास्थाय पुरा दत्तवरस्तयो:॥ ३६

आगजच्छद्त्र वै विष्णुर्विश्वात्मा परमेश्वर:। 
प्रसादमतुलं कर्तु ब्रह्मणश्च हरे: प्रभु:॥ ३७

भगवान्‌ जनार्दनको देखकर ब्रह्माजीने उनसे कहा कि जिस प्रकार पहले आपने मुझे ग्रस लिया था, उसी प्रकार शिवजीकी कृपासे अब मैं आपको ग्रसूँगा भगवान्‌ विष्णुने उठकर विस्मयपूर्ण भावसे ऊपर दृष्टि करके ब्रह्मा जी को देखा और उन महाबाहुने थोड़ा हँसकर ब्रह्माजीके भीतर प्रवेश किया। उन महा ब्रह्माने भी उन्हें ग्रस लिया तत्पश्चात्‌ ब्रह्माजीने अपने भ्रूमध्यसे उन पुनः उत्पन्न कर दिया और इस प्रकार उनके द्वारा सृजित होकर भगवान्‌ विष्णु उन्हें देखकर उनके पास खड़े हो गये इसी बीच पूर्वकालमें उन दोनों [ ब्रह्मा, विष्णु]. को वर देनेवाले सभी देवताओं तथा जगत्‌की उत्पत्ति करनेवाले विश्वात्मा प्रभु परमेश्वर शिव विकृत रूप धारण करके ब्रह्मा एवं विष्णुपर महान्‌ अनुग्रह करनेके लिये जहाँ विष्णुजी थे, वहींपर आ गये॥ ३२-३७॥

ततः समेत्य तौ देवों सर्वदेवभवोद्धवम्‌। 
अपश्यतां भवं देवं कालाग्निसदृशं प्रभुम्‌॥ ३८

तौ तं तुष्टुवतुश्चैव शर्वमुग्र॑ कपर्दिनम्‌। 
प्रणेमतुश्च॒ वरदं बहुमानेन दूरत:॥ ३९

भवोपि भगवान्‌ देवमनुगृहा पितामहम्‌।
जनार्दन॑ जगन्नाथस्तत्रेवान्तरधीयत ॥ ४०

इसके बाद उन दोनों देवोंने शिवजीके पास पहुँचकर कालाग्नितुल्य उन सभी देवताओं तथा जगत्‌की उत्पत्ति करनेवाले महादेवका दर्शन किया उन दोनों (ब्रह्मा, विष्णु)-ने दूरसे ही सम्मानपूर्वक उन शर्व (भक्तोंके पापोंका नाश करनेवाले), कपर्दी (जटाजूटधारी ), उग्र तथा वर देनेवाले शिवजीको प्रणाम किया और पुन: वे उनकी स्तुति करने लगे जगत्‌ के स्वामी भगवान्‌ शिव पितामह ब्रह्मदेव तथा जनार्दन विष्णुपर अनुग्रह करके वहींपर अन्तर्धान हो गये ॥ ३८ - ४० 

॥ श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे ब्रह्मणो वरप्रदानं नाम सप्तत्रिशोउध्याय: ॥ ३७ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिड्गरगहापुराणके अन्तर्गत पर्वभायमें (ब्रह्माको वरप्रदान ! नामक सैंतीसवों अध्याय पूर्ण हुआ॥ ३७॥

यहां पाठ में उल्लिखित घटनाओं का सारांश तथा 

उस पर आधारित प्रश्न और उत्तर दिए गए हैं:-

1. नंदी के जन्म का वृत्तांत

प्रश्न: नंदी के जन्म की कहानी कैसी है?

उत्तर: शिलाद मुनि, जो अंधेर थे, पुत्र की प्राप्ति के लिए कठोर तपस्या कर रहे थे। भगवान इन्द्र ने अपनी तपस्या से उन्हें शोभायमान बना दिया, परन्तु उन्हें मरणहीन या अयोनिज पुत्र नहीं मिला, क्योंकि ब्रह्मा भी मृत्युहीन नहीं हो सकते। शिलाद ने फिर भी भगवान से संत की इच्छा पूरी की, और भगवान ने उन्हें नंदी के रूप में पुत्र दिया।

2. ब्रह्मा और विष्णु के बीच संवाद

प्रश्न: ब्रह्मा और विष्णु के बीच क्या हुआ?

उत्तर: ब्रह्मा और विष्णु के संवाद में विष्णु ने कहा कि वह मरणहीन या अयोनिज पुत्र नहीं दे सकता, क्योंकि कोई भी जीव मरण से परे नहीं होता। उन्होंने शिलाद से कहा कि उसे सूखी ही संतान मिलेगी, जो उसके लिए उपयुक्त होगी।

3. शिलाद की तपस्या और भगवान इन्द्र का भूषण

प्रश्न: शिलाद की तपस्या का परिणाम क्या हुआ?

उत्तर: शिलाद की तपस्या से प्रसन्न भगवान इंद्र ने उन्हें आशीर्वाद दिया, लेकिन वह मरणहीन पुत्र नहीं दे सकते थे, क्योंकि हर जीव की मृत्यु का सामना करना पड़ता है। अंत में भगवान ने शिलाद को नंदी नामक पुत्र प्रदान किया।

4. नंदी के माता-पिता की प्रतिक्रिया

प्रश्न: नंदी के माता-पिता ने भगवान से क्या प्रार्थना की?

उत्तर: नंदी के माता-पिता, शिलाद और उनकी पत्नी ने भगवान से संत की प्राप्ति के लिए प्रार्थना की और भगवान इंद्र से श्रृंगार प्राप्त किया।

5. ब्रह्मा का नारायण से सम्बंधित संबंध

प्रश्न: ब्रह्मा ने नारायण के बारे में क्या कहा?

उत्तर: ब्रह्मा ने कहा कि विष्णु उनके वाम अंग से उत्पन्न हुए हैं और वे शंकर के साथ मिलकर सृष्टि की रचना की हैं। विष्णु ने महादेव शिव के साथ मिलकर कई महत्वपूर्ण कार्य किये।

6. भगवान शंकर का नारायण से विशेष संबंध

प्रश्न: भगवान शंकर का नारायण से कौन सा संबंध था?

उत्तर: भगवान शंकर ने नारायण की भक्ति देखी और उन्हें अत्यंत प्रतिष्ठित किया। उन्होंने अपनी शक्ति और भक्ति से नारायण के साथ सृष्टि की रचना की।

7. भगवान विष्णु के दिव्य शरण

प्रश्न: भगवान विष्णु के दिव्य शरण में क्या घटनाएँ घटती हैं?

उत्तर: ब्रह्माजी ने भगवान विष्णु को दिव्य शरण में देखा। भगवान विष्णु शेषनाग की शय्या पर सो रहे थे और वे अपने संपूर्ण रूप में हर भुजाओं में शंख, चक्र, गदा और पद्म धारण किए हुए थे।

8. शंकर की भूमिका के बारे में ब्रह्मा का कथन

प्रश्न: ब्रह्मा ने शंकर की भूमिका के बारे में क्या कहा?

उत्तर: ब्रह्मा ने कहा कि शंकर की भूमिका सृष्टि की रचना में अत्यंत महत्वपूर्ण है, क्योंकि शंकर ने भगवान विष्णु के साथ मिलकर संपूर्ण जगत का निर्माण किया और उसे स्थापित किया।

9. नंदी के जन्म का महत्व

प्रश्न: नंदी के जन्म का धार्मिक महत्व क्या था?

उत्तर: नंदी का जन्म महादेव शंकर के वाहन के रूप में हुआ, जो उनके भक्तों के लिए अत्यंत महत्वपूर्ण है। भगवान शंकर के भक्तों को नंदी का आशीर्वाद और उनके सच्चे भक्त बनने में मदद मिलती है।

10. शंकर और विष्णु के बीच सहयोग

प्रश्न: शंकर और विष्णु के बीच सहयोग का क्या परिणाम था? 

उत्तर: शंकर और विष्णु का सहयोग रचना, संरक्षण और संहार में हुआ। उन्होंने ब्रह्मा के साथ मिलकर संसार की उत्पत्ति की और उसे हर समय बनाया।

ये प्रश्न और उत्तर कहानी के मूल विषयों को समेटे हुए हैं, जो ब्रह्मा, विष्णु और शिव जैसे देवताओं की दिव्य चर्चाओं और कार्यों के इर्द-गिर्द घूमते हैं।

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