लिंग पुराण : राजा क्षुपद्वारा विष्णुकी आराधना, विष्णुद्वारा शिवभक्तोंकी महिमाका कथन | Linga Purana: Worship of Vishnu by King Kshup, narration of the glory of Shiva devotees by Vishnu
लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छत्तीसवाँ अध्याय
ननन्द्वाच
पूजया तस्य सनन्तुष्टो भगवान् पुरुषोत्तम:।
श्रीभूमिसहित: श्रीमान् शद्भुचक्रगदाधरः॥ १
किरीटी पद्हस्तश्च सर्वाभरणभूषित: ।
पीताम्बरश्च भगवान् देवेर्देत्येश्च संवृतः॥ २
प्रददौ दर्शनं तस्मै दिव्यं वै गरुडध्वज:।
दिव्येन दर्शनेनेव दृष्ट्वा देवं जनार्दनम्॥ ३
नन्दीश्वर बोले-- [ हे सनत्कुमारजी !] उन राजा क्षुपको आराधनासे प्रसन्न होकर देवताओं तथा दैत्योंसे पूजित, हाथों में शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुए, पीत वस्त्र पहने हुए, सभी आशभूषणोंसे सुशोभित एवं मुकुट धारण किये हुए लक्ष्मी तथा भूमि सहित गरुड़ ध्वज श्री मान् भगवान् पुरुषोत्तम ने उन श्षुपको दिव्य दर्शन दिया दिव्य दर्शनक के अनन्तर उन गरुड़ ध्वज भगवान् विष्णु देवको प्रणाम करके राजा क्षुप अत्यन्त प्रिय वाणी में उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-३ ॥
तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभि: प्रणम्य गरुडध्वजम्।
त्वमादिस्त्वमनादिश्च प्रकृतिस्त्वं जनार्दन: ॥ ४
पुरुषस्त्वं जगन्नाथो विष्णुर्विश्वेश्वरो भवान्।
योअयं ब्रह्मासि पुरुषो विश्वमूर्ति: पितामहः:॥ ५
तत्त्वमाद्य॑ भवानेव परं ज्योतिर्जनार्दन।
परमात्मा पर धाम श्रीपते भूपते प्रभो॥ ६
त्वत्क्रोधसम्भवो रुद्रस्तमसा च समावृतः।
त्वत्प्रसादाज्गद्धाता रजसा च पितामह:॥ ७
त्वत्प्रसादात्स्वयं विष्णु: सत्त्वेन पुरुषोत्तम:।
कालमूर्ते हरे विष्णो नारायण जगन्मय॥ ८
महांस्तथा च भूतादिस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च।
त्वयैवाधिष्ठितान्येव विश्वमूर्त महेश्वर॥ ९
महादेव जगन्नाथ पितामह जगदगुरो।
प्रसीद देवदेवेश प्रसीद परमेश्वर॥ १०
प्रसीद त्व॑ जगन्नाथ शरण्यं शरणं गतः।
बवैकुण्ठ शौरे सर्वज्ञ वासुदेव महाभुज॥ १९
सड्डूर्षण. महाभाग प्रद्युम्म पुरुषोत्तम।
अनिरुद्ध महाविष्णो सदा विष्णो नमोस्तु ते ॥ १२
विष्णो तवासनं दिव्यमव्यक्त मध्यतो विभु:।
सहसत्रफणसंयुक्तस्तमोमूर्तिर्धराधर: ॥ १३
अधशए्च धर्मों देवेश ज्ञानं वैराग्यमेव च।
ऐश्वर्यमासनस्यास्थ पादरूपेण सुत्रत॥ १४
सप्तपातालपादस्त्व॑ धराजघनमेव च।
वासांसि सागरा: सप्त दिशश्चैव महाभुजा:॥ १५
द्यौर्मूर्धा ते विभो नाभि: खं वायुर्नासिकां गत: ।
नेत्रे सोमएच सूर्यश्च केशा वे पुष्करादय:॥ १६
नक्षत्रतारका द्यौश्च ग्रैवेयकविभूषणम्।
कथं स्तोष्यामि देवेशं पूज्यश्च पुरुषोत्तम:॥ १७
श्रद्धया च कृतं दिव्यं यच्छ्रुतं यच्च कीर्तितम् ।
यदिष्टं तत्क्षमस्वेश नारायण नमोऽस्तु ते ॥ १८
शैलादिरुवाच
इदं तु वैष्णवं स्तोत्रं सर्वपापप्रणाशनम् ।
यः पठेच्छृणुयाद्वापि क्षुपेण परिकीर्तितम् ॥ १९
श्रावयेद्वा द्विजान् भक्त्या विष्णुलोकं स गच्छति ।। २०
सम्पूज्य चैवं त्रिदशेश्वराद्यैः स्तुत्वा स्तुतं देवमजेयमीशम् ।
विज्ञापयामास निरीक्ष्य भक्त्या जनार्दनाय प्रणिपत्य मूर्ध्वा ॥ २१
राजोवाच
भगवन् ब्राह्मणः कश्चिद्धीच इति विश्रुतः ।
धर्मवेत्ता विनीतात्मा सखा मम पुराभवत् ॥ २२
अवध्यः सर्वदा सर्वैः शङ्करार्चनतत्परः ।
सावज्ञं वामपादेन स मां मूर्छिन सदस्यथ ॥ २३
ताडयामास देवेश विष्णो विश्वजगत्पते ।
उवाच च मदाविष्टो न बिभेमीति सर्वतः ॥ २४
जेतुमिच्छामि तं विप्रं दधीचं जगदीश्वर।
यथा हि तं तथा कर्तुं त्वमर्हसि जनार्दन ॥ २५
भविता तस्य शापेन दक्षयज्ञे सुरै: समम्।
विनाशो मम राजेन्द्र पुनरुत्थानमेव च॥३०
तस्मात्समेत्य विप्रेन्द्र॒सर्वयत्नेन भूपते।
करोमि यल्नं राजेन्द्र दधीचविजयाय ते॥३९
शैलादिरुवाच श्रुत्वा
वाक्य क्षुप: प्राह तथास्त्विति जनार्दनम्।
भगवानपि विप्रस्थ दधीचस्याश्रमं॑ ययौ॥ ३२
आस्थाय रूप॑ विप्रस्थ भगवान् भक्तवत्सल: ।
दधीचमाह ब्रह्मर्षिमभिवन्य॒ जगद्गुरु:॥ ३३
श्रीभयगवानुवाच
भो भो दधीच ब्रह्र्ष भवार्चनरताव्यय।
वरमेक॑ वृणे त्वत्तस्तं भवान् दातुमहति॥ ३४
याचितो देवदेवेन दधीच: प्राह विष्णुना।
ज्ञातं तवेप्सितं सर्व न बिभेमि तवाप्यहम्॥ ३५
भवान् विप्रस्थ रूपेण आगतोउसि जनार्दन।
भूतं भविष्यं देवेश वर्तमानं जनार्दन॥ ३६
ज्ञातं प्रसादाद् रुद्रस्य द्विजत्वं त्यज सुत्रत।
आराधितोउसि देवेश क्षुपेण मधुसूदन॥ ३७
जाने तबैनां भगवन् भक्तवत्सलतां हरे।
स्थाने तवैषा भगवन् भक्तवात्सल्यता हरे॥ ३८
अस्ति चेद्धगवन् भीतिर्भवार्चनरतस्य मे।
वक्तुमईसि यतल्लेन वरदाम्बुजलोचन॥ ३९
वदामि न मृषा तस्मान्न बिभेमि जनार्दन।
न बिभेमि जगत्यस्मिन् देवदैत्यद्विजादपि॥ ४०
ननन्ह्युवाच
श्रुत्वा वाक््यं दधीचस्य तदास्थाय जनार्दन:।
स्वरूप सस्मित॑ प्राह सन्त्यज्य द्विजतां क्षणात् ॥ ४१
श्रीभगवानुवाच
भयं दथधीच सर्वत्र नास्त्येव तव सुत्रत।
भवार्चनरतो यस्माद्धवान् सर्वज्ञ एव च॥ ४२
बिभेमीति सकृद्बक्तु त्वमहसि नमस्तव।
नियोगान्मम विद्रेन्ध क्षुप॑ प्रति सदस्यथ॥ ४३
एवं श्रुत्वापि तद्वाक्यं सान्त्वं विष्णोर्महामुनि: ।
न बिभेमीति तं प्राह दधीचो देवसत्तमम्॥ ४४
प्रभावाद्देवदेवस्य शम्भो: साक्षात्पिनाकिन:।
शर्वस्य शड्डूरस्यास्य सर्वज्ञस्थ॑ महामुनि:॥ ४५
ततस्तस्य मुने: श्रुत्वा वचन कुपितो हरिः।
चक्रमुद्यम्य भगवान् दिथधक्षुर्मुनिसत्तमम्॥ ४६
अभवत्कुण्ठिताग्रं हि विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम् ।
प्रभावाद्धि दधीचस्य क्षुपस्यैव हि सन्निधौ॥ ४७
दृष्ट्वा तत्कुण्ठिताग्रं हि चक्र चक्रिणमाह सः ।
दधीच: सस्मितं साक्षात्सद्सद्व्यक्तिकारणम् ॥ ४८
भगवन् भवता लब्धं पुरातीव सुदारुणम्।
सुदर्शनमिति ख्यातं चक्र विष्णो प्रयत्नत:॥ ४९
भवस्यैतच्छुभं चक्र न जिघांसति मामिह।
ब्रह्मास्त्राद्येस्तथान्यै्हिं प्रयल॑ कर्तुमहसि ॥ ५०
शेलादिस्वाच
तस्य तद्बचनं श्रुत्वा दृष्ट्वा निर्वार्यमायुधम्।
ससर्ज च पुनस्तस्मै सर्वास्त्राणि समन्तत:॥ ५१
चक्रुर्देवास्ततस्तस्य विष्णो: साहाय्यमव्यया: ।।
द्विजेनेकेन योद्धुं हि प्रवृत्तस्य महाबला:॥ ५२
कुशमुष्टिं तदादाय दधीच: संस्मरन् भवम्।
ससर्ज सर्वदेवेभ्यो वज्रास्थि: सर्वतो वशी॥ ५३
दिव्यं त्रिशूलमभवत्कालाग्निसदृशप्रभम् ।
दग्धुं देवान् मतिं चक्रे युगान्ताग्निरिवापर:॥ ५४
इन्द्रनारायणाद्यैश्च देवैस्त्यक्तानि यानि तु।
आयुधानि समस्तानि प्रणेमुस्त्रशिखं मुने॥ ५५
देवाश्च दुद्गुवुः सर्वे ध्वस्तवीर्या द्विजोत्तम।
ससर्ज भगवान् विष्णु: स्वदेहात्पुरुषोत्तम:॥ ५६
आत्मन: सदूशान् दिव्यान् लक्षलक्षायुतान् गणान्।
तानि सर्वाणि सहसा ददाह मुनिसत्तम:॥ ५७
ततो विस्मयनार्थाय विएवमूर्तिरभूद्धरि: ।
तस्य देहे हरेः साक्षादपश्यद् द्विजसत्तम:॥ ५८
दधीचो भगवान् विप्र: देवतानां गणान् पृथक् ।
रुद्राणां कोटयएचेव गणानां कोटयस्तदा॥ ५९
अण्डानां कोटयश्चैव विश्वमूर्तेस्तनो तदा।
दृष्टैतदरिखिलं तत्र च्यावनिर्विस्मितं तदा॥ ६०
विष्णुमाह जगन्नाथं जगन्मयमर्ज विभुम्।
अम्भसाभ्युक्ष्य तं विष्णुं विश्वरूपं महामुनि:॥ ६१
मायां त्यज महाबाहो प्रतिभासा विचारतः।
विज्ञानानां सहस्त्राणि दुर्विज्ञेयानि माधव॥ ६२
मयि पश्य जगत्सर्व॑ त्वया सार्धमनिन्दित।
ब्रह्माणं च तथा रुद्रं दिव्यां दृष्टि ददामि ते॥ ६३
इत्युक्त्वा दर्शयामास स्वतनौ निखिल मुनि:।
त॑ प्राह च हरिं देवं सर्वदेवभवोद्धवम्॥ ६४
मायया हानया किं वा मन्त्रशक्त्याथ वा प्रभो।
वस्तुशक्त्याथ वा विष्णो ध्यानशक्त्याथ वा पुन: ॥ ६५
त्यक्त्वा मायामिमां तस्माद्योद्धुमहसि यततत: ।
एवं तस्य वच: श्रुत्वा दृष्ट्वा माहात्म्यमद्धुतम्॥ ६६
देवाश्च दुद्ग॒व॒र्भूगो देवं नारायणं च तम्।
वारयामास निश्चेष्टं पदायोनिर्जगद्गुरु:॥ ६७
निशम्य वचन तस्य ब्रह्मणस्तेन निर्जित:।
जगाम भगवान् विष्णु: प्रणिपत्य महामुनिम्॥ ६८
क्षुपो दुःखातुरो भूत्वा सम्पूज्य च मुनीश्वरम्।
दधीचमभिवंद्याशु प्रार्थथामास विक्लव:॥ ६९
दधीच क्षम्यतां देव मयाज्ञानात्कृतं सखे।
विष्णुना हि सुरेर्वापि रुद्रभक्तस्य कि तव॥ ७०
प्रसीद परमेशाने दुर्लभा दुर्जनैद्विज।
भक्तिर्भक्तिमतां श्रेष्ठ मद्विधे: क्षत्रियाधमे:॥ ७९
श्रुत्वानुगृद्य तं॑ विप्रो दधीचस्तपतां वबरः।
राजान मुनिशार्दूल: शशाप च सुरोत्तमान्॥ ७२
रुद्रकोपाग्निना देवा: सदेवेन्द्रा मुनीश्वरैः ।
ध्वस्ता भवन्तु देवेन विष्णुना च समन्विता: ॥ ७३
प्रजापतेर्मखे पुण्ये दक्षस्य सुमहात्मन:।
एवं शप्त्वा क्षुपं प्रेक्ष्य पुनराह द्विजोत्तम:॥ ७४
देवेश्च पूज्या राजेन्द्र नृपैश्च विविधैर्गणै:।
ब्राह्मणा एवं राजेन्द्र बलिन: प्रभविष्णव:॥ ७५
इत्युक्त्वा स्वोट्जं विप्र: प्रविवेश महाद्युति:।
दधीचमभिवन्दैव जगाम स्वं नृप: क्षयम्॥ ७६
तदेव तीर्थमभवत्स्थानेश्वरमिति स्मृतम्।
स्थानेश्वरमनुप्राप्य शिवसायुज्यमाष्नुयात् त् ॥ ७७
कथितस्तव सद्धक्षेपाद्विवाद: श्रुब्दधीचयो:।
प्रभावश्च दधीचस्य भवस्य उच्च महामुने॥ ७८
य इदं कीर्तयेद्दिव्यं विवाद श्रुब्दधीचयो:।
जित्वापमृत्युं देहान्ते ब्रह्मलोक॑ प्रयाति सः॥ ७९
य इदं कीर्त्य सद़ग्रामं प्रविशेत्तस्थ सर्वदा।
नास्ति मृत्युभयं चैव विजयी च भविष्यति॥ ८०
॥ श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे क्षुपदधीचसंवादो नाम षर्त्रिंशोउध्याय: ॥ ३६ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभायमें 'क्षुप-दधीच-संवाद ” नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ३६ ॥
FQAs:- प्रश्नोत्तर रूपांतरण
प्रश्न 1: राजा क्षुप ने किस प्रकार भगवान विष्णु की आराधना की, और उन्हें भगवान के दर्शन कैसे प्राप्त हुए?
उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु की अत्यंत भक्ति एवं श्रद्धा के साथ आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने श्रीभूमि और लक्ष्मी सहित, शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किए हुए दिव्य रूप में उन्हें दर्शन दिए।
प्रश्न 2: भगवान विष्णु के दिव्य रूप का वर्णन कैसे किया गया है?
उत्तर: भगवान विष्णु का दिव्य रूप शंख, चक्र, गदा, और पद्म धारण किए हुए था। वे पीतांबर वस्त्र पहने हुए थे, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित थे और मुकुट धारण किए हुए थे। उनके दिव्य स्वरूप को देखकर राजा क्षुप ने उनकी स्तुति की।
प्रश्न 3: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु की स्तुति में क्या कहा?
उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु को आदिदेव, प्रकृति, जनार्दन, विष्णु, और विश्वेश्वर कहा। उन्होंने भगवान विष्णु को सृष्टि के आदिकर्ता, परमात्मा, और परमधाम बताया। उन्होंने यह भी कहा कि ब्रह्मा और रुद्र भी विष्णु के ही अनुग्रह से उत्पन्न हुए हैं।
प्रश्न 4: भगवान विष्णु के गुणों और शक्ति का क्या वर्णन किया गया है?
उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु को सृष्टि के अधिष्ठाता और संपूर्ण सृष्टि का आधार बताया। उनके अनुसार विष्णु के सत्त्वगुण से सृष्टि का पालन, रजोगुण से सृजन और तमोगुण से संहार होता है। उन्होंने विष्णु को नक्षत्रों, तारों, दिशाओं, आकाश, वायु, और समुद्र का अधिष्ठाता कहा।
प्रश्न 5: राजा क्षुप ने विष्णु से क्या निवेदन किया?
उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से क्षमा याचना करते हुए कहा कि उनकी भक्ति और स्तुति में यदि कोई त्रुटि हुई हो, तो उसे क्षमा करें। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रसन्न हों और उनकी इच्छाओं को पूर्ण करें।
प्रश्न 6: राजा क्षुप ने दधीचि ऋषि के बारे में क्या कहा?
उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से कहा कि दधीचि नामक ब्राह्मण, जो धर्मज्ञ और शिवजी के आराधक हैं, उनके पुराने मित्र थे। लेकिन, एक सभा में दधीचि ने अपने बाएं पैर से राजा क्षुप के सिर पर प्रहार किया और कहा कि वे किसी से नहीं डरते।
प्रश्न 7: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से क्या निवेदन किया?
उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से दधीचि ऋषि को हराने के लिए उपाय करने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि शिव की कृपा से दधीचि अवध्य (जिसे मारा न जा सके) हैं और विष्णु ही उन्हें पराजित करने में सहायता कर सकते हैं।
प्रश्न 8: विष्णु ने दधीचि ऋषि के अवध्यत्व के बारे में क्या किया?
उत्तर: भगवान विष्णु ने दधीचि ऋषि के अवध्य होने की सच्चाई को समझा और उनकी शक्ति और महादेव की कृपा को स्मरण किया। इसके बाद विष्णु ने समस्या का समाधान खोजने के लिए अपनी योजना बनाई।
टिप्पणियाँ