लिंग पुराण : राजा क्षुपद्वारा विष्णुकी आराधना, विष्णुद्वारा शिवभक्तोंकी महिमाका कथन | Linga Purana: Worship of Vishnu by King Kshup, narration of the glory of Shiva devotees by Vishnu

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] छत्तीसवाँ अध्याय

राजा क्षुप द्वारा विष्णु की आराधना, विष्णु द्वारा शिव भक्तों की महिमा का कथन

ननन्‍द्वाच

पूजया तस्य सनन्‍तुष्टो भगवान्‌ पुरुषोत्तम:। 
श्रीभूमिसहित: श्रीमान्‌ शद्भुचक्रगदाधरः॥ १

किरीटी पद्हस्तश्च सर्वाभरणभूषित: । 
पीताम्बरश्च भगवान्‌ देवेर्देत्येश्च संवृतः॥ २

प्रददौ दर्शनं तस्मै दिव्यं वै गरुडध्वज:। 
दिव्येन दर्शनेनेव दृष्ट्वा देवं जनार्दनम्‌॥ ३

नन्दीश्वर बोले-- [ हे सनत्कुमारजी !] उन राजा क्षुपको आराधनासे प्रसन्‍न होकर देवताओं तथा दैत्योंसे पूजित, हाथों में शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किये हुए, पीत वस्त्र पहने हुए, सभी आशभूषणोंसे सुशोभित एवं मुकुट धारण किये हुए लक्ष्मी तथा भूमि सहित गरुड़ ध्वज श्री मान्‌ भगवान्‌ पुरुषोत्तम ने उन श्षुपको दिव्य दर्शन दिया दिव्य दर्शनक के अनन्तर उन गरुड़ ध्वज भगवान्‌ विष्णु देवको प्रणाम करके राजा क्षुप अत्यन्त प्रिय वाणी में उनकी स्तुति करने लगे ॥ १-३  ॥

तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभि: प्रणम्य गरुडध्वजम्‌। 
त्वमादिस्त्वमनादिश्च प्रकृतिस्त्वं जनार्दन: ॥ ४

पुरुषस्त्वं जगन्नाथो विष्णुर्विश्वेश्वरो भवान्‌। 
योअयं ब्रह्मासि पुरुषो विश्वमूर्ति: पितामहः:॥ ५

आप आदि हैं तथा आप आदिरहित भी हैं। आप ही प्रकृति हैं, आप ही जनार्दन हैं, आप ही पुरुष हैं, आप हो जगन्नाथ , आप ही विष्णु तथा आप ही विश्वेश्वर हैं। जो ये पुरुषरूप विश्वमूर्ति पितामह हैं वे भी आप ही हैं॥४-५॥

तत्त्वमाद्य॑ भवानेव परं ज्योतिर्जनार्दन।
परमात्मा पर धाम श्रीपते भूपते प्रभो॥ ६

त्वत्क्रोधसम्भवो रुद्रस्तमसा च समावृतः।
त्वत्प्रसादाज्गद्धाता रजसा च पितामह:॥ ७

त्वत्प्रसादात्स्वयं विष्णु: सत्त्वेन पुरुषोत्तम:।
कालमूर्ते हरे विष्णो नारायण जगन्मय॥ ८

महांस्तथा च भूतादिस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च। 
त्वयैवाधिष्ठितान्येव विश्वमूर्त महेश्वर॥ ९

महादेव जगन्नाथ पितामह जगदगुरो। 
प्रसीद देवदेवेश प्रसीद परमेश्वर॥ १०

हे जनार्दन! जो आदि ज्योति है, वह आप ही हैं। हे लक्ष्मीकान्त! हे भूपते! आप ही परमात्मा तथा आप ही परमधाम हैं 
तमोगुणसे संलिप्त भगवान्‌ रुद्र आपके क्रोधसे आविर्भूत हैं तथा आपके ही अनुग्रहसे रजोगुणसे सम्पन्न जगतूके सृजनकर्ता पितामह ब्रह्माकी उत्पत्ति हुई है। हे कालमूर्ते हे हरे! हे विष्णो! हे नारायण! हे जगन्मय ! सत्त्वगुणयुक्त साक्षात्‌ पुरुषोत्तम विष्णु भी आपके ही अनुग्रहसे अधिष्ठित हैं  हे विश्वमूर्ते! हे महेश्वर! महत्‌, पंचमहाभूतादि, पाँच तन्मात्राएँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ एवं मन--ये सब आपके ही द्वारा अधिष्ठित हैं  हे महादेव ! हे जगन्नाथ ! हे पितामह ! हे जगद्गुरो। हे देवदेवेश ! हे परमेश्वर! आप प्रसन्न होइये, प्रसन्न होइये ॥ ६- १०॥

प्रसीद त्व॑ जगन्नाथ शरण्यं शरणं गतः। 
बवैकुण्ठ शौरे सर्वज्ञ वासुदेव महाभुज॥ १९

सड्डूर्षण. महाभाग प्रद्युम्म पुरुषोत्तम। 
अनिरुद्ध महाविष्णो सदा विष्णो नमोस्तु ते ॥ १२

विष्णो तवासनं दिव्यमव्यक्त मध्यतो विभु:। 
सहसत्रफणसंयुक्तस्तमोमूर्तिर्धराधर: ॥ १३

अधशए्च धर्मों देवेश ज्ञानं वैराग्यमेव च। 
ऐश्वर्यमासनस्यास्थ पादरूपेण सुत्रत॥ १४

सप्तपातालपादस्त्व॑ धराजघनमेव च। 
वासांसि सागरा: सप्त दिशश्चैव महाभुजा:॥ १५

द्यौर्मूर्धा ते विभो नाभि: खं वायुर्नासिकां गत: । 
नेत्रे सोमएच सूर्यश्च केशा वे पुष्करादय:॥ १६

नक्षत्रतारका द्यौश्च ग्रैवेयकविभूषणम्‌। 
कथं स्तोष्यामि देवेशं पूज्यश्च पुरुषोत्तम:॥ १७

श्रद्धया च कृतं दिव्यं यच्छ्रुतं यच्च कीर्तितम् । 
यदिष्टं तत्क्षमस्वेश नारायण नमोऽस्तु ते ॥ १८

हे शरणागतको शरण प्रदान करनेवाले जगन्नाथ ! हे वैकुण्ठ ! हे शौरे! हे सर्वज्ञ! हे वासुदेव! हे महाभुज! आप प्रसन्‍न होइये हे संकर्षण! हे महाभाग ! हे प्रद्युम्न ! हे पुरुषोत्तम ! हे अनिरुद्ध! हे महाविष्णो! हे विष्णो! आपको सदा नमस्कार है हे विष्णो! हजार फणोंसे युक्त, तमोमूर्तिस्वरूप, पृथ्वीको धारण करनेवाले, ऐश्वर्यसम्पन्न शेषनाग आपके दिव्य तथा अव्यक्त आसनके रूपमें अधिष्ठित हैं हे देवेश! हे सुब्रत! इस आसन के नीचे पादके रूपमें साक्षात्‌ धर्म, ज्ञान, वैराग्य तथा ऐश्वर्य विराजमान हैं हे विभो! सातों पाताल आपके चरणरूपमें, पृथ्वी जाँघके रूपमें, सातों समुद्र वस्त्रके रूपमें, दिशाएँ विशाल भुजाओंके रूपमें, अन्तरिक्ष मस्तकके रूपमें, आकाश नाभिके रूपमें, वायु नासिकाके रूपमें, दोनों नेत्र सूर्य-चन्द्रके रूपमें, बाल मेघोंके रूपमें तथा नक्षत्र-तारे और सम्पूर्ण गगनमण्डल आपके गलेके आभूषणके रूपमें अधिष्ठित हैं। आप पुरुषोत्तम हैं और परम पूज्य हैं। आप देवेश्वरकी स्तुति मैं किस प्रकार करूँ ? आपके विषयमें जैसा सुना तथा कहा गया है, उसी दिव भावको मैंने श्रद्धापूर्वक स्तुतिरूपमें कह दिया। हे ईश। हे नारायण! मेरी अभिलाषाके लिये मुझे क्षमा कीजिये। आपको नमस्कार है॥ ११-१८॥

शैलादिरुवाच

इदं तु वैष्णवं स्तोत्रं सर्वपापप्रणाशनम् । 
यः पठेच्छृणुयाद्वापि क्षुपेण परिकीर्तितम् ॥ १९

श्रावयेद्वा द्विजान् भक्त्या विष्णुलोकं स गच्छति ।। २०

सम्पूज्य चैवं त्रिदशेश्वराद्यैः स्तुत्वा स्तुतं देवमजेयमीशम् ।
विज्ञापयामास निरीक्ष्य भक्त्या जनार्दनाय प्रणिपत्य मूर्ध्वा ॥ २१

नन्दीश्वर बोले- जो मनुष्य क्षुपके द्वारा की गयी सर्वपापनाशिनी इस विष्णु-स्तुतिको भक्तिपूर्वक पढ़ता है या सुनता है अथवा ब्राह्मणोंको सुनाता है, वह विष्णु- लोकको प्राप्त होता है इस प्रकार इन्द्र आदिके द्वारा स्तुत किये जानेवाले अपराजेय परमेश्वर विष्णुकी भक्तिपूर्वक स्तुति करके उनके चरणोंमें मस्तक झुकाकर प्रणाम करके उनकी ओर कातर दृष्टिसे देखते हुए क्षुपने कहा ॥ १९ - २१ ॥

राजोवाच

भगवन् ब्राह्मणः कश्चिद्धीच इति विश्रुतः ।
धर्मवेत्ता विनीतात्मा सखा मम पुराभवत् ॥ २२

अवध्यः सर्वदा सर्वैः शङ्करार्चनतत्परः । 
सावज्ञं वामपादेन स मां मूर्छिन सदस्यथ ॥ २३

ताडयामास देवेश विष्णो विश्वजगत्पते । 
उवाच च मदाविष्टो न बिभेमीति सर्वतः ॥ २४

जेतुमिच्छामि तं विप्रं दधीचं जगदीश्वर। 
यथा हि तं तथा कर्तुं त्वमर्हसि जनार्दन ॥ २५

राजा बोले- हे भगवन् ! दधीच नामसे लोकप्रसिद्ध एक धर्मज्ञ तथा विनीत आत्मावाले ब्राह्मण है, जो पहले मेरे मित्र थे। शिवजीकी आराधनामें सदा तत्पर रहनेके कारण उनकी कृपासे वे सभीसे अवध्य हैं। हे देवेश! हे विष्णो! हे जगत्पते। उन्होंने सभामें मेरा तिरस्कार करते हुए अपने बायें पैरसे मेरे सिरपर प्रहार कर दिया और उन मदोन्मत्तने कहा कि मैं किसीसे भी नहीं डरता हूँ। २२-२४॥ हे जगदीश्वर! मैं उन विप्र दधीचको जीतना चाहता हूँ। हे जनार्दन! मैं उन्हें जिस भी तरहसे जीत सकूँ; आप वैसा उपाय कीजिये ॥ २५ ॥ 

शैलादिरुवाच

ज्ञात्वा सोऽपि दधीचस्य ह्यवध्यत्वं महात्मनः । 
सस्मार च महेशस्य प्रभावमतुलं हरिः ॥ २६

एवं स्मृत्वा हरिः प्राह ब्रह्मणः श्रुतसम्भवम् । 
विप्राणां नास्ति राजेन्द्र भयमेत्य महेश्वरम् ॥ २७

विशेषाद्रुद्रभक्तानामभयं सर्वदा नृप। 
नीचानामपि सर्वत्र दधीचस्यास्य किं पुनः ॥ २८

तस्मात्तव महाभाग विजयो नास्ति भूपते। 
दुःखं करोमि विप्रस्य शापार्थ ससुरस्य मे ॥ २९

नन्दीश्वर बोले- इस प्रकार उन विष्णुने भी महात्मा दधीचके अवध्यत्वको जानकर तथा भगवान् शिवके अतुलित प्रभावका स्मरण करके ब्रह्माकी छींकसे उत्पन्न क्षुपसे कहा है राजेन्द्र ! महेश्वरकी भक्तिको प्राप्त विप्रोंको किसी प्रकारका भय नहीं रहता। है राजन् ! विशेषरूपसे रुद्रके भक्त सर्वदा भयसे मुक्त रहते हैं, चाहे वे परम नीच ही क्यों न हों; फिर इन दधीचमुनिकी तो बात ही क्या ? हे महाभाग! हे भूपते। अतः अब आपके विजयकी आशा नहीं है। देवताओंसहित अपनेको शापित होने के लिये में अब विप्र दधीचको क्रोधित करूँगा॥ २६२९॥ 

भविता तस्य शापेन दक्षयज्ञे सुरै: समम्‌। 
विनाशो मम राजेन्द्र पुनरुत्थानमेव च॥३०

तस्मात्समेत्य विप्रेन्द्र॒सर्वयत्नेन भूपते। 
करोमि यल्नं राजेन्द्र दधीचविजयाय ते॥३९

हे राजेन्द्र! उनके शापसे दक्षके यज्ञमें सभी देवताओंसहित मेरा विनाश होगा और पुनः उत्थान होगा हे भूपते! हे राजेन्द्र! समस्त देवताओंसहित मैं विप्रेन्द्र दधीचमुनिसि आपकी विजयके लिये पूरे मनसे प्रयास करूँगा॥ ३० -३१॥

शैलादिरुवाच श्रुत्वा

वाक्य क्षुप: प्राह तथास्त्विति जनार्दनम्‌। 
भगवानपि विप्रस्थ दधीचस्याश्रमं॑ ययौ॥ ३२

आस्थाय रूप॑ विप्रस्थ भगवान्‌ भक्तवत्सल: ।
दधीचमाह ब्रह्मर्षिमभिवन्य॒ जगद्गुरु:॥ ३३

नन्दीएवर बोले-भगवान्‌ विष्णुका यह वचन सुनकर क्षुपने उनसे कहा--आप वैसा ही कीजिये। इधर भक्तवत्सल भगवान्‌ विष्णु ब्राह्मणफा रूप धारणकर दधीचमुनिके आश्रम पहुँचे। जगदगुरु विष्णुने ब्रह्मर्षि दधीचको प्रणामकर उनसे कहा॥ ३२-३३ ॥

श्रीभयगवानुवाच

भो भो दधीच ब्रह्र्ष भवार्चनरताव्यय। 
वरमेक॑ वृणे त्वत्तस्तं भवान्‌ दातुमहति॥ ३४

याचितो देवदेवेन दधीच: प्राह विष्णुना। 
ज्ञातं तवेप्सितं सर्व न बिभेमि तवाप्यहम्‌॥ ३५

भवान्‌ विप्रस्थ रूपेण आगतोउसि जनार्दन। 
भूतं भविष्यं देवेश वर्तमानं जनार्दन॥ ३६

ज्ञातं प्रसादाद्‌ रुद्रस्य द्विजत्वं त्यज सुत्रत। 
आराधितोउसि देवेश क्षुपेण मधुसूदन॥ ३७

जाने तबैनां भगवन्‌ भक्तवत्सलतां हरे। 
स्थाने तवैषा भगवन्‌ भक्तवात्सल्यता हरे॥ ३८

अस्ति चेद्धगवन्‌ भीतिर्भवार्चनरतस्य मे। 
वक्तुमईसि यतल्लेन वरदाम्बुजलोचन॥ ३९

वदामि न मृषा तस्मान्न बिभेमि जनार्दन। 
न बिभेमि जगत्यस्मिन्‌ देवदैत्यद्विजादपि॥ ४०

ननन्‍ह्युवाच

श्रुत्वा वाक्‍्यं दधीचस्य तदास्थाय जनार्दन:। 
स्वरूप सस्मित॑ प्राह सन्त्यज्य द्विजतां क्षणात्‌ ॥ ४१

श्रीभगवान्‌ बोले--हे शिवाराधनमें तत्पर निर्विकार ब्रह्मर्षि दधीच ! में आपसे एक वरकी याचना करता हूँ। आप मुझे वह वर देनेकी कृपा कौजिये  देवदेव विष्णुके इस प्रकार प्रार्थना करनेपर दधीचने कहा मैं आपके सभी भावों तथा मनोरथोंको समझ गया हूँ। मुझे आपसे भी कोई भय नहीं है हे जनार्दन! आप यहाँ ब्राह्मणका रूप धारणकर आये हुए हैं। हे देवेश! हे जनार्दन! भगवान्‌ शिवकी कृपासे मैं भूत, भविष्य तथा वर्तमान सब कुछ जानता हूँ। हे सुब्रत! आप यह विप्ररूप छोड़ दीजिये। हे देवेश ! हे मधुसूदन ! क्षुपने अपनी कार्य-सिद्धिके लिये आपकी आराधना की है हे भगवन्‌! हे हरे! आपकी यह भक्तवत्सलता मुझे पूर्ण रूपसे विदित है। हे भगवन्‌! हे हरे! आज यहाँ भी आपकी वही भक्तवत्सलता विद्यमान है हे भगवन्‌! हे वरदाता! हे कमलनयन! यदि आपका ऐसा भक्तवात्सल्य है तो आप सोच-समझकर यह बताइये कि मुझ शिवाराधनतत्पर व्यक्तिको आपसे क्या भय हो सकता है ? हे जनार्दन! मैं मिथ्या- भाषण नहीं करता; इसीलिये इस जगत्‌में देवता, दैत्य तथा ब्राह्मण किसीसे भी मैं भयभीत नहीं रहता हूँनन्‍दी कहते हैं--[हे सनत्कुमार!] दधीचका वह वचन सुनकर उसी क्षण ब्राह्मणरूप छोड़कर विष्णुने अपना रूप धारण कर लिया और हँसकर दधीचस् कहा ॥ ३४ - ४१॥

श्रीभगवानुवाच 

भयं दथधीच सर्वत्र नास्त्येव तव सुत्रत। 
भवार्चनरतो यस्माद्धवान्‌ सर्वज्ञ एव च॥ ४२

बिभेमीति सकृद्बक्तु त्वमहसि नमस्तव। 
नियोगान्मम विद्रेन्ध क्षुप॑ प्रति सदस्यथ॥ ४३

एवं श्रुत्वापि तद्वाक्यं सान्त्वं विष्णोर्महामुनि: । 
न बिभेमीति तं प्राह दधीचो देवसत्तमम्‌॥ ४४

प्रभावाद्देवदेवस्य शम्भो: साक्षात्पिनाकिन:। 
शर्वस्य शड्डूरस्यास्य सर्वज्ञस्थ॑ महामुनि:॥ ४५

ततस्तस्य मुने: श्रुत्वा वचन कुपितो हरिः। 
चक्रमुद्यम्य भगवान्‌ दिथधक्षुर्मुनिसत्तमम्‌॥ ४६

श्रीभगवान्‌ बोले--हे सुब्रत! हे दधीच ! क्योंकि आप सर्वज्ञ हैं तथा शिवार्चनमें रत रहनेवाले हैं, इसलिये आपको सभी स्थानोंपर किसी भी प्रकारका भय व्याप्त नहीं कर सकता हे विप्रवर! आपको नमस्कार है। मेरा आग्रह है कि आप एक बार सभामें क्षुपसे बोल दीजिये कि "मैं आपसे डरता हूँ” इस प्रकार विष्णुभगवानू्का वह विनय तथा प्रीतियुक्त वचन सुनकर महामुनि दधीचने देवोंमें श्रेष्ठ उन विष्णुसे कहा-मैं साक्षात्‌ पिनाकधारी सर्वज्ञ शर्व देवदेव महादेव शिवके अनुग्रहसे किसीसे भी नहीं डरता  तत्पश्चात्‌ उन मुनि दधीचका वचन सुनकर भगवान्‌ विष्णु क्रोधित हो उठे और उन्होंने मुनिश्रेष्ठ दधीचको दग्ध करनेकी इच्छासे अपना चक्र उठाया ॥ ४२ - ४६॥

अभवत्कुण्ठिताग्रं हि विष्णोश्चक्रं सुदर्शनम्‌ । 
प्रभावाद्धि दधीचस्य क्षुपस्यैव हि सन्निधौ॥ ४७

दृष्ट्वा तत्कुण्ठिताग्रं हि चक्र चक्रिणमाह सः । 
दधीच: सस्मितं साक्षात्सद्सद्व्यक्तिकारणम्‌ ॥ ४८

भगवन्‌ भवता लब्धं पुरातीव सुदारुणम्‌। 
सुदर्शनमिति ख्यातं चक्र विष्णो प्रयत्नत:॥ ४९

भवस्यैतच्छुभं चक्र न जिघांसति मामिह। 
ब्रह्मास्त्राद्येस्तथान्यै्हिं प्रयल॑ कर्तुमहसि ॥ ५०

क्षुपके सामने ही मुनि दधीचके प्रभावसे विष्णुका सुदर्शन चक्र कुण्ठित हो गया कुण्ठित अग्रभागवाले सुदर्शन चक्रको देखकर वे दधीच मुसकराकर सत-असतूके अवभासक चक्रधारी [विष्णु -से कहने लगे हे भगवन्‌! हे विष्णो  पूर्वकाल में आपको भी अत्यन्त प्रयलपूर्वक शिवकृपासे ही यह अति भयावह सुदर्शन नामक शुभ चक्र प्राप्त हुआ है। अत: यह चक्र मुझ शिवभक्तको नहीं मार सकता। अब आप ब्रह्म्रास्त्र आदिं अन्य अस्त्रोंसे मुझे मारनेका प्रयास कीजिये ॥ ४७-५०॥

शेलादिस्वाच

तस्य तद्बचनं श्रुत्वा दृष्ट्वा निर्वार्यमायुधम्‌। 
ससर्ज च पुनस्तस्मै सर्वास्त्राणि समन्तत:॥ ५१

चक्रुर्देवास्ततस्तस्य विष्णो: साहाय्यमव्यया: ।। 
द्विजेनेकेन योद्धुं हि प्रवृत्तस्य महाबला:॥ ५२

नन्दीश्वर बोले--[हे सनत्कुमार!] दधीचका वह वचन सुनकर तथा अपने अस्त्रको निस्तेज देखकर विष्णुजीने समस्त प्रकारके अस्त्र उत्पन्न किये और वे चारों ओरसे उनके ऊपर प्रहार करने लगे महान्‌ बलशाली शाश्वत देवता लोग भी उरें एकमात्र ब्राह्मणसे युद्ध करनेमें प्रवृत्त उन विष्णुकी सहायता करनेमें तत्पर हो गये॥ ५१ - ५२॥

कुशमुष्टिं तदादाय दधीच: संस्मरन्‌ भवम्‌।
ससर्ज सर्वदेवेभ्यो वज्रास्थि: सर्वतो वशी॥ ५३

दिव्यं त्रिशूलमभवत्कालाग्निसदृशप्रभम्‌ । 
दग्धुं देवान्‌ मतिं चक्रे युगान्ताग्निरिवापर:॥ ५४

इन्द्रनारायणाद्यैश्च देवैस्त्यक्तानि यानि तु। 
आयुधानि समस्तानि प्रणेमुस्त्रशिखं मुने॥ ५५

देवाश्च दुद्गुवुः सर्वे ध्वस्तवीर्या द्विजोत्तम। 
ससर्ज भगवान्‌ विष्णु: स्वदेहात्पुरुषोत्तम:॥ ५६

आत्मन: सदूशान्‌ दिव्यान्‌ लक्षलक्षायुतान्‌ गणान्‌। 
तानि सर्वाणि सहसा ददाह मुनिसत्तम:॥ ५७

तब वचज्रतुल्य हड्डियोंवाले इन्द्रियजित्‌ दधीच एक मुट्ठी कुश लेकर भगवान्‌ शिवका स्मरण करते हुए सभी देवताओं के ऊपर फेंक दिया वह कुश कालाग्नि के तेजके समान दिव्य त्रिशूल बन गया। उस समय दूसरी प्रलयाग्नि के तुल्य प्रतीत होनेवाले दधीचने सभी देवताओंको भस्म कर देनेका निश्चय कर लिया हे मुने! इन्द्र तथा विष्णु आदि देवताओंने जो-जो अस्त्र दधीचके ऊपर छोड़े थे, वे सब उस त्रिशूलको प्रणाम करने लगे हे द्विजश्रेष्ठ! यह देखकर सभी देवता पराक्रमशून्य हो गये तथा व्याकुल होकर पलायन करने लगे। तब पुरुषोत्तम भगवान्‌ विष्णुने अपने शरीरसे अपने ही तुल्य करोड़ों दिव्य गण उत्पन्न किये। मुनिवर दधीचने क्षणभरमें उन सभीको भस्मसात्‌ कर दिया॥ ५३-५७॥

ततो विस्मयनार्थाय विएवमूर्तिरभूद्धरि: । 
तस्य देहे हरेः साक्षादपश्यद्‌ द्विजसत्तम:॥ ५८

दधीचो भगवान्‌ विप्र: देवतानां गणान्‌ पृथक्‌ । 
रुद्राणां कोटयएचेव गणानां कोटयस्तदा॥ ५९

अण्डानां कोटयश्चैव विश्वमूर्तेस्तनो तदा। 
दृष्टैतदरिखिलं तत्र च्यावनिर्विस्मितं तदा॥ ६०

विष्णुमाह जगन्‍नाथं जगन्मयमर्ज विभुम्‌। 
अम्भसाभ्युक्ष्य तं विष्णुं विश्वरूपं महामुनि:॥ ६१

मायां त्यज महाबाहो प्रतिभासा विचारतः। 
विज्ञानानां सहस्त्राणि दुर्विज्ञेयानि माधव॥ ६२

मयि पश्य जगत्सर्व॑ त्वया सार्धमनिन्दित। 
ब्रह्माणं च तथा रुद्रं दिव्यां दृष्टि ददामि ते॥ ६३

इत्युक्त्वा दर्शयामास स्वतनौ निखिल मुनि:। 
त॑ प्राह च हरिं देवं सर्वदेवभवोद्धवम्‌॥ ६४

तदनन्तर दधीचको विस्मित करनेके निमित्त भगवान्‌ विष्णुने विश्वरूप धारण किया। विप्रेन्द्र दधीचने उन विष्णुके शरीरमें साक्षात्‌ देवताओंके पृथक्‌पृथक्‌ गणोंको देखा। उस समय विश्वमूर्ति विष्णुके शरीरमें करोड़ों रुद्र, करोड़ों रुद्रणण तथा करोड़ों ब्रह्माण्ड विद्यमान थेतब च्यवन-पुत्र महामुनि दधीच वह सब कुछ देखकर विस्मित हो गये और वे विश्वरूप धारण किये हुए उन जगत्पति, लोकव्याप्त, ऐश्वर्यसम्पन्न विष्णुके ऊपर जलका छींटा मारकर उनसे कहने लगे हे महाबाहो! मायाका परित्याग कीजिये। हे माधव! पदार्थोकी भ्रमात्मक सत्तापर विचार करनेसे प्रतीत होता है कि इस मायाके हजारों प्रकारके दुर्विज्ञेय क्रिया-कलाप हुआ करते हैं हे अनिन्ध! अब आप अपने सहित ब्रह्मा, रुद्र तथा सम्पूर्ण जगत्‌को मुझमें देखिये। इसके लिये मैं आपको दिव्य दृष्टि प्रदान करता हूँ ऐसा कहकर मुनि दधीचने अपने शरीरमें उन्हें सम्पूर्ण जगत्‌ दिखा दिया और फिर सभी देवताओं तथा विश्वके रचयिता भगवान्‌ विष्णुसे उन्होंने कहा॥ ५८ - ६४॥

मायया हानया किं वा मन्त्रशक्त्याथ वा प्रभो। 
वस्तुशक्त्याथ वा विष्णो ध्यानशक्त्याथ वा पुन: ॥ ६५

त्यक्त्वा मायामिमां तस्माद्योद्धुमहसि यततत: ।
एवं तस्य वच: श्रुत्वा दृष्ट्वा माहात्म्यमद्धुतम्‌॥ ६६

देवाश्च दुद्ग॒व॒र्भूगो देवं नारायणं च तम्‌। 
वारयामास निश्चेष्टं पदायोनिर्जगद्गुरु:॥ ६७

निशम्य वचन तस्य ब्रह्मणस्तेन निर्जित:। 
जगाम भगवान्‌ विष्णु: प्रणिपत्य महामुनिम्‌॥ ६८

क्षुपो दुःखातुरो भूत्वा सम्पूज्य च मुनीश्वरम्‌। 
दधीचमभिवंद्याशु प्रार्थथामास विक्लव:॥ ६९

दधीच क्षम्यतां देव मयाज्ञानात्कृतं सखे। 
विष्णुना हि सुरेर्वापि रुद्रभक्तस्य कि तव॥ ७०

हे प्रभो! हे विष्णो। इस मायासे अथवा मन्त्रशक्तिसे अथवा पदार्थशक्तिसे अथवा ध्यानशक्तिसे क्या लाभ? अतएव इस मायाको छोड़‌कर आप मेरे साथ यत्नपूर्वक युद्ध कीजिये उन दधीचका यह वचन सुनकर तथा उनका अद्भुत प्रभाव देखकर देवगण व्याकुल होकर पुनः भागने लगे। तदनन्तर जगद्‌गुरु ब्रह्माजीने उन निश्चेष्ट भगवान् विष्णुको युद्ध करनेसे रोका इसके बाद उन ब्रह्माजीका वचन सुनकर दधीचसे पराजित हुए भगवान् विष्णु उन महामुनिको प्रणाम करके अपने लोकको चले गये इधर अत्यन्त दुःखित तथा व्याकुलचित्त राजा भ्रूप मुनीश्वर दधीचकी विधिवत् पूजा करके उन्हें बार-बार प्रणाम करते हुए उनसे प्रार्थना करने लगे हे दधीच! हे देव। मेरे द्वारा अज्ञानवश किये गये अपराधको आप क्षमा करें। हे सखे! आप-सदृश रुद्रभक्तका विष्णु तथा अन्य देवता भला क्या कर सकते हैं? ॥ ६५ - ७०॥

प्रसीद परमेशाने दुर्लभा दुर्जनैद्विज। 
भक्तिर्भक्तिमतां श्रेष्ठ मद्विधे: क्षत्रियाधमे:॥ ७९

श्रुत्वानुगृद्य तं॑ विप्रो दधीचस्तपतां वबरः। 
राजान मुनिशार्दूल: शशाप च सुरोत्तमान्‌॥ ७२

रुद्रकोपाग्निना देवा: सदेवेन्द्रा मुनीश्वरैः ।
ध्वस्ता भवन्तु देवेन विष्णुना च समन्विता: ॥ ७३

प्रजापतेर्मखे पुण्ये दक्षस्य सुमहात्मन:। 
एवं शप्त्वा क्षुपं प्रेक्ष्य पुनराह द्विजोत्तम:॥ ७४

देवेश्च पूज्या राजेन्द्र नृपैश्च विविधैर्गणै:। 
ब्राह्मणा एवं राजेन्द्र बलिन: प्रभविष्णव:॥ ७५

इत्युक्त्वा स्वोट्जं विप्र: प्रविवेश महाद्युति:। 
दधीचमभिवन्दैव जगाम स्वं नृप: क्षयम्‌॥ ७६

तदेव तीर्थमभवत्स्थानेश्वरमिति स्मृतम्‌।
स्थानेश्वरमनुप्राप्य शिवसायुज्यमाष्नुयात्‌ त्‌ ॥ ७७

कथितस्तव सद्धक्षेपाद्विवाद: श्रुब्दधीचयो:।
प्रभावश्च दधीचस्य भवस्य उच्च महामुने॥ ७८

य इदं कीर्तयेद्दिव्यं विवाद श्रुब्दधीचयो:। 
जित्वापमृत्युं देहान्ते ब्रह्मलोक॑ प्रयाति सः॥ ७९

य इदं कीर्त्य सद़ग्रामं प्रविशेत्तस्थ सर्वदा।
नास्ति मृत्युभयं चैव विजयी च भविष्यति॥ ८० 

हे द्विज। आप प्रसन्न हो जाइये। हे भक्तोंमें श्रेष्ठ । मुझ-सदृश दुर्जन तथा अधम क्षत्रियोंके लिये परमेश्वर महादेवकी भक्ति अत्यन्त दुर्लभ है तपस्वियोंमें श्रेष्ठ मुनीश्वर दधीचने राजा क्षुपको वाणी सुनकर उसके ऊपर अनुग्रह कर दिया तथा श्रेष्ठ देवताओंको शाप दे दिया कि विष्णुदेव, इन्द्र एवं मुनीश्वरोंसहित सभी देवता महान् आत्मावाले दक्षप्रजापति के पवित्र यज्ञ में रुद्रकी कोपाग्निमें दग्ध हो जायें  इस प्रकार देवताओंको शाप देकर द्विजश्रेष्ठ दधीचने क्षुपकी ओर देखते हुए कहा- हे राजेन्द्र । ब्राह्मण सभी देवताओं, राजाओं तथा विविध गणोंके पूज्य हैं। अतः है नृपश्रेष्ठ ! ब्राह्मण ही सबसे अधिक बलशाली एवं परम ऐश्वर्यसे सम्पन्न होते हैं ऐसा कहकर महातेजस्वी मुनि दधीच अपनी कुटीमें चले गये तथा राजा क्षुप दधीचको प्रणामकर अपने घरको प्रस्थित हुए  वह युद्धस्थान एक तीर्थ बन गया, जो स्थानेश्वर  नामसे जाना जाता है। स्थानेश्वर तीर्थका सेवन करने से मनुष्य शिव-सायुज्य प्राप्त कर लेता है [ नन्दीश्वर बोले--] हे महामुने सनत्कुमार ! यह मैंने आपसे संक्षेपमें क्षुप-दधीचके विवाद और दधीच तथा भगवान्‌ शिवके प्रभावका वर्णन किया है जो मनुष्य क्षुप तथा दधीचके इस दिव्य विवादका पठन करता है, वह अपमृत्युको जीतकर देहका अन्त होनेके अनन्तर ब्रह्मलोकको प्रस्थान करता है जो कोई भी इसका पाठ करके युद्ध-स्थलमें प्रवेश करता है, उसे मृत्युसे किसी प्रकारका भय नहीं रहता है और वह संग्राममें सदा विजेता सिद्ध होता है ॥ ७१ - ८० ॥

॥  श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे क्षुपदधीचसंवादो नाम षर्त्रिंशोउध्याय: ॥ ३६ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभायमें 'क्षुप-दधीच-संवाद ” नामक छत्तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ३६ ॥

 FQAs:- प्रश्नोत्तर रूपांतरण

प्रश्न 1: राजा क्षुप ने किस प्रकार भगवान विष्णु की आराधना की, और उन्हें भगवान के दर्शन कैसे प्राप्त हुए?

उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु की अत्यंत भक्ति एवं श्रद्धा के साथ आराधना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान विष्णु ने श्रीभूमि और लक्ष्मी सहित, शंख-चक्र-गदा-पद्म धारण किए हुए दिव्य रूप में उन्हें दर्शन दिए।


प्रश्न 2: भगवान विष्णु के दिव्य रूप का वर्णन कैसे किया गया है?

उत्तर: भगवान विष्णु का दिव्य रूप शंख, चक्र, गदा, और पद्म धारण किए हुए था। वे पीतांबर वस्त्र पहने हुए थे, सभी प्रकार के आभूषणों से सुशोभित थे और मुकुट धारण किए हुए थे। उनके दिव्य स्वरूप को देखकर राजा क्षुप ने उनकी स्तुति की।


प्रश्न 3: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु की स्तुति में क्या कहा?

उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु को आदिदेव, प्रकृति, जनार्दन, विष्णु, और विश्वेश्वर कहा। उन्होंने भगवान विष्णु को सृष्टि के आदिकर्ता, परमात्मा, और परमधाम बताया। उन्होंने यह भी कहा कि ब्रह्मा और रुद्र भी विष्णु के ही अनुग्रह से उत्पन्न हुए हैं।


प्रश्न 4: भगवान विष्णु के गुणों और शक्ति का क्या वर्णन किया गया है?

उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु को सृष्टि के अधिष्ठाता और संपूर्ण सृष्टि का आधार बताया। उनके अनुसार विष्णु के सत्त्वगुण से सृष्टि का पालन, रजोगुण से सृजन और तमोगुण से संहार होता है। उन्होंने विष्णु को नक्षत्रों, तारों, दिशाओं, आकाश, वायु, और समुद्र का अधिष्ठाता कहा।


प्रश्न 5: राजा क्षुप ने विष्णु से क्या निवेदन किया?

उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से क्षमा याचना करते हुए कहा कि उनकी भक्ति और स्तुति में यदि कोई त्रुटि हुई हो, तो उसे क्षमा करें। उन्होंने भगवान विष्णु से प्रार्थना की कि वे प्रसन्न हों और उनकी इच्छाओं को पूर्ण करें।


प्रश्न 6: राजा क्षुप ने दधीचि ऋषि के बारे में क्या कहा?

उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से कहा कि दधीचि नामक ब्राह्मण, जो धर्मज्ञ और शिवजी के आराधक हैं, उनके पुराने मित्र थे। लेकिन, एक सभा में दधीचि ने अपने बाएं पैर से राजा क्षुप के सिर पर प्रहार किया और कहा कि वे किसी से नहीं डरते।


प्रश्न 7: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से क्या निवेदन किया?

उत्तर: राजा क्षुप ने भगवान विष्णु से दधीचि ऋषि को हराने के लिए उपाय करने की प्रार्थना की। उन्होंने कहा कि शिव की कृपा से दधीचि अवध्य (जिसे मारा न जा सके) हैं और विष्णु ही उन्हें पराजित करने में सहायता कर सकते हैं।


प्रश्न 8: विष्णु ने दधीचि ऋषि के अवध्यत्व के बारे में क्या किया?

उत्तर: भगवान विष्णु ने दधीचि ऋषि के अवध्य होने की सच्चाई को समझा और उनकी शक्ति और महादेव की कृपा को स्मरण किया। इसके बाद विष्णु ने समस्या का समाधान खोजने के लिए अपनी योजना बनाई।

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