लिंग पुराण : देव दारुवननिवासी मुनिगणों द्वारा शिवाराधना | Linga Purana: Worship of Shiva by the sages resident of Dev Daruvan

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] इकतीसवाँ अध्याय

देव दारुवननिवासी मुनिगणों द्वारा शिवाराधना

सनत्कुमार उवाच

कथं भवप्रसादेन देवदारुवनौकसः । 
प्रपन्नाः शरणं देवं वक्तुमर्हसि मे प्रभो ॥ १

शैलादिरुवाच

तानुवाच महाभागान् भगवानात्मभूः स्वयम्।
देवदारुवनस्थांस्तु तपसा पावकप्रभान् ॥ २

पितामह उवाच

एष देवो महादेवो विज्ञेयस्तु महेश्वरः। 
न तस्मात्परमं किञ्चित्पदं समधिगम्यते ॥ ३

सनत्कुमार बोले- हे प्रभो! देवदारुवनके निवासी [तपस्वीगण] भगवान् शिवके अनुग्रहसे किस प्रकार उन महादेवके शरणको प्राप्त हुए? कृपा करके मुझे बतायें शैलादि बोले- स्वयम्भू भगवान् ब्रह्माने देवदारुवनमें निवास करने वाले तथा अपनी तपस्यासे अग्नितुल्य प्रभावाले उन महाभाग मुनियोंसे कहा पितामह बोले- इन भगवान् महादेव महेश्वरको अवश्य जानना चाहिये; क्योंकि उनसे बढ़कर कोई भी ऐसा पद नहीं है, जो प्राप्त करनेयोग्य हो ॥ १- ३॥

देवानां च ऋषीणां च पितॄणां चैव स प्रभुः । 
सहस्त्रयुगपर्यन्ते प्रलये सर्वदेहिनः ॥ ४

संहरत्येष भगवान् कालो भूत्वा महेश्वरः । 
एष चैव प्रजाः सर्वाः सृजत्येकः स्वतेजसा ।। ५

एष चक्री च वज्री च श्रीवत्सकृतलक्षणः । 
योगी कृतयुगे चैव त्रेतायां क्रतुरुच्यते ॥ ६

द्वापरे चैव कालाग्निर्धर्मकेतुः कलौ स्मृतः । 
रुद्रस्य मूर्तयस्त्वेता येऽभिध्यायन्ति पण्डिताः ॥ ७

चतुरस्त्रं बहिश्चान्तरष्टास्त्रं पिण्डिकाश्रये। 
वृत्तं सुदर्शनं योग्यमेवं लिङ्गं प्रपूजयेत् ॥ ८

तमो ह्यग्नी रजो ब्रह्मा सत्त्वं विष्णुः प्रकाशकम् । 
मूर्तिरेका स्थिता चास्य मूर्तयः परिकीर्तिताः ॥ ९

वे ही समस्त देवताओं, ऋषियों तथा पितरोंके प्रभु हैं। हजार युगोंके अन्तमें प्रलयकाल आनेपर वे ही भगवान् शिव काल बनकर सभी देहधारियोंका संहार करते हैं और एकमात्र ये भगवान् शिव ही अपने तेजसे सभी प्रजाओंका सृजन करते हैं अपने वक्षःस्थलपर 'श्री' चिह्न धारण करनेवाले चक्रधारी विष्णु तथा व्रजधारी इन्द्र आदिके रूपमें ये शिव ही विराजमान हैं। ये सत्ययुगमें योगी, त्रेतामें यज्ञस्वरूप, द्वापरमें कालाग्नि एवं कलियुगमें धर्मकेतु नामसे कहे जाते हैं। भगवान् रुद्रकी ये ही मूर्तियाँ हैं, जिनका पण्डितजन ध्यान करते हैं बाहरसे चौकोर एवं भीतर से अष्टकोण वाले पिण्डिका-स्थानमें वृत्ताकार, दर्शनीय तथा श्रेष्ठ लिङ्गकी विधिवत् पूजा करनी चाहिये  तमोगुणरूप अग्नि, रजोगुण रूप ब्रह्मा तथा प्रकाशक सत्त्वगुणरूप विष्णु आदिकी मूर्तियाँ एकमात्र इन्हीं शिवकी मूर्तिमें स्थित कही जाती हैं॥ ४ - ९॥

यत्र तिष्ठति तद् ब्रह्म योगेन तु समन्वितम्। 
तस्माद्धि देवदेवेशमीशानं प्रभुमव्ययम् ॥ १०

आराधयन्ति विप्रेन्द्रा जितक्रोधा जितेन्द्रियाः । 
लिङ्गं कृत्वा यथान्यायं सर्वलक्षणसंयुतम् ॥ ११

जीवके भीतर समाधियोगसे स्थित जो शिवरूप है, वही ब्रह्म है। अतएव क्रोधको जीत लेनेवाले तथा इन्द्रियोंको वशमें रखनेवाले उत्तम विप्रगण विधानके अनुसार सभी लक्षणोंसे युक्त लिङ्ग बनाकर अविनाशी, देवाधिदेव, ईशान एवं सबके स्वामी शिवकी आराधना करते हैं॥ १०-११ ॥

अङ्गुष्ठमात्रं सुशुभं सुवृत्तं सर्वसम्मतम् । 
समनाभं तथाष्टास्त्रं षोडशास्त्रमथापि वा ॥ १२

वह लिङ्ग अंगुष्ठ परिमाणके बराबर, अत्यन्त सुन्दर, वर्तुलाकार तथा शास्त्रसम्मत हो। उसका मण्डल समान नाभिवाला, अष्ट अथवा षोडश कोणोंवाला पूर्णतः गोलाकार तथा दिव्य होना चाहिये; वह सभी मनोरथोंको पूर्ण करनेवाला होता है ॥ १२॥ 

सुवृत्तं मण्डलं दिव्यं सर्वकामफलप्रदम् । 
वेदिका द्विगुणा तस्य समा वा सर्वसम्मता ॥ १३

गोमुखी च त्रिभागैका वेद्या लक्षणसंयुता। 
पट्टिका च समन्ताद्वै यवमात्रा द्विजोत्तमाः ॥ १४

सौवर्ण राजतं शैलं कृत्वा ताम्रमयं तथा। 
वेदिकायाश्च विस्तारं त्रिगुणं वै समन्ततः ॥ १५

वर्तुलं चतुरस्त्रं वा षडस्रं वा त्रिरत्रकम्। 
समन्तान्निव्रणं शुभ्रं लक्षणैस्तत्सुलक्षितम् ॥ १६

प्रतिष्ठाप्य यथान्यायं पूजालक्षणसंयुतम् । 
कलशं स्थापयेत्तस्य वेदिमध्ये तथा द्विजाः ॥ १७

सहिरण्यं सबीजं च ब्रह्मभिश्चाभिमन्त्रितम्। 
सेचयेच्च ततो लिङ्ग पवित्रैः पञ्चभिः शुभैः ॥ १८

पूजयेच्च यथालाभं ततः सिद्धिमवाप्स्यथ। 
समाहिताः पूजयध्वं सपुत्रा सह बन्धुभिः ॥ १९

लिङ्गकी वेदिका उसकी दुगुनी, समान तथा शास्त्रसम्मत हो। गोमुखीको उसकी एक तिहाई एवं समस्त लक्षणोंसे युक्त जानना चाहिये। हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो। उसके चारों ओर जौके परिमाणके बराबर पट्टिका होनी चाहिये। वेदिकाका विस्तार चारों ओर तिगुना, वर्तुलाकार, त्रिकोण, चौकोर अथवा षट्‌कोण होना चाहिये। सोनेका, चाँदीका, ताँबेका अथवा पाषाणका लिङ्ग बनाना चाहिये। हे द्विजो इस प्रकार सभी ओरसे छिद्र आदिसे रहित, सुन्दर तथा सभी लक्षणोंसे युक्त लिङ्गको विधिपूर्वक प्रतिष्ठित करके उसकी वेदीके मध्यमें पूजालक्षणोंसे समन्वित, स्वर्णसहित, पंचाक्षरमन्त्र एवं सद्योजात आदि पाँच मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित कलशकी स्थापना करनी चाहिये। तत्पश्चात् उन्हीं पाँच शुभ तथा पवित्र मन्त्रोंसे लिङ्गका अभिषेक करना चाहिये एवं यथोपलब्ध उपचारोंसे पूजन करना चाहिये। ऐसा करनेसे तुमलोग सिद्धि प्राप्त कर लोगे। [हे मुनियो।] तुम लोग अपने पुत्रों तथा बन्धु-बान्धवोंसहित एकाग्रचित्त होकर महादेवजीका पूजन करो और हाथ जोड़कर शूलपाणिकी शरणमें जाओ। तत्पश्चात् तुमलोग असंयत आत्मावाले लोगोंके लिये दुर्लभ दर्शनवाले देवेश शिवका दर्शन प्राप्त कर सकोगे; जिन्हें देखते ही समस्त अज्ञान तथा अधर्म नष्ट हो जाता है ॥ १३-१९ ॥ 

सर्वे प्राञ्जलयो भूत्वा शूलपाणिं प्रपद्यत। 
ततो द्रक्ष्यथ देवेशं दुर्दर्शमकृतात्मभिः ॥ २०

यं दृष्ट्वा सर्वमज्ञानमधर्मश्च प्रणश्यति। 
ततः प्रदक्षिणं कृत्वा ब्रह्माणममितौजसम् ॥ २१

सम्प्रस्थिता वनौकास्ते देवदारुवनं ततः । 
आराधयितुमारब्धा ब्रह्मणा कथितं यथा ॥ २२

स्थण्डिलेषु विचित्रेषु पर्वतानां गुहासु च। 
नदीनां च विविक्तेषु पुलिनेषु शुभेषु च ॥ २३

शैवालशोभनाः केचित्केचिदन्तर्जलेशयाः ।
केचिद् दर्भावकाशास्तु पादाङ्गुष्ठाग्रधिष्ठिताः ।। २४

तत्पश्चात् अमित तेजवाले ब्रह्माजीकी प्रदक्षिणा करके वे वनवासी मुनि देवदारु वनके लिये प्रस्थित हुए और जैसा ब्रह्माजीने कहा था, तदनुसार वे महादेवकी आराधना करने लगे  कुछ मुनि विचित्र प्रकारके स्थण्डिलोंपर, पर्वतों की गुफाओं में, नदियोंके पवित्र तथा एकान्त तटॉपर, कुछ मुनि शैवालपर विराजमान होकर, कुछ मुनि जल के भीतर बैठकर, कोई दर्भ-शय्या बिछाकर, कोई अपने,पैरके अँगूठेके अग्रभागपर स्थित होकर, कोई दाँतोंको ही उलूखल बनाकर उनसे पिसे अन्नको खाकर, कुछ पाषाणपर पिसे अन्नको ही खाकर, कुछ वीरासनमें बैठकर, कुछ मृगचर्यापरायण होकर इस प्रकार तपस्या तथा पूजनके द्वारा उन महाबुद्धिमान् मुनियोंने समय व्यतीत किया ॥ २१-२५॥

दन्तोलूखलिनस्त्वन्ये अश्मकुड्डास्तथापरे। 
स्थानवीरासनास्त्वन्ये मृगचर्यारताः परे ॥ २५

कालं नयन्ति तपसा पूजया च महाधियः। 
एवं संवत्सरे पूर्णे वसन्ते समुपस्थिते ॥ २६

ततस्तेषां प्रसादार्थ भक्तानामनुकम्पया। 
देवः कृतयुगे तस्मिन् गिरौ हिमवतः शुभे ॥ २७

देवदारुवनं प्राप्तः प्रसन्नः परमेश्वरः । 
भस्मपांसूपदिग्धाङ्गो नग्नो विकृतलक्षणः ॥ २८

उल्मुकव्यग्रहस्तश्च रक्तपिङ्गललोचनः । 
क्वचिच्च हसते रौद्रं क्वचिद् गायति विस्मितः ॥ २९

क्वचिन्नृत्यति शृङ्गारं क्वचिद्रौति मुहुर्मुहुः । 
आश्रमे हृाटते भैक्ष्यं याचते च पुनः पुनः ॥ ३०

इस प्रकार उन मुनियोंको तप करते हुए एक वर्ष पूर्ण होनेपर वसन्त ऋतु आनेपर परमेश्वर शिव अपनी दयासे उन भक्तोंपर अनुग्रह करनेके निमित्त कृतयुगमें हिमालयके उस पर्वतपर स्थित देवदारुवनमें प्रसन्नतापूर्वक आये उस समय वे भस्म-धूलिसे भूषित शरीरवाले, दिगम्बर वेशवाले, विकृत स्वरूपवाले, उल्मुक (जलता हुआ काष्ठ) धारण किये हुए, व्यग्रहस्तवाले तथा रक्त-पिंगल नेत्रोंवाले थे। वे कभी रौद्ररूपमें हँसते थे, कभी विरिंमत होकर गाते थे, कभी शृङ्गार नृत्य करते थे तथा कभी रोते थे- इस रूपमें वे आश्रमोंमें बार-बार भिक्षा माँगते हुए इधर-उधर घूमने-फिरने लगे। इस प्रकारकी माया रचकर महादेवजी उस वनमें आये हुए थे ॥ २५-३०॥

मायां कृत्वा तथारूपां देवस्तद्वनमागतः । 
ततस्ते मुनयः सर्वे तुष्टुवुश्च समाहिताः ॥ ३१

अद्भिर्विविधमाल्यैश्च धूपैर्गन्धैस्तथैव च। 
सपत्नीका महाभागाः सपुत्राः सपरिच्छदाः ॥ ३२

मुनयस्ते तथा वाग्भिरीश्वरं चेदमब्रुवन्। 
अज्ञानाद्देवदेवेश यदस्माभिरनुष्ठितम् ॥ ३३

कर्मणा मनसा वाचा तत्सर्वं क्षन्तुमर्हसि। 
चरितानि विचित्राणि गुह्यानि गहनानि च ।। ३४

तदनन्तर वे सभी महाभाग मुनिगण अपनी स्त्रियों, पुत्रों तथा बन्धु-बन्धवोंसहित शुद्ध जल, विविध पुष्प- मालाओं, धूप, गन्ध आदि उपचारोंसे महादेवजीका एकाग्रचित्त होकर पूजन करके उनकी स्तुति करने लगे  पुनः वे सभी मुनि मधुर वाणीमें भगवान् शिवसे बोले- हे देवदेवेश! हम लोगोंने मन, वचन तथा कर्मसे जो भी आपके प्रति किया है, वह सब अज्ञानतावश किया है; अतएव आप सभी अपराधोंको क्षमा कीजिये  हे हर! आपके चरित्र अत्यन्त अद्भुत, गूढ़ तथा कठिन हैं। वे चरित्र ब्रह्मा आदि देवताओंके लिये भी दुर्जेय हैं॥ ३१ - ३४ ॥

ब्रह्मादीनां च देवानां दुर्विज्ञेयानि ते हर। 
अगतिं ते न जानीमो गतिं नैव च नैव च ॥ ३५

विश्वेश्वर महादेव योऽसि सोऽसि नमोऽस्तु ते। 
स्तुवन्ति त्वां महात्मानो देवदेवं महेश्वरम् ॥ ३६

हम आपकी अगति तथा गति कुछ भी नहीं जानते हैं और जान पाना सम्भव भी नहीं है। हेविश्वेश्वर! हे महादेव! आप जो कोई भी हो, आपको नमस्कार है। हम मुनिगण आप देवदेव महेश्वरकी स्तुति करते हैं ॥ ३५-३६ ॥

नमो भवाय भव्याय भावनायोद्भवाय च। 
अनन्तबलवीर्याय भूतानां पतये नमः ॥ ३७

संहत्रै च पिशङ्गाय अव्ययाय व्ययाय च।
गङ्गासलिलधाराय आधाराय गुणात्मने ॥ ३८

त्र्यम्बकाय त्रिनेत्राय त्रिशूलवरधारिणे। 
कन्दर्पाय हुताशाय नमोऽस्तु परमात्मने ॥ ३९

शङ्कराय वृषाङ्काय गणानां पतये नमः। 
दण्डहस्ताय कालाय पाशहस्ताय वै नमः ॥ ४०

भव, भव्य, भावन तथा उद्भवको नमस्कार है। अनन्त बल एवं वीर्यवाले और भूतोंके पतिको नमस्कार है जगत्‌ के संहारकर्ता, पिशंग वर्णवाले, अव्यय, व्यय, गंगाजलकी धारा धारण करनेवाले, जगत्‌के आधार, गुणात्मा, त्र्यम्बक, त्रिनेत्र, उत्तम त्रिशूल धारण करनेवाले, कन्दर्पस्वरूप तथा अग्निरूप परमात्मा शिवको नमस्कार हैहाथमें दण्ड तथा पाश धारण करनेवाले, कालरूप, गणोंके पति एवं वृषभध्वज शंकरको नमस्कार है ॥ ३७ - ४० ॥

वेदमन्त्रप्रधानाय शतजिह्वाय वै नमः। 
भूतं भव्यं भविष्यं च स्थावरं जङ्गमं च यत् ॥ ४१

तव देहात्समुत्पन्नं देव सर्वमिदं जगत् । 
पासि हंसि च भद्रं ते प्रसीद भगवंस्ततः ।। ४२

अज्ञानाद्यदि विज्ञानाद्यत्किञ्चित्कुरुते नरः । 
तत्सर्वं भगवानेव कुरुते योगमायया ।। ४३

एवं स्तुत्वा तु मुनयः प्रहृष्टरन्तरात्मभिः । 
याचन्त तपसा युक्ताः पश्यामस्त्वां यथा पुरा ।। ४४

ततो देवः प्रसन्नात्मा स्वमेवास्थाय शङ्करः । 
रूपं त्र्यक्षं च सन्द्रष्टुं दिव्यं चक्षुरदात्प्रभुः ।। ४५

लब्धदृष्ट्या तया दृष्ट्वा देवदेवं त्रियम्बकम् । 
पुनस्तुष्टुवुरीशानं देवदारुवनौकसः ।। ४६

वेदमन्त्रों में प्रधान रूपसे निरूपित तथा शत जिह्वावाले आप शिवको नमस्कार है। हे देव। भूत, भविष्य तथा वर्तमान जो कुछ भी है एवं स्थावर जंगममय यह सम्पूर्ण जगत् आपकी ही देहसे उत्पन्न हुआ है। आप ही जगत्‌का पालन तथा संहार करते हैं। अतएव है भगवन् । आपका मंगल हो और आप हमपर प्रसन्न हों। ज्ञान अथवा अज्ञानमें मनुष्य जो कुछ भी करता है, वह सब स्वयं आप परमेश्वर ही अपनी योगमायासे सम्पन्न करते हैं इस प्रकार तपस्यासे युक्त वे मुनिगण पुलकित अन्तरात्मासे शिवजीका स्तवन करके उनसे याचना करने लगे कि हे भगवन्! हम लोगोंने आपको पहले जिस रूपमें देखा था, उसी रूपमें आपका दर्शन करना चाहते हैं तब उनकी स्तुतिसे प्रसन्न मनवाले प्रभु शिवने अपना त्रिनेत्र-रूप दिखानेके लिये उन्हें दिव्य दृष्टि प्रदान की देवदारुवन में निवास करने वाले उन मुनियोंने उस प्राप्त दिव्य दृष्टिसे तीन नेत्रवाले देवाधिदेव शिवका दर्शन करके पुनः उनकी स्तुति की ॥ ४१ - ४६ ॥

।। इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे मुनिकृतं शिवस्तोत्रवर्णनं नामैकत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३१॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'मुनिकृतशिवस्तोत्रवर्णन' नामक इकतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३१ ॥

FAQs : देव दारुवन निवासियों द्वारा शिवाराधना पर प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1: देवदारुवनके निवासी मुनि भगवान शिवकी शरण कैसे प्राप्त हुए?

उत्तर: सनत्कुमार जी ने पूछा कि भगवान शिवके अनुग्रहसे देवदारुवनके निवासी तपस्वी किस प्रकार उनकी शरण में गए। इस पर शैलादि ने बताया कि ब्रह्माजी ने स्वयं उन मुनियोंसे कहा कि भगवान शिव ही सर्वोच्च पद हैं और उनकी आराधना करनी चाहिए।


प्रश्न 2: भगवान शिव का सृष्टि और प्रलय में क्या योगदान है?

उत्तर: भगवान शिव सृष्टि के रचयिता और प्रलयकाल में सभी प्राणियों के संहारक हैं। वे अपने तेज से सभी प्रजाओं का निर्माण करते हैं और सृष्टि के हर रूप में विद्यमान हैं। सत्ययुग में वे योगी, त्रेतायुग में यज्ञस्वरूप, द्वापर में कालाग्नि और कलियुग में धर्मकेतु कहलाते हैं।


प्रश्न 3: लिंग पूजन के लिए कौन-कौन से लक्षण आवश्यक हैं?

उत्तर: लिंग अंगुष्ठ के बराबर आकार का, गोलाकार, वर्तुलाकार, और शास्त्रसम्मत होना चाहिए। उसकी वेदिका दुगुनी आकार की होनी चाहिए और चारों ओर जौ के बराबर पट्टिका होनी चाहिए। लिंग स्वर्ण, चाँदी, ताँबे या पत्थर का हो सकता है।


प्रश्न 4: लिंग प्रतिष्ठा और पूजा कैसे की जानी चाहिए?

उत्तर: विधिपूर्वक लिंग प्रतिष्ठा के बाद वेदी के मध्य में पंचाक्षर मंत्र और अन्य शुभ मंत्रों से अभिमंत्रित कलश स्थापित करना चाहिए। इसके बाद पवित्र मंत्रों से लिंग का अभिषेक करें और यथालाभ उपचारों से पूजन करें।


प्रश्न 5: मुनियों ने शिवाराधना के लिए किस प्रकार की तपस्या की?

उत्तर: मुनियों ने विभिन्न स्थानों जैसे पर्वतों की गुफाओं, नदियों के तटों और शैवालयुक्त स्थानों पर आराधना की। कुछ मुनि जल के भीतर तपस्या करते थे, कुछ दर्भ की शैय्या पर, और कुछ पैर के अंगूठे पर खड़े होकर तप करते थे।


प्रश्न 6: महादेव की आराधना से मुनियों को क्या सिद्धि प्राप्त हुई?

उत्तर: महादेव की आराधना से मुनियों को शिवजी का दुर्लभ दर्शन प्राप्त हुआ। शिवजी के दर्शन से उनका अज्ञान और अधर्म नष्ट हो गया, और उन्हें परम सिद्धि प्राप्त हुई।


प्रश्न 7: भगवान शिव की आराधना का प्रमुख फल क्या है?

उत्तर: भगवान शिव की आराधना करने से अज्ञान और अधर्म का नाश होता है। भक्तजन शिवजी की कृपा से सर्वोच्च पद को प्राप्त करते हैं, जो सभी कामनाओं की पूर्ति करने वाला होता है।

टिप्पणियाँ