लिंग पुराण : शिवाराधना के माहात्म्य में एवेतमुनि का आख्यान | Linga Purana: White sage's narration in the importance of Shiva worship

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तीसवाँ अध्याय

शिवाराधना के माहात्म्य में एवेतमुनि का आख्यान

शेलादिस्वाच 

एवमुक्तास्तदा तेन ब्रह्मणा ब्राह्मणर्षभा:। 
श्वेतस्थ च कथां पुण्यामपृच्छन्‌ परमर्षय:॥ ९

पितामह उवाच 

श्वेतो नाम मुनिः श्रीमान्‌ गतायुर्गिरिगहरे। 
सक्तो ह्भ्यर्च्य यद्धक्त्या तुष्टाव च महेश्वरम्‌॥ २ 

रुद्राध्यायेन पुण्येन नमस्तेत्यादिना द्विजा:। 
तत: कालो महातेजा: कालप्राप्तं द्विजोत्तमम्‌॥ ३ 

नन्दिकेश्वर बोले--तत्पश्चात्‌ उन ब्रह्माजी के इस प्रकार कहने पर द्विजश्रेष्ठ महर्षियोंने उनसे श्वेतमुनिकी पुण्यप्रद कथा पूछी पितामह बोले--समाप्त आयुवाले श्वेत नामक एक श्रीयुक्त मुनि गिरिकी गुफामें शिवाराधनमें रत थे। हे द्विजो! “नमस्ते रुद्र मन्यवे' इत्यादि रुद्राध्यायसे भक्तिपूर्वक महेश्वरका आराधना करके रवेतमुनिने उन्हें, प्रसन्‍न कर लिया
हे विप्रेन्द्रों! तदनन्तर द्विजोंमें श्रेष्ठ श्वेतमुनि को समाप्त आयुवाला जानकर उन्हें ले जानेके लिये महातेजस्वी काल मुनिके पास पहुँचा॥ १ - ३॥

नेतुं सज्चिन्त्य विप्रेन्द्राः सान्ध्यमकरोन्मुने: । 
श्वेतोपि दृष्ट्वा तं काल कालप्राप्तोपि शड्भूरम्‌ ॥ ४

पूजयामास पुण्यात्मा त्रियम्बकमनुस्मरन् ।
त्रियम्बकं यजेदेवं सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ।। ५

किं करिष्यति मे मृत्युर्मृत्योर्मुत्युरहं यतः । 
तं दृष्ट्वा सस्मितं प्राह श्वेतं लोकभयङ्करः ॥ ६

एहोहि श्वेत चानेन विधिना किं फलं तव। 
रुद्रो वा भगवान् विष्णुर्ब्रह्मा वा जगदीश्वरः ॥ ७

कः समर्थः परित्रातुं मया ग्रस्तं द्विजोत्तम। 
अनेन मम किं विप्र रौद्रेण विधिना प्रभोः ॥ ८

नेतुं यस्योत्थितश्चाहं यमलोकं क्षणेन वै। 
यस्माद् गतायुस्त्वं तस्मान्मुने नेतुमिहोद्यतः ॥ ९

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा भैरवं धर्ममिश्रितम् । 
हा रुद्र रुद्र रुद्रेति ललाप मुनिपुङ्गवः ॥ १०

तं प्राह च महादेवं कालं सम्प्रेक्ष्य वै दृशा। 
नेत्रेण बाध्यमिश्रेण सम्भ्रान्तेन समाकुलः ॥ ११

सन्निकट मृत्युवाले पुण्यात्मा श्वेतमुनि भी उस कालको देखकर त्रिनेत्र शिवका स्मरण करते हुए उनकी आराधना करने लगे। वे ऐसा कहते हुए ध्यानपरायण थे कि जब मैं सुखकर सम्बन्धवाले तथा जगत्‌का पोषण करनेवाले त्रिनेत्र शिवका यजन कर रहा हूँ, तो मृत्यु मेरा क्या कर लेगी; क्योंकि मैं तो कालका भी काल हूँ उन श्वेतमुनिको देखकर लोकोंको भयभीत करनेवाला वह काल मुसकराकर उनसे बोला-हे श्वेत। अब तुम मेरी और आओ इस पूजा-पाठ आदिसे तुम्हें क्या लाभ। हे द्विजवर! भगवान् विष्णु, ब्रह्मा अथवा जगदीश्वर रुद्र-इनमें भला कौन मेरे द्वारा ग्रास बनाये गये जीवको बचा सकनेमें समर्थ है? हे विद्र! यह रुद्रपूजा मुझ शक्तिमान्‌का क्या कर सकती है? जिस किसीको भी ले जानेके लिये मैं उठ खड़ा होता हूँ, उसे क्षणभरमें यमलोक पहुँचा देता हूँ। है मुने। क्योंकि तुम समाप्त आयुवाले हो चुके हो, अतः तुम्हें ले जानेहेतु मैं यहाँ आया हूँ  उस कालका वह धर्ममिश्रित भयावह वचन सुनकर मुनिवर श्वेत 'हा रुद्र। हा रुद्र। हा रुद्र।' कहकर विलाप करने लगे और अनुपूरित तथा व्याकुल नेत्रोंसे एवं कातर दृष्टिसे शिवलिङ्गको निहारते हुए अत्यन्त व्यग्रचित्त होकर उस कालसे कहने लगे - ॥ ४-११॥ 

श्वेत उवाच

त्वया किं काल नो नाथश्चास्ति चेद्धि वृषध्वजः । 
लिङ्गेऽस्मिन् शङ्करो रुद्रः सर्वदेवभवोद्भवः ॥ १२

अतीव भवभक्तानां मद्विधानां महात्मनाम् । 
विधिना किं महाबाहो गच्छ गच्छ यथागतम् ॥ १३

ततो निशम्य कुपितस्तीक्ष्णदंष्ट्रो भयङ्करः । 
श्रुत्या श्वेतस्य तद्वाक्यं पाशहस्तो भयावहः ।। १४

सिंहनादं महत्कृत्वा चास्फाट्य च मुहुर्मुहुः । 
बबन्ध च मुनिं कालः कालप्राप्तं तमाह च ।। १५

श्वेतमुनि बोले- हे काल! तुम मेरा क्या बिगाड़ सकते हो; क्योंकि सभी देवताओंको उत्पन्न करने वाले हमारे स्वामी वृषध्वज शंकर रुद्र इस लिङ्गमें विराजमान हैं विधि का विधान शिवजीके प्रति अतिशय भक्ति रखनेवाले मुझसदृश महात्माओंका क्या कर सकता है? अतएव हे महाबाहो! आप जिस प्रकार आये थे, उसी प्रकार चले जाइये  तदनन्तर श्वेतमुनि का वैसा वचन सुनकर हाथ में पाश धारण किये, तीक्ष्ण दाढ़‌वाले भयंकर कालने कुपित होकर सिंहके सदृश घोर गर्जना करते हुए तथा पाशको बार-बार फटकारते हुए काल-प्राप्त मुनिको बाँध दिया और पुनः उनसे कहा- ॥ १२-१५ ॥

मया बद्धोऽसि विप्रर्षे श्वेतं नेतुं यमालयम् । 
अद्य वै देवदेवेन तव रुद्रेण किं कृतम् ॥ १६

क्व शर्वस्तव भक्तिश्च क्व पूजा पूजया फलम्। 
क्व चाहे क्व च मे भीतिः श्वेत बद्धोऽसि वै मया ।। १७

लिङ्गेऽस्मिन् संस्थितः श्वेत तव रुद्री महेश्वरः । 
निश्चेष्टोऽसौ महादेवः कथं पूज्यो महेश्वरः ॥ १८

ततः सदाशिवः स्वयं द्विजं निहन्तुमागतम्। 
निहन्तुमन्तकं स्मयन् स्मरारि यज्ञहा हरः ॥ १९

त्वरन् विनिर्गतः परः शिवः स्वयं त्रिलोचनः । 
त्रियम्बकोऽम्बया समं सनन्दिना गणेश्वरैः ॥ २०

हे विप्रर्षे। तुम श्वेतको यमलोक ले जानेके निमित्त मैंने बाँध दिया है; किंतु तुम्हारे देवाधिदेव रुद्रने इस समय तुम्हारी क्या सहायता की? कहाँ शिव, कहाँ तुम्हारी भक्ति तथा पूजा, कहाँ पूजाका फल और कहाँ मैं एवं मेरा भय! हे श्वेत! अब तुम मेरे द्वारा बाँध दिये गये हो। हे श्वेत! तुम्हारा महेश्वर रुद्र जो इस लिङ्गमें स्थित है, वह महादेव तो निश्चेष्ट है; तो फिर तुम उस महेश्वरकी पूजा क्यों करते हो ? तत्पश्चात् मुनिका प्राण हरनेके निमित्त आये हुए कालका संहार करनेके लिये कामदेवके शत्रु, दक्ष यज्ञके विध्वंसक तथा त्रिनेत्र सदाशिव महादेव शंकर अपने नन्दी, गणेश्वरों और पार्वतीसहित मुसकराते हुए शीघ्रतापूर्वक शिवलिङ्गसे साक्षात् प्रकट हुए ॥ १६-२० ॥

ससर्ज जीवितं क्षणाद्धवं निरीक्ष्य वै भयात्। 
पपात चाशु वै बली मुनेस्तु सन्निधौ द्विजाः ॥ २१

ननाद चोर्ध्वमुच्चधीर्निरीक्ष्य चान्तकान्तकम् । 
निरीक्षणेन वै मृतं भवस्य विप्रपुङ्गवाः ॥ २२

विनेदुरुच्चमीश्वराः सुरेश्वरा महेश्वरम्। 
प्रणेमुरम्बिकामुमां मुनीश्वरास्तु हर्षिताः ॥ २३

ससर्जुरस्य मूर्छिन वै मुनेर्भवस्य खेचराः। 
सुशोभनं सुशीतलं सुपुष्पवर्षमम्बरात् ॥ २४

अहो निरीक्ष्य चान्तकं मृतं तदा सुविस्मितः । 
शिलाशनात्मजोऽव्ययं शिवं प्रणम्य शङ्करम् ॥ २५

उवाच बालधीर्मृतः प्रसीद चेति वै मुनेः। 
महेश्वरं महेश्वरस्य चानुगो गणेश्वरः ॥ २६

ततो विवेश भगवाननुगृह्य द्विजोत्तमम् । 
क्षणाद् गूढशरीरं हि ध्वस्तं दृष्ट्‌वान्तकं क्षणात् ॥ २७

हे द्विजो! शिवजीको देखते ही उसी क्षण भयके कारण वह बलवान् काल श्वेतमुनिके पास शीघ्र हो गिर पड़ा और कालका भी अन्त करनेवाले शिवजीको देखकर जोरसे चिल्लाया। है उत्तम विप्रो! मृतप्राय उस कालको शिवजीने अपने कृपावलोकनसे जीवन प्रदान कर दिया सभी महान् देवतागण तथा मुनिवृन्द महेश्वर एवं माता पार्वतीको प्रणाम करने लगे और हर्षित होकर उच्च स्वरमें 'जय हो-जय हो' ऐसा बोलने लगे। नभोमण्डलमें स्थित देवसमुदाय इन श्वेतमुनि तथा शंकरजीके सिरपर आकाशसे अत्यन्त सुन्दर, शीतल तथा सुगन्धित पुष्पोंकी वर्षा करने लगे तत्पश्चात् शिलादके पुत्र तथा शिवजीके अनुचर गणेश्वर नन्दीजी कालको मरा हुआ देखकर अत्यन्त विस्मित हुए और उन्होंने अविनाशी महेश्वर शिवको प्रणामकर उनसे कहा कि यह अल्पबुद्धि काल मर चुका है; अब आप इस काल और मुनि-दोनोंपर अनुग्रह कीजिये तत्पश्चात् क्षणभरमें ही मृत होकर पृथ्वीपर गिरे कालको देखकर उसके तथा द्विजश्रेष्ठ श्वेत-दोनों के ऊपर अनुग्रह करके भगवान् शंकर तत्काल गुप शरीरमें समाविष्ट हो गये ॥ २१- २७॥ 

तस्मान्मृत्युञ्जयं चैव भक्त्या सम्पूजयेद् द्विजाः । 
मुक्तिदं भुक्तिदं चैव सर्वेषामपि शङ्करम् ॥ २८

बहुना किं प्रलापेन संन्यस्याभ्यर्च्य वै भवम् । 
भक्त्या चापरया तस्मिन् विशोका वै भविष्यथ ।। २९

शैलादिरुवाच

एवमुक्तास्तदा तेन ब्रह्मणा ब्रह्मवादिनः। 
प्रसीद भक्तिर्देवेशे भवेद्रुद्रे पिनाकिनि ॥ ३०

केन वा तपसा देव यज्ञेनाप्यथ केन वा। 
व्रतैर्वा भगवद्भक्ता भविष्यन्ति द्विजातयः ॥ ३१

अतएव हे द्विजो। सभीको मोक्ष तथा भोग प्रदान करनेवाले मृत्युंजय महादेवकी भक्तिपूर्वक पूजा करनी चाहिये  [हे मुनियो!] अधिक क्या कहूँ; संन्यासधर्मका पालन करते हुए परम श्रद्धाके साथ उन महादेवकी आराधना करनेसे तुम सब सन्तापरहित हो जाओगे नन्दीश्वर बोले- [हे सनत्कुमारजी !] तत्पश्चात् उन ब्रह्माके इस प्रकार कहनेपर ब्रह्मवेत्ता मुनिगण बोले हे देव। आप प्रसन्न हों और हमें बतायें कि किस तपस्या, किस यज्ञ अथवा किन व्रतोंसे पिनाकधारी देवेश्वर रुद्रके प्रति हमलोगोंमें भक्ति उत्पन्न होगी तथा हम द्विजगण शिवभक्त हो सकेंगे ? ॥ ३०-३१॥

पितामह उवाच

न दानेन मुनिश्रेष्ठास्तपसा च न विद्यया।
यज्ञैहों मैर्वतैर्वेदैर्योगशास्त्रैर्निरोधनैः॥ ३२

प्रसादेनैव सा भक्तिः शिवे परमकारणे। 
अथ तस्य वचः श्रुत्वा सर्वे ते परमर्षयः ॥ ३३

सदारतनयाः श्रान्ताः प्रणेमुश्च पितामहम् । 
तस्मात्पाशुपती भक्तिर्धर्मकामार्थसिद्धिदा ॥ ३४

मुनेर्विजयदा चैव सर्वमृत्युजयप्रदा। 
दधीचस्तु पुरा भक्त्या हरिं जित्वामरैर्विभुम् ।। ३५

क्षुपं जघान पादेन वज्रास्थित्वं च लब्धवान् । 
मयापि निर्जितो मृत्युर्महादेवस्य कीर्तनात् ॥ ३६

श्वेतेनापि गतेनास्यं मृत्योर्मुनिवरेण तु। 
महादेवप्रसादेन जितो मृत्युर्यथा मया ॥ ३७

ब्रह्माजी बोले- हे मुनिवरो। दान, तप, विद्या, यज्ञ, होम, व्रत, वेदाध्ययन, शास्त्रपारायण, योग साधन तथा इन्द्रिय-नियन्त्रण आदि उपायोंसे शिव-भक्ति सम्भव नहीं है। केवल उनकी कृपासे ही जगतु‌के परम कारण महादेव के प्रति वह भक्ति उत्पन्न होती है इसके बाद उन ब्रह्माका वचन सुनकर परिश्रान्त हुए उन सभी श्रेष्ठ ऋषियोंने स्त्री तथा पुत्रोंसहित ब्रह्माजीको प्रणाम किया  अतएव [हे सनत्कुमार!] यह शैवी भक्ति धर्म, काम, अर्थ तथा सभी सिद्धियाँ प्रदान करनेवाली है और सभी प्रकारकी मृत्युसे विजय दिलानेवाली है। यह शिव- भक्ति मुनि दधीचके लिये विजयदायिनी सिद्ध हुई थी। पूर्व कालमें दधीचमुनिने शिवकी भक्तिसे ही देवताओंसहित सर्वशक्तिमान् विष्णुको जीतकर अपने चरणसे राजा क्षुपपर प्रहार किया और अपनी हड्डियोंमें वज्रत्व प्राप्त कर लिया था। महादेवकी आराधनासे मैंने भी मृत्युपर विजय प्राप्त कर ली है और जिस प्रकार मैंने मृत्युको जीता है, उसी प्रकार मृत्युके मुखमें गये हुए मुनिवर श्वेतने भी शिवजीकी कृपासे मृत्युको जीत लिया था ॥ ३२-३७॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे शिवाराधनमहिमवर्णनं नाम त्रिंशोऽध्यायः ॥ ३० ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'शिवाराधनमहिमवर्णन' नामक तीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३० ॥

FAQs:- शिवाराधना के माहात्म्य में एवेतमुनि का आख्यान

प्रश्न 1: श्वेत मुनि कौन थे और वे क्या कर रहे थे?

उत्तर: श्वेत मुनि एक श्रीयुक्त तपस्वी थे, जो अपनी आयु के अंतिम समय में गिरि की गुफा में महेश्वर शिव की आराधना में लीन थे। वे "नमस्ते रुद्र मन्यवे" इत्यादि रुद्राध्याय से शिव की पूजा करते हुए उनका स्मरण कर रहे थे।


प्रश्न 2: काल मुनि के पास क्यों आया और उसने क्या कहा?

उत्तर: काल श्वेत मुनि को उनकी समाप्त आयु जानकर यमलोक ले जाने के लिए आया। उसने कहा कि भगवान विष्णु, ब्रह्मा, या स्वयं रुद्र भी काल द्वारा ग्रसित जीव को बचाने में असमर्थ हैं। उसने मुनि की पूजा को व्यर्थ बताते हुए उन्हें यमलोक ले जाने की घोषणा की।


प्रश्न 3: श्वेत मुनि ने काल को क्या उत्तर दिया?

उत्तर: श्वेत मुनि ने आत्मविश्वास से कहा कि शिवलिंग में वृषध्वज रुद्र निवास करते हैं और वे अपने भक्तों की रक्षा के लिए सदैव तत्पर रहते हैं। उन्होंने काल को लौट जाने के लिए कहा, क्योंकि वे महादेव के प्रति उनकी भक्ति और पूजन के प्रभाव पर अटल थे।


प्रश्न 4: काल ने श्वेत मुनि के साथ क्या किया?

उत्तर: काल ने मुनि के आत्मविश्वासपूर्ण वचन सुनकर क्रोधित होकर उन्हें अपने पाश से बांध लिया और मुनि की पूजा व शिव भक्ति का उपहास करते हुए उन्हें यमलोक ले जाने की बात कही।


प्रश्न 5: शिवजी ने श्वेत मुनि की रक्षा कैसे की?

उत्तर: शिवजी ने श्वेत मुनि की आराधना से प्रसन्न होकर त्रिनेत्र रूप में पार्वती, गणेश और नंदी के साथ शिवलिंग से प्रकट होकर काल का अंत कर दिया। शिवजी के कृपादृष्टि से काल मरा हुआ समझा गया और मुनि की पूजा का महत्व सिद्ध हुआ।


प्रश्न 6: देवताओं और मुनियों की प्रतिक्रिया क्या थी?

उत्तर: देवताओं और मुनियों ने शिवजी और माता पार्वती को प्रणाम किया और उनकी महिमा का गुणगान किया। वे हर्षित होकर "जय हो" के उच्च स्वर में बोलने लगे और स्वर्ग से पुष्पवर्षा की।


प्रश्न 7: इस कथा से क्या शिक्षा मिलती है?

उत्तर: इस कथा से यह शिक्षा मिलती है कि सच्चे मन से की गई शिवाराधना भक्त की हर परिस्थिति में रक्षा करती है। महादेव अपने भक्तों के लिए काल का भी अंत कर सकते हैं। शिवभक्ति का फल अवश्य मिलता है।

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