लिंग पुराण : लिङ्गार्चन विधि के अन्तर्गत महेश्वर स्वरूप होकर विविध उपचारों द्वारा लिङ्ग पूजा का विधान | Linga Purana: Under the Lingacharana method, the method of worshiping the Linga by taking the form of Maheshwar and performing various treatments

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] सत्ताईसवाँ अध्याय

लिङ्गार्चन विधि के अन्तर्गत महेश्वर स्वरूप होकर विविध उपचारों द्वारा लिङ्ग पूजा का विधान , लिङ्गाभिषेक की महिमा तथा अभिषेक के मन्त्र

वक्ष्यामि श्रृणु सक्षेपाल्लिङ्गार्चनविधिक्रमम् । 
वक्तुं वर्षशतेनापि न शक्यं विस्तरेण यत् ॥ १

एवं स्नात्वा यथान्यायं पूजास्थानं प्रविश्य च। 
प्राणायामत्रयं कृत्वा ध्यायेदेवं त्रियम्बकम् ॥ २

पञ्चवक्त्रं दशभुजं शुद्धस्फटिकसन्निभम्। 
सर्वाभरणसंयुक्तं चित्राम्बरविभूषितम् ।। ३

शैलादि बोले [हे सनत्कुमार।] सुनिये, अब मैं संक्षेप में हो क्रमसे लिङ्गार्चन-विधि का वर्णन करूंगा; क्यों कि विस्तार के साथ इस का वर्णन तो सौ वर्षों में भी नहीं किया जा सकता है इस विधि से नियम पूर्वक (त्रिविध जल, भस्म एवं मन्त्रसे) स्नानकर पूजा के स्थान पर प्रवेश करके तीन प्राणायाम कर त्रिनेत्र, पंचमुख, दश भुजाओंवाले, शुद्ध स्फटिकतुल्य वर्णवाले, सभी आभूषणों से अलंकृत तथा विचित्र वस्त्र से विभूषित शिव का ध्यान करना चाहिये ॥ २-३॥

तस्य रूपं समाश्रित्य दाहनप्लावनादिभिः । 
शैवीं तनुं समास्थाय पूजयेत्परमेश्वरम् ॥ ४

देहशुद्धिं च कृत्वैव मूलमन्त्रं न्यसेत्क्रमात्। 
सर्वत्र प्रणवेनैव ब्रह्माणि च यथाक्रमम् ॥ ५

सूत्रे नमः शिवायेति छन्दांसि परमे शुभे। 
मन्त्राणि सूक्ष्मरूपेण संस्थितानि यतस्ततः ॥ ६

न्यग्रोधबीजे न्यग्रोधस्तथा सूत्रे तु शोभने।
 महत्यपि महद्‌ ब्रह्म संस्थितं सूक्ष्मवत्स्वयम्‌॥ ७

उनके इस रूपका ध्यानकर दाहन तथा प्लावन आदि भूतशुद्धिकी क्रियासे युक्त शैवी देहको हृदयमें स्थापित करके परमेश्वर शिवका पूजन करना चाहिये  इस प्रकार देहशुद्धि करके क्रमशः मूल मन्त्र प्रणवयुक्त [अघोरादि पंच] ब्रह्ममन्त्रोंसे देहके सभी अंगोंमें न्यास करे  परम कल्याणप्रद इस 'नमः शिवाय' सूत्रमें समस्त वेद तथा मन्त्र सूक्ष्मरूप में विद्यमान रहते हैं। जिस प्रकार वटके बीजमें विशाल वटवृक्षका भाव उपस्थित रहता है, उसी प्रकार इस पवित्र एवं महत्युक्त सूत्रमें महान्‌ ब्रह्म सूक्ष्मरूपसे साक्षात्‌ विराजमान है ॥४-७॥

सेचयेदर्चनस्थानं गन्धचन्दनवारिणा। 
द्रव्याणि शोधयेत्पश्चात्क्षालनप्रोक्षणादिभि: ॥ ८ 

क्षालनं प्रोक्षणं चैव प्रणबवेन विधीयते। 
प्रोक्षणी चार्घ्यपात्रं चर पाद्यपात्रमनुक्रमात्‌॥ ९

तथा ह्याचमनीयार्थ कल्पितं पात्रमेव च। 
स्थापयेद्विधिना धीमानवगुण्ठ्य यथाविधि॥ १०

दर्भराच्छादयेच्चैव प्रोक्षयेच्छुद्धवारिणा। 
तेषु तेष्वथ सर्वेषु क्षिपेत्तोयं सुशीतलम्‌॥ ११

पूजा के स्थानको गन्ध तथा चन्दनसे युक्त जलके द्वारा सेचित करना चाहिये; पुनः: सभी पूजनद्रव्योंको क्षालन, प्रोक्षण आदिसे शोधित कर लेना चाहिये। क्षालन तथा प्रोक्षण प्रणवसे ही किया जाता है विवेकी पुरुषको चाहिये कि वह प्रोक्षणीपात्र, अर्घ्यपात्र, पाद्यपात्र तथा आचमनपात्रको भलीभाँति अनुक्रमसे स्थापित करे और फिर विधि पूर्वक अवगुंठन करे। पुन: उन सभी पात्रों में शुद्ध एवं शीतल जल डालकर उन्हें कुशोंसे ढककर उनपर शुद्ध जलका प्रोक्षण करना चाहिये॥ ८-११॥ 

प्रणवेन क्षिपेत्तेषु द्रव्याण्यालोक्य बुद्धिमान । 
उशीरं चन्दनं चैव पाद्ये तु परिकल्पयेत्‌॥ १२

जातिकटड्डलोलकर्पूरबहुमूलतमालकम्‌ । 
चूर्णयित्वा यथान्यायं क्षिपेदाचमनीयके ॥ १३

एवं सर्वेषु पात्रेषु दापयेच्चन्दन॑ तथा। 
कर्पूरं च यथान्यायं पुष्पाणि विविधानि च॥ १४

कुशाग्रमक्षतांश्चैव यवव्नीहितिलानि च। 
आज्यसिद्धार्थपुष्पाणि भसितं चार्घ्यपात्रके ॥ १५

तत्पश्चात्‌ बुद्धिमान्‌ पुरुषको उन पात्रोंमें भलीभाँति देखकर विभिन्‍न द्रव्य प्रणवपूर्वक डालने चाहिये। पाद्यपात्रमें उहशीर तथा चन्दन डाले और जाति, कंकोल, कंपूर, शतावरी एवं तमालका चूर्ण बनाकर इन्हें उचित मात्रामें आचमनीय पात्रमें डाले। चंदन, कपूर तथा विविध प्रकारके पुष्प सभी पात्रोंमें डालने चाहिये॥ १२--१४॥

कुशपुष्पयवत्रीहिबहुमूलतमालकम्‌ । 
दापयेत्प्रोक्षणीपात्रे भसितं प्रणवेन च॥१६

न्यसेत्पज्चाक्षर॑चैव गायत्रीं रुद्रदेवताम्‌। 
केवलं प्रणवं वापि वेदसारमनुत्तमम्‌॥ १७

अथ सपम्प्रोक्षयेत्पश्चाद्‌ द्रव्याणि प्रणवेन तु। 
प्रोक्षणीपात्रसंस्थेन ईशानादैश्च पठ्चभिः॥ १८

कुशका अग्रभाग, अक्षत, यव, धान, तिल, घी, सफेद सरसों, पुष्प तथा भस्म--इन्हें अर्घ्यपात्रमें डालना चाहिये। कुश, पुष्प, यव, धान, शतावरी, तमाल एवं भस्म- इन द्र॒व्योंको प्रणवसे प्रोक्षणीपात्रमें डालना चाहिये तत्पश्चातू पदञ्माक्षर मन्त्र, रुद्रगायत्री अथवा केवल वेदसाररूप सर्वोत्तम प्रणवसे इन पात्रोंको अभिमन्त्रित करना चाहिये॥ १६ - १७॥

पाए्व॑तो देवदेवस्थ नन्दिनं मां समर्चयेत्‌। 
दीप्तानलायुतप्रख्य॑ त्रिनेत्रं त्रिदशेश्वरम्‌॥ १९

बालेन्दुमुकुर्ट चेव हरिवक्त्र' चतुर्भुजम्‌। 
पुष्पमालाधरं सौम्य॑ सर्वाभरणभूषितम्‌॥ २०

उत्तरे चात्मनः पुण्यां भार्यां च मरुतां शुभाम्‌। 
सुयशां सुत्रतां चाम्बापादमण्डनतत्पराम्‌॥ २१

इसके अनन्तर प्रणवयुक्त ईशान ( ईशान: सर्वविद्यानाम्‌० ) आदि पाँच याजुष मन्त्रोंसे प्रोक्षणीपात्रमें स्थित जलके द्वारा सभी पूजनद्रव्यों का प्रोक्षण करे पुनः देवदेव शिवजीके दाहिनी ओर स्थित हजारों देदीप्पमान अग्निके सदृश वर्णवाले, बालचन्द्रमाको मुकुटरूपमें सिरपर धारण करनेवाले, वानरके तुल्य मुखवाले, चार भुजाओंवाले, पुष्पकी माला धारण करनेवाले,सौम्य स्वरूपवाले तथा सभी अल सुशोभित मुझ त्रिनेत्र नन्दीका विधिवत्‌ पूजन करना चाहिये। पुनः उत्तरभागमें विराजमान पुण्यमयी, स्वर्ण सदृश आभावाली, सुन्दर, कीर्तिशालिनी, पतिव्रता एवं माता पार्वतीके चरणोंके मण्डनमें सतत तत्पर रहनेवाली देवीरूपिणी मेरी भार्याका पूजा करनी चाहिये॥ १९--२१॥

एवं पूज्य प्रविश्यान्तर्भवनं॑ परमेष्ठिन: । 
दत्त्वा पुष्पाज्ञलिं भक्त्या पञ्चमूर्धसु पड्चभि: ॥ २२

गन्धपुष्पैस्तथा धूपैविविधे: पूज्य शड्डूरम्‌। 
स्कन्दं विनायकं देवीं लिड्रशुद्धिं च कारयेतू॥ २३

जप्त्वा सर्वाणि मन्त्राणि प्रणवादिनमोन्तकम्‌। 
कल्पयेदासनं पश्चात्पद्माख्यं प्रणवेन तत्‌॥ २४

तस्य॒ पूर्वदलं॑ साक्षादणिमामयमक्षरम्‌। 
लघिमा दक्षिणं चेव महिमा पश्चिमं तथा॥ २५

प्राप्तिस्तथोत्तरं पत्र॑ प्राकाम्यं पावकस्य तु। 
ईशित्वं नैर््त॑ पत्र वशित्व॑ वायुगोचरे॥ २६

सर्वज्ञत्व॑ तथैशान्यं कर्णिका सोम उच्यते। 
सोमस्याधस्तथा सूर्यस्तस्याध: पावक: स्वयम्‌॥ २७

धर्मादयो विदिक्ष्वेते त्वनन्तं कल्पयेत्क्रमात्‌। 
अव्यक्तादिचतुर्दिक्षु सोमस्यान्ते गुणत्रयम्‌॥ २८

आत्मत्रयं ततश्चोर्ध्व॑ तस्यान्ते शिवपीठिका। 
सद्योजात॑ प्रपद्यामीत्यावाह्य परमेश्वरम्‌॥ २९

इस प्रकार हम दोनोंकी पूजा करके परमेष्ठी शिवके मन्दिर में प्रवेशकर शिव जी के पाँचों मस्त कों पर सद्योजात आदि पाँच मन्त्रोंसे भक्तिपूर्वक पुष्पा्नलि अर्पित करनी चाहिये। पुनः गन्ध, पुष्प, धूप तथा विविध उपचारोंसे शंकर, कार्तिकिय, गणेशजी एवं पार्ववीकी पूजा करके शिवलिज्गका निर्माल्य (अर्पित चढ़ावेका अवशेष) दूरकर लिड्गकी शुद्धि करनी चाहिये पुनः सभी मन्त्रोंके आदिमें प्रणण तथा अन्तमें 'नम:' लगाकर जप करनेके पश्चात्‌ परमेश्वर को प्रणवमन्त्र के द्वारा अष्टदटल-कमलरूप आसन निवेदित करना चाहिये उस आसन का पूर्वदल अविनाशी तथा साक्षात्‌ अणिमासिद्धिस्वरूप है। उसका दक्षिणदल लघिमा, पश्चिमदल महिमा, उत्तरदल प्राप्ति, अग्निकोणका दल प्राकाम्य, नेरत्यकोणका दल ईशित्व, वायव्यकोणका दल वशित्व एवं ईशानकोणका दल सर्वज्ञत्वसिद्धिरूप है। उस पद्मासनकी कर्णिका (मध्यभाग) सोममण्डल कही जाती है। सोम मण्डल के नीचे सूर्यमण्डल तथा उसके भी नीचे साक्षात्‌ अग्निमण्डल है चारों उपदिशाओं (आग्नेय, नैर्क्रत्य, वायव्य तथा ईशान) -में धर्म आदि (धर्म, ज्ञान, वैराग्य एवं ऐश्वर्य), पूर्वाद चारों दिशाओं (पूर्व, दक्षिण, पश्चिम तथा उत्तर)-में अव्यक्तादि (अव्यक्त, महत्तत्त्व, अहंकार एवं चित्त), सोममण्डलके ऊपर तीन गुण (सत्त्व, रज, तम), ऊपर तीन आत्माएँ (विश्व, तैजस तथा प्राज्ञ) और उसके ऊपर शिवपीठिका विराजमान है; ऐसे अनन्त-स्वरूप आसनकी कल्पना करनी चाहिये॥ २१ - २९॥

वामदेवेन मन्त्रेण स्थापयेदासनोपरि। 
सान्निध्यं रुद्रगायत्या अघोरेण निरुद्धय च॥ ३०

ईशान: सर्वविद्यानामिति मन्त्रेण पूजयेत्‌। 
पाद्यमाचमनीयं च विभोश्चार्ध्य प्रदापयेत्‌॥ ३९

स्नापयेद्विधिना रुद्रं गन्धचन्दनवारिणा। 
पञ्चगव्यं विधानेन गृह्य पात्रेडभिमन्य च॥ ३२

प्रणवेनेव गव्यैस्तु स्नापयेच्य यथाविधि। 
आज्येन मधुना चैव तथा चेक्षुसेन च॥३३

पुण्येद्रव्यर्महादेवं प्रणवेनाभिषेचयेत्‌ । 
जलभाण्डै: पवित्नैस्तु मन्त्रैस्तोयं क्षिपेत्तत:॥ ३४

शुद्धि कृत्वा यथान्यायं सितवस्त्रेण साधक: । 
कुशापामार्गकर्पूरजातिपुष्पकचम्पकै: ॥३५

करवाीरै: सितेश्चेव मल्लिकाकमलोत्पलै: | 
आपूर्य पुष्पै: सुशुभे: चन्दनाद्ैश्च तजजलम्‌॥ ३६

न्यसेन्मन्त्राणि तत्तोये सद्योजातादिकानि तु। 
सुवर्णकलशेनाथ तथा वै राजतेन वा॥ ३७

ताप्रेण पद्मपत्रेण पालाशेन दलेन वा। 
शद्ठडेन मृन्मयेनाथ शोधितेन शुभेन वा॥ ३८

सकूर्चेन सपुष्पेण स्नापयेन्मन्त्रपूर्वकम्‌। 
मन्त्राणि ते प्रवक्ष्यामि श्रुणु सर्वार्थसिद्धये॥ ३९

यैलिड्रं सकृदप्येवं स्नाप्य मुच्येत मानवः। 
पवमानेन मन्त्रज्ञा: तथा वामीयकेन च।॥ ४०

रुद्रेण नीलरुद्रेण श्रीसूक्तेन शुभेन च। 
रजनीसूक्तकेनेव. चमकेन शुभेन च॥ ४१

पुनः 'सद्योजातं प्रपद्मामि० ' इस मन्त्रसे परमेश्वर शिवका आवाहन करके वामदेवमन्त्रसे आसनके ऊपर उन्हें स्थापित करे। फिर रुद्रगायत्री मन्त्रसे सान्निध्य, अघोर मन्त्रसे निरोधन तथा “ईशान: सर्वविद्यानाम्‌० ' इस मन्त्रसे शिवकी पूजा करे। पाद्य, अर्ध्य एवं आचमन परमेश्वरको अर्पित करे। पुन: गन्ध तथा चन्दनयुक्त जलसे उन्हें विधिपूर्वक स्नान कराये
इसके बाद पात्रमें विधिविधानसे पंचगव्य बनाकर उसे प्रणवसे अभिमन्त्रित करके पुन: प्रणवमन्त्रसे उस पंचगव्यसे शिवको विधिवत्‌ स्नान कराये। इसके अनन्तर प्रणव तथा वेदमन्त्रोंका पाठ करते हुए गोघृतसे, मधुसे, इक्षुसससे एवं अन्य पवित्र द्र॒व्योंसे महादेवका अभिषेक करना चाहिये। इसके बाद पवित्र जलपात्रोंसे जल छोड़कर साधकको भलीभाँति शिवलिड़का प्रक्षालन (शुद्ध स्नान) कर लेना चाहिये इसके बाद साधकको श्वेत वस्त्रोंसे यथाविधि जलका शोधन करके स्वर्ण, चाँदी या ताम्रपात्र अथवा कमलपत्र, पलाशपत्र, शंख अथवा शोधित सुन्दर मृत्तिकापात्र लेकर उसे पूर्वोक्त शुद्ध जलसे पूर्ण कर लेना चाहिये। पुनः: उसमें कुश, अपामार्ग, कर्पूर, जातिपुष्प, चम्पा, श्वेत करवीर, मल्लिका, कमल, उत्पल आदि सुन्दर पुष्प, चन्दन आदि डालकर उस जलको सद्योजात आदि मन्त्रोंसे अभिमन्त्रित करके मन्त्रोच्चारके साथ उस जलकुम्भसे शिवजीका अभिषेक करना चाहिये [ नन्दीश्वर कहते हैं--हे सनत्कुमारजी !] अब मैं सभी मनोरथोंकी सिद्धि करनेवाले उन मन्त्रोंकी आपको बताऊँगा; जिनका पाठ करके एक बार भी शिवलिड्रका अभिषेक करनेसे मनुष्य भवबन्धनसे छूट जाता है [सूतजी बोले--] हे मन्त्रवेत्ता ऋषिगण ! पवमान (ऋग्वेदीय पावमानी ऋचाएँ), वामसूक्त (ऋक्‌० १।१६४), रुद्राध्याय (शुक्लयजुर्वेद अ० १६), अथर्ववेदीय नीलरुद्र (११। २), पवित्र श्रीसूक्त (ऋग्वेद), रात्रिसूक्त (ऋग्वेद), कल्याणप्रद चमक (यजुर्वेद अ०  (यजुर्वेद), त्वरितरुद्र, कपि, कपर्दी, सामवेदीय आ वो राज० (मन्त्र-संख्या ६९), बृहच्चन्द्र, विष्णु, विरूपाक्ष, शिवकी सौ ऋचा, पंचब्रह्म (सद्योजातादि पाँच मन्त्र), नमः शिवाय तथा केवल प्रणवमन्त्रसे ही सभी पापोंके शमनहेतु देवदेवेश शिवका अभिषेक करना चाहिये ३० - ४१॥

होतारेणाथ शिरसा अथर्वेण शुभेन च। 
शान्त्या चाथ पुनः शान्त्या भारुण्डेनारुणेन च ॥ ४२

वारुणेन च ज्येष्ठेन तथा वेदव्रतेन च। 
तथान्तरेण पुण्येन सूक्तेन पुरुषेण च ॥ ४३

त्वरितेनैव रुद्रेण कपिना च कपर्दिना। 
आवोराजेति साम्ना तु बृहच्चन्द्रेण विष्णुना ।। ४४

विरूपाक्षेण स्कन्देन शतऋग्भिः शिवैस्तथा । 
पञ्चब्रहौश्च सूत्रेण केवलप्रणवेन च ॥ ४५

स्नापयेद्देवदेवेशं सर्वपापप्रशान्तये। 
वस्त्रं शिवोपवीतं च तथा ह्याचमनीयकम् ।। ४६

गन्धं पुष्पं तथा धूपं दीपमन्नं क्रमेण तु। 
तोयं सुगन्धितं चैव पुनराचमनीयकम् ॥ ४७

मुकुटं च शुभं छत्रं तथा वै भूषणानि च। 
दापयेत्प्रणवेनैव मुखवासादिकानि च ॥ ४८

ततः स्फटिकसङ्काशं देवं निष्कलमक्षरम् । 
कारणं सर्वदेवानां सर्वलोकमयं परम् ॥ ४९

ब्रह्मेन्द्रविष्णुरुद्राद्यैऋषिदेवैरगोचरम् 
वेदविद्धिर्हि वेदान्तैस्त्वगोचरमिति श्रुतिः ॥ ५०

आदिमध्यान्तरहितं भेषजं भवरोगिणाम्। 
शिवतत्त्वमिति ख्यातं शिवलिङ्गे व्यवस्थितम् ।। ५१

प्रणवेनैव मन्त्रेण पूजयेल्लिङ्गमूर्धनि। 
स्तोत्रं जपेच्च विधिना नमस्कारं प्रदक्षिणम् ॥ ५२

अर्घ्य दत्त्वाथ पुष्पाणि पादयोस्तु विकीर्य च। 
प्रणिपत्य च देवेशमात्मन्यारोपयेच्छिवम् ॥ ५३

एवं स‌ङ्क्षिप्य कथितं लिङ्गार्चनमनुत्तमम् । 
आभ्यन्तरं प्रवक्ष्यामि लिङ्गार्चनमिहाद्य ते ॥ ५४

१८), होतार, मंगलमय अथवॉशर, शान्ति, भारुण्ड अरुण, वारुण, ज्येष्ठ, वेदव्रत, आन्तर, पुण्यप्रद पुरुषसूक्त (यजुर्वेद), त्वरितरुद्र, कपि, कपर्दी, सामवेदीय आ बो राज० (मन्त्र-संख्या ६९), बृहच्चन्द्र, विष्णु, विरूपाक्ष, स्कन्द, शिवको सौ ऋचा, पंचब्रह्म (सद्योजातादि पाँच मन्त्र), नमः शिवाय तथा केवल प्रणवमन्त्रसे ही सभी पापोंके शमनहेतु देवदेवेश शिवका अभिषेक करना चाहिये तत्पश्चात् भगवान् शंकरको वस्त्र, यज्ञोपवीत, आचमनीय, गन्ध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य, सुगन्धित जल, पुनः आचमन, [रत्नजटित] मुकुट, सुन्दर छत्र, आभूषण तथा मुखवास (ताम्बूल) आदि उपचार प्रणव- मन्त्रक्रमसे अर्पित करना चाहिये इसके बाद स्फटिकके सदृश वर्णवाले, कलारहित, अविनाशी, समस्त देवताओंके भी कारण, सभी लोकोंमें व्याप्त, परात्पर, ब्रह्मा-विष्णु-इन्द्र रुद्र आदि देवताओं तथा देवर्षियोंसे अगम्य, श्रुतियोंके अनुसार वेदों एवं उपनिषदोंके ज्ञाताओंसे भी अगोचर, आदि- मध्य-अन्तसे रहित, भवरोगसे संतप्त प्राणियोंके लिये औषधरूप प्रसिद्ध शिवतत्त्व शिवलिङ्गमें प्रतिष्ठित है- इस प्रकारसे शिवलिङ्गमें महादेवका ध्यान करना चाहिये पुनः लिङ्गके शीर्षपर प्रणव मन्त्रसे पूजा करनी चाहिये और विधिपूर्वक स्तोत्रपाठ करके नमस्कार तथा प्रदक्षिणा करनी चाहिये। इसके बाद अर्घ्य प्रदान करके महादेवके चरणोंमें पुष्प अर्पितकर उन्हें साष्टांग प्रणाम करे एवं देवाधिदेव शिव मुझमें समाहित हैं- ऐसी भावना करे [हे सनत्कुमारजी!] इस प्रकार मैंने शिवलिङ्गके उत्तम पूजन-विधानका वर्णन संक्षेपमें कर दिया और अब आपको आभ्यन्तर लिङ्गार्चनविधि बताऊँगा ॥४२ - ५४ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे लिङ्गाचंनविधिर्नाम सप्तविंशोऽध्यायः ॥ २७॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'लिङ्गार्चनविधि' नामक सत्ताईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २७॥

लिंग पुराण [पूर्वभाग] सत्ताईसवाँ अध्याय पर प्रश्न-उत्तर

प्रश्न 1: लिंगार्चन विधि का वर्णन संक्षेप में कैसे किया गया है?

उत्तर: लिंगार्चन विधि का वर्णन संक्षेप में किया गया है क्योंकि इसका विस्तार सौ वर्षों में भी पूरा नहीं हो सकता। विधि में स्नान, प्राणायाम, त्रिनेत्र व पंचमुख शिव का ध्यान, और शरीर की शुद्धि के साथ लिंग पूजा की प्रक्रियाएँ शामिल हैं।


प्रश्न 2: शिव का ध्यान कैसे करना चाहिए?

उत्तर: शिव का ध्यान त्रिनेत्र, पंचमुख, दशभुज, शुद्ध स्फटिक समान वर्ण वाले, आभूषणों से अलंकृत और विचित्र वस्त्रों से विभूषित रूप में करना चाहिए।


प्रश्न 3: 'नमः शिवाय' सूत्र की क्या महिमा है?

उत्तर: 'नमः शिवाय' सूत्र में समस्त वेद और मंत्र सूक्ष्म रूप में विद्यमान हैं। इसे वट के बीज में समाए वटवृक्ष के समान बताया गया है। यह पवित्र सूत्र वेदों का सार और महान ब्रह्म का प्रतीक है।


प्रश्न 4: पूजन स्थल और पूजन सामग्री की शुद्धि कैसे करनी चाहिए?

उत्तर: पूजन स्थल को गंध-चंदन युक्त जल से सेचना चाहिए। पूजन सामग्री को प्रणव मंत्र से क्षालन (धोना) और प्रोक्षण (छिड़काव) करना चाहिए। इसके बाद, उन्हें शुद्ध और शीतल जल से शोधित करना चाहिए।


प्रश्न 5: अर्घ्य, पाद्य और आचमन पात्रों की व्यवस्था कैसे होनी चाहिए?

उत्तर: अर्घ्य, पाद्य, और आचमन पात्रों में उशीर, चंदन, पुष्प, कपूर, धान, तिल आदि पदार्थ डालने चाहिए। इन पात्रों को कुशा से ढककर शुद्ध जल का छिड़काव किया जाता है और उन्हें प्रणव मंत्रों से अभिमंत्रित किया जाता है।


प्रश्न 6: शिव के साथ अन्य किन देवताओं की पूजा का उल्लेख है?

उत्तर: शिव के साथ नंदी, स्कंद, विनायक, देवी पार्वती और अन्य देवताओं की पूजा का उल्लेख है। इनकी पूजा पुष्प, धूप और विविध उपचारों के द्वारा की जाती है।


प्रश्न 7: पूजा के लिए आसन का निर्माण कैसे करना चाहिए?

उत्तर: पूजा के लिए पद्माकार आसन का निर्माण किया जाता है। इसके विभिन्न भागों को सिद्धियों जैसे अणिमा, लघिमा, महिमा आदि के प्रतीक के रूप में माना जाता है। आसन के केंद्र में शिवपीठ की स्थापना होती है।


प्रश्न 8: शिव को आमंत्रित करने का मंत्र क्या है?

उत्तर: शिव को आमंत्रित करने के लिए "सद्योजातं प्रपद्यामि" मंत्र का उपयोग किया जाता है। यह मंत्र परमेश्वर शिव के स्वागत के लिए है।

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