लिंग पुराण : महर्षि दधीच एवं राजा क्षुपकी कथा तथा महामृत्युंजय मन्त्र की स्वरूपमी मांसा | Linga Purana: Story of Maharishi Dadhich and King Khushup and Swaroopami Mansa of Mahamrityunjaya Mantra

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] : पैंतीसवाँ अध्याय

महर्षि दधीच एवं राजा क्षुपकी कथा तथा महामृत्युंजयमन्त्रकी स्वरूपमी मांसा


सनत्कुमार उवाच

कथं जघान राजानं क्षुपं पादेन सुक्रत। 
दधीच: समरे जित्वा देवदेवं जनार्दनम्‌॥ ९

वज्रास्थित्वं कथं लेभे महादेवान्‌ महातपा:।
वक्तुमहसि शैलादे जितो मृत्युस्त्वया यथा॥ २

शैलादिस्वाच

ब्रह्मपुत्रो महातेजा राजा क्षुप इति स्मृतः।
अभून्मित्रो दधीचस्य मुनीन्द्रस्य जनेश्वरः ॥ ३

सनत्कुमार बोले--हे सुब्रत! मुनि दधीचने समरमें देवदेव नारायणको जीतकर राजा क्षुपके ऊपर अपने पैरसे प्रहार क्यों किया ? और उन महातपस्वीने महादेवजीसे अपनी हड्डियाँ वज़तुल्य होनेका वरदान किस प्रकार प्राप्त किया और हे नन्दीश्वर! जिस प्रकार आपने मृत्युपर विजय प्राप्त की, वह भी आप कृपा करके बताइये  नन्‍दी कहते हैं - ब्रह्माजी के पुत्र महान्‌ तेजवाले क्षुप नामक एक राजा हुए हैं। उन लोकपति क्षुपकी  मुनीश्वर दधीचसे मित्रता थी॥१ - ३॥

चिरात्तयोः प्रसङ्गाद्वै वादः क्षुपदधीचयोः । 
अभवत् क्षत्रियश्रेष्ठो विप्र एवेति विश्रुतः ॥ ४

अष्टानां लोकपालानां वपुर्धारयते नृपः। 
तस्मादिन्द्रो ह्यहं वह्निर्यमश्च निर्ऋतिस्तथा ॥ ५

वरुणश्चैव वायुश्च सोमो धनद एव च। 
ईश्वरोऽहं न सन्देहो नावमन्तव्य एव च ॥ ६

महती देवता या सा महतश्चापि सुव्रत। 
तस्मात्त्वत्या महाभाग च्यावनेय सदा ह्यहम् ॥ ७

नावमन्तव्य एवेह पूजनीयश्च सर्वथा। 
श्रुत्वा तथा मतं तस्य क्षुपस्य मुनिसत्तमः ॥ ८

दधीचश्च्यावनिश्चोग्रो गौरवादात्मनो द्विजः । 
अताडयत्क्षुपं मूर्छिन दधीचो वाममुष्टिना। 
चिच्छेद वज्रेण च तं दधीचं बलवान् क्षुपः ॥ ९

ब्रह्मलोके पुरासौ हि ब्रह्मणः श्रुतसम्भवः । 
लब्धं वज्रं च कार्यार्थ वज्रिणा चोदितः प्रभुः ॥ १०

कालान्तर में उन क्षुप तथा दधीचके मध्य किसी बातके सन्दर्भ में विवाद हो गया। झुपका कथन था कि क्षत्रिय श्रेष्ठ होता है और दधीचका कथन था कि ब्राह्मण ही श्रेष्ठ होता है राजा आठ लोक पालों का विग्रह स्वरूप होता है। इन्द्र, अग्नि, यम, निर्ऋति, वरुण, वायु, चन्द्र, कुबेर तथा ईश्वर मैं ही हूँ; इसमें कोई सन्देह नहीं है, अतः तुम्हें मेरी अवज्ञा नहीं करनी चाहिये हे सुव्रत! वह राजा महान् देवता होता है। अतः हे च्यवनपुत्र। हे महाभाग! तुम्हें मेरा अपमान कभी नहीं करना चाहिये, अपितु सर्वथा मेरी पूजा करनी चाहिये उन क्षुपका वह वचन सुनकर च्यवनपुत्र मुनिश्रेष्ठ द्विज दधीचने आत्मगौरवसे प्रेरित होकर अपने बाँयें हाथसे क्षुपके सिरपर तेज मुष्टिका प्रहार किया बलशाली क्षुपने भी वज्रसे उन दधीचपर प्रहार किया। पूर्वकालमें राजा क्षुप ब्रह्मलोकमें ब्रह्माजीको छींकसे उत्पन्न हुए थे। भगवान्‌की प्रेरणासे असुरोंके पराजयरूप कार्यके निमित्त इन्द्रसे उन्होंने वज्र प्राप्त किया था॥ ४-१०॥

स्वेच्छयैव नरो भूत्वा नरपालो बभूव सः। 
तस्माद्राजा स विप्रेन्द्रमजयद्वै महाबलः ॥ ११

यथा वज्रधरः श्रीमान् बलवांस्तमसान्वितः । 
पपात भूमौ निहतो वज्रेण द्विजपुङ्गवः ॥ १२

सस्मार च तदा तत्र दुःखाद्वै भार्गवं मुनिम्। 
शुक्रोऽपि सन्धयामास ताडितं कुलिशेन तम् ।। १३

योगादेत्य दधीचस्य देहं देहभृतांवरः । 
सन्धाय पूर्ववद्देहं दधीचस्याह भार्गवः ॥ १४

भो दधीच महाभाग देवदेवमुमापतिम् । 
सम्पूज्य पूज्यं ब्रह्माद्यैर्देवदेवं निरञ्जनम् ॥ १५

अवघ्यो भव विप्रर्षे प्रसादात्त्र्यम्बकस्य तु। 
मृतसञ्जीवनं तस्माल्लब्धमेतन्मया द्विज ॥ १६

एवमाराध्य देवेशं दधीचो मुनिसत्तमः। 
प्राप्पावध्यत्वमन्यैश्च वज्रास्थित्व॑ प्रयत्नतः ॥ 

अपनी इच्छासे ही नर होकर वे राजा बने थे। श्रीयुक्त, बलवान् तथा तमोगुणयुक्त इन्द्रकी भाँति राजा क्षुप भी बलशाली थे, इसीलिये वे विप्रेन्द्र दधीचको जीतनेमें समर्थ हो गये राजा क्षुपके वज्र प्रहारसे निहत द्विजश्रेष्ठ दधीच भूमिपर गिर पड़े। फिर अत्यन्त दुःखी होकर उन्होंने भृगु-पुत्र मुनि शुक्राचार्यका स्मरण किया देहधारियों में श्रेष्ठ शुक्राचार्यने भी वहाँ पहुँचकर दधीचमुनिके वज्र-ताड़ित शरीरको अपने योगबलसे यथावत् जोड़ दिया दधीचके शरीरको पूर्वकी भाँति ठीककर भार्गव शुक्राचार्यने कहा है महाभाग दधीच! हे विप्रवर! ब्रह्मा आदि देवताओंसे पूजित निरंजन देवाधिदेव उमापति शिवकी सम्यक् पूजा करके उन त्र्यम्बक महादेवकें अनुग्रहसे अवध्य हो जाओ हे द्विज ! उन्हीं महादेवजीसे मैंने भी मृतसं जीवनी विद्या प्राप्त की है। शिवजीके भक्तोंको मृत्युसे किसी प्रकारका भय नहीं होता है। उसी शैवी मृतसंजीवनी विद्याको अब मैं तुम्हें बता रहा हँ॥ ११-१७॥ 

नास्ति मृत्युभयं शम्भोर्भक्तानामिह सर्वतः । 
मृतसञ्जीवनं चापि शैवमद्य वदामि ते ॥ १७

त्रियम्बकं यजामहे त्रैलोक्यपितरं प्रभुम् । 
त्रिमण्डलस्य पितरं त्रिगुणस्य महेश्वरम् ॥ १८

त्रितत्त्वस्य त्रिवद्वेश्च त्रिधाभूतस्य सर्वतः । 
त्रिदेवस्य महादेवं सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम् ॥ १९

सर्वभूतेषु सर्वत्र त्रिगुणे प्रकृतौ तथा। 
इन्द्रियेषु तथान्येषु देवेषु च गणेषु च ॥ २०

पुष्पेषु गन्धवत्सूक्ष्मः सुगन्धिः परमेश्वरः । 
पुष्टिश्च प्रकृतिर्यस्मात्पुरुषस्य द्विजोत्तम ॥ २१

महदादिविशेषान्तविकल्पस्यापि सुव्रत।
विष्णोः पितामहस्यापि मुनीनां च महामुने । २२

विद्या प्राप्त की है। शिवजी के भक्तों को मृत्यु झे किसी प्रकार का भय नहीं होता है। उसी शैवी मृतसंजीवनी विद्याको अब मैं तुम्हें बता रहा हूँ तीनों लोकोंके पिताः सोम-चन्द्र अग्नि-इन तीनों मण्डलोंके जनक; सत-रज-तम तीनों गुणोंके महेश्वर; तीन तत्त्वों (बुद्धि अहंकार-मन), तीन अग्नियों (गार्हपत्य, आहवनीय, दक्षिणाग्नि), तीन देवों (ब्रह्मा-विष्णु-रुद्र) तथा जगत्‌के सभी तीन प्रकारके पदार्थकि स्वामी, सुगन्धिरूप पुष्टिवर्धन परमेश्वर महादेवका यजन करना चाहिये सुगन्धिरूप वह सूक्ष्म परमेश्वर सभी जगह, समस्त जीवधारियोंमें, त्रिगुणात्मिका प्रकृतिमें, इन्द्रियोंमें, अन्य देवताओं तथा गणोंमें उसी प्रकार अधिष्ठित है, जैसे पुष्पोंमें गन्ध विद्यमान रहती है  है द्विजश्रेष्ठ! चूंकि पुरुषरूप परमेश्वरकी पुष्टि प्रकृतिरूप है। हे सुव्रत! है महामुने। अतएव वही परमेश्वर महत् आदिसे लेकर विशेषपर्यन्त सम्पूर्ण जगत्-प्रपंच, विष्णु, ब्रह्मा, मुनियों तथा इन्द्र आदि सभी देवताओंका पुष्टिवर्धन करता है॥ १७-२२॥ 

इन्द्रस्यापि च देवानां तस्माद्वै पुष्टिवर्धनः । 
तं देवममृतं रुद्रं कर्मणा तपसा तथा ॥ २३

स्वाध्यायेन च योगेन ध्यानेन च यजामहे। 
सत्येनानेन मुक्षीयान्मृत्युपाशाद्भवः स्वयम् ॥ २४

बन्धमोक्षकरो यस्मादुर्वारुकमिव प्रभुः । 
मृतसञ्जीवनो मन्त्रो मया लब्धस्तु शङ्करात् ॥ २५

जप्त्वा हुत्वाभिमन्त्र्यैवं जलं पीत्वा दिवानिशम् ।
लिङ्गस्य सन्निधौ ध्यात्वा नास्ति मृत्युभयं द्विज ।। २६

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा तपसाराध्य शङ्करम्। 
वज्रास्थित्वमवध्यत्वमदीनत्वं च लब्धवान् ॥ २७

कर्म, तपस्या, स्वाध्याय, योग तथा ध्यानके द्वारा उन अमृतरूप महादेवका यजन करना चाहिये जन्म मरणरूप बन्धनसे मुक्ति प्रदान करनेवाले प्रभु शिव इस सत्यके द्वारा जीवको मृत्युके पाशसे छुटकारा प्रदान करते हैं। सूर्यको किरणोंसे पककर अपने मूलबन्धसे स्वयं मुक्त हुए उर्वारुक (ककड़ी)- की भाँति वह जीव शिवाराधन के द्वारा सांसारिक बन्धनसे मुक्त हो जाता हैमैंने भी शिवजीसे ही मृतसंजीवनी मन्त्र प्राप्त किया है। हे द्विज। जप करने, हवन करने, अभिमन्त्रित जलका पान करने तथा दिन-रात शिवलिङ्गके सांनिध्यमें बैठकर उनका ध्यान करनेसे मृत्युका भय नहीं रह जाता उन शुक्राचार्य का वह वचन सुनकर मुनि दधीचने घोर तपस्या करके शिवकी आराधना की, जिसके परिणामस्वरूप उनकी हड्डियाँ वज्र-तुल्य हो गयीं, अवध्य हो गये तथा उनकी सारी दीनता दूर हे गयी ॥ २३-२७ ॥

अताडयच्च॒ राजेन्द्र पादमूलेन मूर्धनि। 
क्षुपो दधीच॑ वज्रेण जघानोरसि च॒ प्रभु:॥ २९

नाभूननाशाय तद्वज़॑ दधीचस्य महात्मन:। 
प्रभावात्परमेशस्य वज़्बद्धशरीरिण: ॥ ३०

दृष्ट्वाप्यवध्यत्वमदीनतां च क्षुपो दधीचस्यथ तदा प्रभावम्‌।
आराधयामास हरि. मुकुन्द-मिन्द्रानुजं प्रेक्ष्य तदाम्बुजाक्षम्‌॥ ३१ 

इस प्रकार देवेश्वर शिवकी आराधना करके मुनिश्रेष्ठ दधीचने वज्रके समान हड्डियाँ हो जाने तथा दूसरोंसे मारे न जा सकनेका वरदान प्राप्तकर चेष्टापूर्वक राजा भ्रूपके सिरपर अपने चरण-मूलसे प्रहार किया। इसपर राजा क्षुपने भी अपने वज्रसे उनकी छातीपर आघात किया  किंतु भगवान् शिवके अनुग्रहसे वज्र-तुल्य शरीरवाले महात्मा दधीचको वह वज्र विनष्ट करनेमें समर्थ नहीं हो सका दधीच का अवध्यत्व, उनकी अदीनता तथा उनके तपोबलका प्रभाव देखकर राजा क्षुप कमलके सदृश नेत्रवाले उपेन्द्र मुकुन्द श्रीविष्णुकी आराधना करने लगे ॥ २८ - ३९ ॥

इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे क्षुपाभिधनृपपराभववर्णनं नाम पञ्चत्रिंशोऽध्यायः ॥ ३५ ॥

इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'क्षुपाभिधनृपपराभववर्णन' नामक पैतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३५॥

FAQs :- महर्षि दधीच एवं राजा क्षुप की कथा और महामृत्युंजय मंत्र का स्वरूप

प्रश्न और उत्तर:-

  1. प्रश्न: राजा क्षुप और दधीच के बीच विवाद का मुख्य कारण क्या था?
    उत्तर: राजा क्षुप का मानना था कि क्षत्रिय श्रेष्ठ हैं, जबकि दधीच का कहना था कि ब्राह्मण श्रेष्ठ होते हैं।

  2. प्रश्न: राजा क्षुप ने स्वयं को किस प्रकार प्रस्तुत किया?
    उत्तर: राजा क्षुप ने स्वयं को आठ लोकपालों (इंद्र, अग्नि, यम, वरुण, कुबेर, वायु, सोम, और निरृति) का स्वरूप बताया और देवता होने का दावा किया।

  3. प्रश्न: महर्षि दधीच ने राजा क्षुप पर प्रहार क्यों किया?

    उत्तर: राजा क्षुप के अहंकार और ब्राह्मणों के प्रति अवमानना के कारण दधीच ने अपने गौरव की रक्षा हेतु क्षुप पर प्रहार किया।

  4. प्रश्न: राजा क्षुप ने महर्षि दधीच को किस अस्त्र से हराया?
    उत्तर: राजा क्षुप ने वज्र से दधीच पर प्रहार किया, जिससे वे घायल होकर भूमि पर गिर पड़े।

  5. प्रश्न: महर्षि दधीच को पुनः जीवन किसने प्रदान किया?
    उत्तर: शुक्राचार्य ने अपने योगबल और मृतसंजीवनी विद्या से महर्षि दधीच का पुनर्जीवन किया।

  6. प्रश्न: महर्षि दधीच ने किस देवता की आराधना कर अवध्यत्व प्राप्त किया?

    उत्तर: महर्षि दधीच ने भगवान शिव की आराधना कर अवध्यत्व और वज्र समान हड्डियों का वरदान प्राप्त किया।

  7. प्रश्न: महामृत्युंजय मंत्र में भगवान शिव का कौन-सा स्वरूप वर्णित है?

    उत्तर: महामृत्युंजय मंत्र में भगवान शिव को त्र्यम्बक, त्रिगुणात्मक, त्रिलोकी के पितामह, और सुगंधित पुष्टिवर्धक स्वरूप में वर्णित किया गया है।

  8. प्रश्न: महामृत्युंजय मंत्र से क्या लाभ होता है?
    उत्तर: यह मंत्र मृत्यु के भय को समाप्त करता है, रोगों से मुक्ति दिलाता है और मोक्ष प्रदान करता है।

  9. प्रश्न: महामृत्युंजय मंत्र में "सुगंधिं" शब्द का क्या अर्थ है?
    उत्तर: "सुगंधिं" का अर्थ है भगवान शिव, जो सभी जीवों में सूक्ष्म रूप से उपस्थित हैं, जैसे पुष्पों में गंध।

  10. प्रश्न: भगवान शिव की आराधना करने के लिए महामृत्युंजय मंत्र का किस प्रकार उपयोग किया जाता है?

    उत्तर: इस मंत्र का जाप, हवन, ध्यान, और जल अभिषेक के साथ शिवलिंग के समक्ष किया जाता है। इससे व्यक्ति मृत्यु के बंधनों से मुक्त हो सकता है।

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