लिंग पुराण : शिलादद्वारा पुत्र नन्दिकेश्वर को वेदादिकी शिक्षा प्रदान करना | Linga Purana: Providing Vedic education to Shiladdwara's son Nandikeshwar

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तैंतालीसवाँ अध्याय 

शिलाद द्वारा पुत्र नन्दिकेश्वर को वेदादिकी शिक्षा प्रदान करना, ऋषियोंद्वारा नन्दिकेश्वरकी आयु अल्प बताने पर शिलादका दुःखी होना तथा नन्दिकेश्वर द्वारा त्यम्बकमन्त्रका जप एवं महेश्वर-पार्वतीद्वारा उन्हें अपने पुत्ररूप में अमर होने का वरदान देना

नन्दिकेश्वर उवाच 

मया सह पिता हृष्ट: प्रणम्य च महेश्वरम्‌। 
उटजं स्वं जगामाशु निधि लब्ध्वेव निर्धन:॥ १

यदागतो5हमुटजं शिलादस्य महामुने। 
तदा वे दैविकं रूप॑ त्यक्त्वा मानुष्यमास्थितः ॥ २

नष्टा चेव स्मृतिर्दिव्या येन केनापि कारणात्‌ । 
मानुष्यमास्थितं दृष्ट्वा पिता मे लोकपूजित:॥ ३

विललापातिदु:खार्त: स्वजनैश्च समावृतः । 
जातकर्मादिकाश्चैव चकार मम सर्ववितू॥ ४

न्दिकेश्वर बोले--महेश्वरको प्रणाम करके पिताजी मुझको साथ लेकर प्रसन्‍नतापूर्वक अपनी कुटीमें लौट गये, जैसे निर्धन व्यक्ति निधि पाकर हर्षित हो जाता है, वैसे ही वे उस समय हर्षयुक्त थे हे महामुने! जब मैं शिलादकी कुटीमें गया, तब अपना दैविक (दिव्य) रूप छोड़कर मैं मनुष्यरूपमें हो गया [ उस समय] किसी अज्ञात कारणवश मेरी दिव्य स्मृति नष्ट हो गयी। लोकपूजित मेरे पिताजीने मुझे मानवरूपमें देखकर अपने बन्धुओंसहित दुःखसे व्याकुल होकर अत्यधिक विलाप किया। पुत्रवत्सल तथा सर्वज्ञ शालंकायनपुत्र शिलादने मेरे जातकर्म आदि संस्कार किये ॥ १ -४॥

शालड्डायनपुत्रो वे शिलादः पुत्रवत्सल:। 
उपदिष्टा हि तेनेव ऋकुशाखा यजुषस्तथा॥ ५

सामशाखासहसत्र॑च साड्जोपाड़ं महामुने। 
आयुर्वेद धनुर्वेद॑ गान्धर्व॒चाश्वलक्षणम्‌॥ ६

हस्तिनां चरितं चैव नराणां चैव लक्षणम्‌। 
सम्पूर्ण सप्तमे वर्ष ततो5थ मुनिसत्तमौ॥ ७

मित्रावदणनामाना तपोयोगबलान्वितो।
तस्याश्रमं गतौ दिव्यौ द्र॒ष्टूं मां चाज्ञया विभो:॥ ८

हे महामुने! उन्होंने ही मुझको ऋग्वेद तथा यजुर्वेदकी शाखाओं और सामवेदकी हजार शाखाओंका सांगोपांग उपदेश किया। साथ ही उन्होंने मुझे आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्वविद्या, अश्वलक्षण, हाथियोंके लक्षण, मनुष्योंके लक्षण आदिको शिक्षा प्रदान की मेरा सातवाँ वर्ष पूर्ण होनेपर परमेश्वरकी आज्ञासे मुझे देखनेके लिये तप तथा योगशक्तिसे सम्पन्न मित्र वरुण नामक दो दिव्य मुनिश्रेष्ठ उनके (मेरे पिता के आश्रममें गये ॥ ५-८॥

ऊचतुश्च महात्मानौ मां निरीक्ष्य मुहुर्मुहुः । 
तात नन्द्ययमल्पायुः सर्वशास्त्रार्थपारगः ॥ ९

न दृष्टमेवमाश्चर्यमायुर्वर्षादतः परम् । 
इत्युक्तवति विप्रेन्द्रः शिलादः पुत्रवत्सलः ।। १०

समालिङ्गय च दुःखातों रुरोदातीव विस्वरम् । 
हा पुत्र पुत्र पुत्रेति पपात च समन्ततः ॥ ११

अहो बलं दैवविधेर्विधातुश्चेति दुःखितः ।
तस्य चार्तस्वरं श्रुत्वा तदाश्रमनिवासिनः ॥ १२

निपेतुर्विह्वलात्यर्थं रक्षाश्चकुश्च मङ्गलम्। 
तुष्टुवुश्च महादेवं त्रियम्बकमुमापतिम् ॥ १३

हुत्वा त्रियम्बकेनैव मधुनैव च सम्प्लुताम्। 
दूर्वामयुतसंख्यातां सर्वद्रव्यसमन्विताम् ॥ १४

पिता विगतसंज्ञश्च तथा चैव पितामहः। 
विचेष्टश्च ललापासी मृतवन्निपपात च ॥ १५

मुझको बार-बार देखकर उन दोनों महात्माओंन कहा-है तात! यह नन्दी सभी शास्त्रोंके ज्ञानमें पारंगत होगा, किंतु यह अल्प आयुवाला है। ऐसा आश्चर्य तो कभी नहीं देखा गया है, इसकी आयु आजसे मात्र एक वर्षकी है उनके ऐसा कहनेपर पुत्रसे स्नेह रखनेवाले विप्रवर शिलाद मेरा आलिंगन करके दुःखसे व्याकुल होकर करुण स्वरमें अत्यधिक रुदन करने लगे हा पुत्र । हा पुत्र। हा पुत्र। अहो, दैवविधि तथा विधाताका ऐसा बल! [यह कहकर] वे दुःखित होकर भूमिपर गिर पड़े तब उनकी दुःखभरी वाणी सुनकर आश्रमवासी इकट्ठे हो गये। वे [इस अशुभके लिये] विह्वल होकर मंगल रक्षाकृत्य करने लगे। उन्होंने अन्य सभी सामग्रियोंसहित मधुलिप्त दस हजार दूर्वाकी त्रियम्बक मन्त्रसे आहुति देकर उमापति त्रियम्बक महादेवको सन्तुष्ट किया पिताजी संज्ञाशून्य हो गये। पितामहने भी बहुत विलाप किया, वे भी चेतनारहित हो मृतकी भाँति पड़े रहे ॥९- १५॥

मृत्योर्भीतोऽहमचिराच्छिरसा चाभिवन्द्य तम्। 
मृतवत्पतितं साक्षात्पितरं च पितामहम् ॥ १६

प्रदक्षिणीकृत्य च तं रुद्रजाप्यरतोऽभवम् । 
हृत्पुण्डरीके सुधिरे ध्यात्वा देवं त्रियम्बकम् ॥ १७

त्र्यक्षं दशभुजं शान्तं पञ्चवक्त्रं सदाशिवम् । 
सरितश्चान्तरे पुण्ये स्थितं मां परमेश्वरः ।। १८

तुष्टोऽब्रवीन्महादेवः सोमः सोमार्धभूषणः । 
वत्स नन्दिन् महाबाहो मृत्योर्भीतिः कुतस्तव ॥ १९

मयैव प्रेषितौ विप्रौ मत्समस्त्वं न संशयः । 
वत्सैतत्तव देहं च लौकिकं परमार्थतः ॥ २०

नास्त्येव दैविकं दृष्टं शिलादेन पुरा तव। 
देवैश्च मुनिभिः सिद्धैर्गन्धर्वैर्दानवोत्तमैः ।। २१

पूजितं यत्पुरा वत्स दैविकं नन्दिकेश्वर। 
संसारस्य स्वभावोऽयं सुखं दुःखं पुनः पुनः ॥ २२

नृणां योनिपरित्यागः सर्वथैव विवेकिनः । 
एवमुक्त्वा तु मां साक्षात्सर्वदेवमहेश्वरः ॥ २३

कराभ्यां सुशुभाभ्यां च उभाभ्यां परमेश्वरः । 
पस्पर्श भगवान् रुद्रः परमार्तिहरो हरः ॥ २४

उवाच च महादेवस्तुष्टात्मा वृषभध्वजः । 
निरीक्ष्य गणपांश्चैव देवीं हिमवतः सुताम् ॥ २५ 

मैं मृत्युसे भयभीत हो गया और साक्षात् मृतककी भाँति [भूमिपर पड़े हुए] अपने पिता तथा पितामहको शीघ्रतापूर्वक सिर झुकाकर प्रणाम करके एवं उनकी प्रदक्षिणा करके रुद्रजपमें संलग्न हो गया। त्रिनेत्र, दस भुजाओंवाले, शान्त, पाँच मुखोंवाले, सदाशिव भगवान् त्रियम्बकका अपने हृदयकमलमें ध्यान करके मैं जप कर रहा थाः [तब मैंने देखा कि] नदीके पुण्यतटपर मैं स्थित हूँ और अर्धचन्द्रमाको आभूषणके रूपमें धारण करनेवाले महादेव उमासहित प्रसन्न होकर [प्रकट हुए और] मुझसे कहने लगे हे वत्स ! हे नन्दिन् । हे महाबाहो। तुमको भला मृत्युसे भय कहाँ, मैंने ही उन दोनों विप्रोंको भेजा था, तुम मेरे ही समान हो, इसमें सन्देह नहीं है। हे  वत्स । वास्तवमें तुम्हारा यह देह लौकिक नहीं है, यह दिव्य है। हे वत्स! पूर्वमें शिलाद, देवताओं, मुनियों, सिद्धों, गन्धवों तथा श्रेष्ठ दानवोंने तुम्हारे जिस शरीरका दर्शन किया था और जिसका पूजन किया था, वह दिव्य था। हे नन्दिकेश्वर। संसारका यह स्वभाव है कि सुख- दुःख बार-बार आते रहते हैं। मनुष्योंके लिये स्त्रीभोगका परित्याग ही सर्वथा उचित है-ऐसा विवेकी पुरुष कहते हैं मुझसे ऐसा कहकर महान् कष्टोंको दूर करनेवाले, सभी देवताओंके महेश्वर, भगवान् रुद्र, हर, वृषभध्वज तथा परमेश्वर महादेवने अपने दोनों अत्यन्त शुभ हाथोंसे मुझे स्पर्श किया और उनका मन प्रसन्न हो गया। तदनन्तर गणेश्वरोंको एवं हिमालयपुत्री पार्वतीको भलीभाँति देखकर वे सुरेश्वर महादेव प्रसन्नचित्त होकर मेरी ओर देखकर कहने लगे-॥  १६-२५॥

समालोक्य च तुष्टात्मा महादेवः सुरेश्वरः । 
अजरो जरया त्यक्तो नित्यं दुःखविवर्जितः ।। २६

अक्षयश्चाव्ययश्चैव सपिता ससुहृज्जनः । 
ममेष्टो गणपश्चैव मद्वीर्यो मत्पराक्रमः ॥ २७

इष्टो मम सदा चैव मम पार्श्वगतः सदा। 
मद्बलश्चैव भविता महायोगबलान्वितः ॥ २८

एवमुक्त्वा च मां देवो भगवान् सगणस्तदा। 
कुशेशयमयीं मालां समुन्मुच्यात्मनस्तदा ॥ २९

आबबन्ध महातेजा मम देवो वृषध्वजः । 
तयाहं मालया जातः शुभया कण्ठसक्तया ।। ३०

तुम अपने पिता तथा सुहज्जनोंसहित अजर- अमर, बुढ़ापारहित, दुःखसे हीन, क्षयरहित एवं अव्यय रहोगे। तुम मेरे प्रिय गणेश्वर होओ, तुम मेरे समान तेज तथा पराक्रमवाले होओ। तुम सदा मेरे इष्ट बनकर सदा मेरे समीप विराज मान रहोगे। तुम मेरे सदृश बलशाली एवं महान् योगबलसे सम्पन्न होओगे  मुझसे ऐसा कहकर गणोंसहित महातेजस्वी वृषध्वज भगवान् महादेवने कुशेशयमयी अर्थात् शतदलकमलसे निर्मित अपनी माला उतारकर मेरे कण्ठमें बाँध दी। कण्ठमें बँधी हुई उस सुन्दर मालासे मैं तीन नेत्रोंवाले तथा दस भुजाओंवाले दूसरे शंकरके समान हो गया ॥ २६-३०॥

त्र्यक्षो दशभुजश्चैव द्वितीय इव शङ्करः । 
तत एव समादाय हस्तेन परमेश्वरः ॥ ३१

उवाच ब्रूहि किं तेऽद्य ददामि वरमुत्तमम्। 
ततो जटाश्रितं वारि गृहीत्वा चातिनिर्मलम् ॥ ३२

उक्त्वा नदी भवस्वेति उत्ससर्ज वृषध्वजः । 
ततः सा दिव्यतोया च पूर्णासितजला शुभा ॥ ३३

पद्मोत्पलवनोपेता प्रावर्तत महानदी। 
तामाह च महादेवो नदीं परमशोभनाम् ॥ ३४

यस्माज्जटोदकादेव प्रवृत्ता त्वं महानदी। 
तस्माज्जटोदका पुण्या भविष्यसि सरिद्वरा ॥ ३५

तत्पश्चात् परमेश्वरने मुझको हाथसे पकड़कर कहा-बोलो, मैं तुम्हें कौन-सा उत्तम वर प्रदान करूँ ? तब उन वृषध्वजने अपनी जटामें समाहित अति निर्मल जलको [ व अवस्वेति उत्ससर्ज वषध्वजः। जलको [हाथमें] लेकर कहा-नदी हो जाओ ] लेकर कहा--नदी हो जाओ कहकर उन्होंने जलको छोड़ दिया। तब दिव्य जलवाल श्याम जलसे परिपूर्ण, कमल तथा उत्पलके बनोंसे युक शुभ महानदी बन गयी तदनन्तर महादेवने उस परम सुन्दर नदीसे कहा चूँकि तुम जटाके जलसे महानदीके रूपमें निकली हो. अतः तुम्हारा नाम जटोदका होगा। तुम पवित्र तथा नदियों श्रेष्ठ होओगी कोई भी मनुष्य तुम्हारे जलमें स्नान करके सभी पापोंसे मुक्त हो जायगा॥ ३१-३५ ॥

त्वयि स्नात्वा नरः कश्चित्सर्वपापैः प्रमुच्यते । 
ततो देव्या महादेवः शिलादतनयं प्रभुः ॥ ३६

पुत्रस्तेऽयमिति प्रोच्य पादयोः संन्यपातयत्। 
सा मामाघ्राय शिरसि पाणिभ्यां परिमार्जती ॥ ३७

पुत्रप्रेम्णाभ्यषिञ्चच्च स्रोतोभिस्तनयैस्त्रिभिः । 
पयसा शङ्खगौरेण देवदेवं निरीक्ष्य सा ॥ ३८

तानि स्त्रोतांसि त्रीण्यस्याः स्त्रोतस्विन्योऽभवंस्तदा । 
नदीं त्रिस्त्रोतसं देवो भगवानवदद्भवः ॥ ३९

त्रिस्त्रोतसं नदीं दृष्ट्वा वृषः परमहर्षितः । 
ननाद नादात्तस्माच्च सरिदन्या ततोऽभवत् ।। ४०

वृषध्वनिरिति ख्याता देवदेवेन सा नदी।
जाम्बूनदमयं चित्रं सर्वरत्नमयं शुभम् ॥ ४१

स्वं देवश्चाद्भुतं दिव्यं निर्मितं विश्वकर्मणा। 
मुकुटं चाबबन्धेशो मम मूर्हिन वृषध्वजः ॥ ४२

कुण्डले च शुभे दिव्ये वज्रवैडूर्यभूषिते। 
आबबन्ध महादेवः स्वयमेव महेश्वरः ॥ ४३

तत्पश्चात्‌ प्रभु महादेवने “यह तुम्हारा पुत्र है' ऐसा कहकर मुझ शिलादतनयको देवी पार्वतीके चरणोंमें डाल दिया। तब उन्होंने मेरा सिर सूँघकर दोनों हाथोंमे मुझे [स्नेहपूर्वक] सहलाते हुए पुनः देवदेव शंकरकी ओर देखकर पुत्रप्रेममें तीन पुत्ररूप स्त्रोतोंके द्वार शंखके समान श्वेतवर्णाले जलरूप अश्रुबिन्दुओंपे मुझे अभिसिंचित कर दिया। इनके वे ही तीनों स्रोत तीन नदियाँ बन गयीं। भगवान्‌ भव महादेवने इसे त्रिस्नोतनस्‌ (तीन धाराओंवाली) नदीकी संज्ञा प्रदान की उस त्रिस्नोतसू नदीको देखकर वृषने अत्यन्त प्रसन्‍न होकर नाद किया, तब उस ध्वनिसे एक दूसरी नदी आविर्भूत हो गयी देवदेव शंकरने उस नदीका नाम वृषध्वनि रखा इसके बाद भगवान्‌ वृषध्वजने विश्वकमकि द्वारा निर्मित, स्वर्णमय, सभी रत्नोंसे जटित, अलौकिक, शुभ, अद्भुत तथा दिव्य अपने मुकुटको मेरे सिरपर बाँध दिया। उन महेश्वर महादेवने हीरे तथा वैदूर्यमणिस मण्डित दो शुभ तथा दिव्य कुण्डल [मेरे कानोंमें] स्वयं पहना दिये ॥ ३६ - ४३ ॥

मां तथाभ्यर्चितं व्योम्नि दृष्ट्वा मेधैः प्रभाकरः । 
मेघाम्भसा चाभ्यषिञ्चच्छिलादनमथो मुने ।॥ ४४

तस्याभिषिक्तस्य तदा प्रवृत्ता स्त्रोतसा भृशम्। 
यस्मात्सुवर्णान्निः सृत्य नद्येषा सम्प्रवर्तते ॥ ४५

स्वर्णोदकेति तामाह देवदेवस्त्रियम्बकः । 
जाम्बूनदमयाद्यस्माद् द्वितीया मकटाच्छ्भा ॥ ४६

प्रावर्तत नदी पुण्या ऊचुर्जाम्बूनदीति ताम्‌।
एतत्पञ्चनद॑ नाम जप्येश्वरसमीपगम्‌॥ ४७

यः पञ्चनदमासाद्य स्नात्वा जप्येश्वरेश्वरम्‌। 
पूजयेच्छिवसायुज्यं प्रयात्येत न संशय: ॥ ४८

अथ देवो महादेव: सर्वभूतपतिर्भव:। 
देवीमुवाच शर्वाणीमुमां गिरिसुतामजाम्‌॥ ४९

देवि नन्दीश्वरं देवमभिषिज्चामि भूतपम्‌। 
गणेन्द्रं व्याहरिष्यामि कि वा त्वं मन्यसे5व्यये ॥ ५०

हे मुने! मुझको इस प्रकार पूजित देखकर सूर्य आकाशमें मेघोंके जलसे मुझ ननन्‍दी का अभिसेचन किया। तब उस अभिषेकके जलसे सोनेकी नदी न गयी। उस स्वर्णजलसे निकलकर यह नदी बनी, इसलिये देवोंके देव त्रियम्बक शिवने उसे स्वर्णोर्दिक (स्वर्ण जलवाली) कहा। उसी प्रकार सोनेके मुकुट दूसरी पवित्र तथा शुभ नदी उत्पन्न हुई, अतः: उसे जाम्बूनदी कहा जाता है। इस प्रकार ये पाँच नदियाँ भगवान्‌ जप्येश्वरके समीप जानेवाली हैं । जो पंचनद पर पहुँचकर इसमें स्नान करके भगवान्‌ जप्येश्वरेश्वरकी पूजा करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है; इसमें सन्देह नहीं है इसके बाद सभी भूतोंके स्वामी भगवान्‌ महादेवने हिमालयपुत्री, अजन्मा, शर्वाणी, उमा देवीसे कहा-हे देवि! मैं भूतोंके स्वामी देव ननन्‍दीश्वरका अभिषेचन करता हूँ और उन्हें गणेन्द्र नामवाला कहूँगा, हे अव्यये! [इस विषयमें] तुम क्‍या सोचती हो॥ ४४-५० ॥

तस्य तद्ठगचनं श्रुत्वा भवानी हर्षितानना। 
स्मयन्ती वरदं प्राह भवं भूतपतिं पतिम्‌॥ ५१

सर्वलोकाधिपत्यं॑ च गणेशत्वं॑ तथेव च। 
दातुमहसि देवेश शैलादिस्तनयो मम॥ ५२

ततः स भगवान्‌ शर्व: सर्वलोकेश्वरेश्वर:। 
सस्मार गणपान्‌ दिव्यान्‌ देवदेवो वृषध्वज: ॥ ५३

उनका यह वचन सुनकर हर्षयुक्त मुखवाली भवानीने वर प्रदान करनेवाले तथा भूतोंके स्वामी अपने पति शिवसे मुसकराते हुए इस प्रकार कहा-हे देवेश! शैलादि मेरा पुत्र है, अत: आप इसे सभी लोकोंका स्वामित्व और गणेशत्व प्रदान करनेकी कृपा कीजिये तत्पश्चात्‌ सभी लोकेश्वरोंके भी ईश्वर, देवोंके देव, शर्व, भगवान्‌ वृषध्वजने अपने दिव्य गणेश्वरोंका स्मरण किया॥ ५१ - ५३॥

॥ श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे नन्दिकेशवरप्रादुर्धावनश्दिकेशवराभिषेकमन्त्रों नाम त्रिचत्वारिशोउध्याय: ॥ ४३ ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभायमें “नन्दिकेश्वरप्रादुर्भाव तथा नन्दिकेश्वराभिषेकमन्त्र नामक तैंतालीसवोँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ४३ ॥

FAQs :- लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तैंतालीसवाँ अध्याय 

पर आधारित 10 प्रश्न और उत्तर

यहां शिलाद द्वारा अपने पुत्र नंदिकेश्वर को वैदिक शिक्षा प्रदान करने और उसके बाद उन्हें प्राप्त आशीर्वाद की कथा पर आधारित 10 प्रश्न और उत्तर दिए गए हैं:

1. शिलाद कौन थे और उन्होंने अपने पुत्र नंदिकेश्वर को क्या शिक्षा दी?

  • उत्तर: शिलाद एक महान ऋषि थे और नंदिकेश्वर के पिता थे। उन्होंने नंदिकेश्वर को ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेद के साथ-साथ आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद और अन्य महत्वपूर्ण ज्ञान सहित वेदों की शाखाएँ सिखाईं।

2. शिलाद ने नंदिकेश्वर को वेदों के अलावा क्या शिक्षा दी?

  • उत्तर: शिलाद ने वेदों के अतिरिक्त आयुर्वेद, धनुर्वेद, गंधर्ववेद, अश्ववेद, हाथी और मनुष्य की विशेषताओं के साथ-साथ जीवन और प्रकृति से जुड़ी महत्वपूर्ण शिक्षाओं का भी ज्ञान दिया।

3. नंदिकेश्वर की आयु के बारे में सुनकर शिलाद को बहुत दुःख क्यों हुआ?

  • उत्तर: शिलाद को तब बहुत दुःख हुआ जब ऋषियों ने उन्हें बताया कि उनका पुत्र नंदिकेश्वर सभी विद्याओं में पारंगत होने के बावजूद अल्पायु होगा। अपने पुत्र के प्रति उनके अगाध स्नेह ने उन्हें बहुत दुःख पहुँचाया।

4. अपने सीमित जीवनकाल के बारे में जानने के बाद नंदिकेश्वर की प्रतिक्रिया क्या थी?

  • उत्तर: नंदिकेश्वर ने अपनी अल्पायु पर दुःख व्यक्त किया और अपने भाग्य पर विजय पाने के लिए, उन्होंने दिव्य आशीर्वाद प्राप्त करने हेतु शक्तिशाली त्र्यम्बकम मंत्र का जाप करना शुरू कर दिया।

5. भगवान महेश्वर (शिव) ने शिलाद के दुःख पर क्या प्रतिक्रिया दी?

  • उत्तर: शिलाद की व्यथा देखकर भगवान महेश्वर (शिव) प्रकट हुए और उन्हें आश्वासन दिया कि उनका पुत्र नंदिकेश्वर अल्पायु तक सीमित नहीं रहेगा। उनके दिव्य हस्तक्षेप से नंदिकेश्वर को अमरता प्राप्त हुई।

6. भगवान शिव ने नंदिकेश्वर को अपने दिव्य रूप के बारे में क्या बताया?

  • उत्तर: भगवान शिव ने नंदिकेश्वर से कहा कि उनका स्वरूप साधारण नहीं बल्कि दिव्य है। उनका पिछला स्वरूप दिव्य था, जिसकी पूजा देवता, ऋषि और अन्य दिव्य प्राणी करते थे। शिव ने उन्हें आश्वासन दिया कि वे शाश्वत रहेंगे, जीवन और मृत्यु के चक्र से परे रहेंगे।

7. शिलाद ने यह सुनकर क्या किया कि नंदिकेश्वर की आयु सीमित होगी?

  • उत्तर: शिलाद दुःख से अभिभूत हो गया और अपने बेटे की असामयिक मृत्यु के बारे में सोचकर दुःखी होकर रोने लगा, "मेरा बच्चा, मेरा बच्चा" कहकर पुकारने लगा। उसने अपने बेटे की किस्मत बदलने के लिए कई तरह के अनुष्ठान किए और दैवीय साधनाएँ कीं।

8. नंदिकेश्वर को भगवान शिव से दिव्य आशीर्वाद कैसे प्राप्त हुआ?

  • उत्तर: नंदिकेश्वर की सच्ची भक्ति और त्र्यंबकम मंत्र के जाप के बाद, भगवान शिव प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया। शिव ने नंदिकेश्वर को स्पर्श किया, जिससे उन्हें दिव्य गुण और अमरता प्राप्त हुई।

9. भगवान शिव का आशीर्वाद प्राप्त करने के बाद नंदिकेश्वर ने कैसा रूप धारण किया?

  • उत्तर: नंदिकेश्वर ने स्वयं भगवान शिव के समान रूप धारण किया था, जिसमें तीन आंखें और दस भुजाएं थीं, जो उनके दिव्य परिवर्तन और अमरता का प्रतीक थीं।

10. भगवान शिव ने नंदिकेश्वर को आशीर्वाद के रूप में कौन सी महत्वपूर्ण वस्तुएं दीं?

  • उत्तर: भगवान शिव ने नंदिकेश्वर को एक हज़ार फूलों से बनी एक दिव्य माला भेंट की, जिसने उन्हें एक दिव्य प्राणी में बदल दिया। इस माला ने उन्हें स्वयं भगवान शिव जैसा बना दिया, जो उनके शाश्वत अस्तित्व का प्रतीक था।

टिप्पणियाँ