लिंग पुराण : देवताओं द्वारा भगवान् महेश्वर की स्तुति | Linga Purana: Praise of Lord Maheshwar by the Gods

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग अठारहवाँ अध्याय 

देवताओं द्वारा भगवान महेश्वर की स्तुति

देवा ऊचुः

य एष भगवान् रुद्रो ब्रह्मविष्णुमहेश्वराः ।
स्कन्दश्चापि तथा चेन्द्रो भुवनानि चतुर्दश। 
अश्विनी ग्रहताराश्च नक्षत्राणि च खं दिशः ॥ १

भूतानि च तथा सूर्यः सोमश्चाष्टौ ग्रहास्तथा। 
प्राणः कालो यमो मृत्युरमृतः परमेश्वरः ॥ २

भूतं भव्यं भविष्यच्च वर्तमानं महेश्वरः । 
विश्वं कृत्स्नं जगत्सर्वं सत्यं तस्मै नमो नमः ॥ ३

देवता बोले- जो ये भगवान् रुद्र हैं, वे ही ब्रह्मा, विष्णु, महेश्वर, कार्तिकेय, इन्द्र, चौदहों भुवन, दोनों अश्विनीकुमार, सभी ग्रह, तारा, नक्षत्र, आकाश तथा दिशाएँ हैं। समस्त प्राणी, सूर्य, चन्द्रमा, आठों ग्रह, प्राण, काल, यम, मृत्यु तथा मोक्षरूप वे परमेश्वर ही हैं। पूर्वकालिक विश्व, उत्पद्यमान सम्पूर्ण संसार, आगे होनेवाले जगत् और वर्तमानकालिक सभी पदार्थ-ये सब वास्तवमें महेश्वर ही हैं। उन्हें बार-बार नमस्कार है॥१-३॥

त्वमादौ च तथा भूतो भूर्भुवः स्वस्तथैव च। 
अन्ते त्वं विश्वरूपोऽसि शीर्ष तु जगतः सदा ॥ ४

ब्रह्मकस्त्वं द्वित्रिधार्थमधश्च त्वं सुरेश्वरः। 
शान्तिश्च त्वं तथा पुष्टिस्तुष्टिश्चाप्यहुतं हुतम् ॥ ५

विश्वं चैव तथाविश्वं दत्तं वादत्तमीश्वरम् । 
कृतं चाप्यकृतं देवं परमप्यपरं ध्रुवम्। 
परायणं सतां चैव हासतामपि शङ्करम् ॥ ६

अपामसोमममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान् । 
किं नूनमस्मान्कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृतं मर्त्यस्य ॥ ७

आदि तथा अन्तमें आप ही प्रादुर्भूत हुए। आप भूर्भुवः स्वः (तीनों व्याहृतियाँ) स्वरूप हैं। आप विश्वरूप हैं तथा सदा जगत्‌के शीर्ष हैं। आप अद्वितीय हैं, आप प्रकृतिपुरुष द्विधारूप हैं तथा ब्रह्मा, विष्णु, महेश, त्रिधारूप ब्रह्म हैं। आप सबके आधार तथा देवताओंके ईश्वर हैं। शान्ति, पुष्टि तथा तुष्टि आप ही हैं। हुत, अद्भुत, विश्व, अविश्व, दत्त, अदत्त, कृत, अकृत, पर, अपर, प्रभु, ईश्वर आप ही हैं। आप शंकर ही साधुओं तथा असाधुओंक आश्रयरूप ब्रह्म हैं हम उमासहित सदाशिवके सौन्दर्यामृतका अपने नेत्रपुटोंसे पान करें। फलतः अर्धनारीश्वर भगवान् शिवके दर्शनसे मुक्त हो जायें। शिवज्योतिको प्राप्तकर दिग्जयी कामादिको हम नहीं जानते; क्योंकि हम शिवाराधकोंका ये कामक्रोधादि शत्रु क्या करेंगे और मरणधर्मा इस शरीरादिकी मृत्यु या अमरतासे भी क्या प्रयोजन ?॥ ४-७ ॥ 

एतज्जगद्धितं दिव्यमक्षरं सूक्ष्ममव्ययम् ॥ ८

प्राजापत्यं पवित्रं च सौम्यमग्राह्यमव्ययम् । 
अग्राह्येणापि वा ग्राह्यं वायव्येन समीरणः ॥ ९

सौम्येन सौम्यं ग्रसत्ति तेजसा स्वेन लीलया। 
तस्मै नमोऽपसंहर्ने महाग्रासाय शूलिने ॥ १०

हृदिस्था देवताः सर्वा हृदि प्राणे प्रतिष्ठिताः । 
हृदि त्वमसि यो नित्यं तिस्त्रो मात्राः परस्तु सः ॥ ११

शिरश्चोत्तरतश्चैव पादौ दक्षिणतस्तथा। 
यो वै चोत्तरतः साक्षात्स ओङ्कारः सनातनः । १२

यह जगत् शिवरूप है, जो हितकारक, दिव्य, नाशरहित, सूक्ष्म तथा शाश्वत है। आप प्राजापत्य (सर्वजनक), पावन, शान्त, अग्राहा, अविनाशी, वायुसम्बन्धी स्पर्शगुणके कारण वायुरूप और अग्राह्य मनसे भी ग्राह्य हैं। आप अपने चन्द्रतेजसे भक्तोंके अन्तःकरणको लीलापूर्वक अपनेमें विलीन कर लेते हैं। महत्तत्त्वको भी अपना ग्रास बना लेनेवाले अपसंहर्ता उन भगवान् शूलीको नमस्कार है हृदयदेशमें विराजमान तीनों मात्राएँ तथा सभी देवता हृदयके अधिकरण-प्राणमें प्रतिष्ठित हैं। जो प्राणरूप आप सबके हृदयमें नित्य विराजमान हैं, वह नाद नामक अर्थमात्रारूप आप ही हैं उत्तरवर्ती शिरस्थानीय अकार, दक्षिणवर्ती पादस्थानीय मकार, मध्यवर्ती मध्यस्थ उकार, यह उत्तरवर्ती अकारसे संश्लिष्ट जो साक्षात् ॐकार है, वह सनातन शिव ही है॥ ८-१२॥ 

ओङ्कारो यः स एवेह प्रणवो व्याप्य तिष्ठति। 
अनन्तस्तारसूक्ष्मं च शुक्लं वैद्युतमेव च ॥ १३

परं ब्रह्म स ईशान एको रुद्रः स एव च। 
भवान् महेश्वरः साक्षान्महादेवो न संशयः ।। १४

ऊर्ध्वमुन्नामयत्येव स ओङ्कारः प्रकीर्तितः । 
प्राणानवति यस्तस्मात्प्रणवः परिकीर्तितः ॥ १५

सर्वं व्याप्नोति यस्तस्मात्सर्वव्यापी सनातनः । 
ब्रह्मा हरिश्च भगवानाद्यन्तं नोपलब्धवान् ॥ १६

तथान्ये च ततोऽनन्तो रुद्रः परमकारणम्। 
यस्तारयति संसारात्तार इत्यभिधीयते ॥ १७

सूक्ष्मो भूत्वा शरीराणि सर्वदा ह्यधितिष्ठिति । 
तस्मात्सूक्ष्मः समाख्यातो भगवान्नीललोहितः ॥ १८

नीलश्च लोहितश्चैव प्रधानपुरुषान्वयात् । 
स्कन्दतेऽस्य यतः शुकं तथा शुक्रमपैति च ॥ १९

यहाँ यह जो ॐ है, वही प्रणव सर्वव्यापी है [सबको व्याप्त करके रहता है।। अनन्त, तारक, सूक्ष्म, शुक्ल, ज्योतिर्मय, परब्रह्म ईशान अद्वितीय रुद्र भगवान् महेश्वर साक्षात् महादेव हैं, इसमें संशय नहीं है यह उच्चारण करते ही सारे शरीरको ऊपरकी और खर्वोचता है, अतः इसे ओंकार कहा जाता है और प्राणोंकी रक्षा करता है, अतः प्रणव कहलाता है। यह चराचर जगत्‌को व्याप्त करता है, इसलिये सर्वव्यापी सनातन कहा जाता है। ब्रह्मा, षडैश्वर्यवान् हरि तथा अन्य इन्द्रादिक भी इसके आदि और अन्तको न पा सके। अतः इन परम कारण रुद्रको अनन्त कहा जाता है। ये संसारसे तारते हैं, अतः तार कहे जाते हैं। सदा सूक्ष्मरूपसे सभी शरोरोंमें रहते हैं, अतः भगवान् नीललोहित सूक्ष्म कहलाते हैं। नील और लोहितरूप- प्रधान और पुरुषके संयोगसे इन सदाशिवका शुक्रर्भाश स्कन्दित होता है और परम स्थानको प्राप्त होता है, अतः ये शुक्र कहे जाते हैं॥ १३-१९॥

विद्योतयति यस्तस्माद्वैद्युतः परिगीयते।
बृहत्त्वा‌बृंहणत्वाच्च बृहते च परापरे ॥ २०

तस्माद्‌बृंहति यस्माद्धि परं ब्रह्मेति कीर्तितम् । 
अद्वितीयोऽथ भगवांस्तुरीयः परमेश्वरः ॥ २१

ईशानमस्य जगतः स्वर्दृशां चक्षुरीश्वरम् । 
ईशानमिन्द्रसूरयः सर्वेषामपि सर्वदा ॥ २२

ईशानः सर्वविद्यानां यत्तदीशान उच्यते। 
यदीक्षते च भगवान्निरीक्ष्यमिति चाज्ञया ।। २३

आत्मज्ञानं महादेवो योगं गमयति स्वयम्। 
भगवांश्वोच्यते देवो देवदेवो महेश्वरः ॥ २४

ये दीप्ति प्रदान करते हैं, अतः वैद्युत कहे जाते हैं। ये [शिव] पर तथा अपर (ऐहिक तथा आमुष्मिक) रूपोंका वर्धन तथा पोषण करते हैं, अतः वर्धन तथा पोषणगुणयुक्त होनेके कारण परब्रह्म कहे गये हैं। ये भगवान् परमेश्वर (स्वजातीय, विजातीय तथा स्वगतभेदशून्य होनेके कारण] अद्वितीय (एक) हैं तथा तुरीय भी हैं इन्द्र आदि प्रमुख देवता इन शिवको इस जगत्‌का स्वामी, देवताओंका चक्षुस्वरूप तथा सभीका नित्य नियन्ता कहते हैं। ये सभी विद्याओंके स्वामी हैं, अतः 'ईशान' कहे जाते हैं। वे देवदेव महेश्वर महादेव स्वेच्छासे सभी भावोंको देखते हैं, अपना अवबोध कराते हैं और स्वयं योगकी प्राप्ति कराते हैं, अतः वे भगवान् कहे जाते हैं ॥ २०-२४॥

सर्वाल्लोकान् क्रमेणैव यो गृह्णाति महेश्वरः ।
विसृजत्येष देवेशो वासयत्यपि लीलया ॥ २५

एषो हि देवः प्रदिशोऽनुसर्वाः पूर्वी हि जातः स उ गर्ने अन्तः।
स एव जातः स जनिष्यमाणः प्रत्यङ्मुखास्तिष्ठति सर्वतोमुखः ॥ २६

उपासितव्यं यत्नेन तदेतत्सद्भिरव्ययम् ।
यतो वाचो निवर्तन्ते ह्यप्राप्य मनसा सह ॥ २७

तदग्रहणमेवेह यद्वाग्वदति यत्नतः ।
अपरं च परं वेति परायणमिति स्वयम् ॥ २८

वदन्ति वाचः सर्वज्ञं शङ्करं नीललोहितम् ।
एष सर्वो नमस्तस्मै पुरुषः पिङ्गलः शिवः ॥ २९

स एष स महारुद्रो विश्वं भूतं भविष्यति।
भुवनं बहुधा जातं जायमानमितस्ततः ।। ३०

ये महेश्वर अपनी लौलासे ही क्रमसे सभी लोकोंको अपनेमें लीन करते हैं, उनकी सृष्टि करते हैं तथा उनका पालन भी करते हैं ये ही शिव विश्वरूप होकर क्रीड़ा करते हुए सभी दिशाओंके रूपमें स्थित होते हैं। ये अनादिसिद्ध देव ब्रह्माण्डके उदरमें प्रविष्ट होकर स्वयं उत्पन्न होते हैं और आगे भी उत्पन्न होंगे। हे जीवो। ये सभी कालोंको व्याप्त करके स्थित रहते हैं अतएव सज्जनोंको इन अविनाशी प्रभुकी प्रयत्नपूर्वक उपासना करनी चाहिये। इनका वर्णन करनेमें असमर्थ होनेके कारण तत्त्वनिरूपण किये बिना ही मनसहित वाणी लौट आती है। वाणी यत्नपूर्वक इनके विषयमें जो कुछ भी पर, अपर अथवा परायणरूपमें कहती है, वह उनका [वास्तविक निर्वचन नहीं है। वाणी इन्हें सर्वज्ञ, शंकर तथा नीललोहित कहती है ये सर्वस्वरूप, पुरुष, पिंगल तथा शिव हैं, इन्हें नमस्कार है। जो अनेक प्रकारसे उत्पन्न हो चुका है, उत्पन्न है तथा उत्पन्न होगा-वह सम्पूर्ण प्राणिसमुदायरूप चौदह भुवन इन महारुद्रका ही स्वरूप है ॥ २५-३०॥

हिरण्यबाहुर्भगवान् हिरण्यपतिरीश्वरः ।
अम्बिकापतिरीशानो हेमरेता वृषध्वजः ।। ३१

उमापतिर्विरूपाक्षो विश्वसृग्विश्ववाहनः ।
ब्रह्माणं विदधे योऽसौ पुत्रमग्रे सनातनम् ॥ ३२

प्रहिणोति स्म तस्यैव ज्ञानमात्मप्रकाशकम्।
तमेकं पुरुषं रुद्रं पुरुहूतं पुरुष्टुतम् ॥ ३३

बालाग्रमात्रं हृदयस्य मध्ये विश्वं देवं वह्निरूपं वरेण्यम्।
तमात्मस्थं येऽनुपश्यन्ति धीरा- स्तेषां शान्तिः शाश्वती नेतरेषाम् ॥ ३४

जो ये हिरण्यबाहु, भगवान्, हिरण्यपति, ईश्वर, अम्बिकापति, ईशान, हेमरेता, वृषध्वज, उमापति, विरूपाक्ष, विश्वसृक् तथा विश्ववाहन संज्ञावाले शिव हैं, उन्होंने सबसे पहले सनातन ब्रह्माको पुत्ररूपमें उत्पन्न किया और उन्हें आत्माको प्रकाशित करनेवाला ज्ञान प्रदान किया जो धीर पुरुष उन अद्वितीय, पुरुष, बहुतोंके द्वारा आवाहन किये जानेवाले, बहुतोंके द्वारा स्तुत होनेवाले, हृदयके मध्यमें बालके अग्रभागके समान सूक्ष्मरूपसे विराजमान, विश्वेश्वर देव, अग्निरूप तथा सर्वश्रेष्ठ रुद्रको अपनेमें स्थित देखते हैं, उन्होंको शाश्वत शान्ति प्राप्त होती है, अन्य लोगोंको नहीं ॥ ३१-३४ ॥

महतो यो महीयांश्च हह्मणोरप्यणुरव्ययः ।
गुहायां निहितश्चात्मा जन्तोरस्य महेश्वरः ।। ३५

वेश्मभूतोऽस्य विश्वस्य कमलस्थो हृदि स्वयम्।
गह्वरं गहनं तत्स्थं तस्यान्तश्चोर्ध्वतः स्थितः ॥ ३६

तत्रापि दहं गगनमोङ्कारं परमेश्वरम्।
बालाग्रमात्रं तन्मध्ये ऋतं परमकारणम् ॥ ३७

सत्यं ब्रह्म महादेवं पुरुषं कृष्णपिङ्गलम्।
ऊध्र्वरेतसमीशानं विरूपाक्षमजोद्भवम् ॥ ३८

अधितिष्ठति योनिं यो योनिं वाचैक ईश्वरः ।
देहं पञ्चविधं येन तमीशानं पुरातनम् ॥ ३९

प्राणेष्वन्तर्मनसो लिङ्गमाहु-र्यस्मिन् क्रोधो या च तृष्णा क्षमा च।
तृष्णां छित्त्वा हेतुजालस्य मूलं बुद्धयाचिन्त्यं स्थापयित्वा च रुद्रे ।। ४०

जो महान्से भी महान् हैं, अणुसे भी सूक्ष्म हैं तथा अव्यय हैं, वे महेश्वर प्राणियोंकी हृदयरूपी गुहामें आत्मरूपसे स्थित हैं। कमलपर स्थित रहनेवाले वे शिव इस विश्वके आलयभूत होते हुए भी प्राणियोंके हृदयमें स्वयं विद्यमान रहते हैं और उस हृदयकमलमें स्थित जो अयोगियोंके लिये दुज्ञेय हृदयाकाश है, उसके भीतर तथा बाहर अग्निशिखाकी भाँति विराजमान हैं। उस अग्निशिखामें भी बालाग्रके समान सूक्ष्म जो दहरसंज्ञक आकाश है, उसके मध्यमें ऋत, परमकारणरूप, सत्य, ब्रह्मरूप, महादेव, पुरुष, अर्धनारीश्वर, ऊध्वरेता, ईशान, त्रिनेत्र तथा अजोद्भव परमेश्वर ओंकाररूपमें स्थित हैं। एक अथवा अनेक रूपोंवाले वे ईश्वर भिन्न-भिन्न योनियोंमें प्रवेश करते हैं, जिसके फलस्वरूप वे अन्नमय आदि पंचविध देह ग्रहण करते हैं उन पुरातन ईशानको जो धीर पुरुष देखते हैं, उन्हें शान्ति प्राप्त होती है वे [शिव] प्राणोंके भीतर स्थित हैं। उन्हें मनका स्वरूप कहा गया है, जिसमें क्रोध, तृष्णा, क्षमा आदि विद्यमान रहते हैं। भवबन्धनके हेतुके मूल कारणभूत तृष्णाका छेदन करके उसे रुद्रमें स्थापित करके बुद्धिके द्वारा उनका चिन्तन करना चाहिये ॥ ३५-४० ॥

एकं तमाहुर्वे रुद्रं शाश्वतं परमेश्वरम्। 
परात्परतरं वापि परात्परतरं ध्रुवम् ॥ ४१

ब्रह्मणो जनकं विष्णोर्वहेवाँयोः सदाशिवम् ।
ध्यात्वाग्निना च शोध्याङ्गं विशोध्य च पृथक्पृथक् ॥ ४२

पञ्चभूतानि संयम्य मात्राविधिगुणक्रमात् ।
मात्राः पञ्च चतस्त्रश्च त्रिमात्राद्विस्ततः परम् ॥ ४३

एकमात्रममात्रं हि द्वादशान्ते व्यवस्थितम्।
स्थित्वा स्थाप्यामृतो भूत्वा व्रतं पाशुपतं चरेत् ॥ ४४

एतव्रतं पाशुपतं चरिष्यामि समासतः ।
अग्निमाधाय विधिवदृग्यजुः सामसम्भवैः ।। ४५

उपोषितः शुचिः स्नातः शुक्लाम्बरधरः स्वयम्।
शुक्लयज्ञोपवीती च शुक्लमाल्यानुलेपनः ।। ४६

उन्हीं एकमात्र रुद्रको शाश्वत, परमेश्वर, परात्परतरसे भी परात्परतर तथा ध्रुव कहा गया है। ब्रह्मा, विष्णु, अग्नि तथा वायुके जनक सदाशिवका ध्यान करके, अग्निबोज (रं) से देहका शोधन करके पृथक् पृथक् पंचभूतोंका विशोधन पुनः मात्राविधि-गुणके क्रमसे पाँच-चार-तीन-दो-एक इन तन्मात्राओंका संयमन करके द्वादशारचक्रके अन्तमें विराजमान निर्गुण शिवको स्थापित करके तथा स्वयं वहाँ स्थित होकर अमृतरूप होकर पाशुपतव्रत करना चाहिये  मैं इस पाशुपतव्रतको संक्षेपमें करूँगा-ऐसा संकल्प करके ऋक्, यजुः, सामके मन्त्रोंसे विधिपूर्वक अग्निस्थापन करके, उपवासपूर्वक स्नान करके शुद्ध होकर शुक्ल वस्त्र, शुक्ल यज्ञोपवीत, शुक्ल माला, शुक्ल चन्दन आदि धारण करके रजोगुणसे मुक्त होकर विद्वान् होम करे; इस प्रकार वह रजोगुणरहित हो जायगा ॥ ४१-४६ ॥

जुहुयाद्विरजो विद्वान् विरजाश्च भविष्यति।
वायवः पञ्च शुध्यन्तां वाड्मनश्चरणादयः ॥ ४७

श्रोत्रं जिह्वा ततः प्राणस्ततो बुद्धिस्तथैव च।
शिरः पाणिस्तथा पार्श्व पृष्ठोदरमनन्तरम् ॥ ४८

जड्डे शिश्नमुपस्थं च पायुर्में तथैव च।
त्वचा मांसं च रुधिरं मेदोऽस्थीनि तथैव च ॥ ४९

शब्दः स्पर्श च रूपं च रसो गन्धस्तथैव च।
भूतानि चैव शुध्यन्तां देहे मेदादयस्तथा ॥ ५०

अन्नं प्राणे मनो ज्ञानं शुध्यन्तां वै शिवेच्छया।
हुत्वाज्येन समिद्भिश्च चरुणा च यथाक्रमम् ॥ ५१

उपसंहृत्य रुद्राग्निं गृहीत्वा भस्म यलतः ।
अग्निरित्यादिना धीमान् विमृज्याङ्गानि संस्पृशेत् ॥ ५२ 

शिव की इच्छासे [मेरे प्राण आदि पाँचों वायु शुद्ध हों, वाणी, मन, पाद, कान, जिल्हा, प्राण, बुद्धि, सिर, हाथ, पार्श्वभाग, पृष्ठभाग, उदर, दोनों जाँचें, शिश्न, जननेन्द्रिय, गुदा, मेढ़, त्वचा, मांस, रुधिर, मेद, अस्थियाँ, शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध, पृथ्वी आदि [पंच] महाभूत तथा देहमें स्थित मेद आदि शुद्ध हों; अन्न, प्राण, मन तथा ज्ञान शुद्ध हों- इस प्रकार यथाक्रम आण्य (घृत), समिधा तथा चरुसे विरजाहोम करके रुद्राग्निका उपसंहरणकर यत्नपूर्वक 'अग्निरिति' मन्त्रसे भस्म ग्रहणकर उसे मल करके बुद्धिमान्‌को अंगोंमें लगाना चाहिये ॥ ४७-५२॥

एतत्पाशुपतं दिव्यं व्रतं पाशविमोचनम् ।
ब्राह्मणानां हितं प्रोक्तं क्षत्रियाणां तथैव च ॥ ५३

वैश्यानामपि योग्यानां यतीनां तु विशेषतः ।
वानप्रस्थाश्रमस्थानां गृहस्थानां सतामपि ॥ ५४

विमुक्तिर्विधिनानेन दृष्ट्वा वै ब्रह्मचारिणाम्।
अग्निरित्यादिना भस्म गृहीत्वा ह्यग्निहोत्रजम् ॥ ५५

सोऽपि पाशुपतो विप्रो विमृज्याङ्गानि संस्पृशेत् ।
भस्मच्छन्नो द्विजो विद्वान् महापातकसम्भवैः ॥ ५६

पापैर्विमुच्यते सद्यो मुच्यते च न संशयः ।
वीर्यमग्नेर्यतो भस्म वीर्यवान् भस्मसंयुतः ॥ ५७

भस्मस्नानरतो विप्रो भस्मशायी जितेन्द्रियः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तः शिवसायुज्यमाप्नुयात् ।। ५८

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भूत्यङ्गं पूजयेद्बुधः ।
रेरेकारो न कर्तव्यस्तुन्तुन्कारस्तथैव च ॥५९

न तत्क्षमति देवेशो ब्रह्मा वा यदि केशवः।
मम पुत्रो भस्मधारी गणेशश्च वरानने । ६०

यह दिव्य पाशुपतव्रत बन्धनसे मुक्ति दिलानेवाला और ब्राह्मणों, क्षत्रियों, वैश्यों, विशेषरूपसे योग्य (अदुष्ट तथा अपतित) यतियों, वानप्रस्थ आश्रम में स्थित रहनेवालों, सत्पुरुष गृहस्थों तथा ब्रह्मचारियोंके लिये हितकर कहा गया है, इस प्रकार विरजादीक्षासहित भस्म धारण करनेसे मुक्ति होती है ऐसा जानकर 'अग्निरिति'इत्यादि मन्त्रसे अग्निहोत्रके भस्मको ग्रहण करके उसे मलकर अंगोंमें धारण करना चाहिये, ऐसा करनेवाला विप्र भी पाशुपत हो जाता है। भस्मसे अनुलिप्त विद्वान् द्विज महापायोंसे होनेवाले दोषोंसे शीघ्र मुक्त हो जाता है; इसमें सन्देह नहीं है। चूँकि अग्निका भस्म वीर्य (तेजरूप) होता है, अतः भस्म धारण करनेवाला वीर्यवान् (तेजस्वी) होता है। भस्मस्नानपरायण, भस्मशायी तथा जितेन्द्रिय विप्र सभी पापोंसे मुक्त होकर शिवसायुज्य प्राप्त करता है; अतः बुद्धिमान्‌को चाहिये कि अंगोंमें विभूति (भस्म) धारण करनेवालेकी पूजा करे, उनके प्रति 'रे' अथवा 'तुम' शब्द नहीं बोलना चाहिये; हे वरानने। इसे देवेश शिव सहन नहीं करते हैं, ऐसा कहनेवाले चाहे ब्रह्मा, विष्णु अथवा भस्मधारी मेरे पुत्र गणेश ही क्यों न हों ? ॥ ५३-६० ॥

तेषां विरुद्धं यत्त्याज्यं स याति नरकार्णवम्।
गृहस्थो ब्रह्महीनोऽपि त्रिपुण्ड्र यो न कारयेत् ॥ ६१

पूजा कर्म क्रिया तस्य दानं स्नानं तथैव च।
निष्फलं जायते सर्वं यथा भस्मनि वै हुतम् ॥ ६२

तस्माच्च सर्वकार्येषु त्रिपुण्डूं धारयेद्बुधः ।
इत्युक्त्वा भगवान् ब्रह्मा स्तुत्वा देवैः समं प्रभुः ।। ६३

भस्मच्छन्नैः स्वयं छन्नो विरराम विशाम्पते।
अथ तेषां प्रसादार्थ पशूनां पतिरीश्वरः ॥ ६४

सगणश्चाम्बया सार्धं सान्निध्यमकरोत्प्रभुः ।
अथ सन्निहितं रुद्रं तुष्टुवुः सुरपुङ्गवम् ॥ ६५

रुद्राध्यायेन सर्वेशं देवदेवमुमापतिम् ।
देवोऽपि देवानालोक्य घृणया वृषभध्वजः ।। ६६

तुष्टोऽस्मीत्याह देवेभ्यो वरं दातुं सुरारिहा ॥ ६७

जो कुछ भी उन पाशुपतव्रत करनेवालंकि विरुद्ध हो, वह त्याज्य है; जो त्याग नहीं करता, वह नरकार्णवमें जाता है। तपस्या आदिसे रहित होते हुए भी जो गृहस्थ त्रिपुण्ड्र धारण नहीं करता है, उसके द्वारा की गयी पूजा, सत्कर्म, क्रिया, दान, स्नान-सब कुछ उसी भाँति निष्फल होता है, जैसे भस्ममें डाली गयी आहुति। अतः बुद्धिमान्‌को सभी सत्कमौमें त्रिपुण्ड्र धारण करना चाहिये हे विशाम्पते। इस प्रकार भस्ममाहात्म्य कहकर स्वर्य भस्म धारण किये हुए प्रभु भगवान् ब्रह्मा भस्म धारण किये देवताओंके साथ शिवकी स्तुति करके [ध्यानानन्दमें मग्न होकर शान्त हो गये। तदनन्तर उन देवताओंपर अनुग्रह करनेके लिये पशुपति प्रभु महेश्वर गणों तथा पार्वतीके साथ प्रकट हुए। इसके बाद वे देवता वहाँ उपस्थित सुरश्रेष्ठ, सर्वेश, देवदेव, उमापति रुद्रकी रुद्राध्यायसे स्तुति करने लगे। तब देवशत्रुओंका संहार करनेवाले भगवान् वृषभध्वजने कृपापूर्ण दृष्टिसे देवोंको देखकर 'मैं देवताओंको वर प्रदान करनेके लिये सन्तुष्ट हूँ'- ऐसा कहा ॥ ६१-६७॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे पाशुपतव्रतमाहात्म्यवर्णनं नामाष्टादशोऽध्यायः ॥ १८ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तर भागमें 'पाशुपतव्रतमाहात्म्यवर्णन' नामक अठारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १८ ॥

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