लिंग पुराण : ब्रह्मा तथा विष्णु द्वारा की गयी भगवान्‌ महेश्वरकी स्तुति एवं उसका माहात्म्य | Linga Purana: Praise of Lord Maheshwar and his greatness by Brahma and Vishnu

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] इक्कीसवाँ अध्याय 

ब्रह्मा तथा विष्णु द्वारा की गयी भगवान्‌ महेश्वर की स्तुति एवं उस का माहात्म्

सूत उवाच 

ब्रह्माणमग्रतः कृत्वा ततः स गरुडध्वज:। 
अतीतैश्च॒भविष्यैश्च॒वर्तमानैस्तथेव च॥ १ 

नामभिश्छान्दसैरचेव इदं स्तोत्रमुदीरयेत्‌।

विष्युरुवाच

नमस्तुभ्य॑ भगवते सुक्रतानन्ततेजसे॥ २

नम: क्षेत्राधिपतये बीजिने शूलिने नमः। 
सुमेंद्रायार्य्यमेंद्राय दण्डिने रूक्षरेतसे ॥ ३

सूतजी बोले- तदनन्तर ब्रह्मा को आगे करके वे गरुड़ ध्वज भगवान् विष्णु अतीत, भविष्य तथा वर्तमान कल्पों से सम्बन्धित महादेव जी के वेद प्रतिपादित नामों से इस स्तोत्र का वाचन करने लगे विष्णु जी बोले- हे सुव्रत ! आप अनन्त तेज सम्पन्न भगवान को नमस्कार है। क्षेत्राधिपति, बीजी तथा त्रिशूल धारी को नमस्कार है। सुमेंद्र (सुन्दर लिङ्ग वाले), अर्घ्यमेंद्र (पूजनीय लिङ्गवाले), दण्डी तथा रूक्षरेता (रूक्ष वीर्यवाले) को नमस्कार है॥ २-३॥

नमो ज्येष्ठाय श्रेष्ठाय पूर्वाय प्रथमाय च। 
नमो मान्याय पूज्याय सद्योजाताय वै नमः ॥४

गह्वराय घटेशाय व्योमचीराम्बराय च। 
नमस्ते ह्यस्मदादीनां भूतानां प्रभवे नमः ॥५

वेदानां प्रभवे चैव स्मृतीनां प्रभवे नमः। 
प्रभवे कर्मदानानां द्रव्याणां प्रभवे नमः ॥ ६

नमो योगस्य प्रभवे सांख्यस्य प्रभवे नमः। 
नमो श्रुवनिबद्धानामृषीणां प्रभवे नम:॥ ७

ऋक्षाणां प्रभवे तुभ्यं ग्रहाणां प्रभवे नम:। 
वैद्युताशनिमेघानां  गर्जितप्रभवे. नम:॥ ८
 
महोदधीनां प्रभवे द्वीपानां प्रभवे नम:।
अद्रीणां प्रभवे चेव वर्षाणां प्रभवे नम:॥ ९

नमो नदीनां प्रभवे नदानां प्रभवे नमः। 
महौषधीनां प्रभवे वृक्षाणां प्रभवे नमः॥ १०

ज्येष्ठको, श्रेष्ठको, पूर्वको तथा प्रथमको नमस्कार है। मान्यको, पूज्यको तथा सद्योजातको नमस्कार है। गह्वर (अगम्य) को, घटेश (चेष्टमान जीवोंके स्वामी)- को तथा आकाश एवं वृक्षकी छालको अम्बर (वस्त्र)- के रूपमें धारण करनेवाले तथा हम-जैसे प्राणियोंके स्वामीको नमस्कार है वेदों के स्वामी तथा स्मृतियों के स्वामी को नमस्कार है। कर्मों तथा दान आदिके स्वामी और द्रव्यों के स्वामीको नमस्कार है योग के प्रभुको नमस्कार है और सांख्यके प्रभुको नमस्कार है। ध्रुवसे सम्बन्धित ऋषियों अर्थात्‌ सप्तर्पियोंके प्रभुको नमस्कार है नक्षत्रोंके स्वामीको नमस्कार हे, ग्रहोंके स्वामीको नमस्कार है, आपको नमस्कार है। विद्युताग्निसे युक्त मेघोंकी गर्जनाके स्वामीको नमस्कार है महासागरोंके स्वामी तथा द्वीपोंके स्वामी को नमस्कार है। पर्वतों तथा भारत आदि नौ वषेके स्वामीको नमस्कार है। नदियों तथा नदोंके स्वामीको नमस्कार है। महौषधियों तथा वृक्षोंके स्वामीको नमस्कार है ॥ १ -१०॥

धर्मवृक्षाय धर्माय स्थितीनां प्रभवे नमः। 
प्रभवे चर परार्धस्य परस्य प्रभवे नमः॥ ११

नमो रसानां प्रभवे रत्नानां प्रभवे नमः। 
क्षणानां प्रभवे चेव लवानां प्रभवे नम: ॥ १२

अहोरात्रार्धभासानां मासानां प्रभवे नमः। 
ऋतुनां प्रभवे तुभ्यं संख्याया: प्रभवे नम: ॥ १३

प्रभवे चापरार्धस्य परार्धप्रभवे नमः। 
नमः पुराणप्रभवे सर्गाणां प्रभवे नमः॥ १४

मन्वन्तराणां प्रभवे योगस्य प्रभवे नमः 
चतुर्विधस्थ सर्गस्य प्रभवेनन्तचक्षुषे॥ १५

कल्पोदयनिबन्धानां वार्तानां प्रभवे नमः। 
नमो विश्वस्य प्रभवे ब्रह्माधिपतये नम:॥ १६

विद्यानां प्रभवे चैव विद्याधिपतये नमः । 
नमो ब्रताधिपतये ब्रतानां प्रभवे नमः॥ १७

मन्त्राणां प्रभवे तुभ्यं मन्त्राधिपतये नमः। 
पितृणां पतये चैव पशूनां पतये नमः॥ १८

वाग्वृषाय नमस्तुभ्यं॑ पुराणवृषभाय च। 
नमः पशूनां पतये गोवृषेन्द्रध्वजाय च॥ १९

अनेकविध धर्मोके कारणरूप धर्मवृक्षको नमस्कार है, धर्मको नमस्कार है तथा स्थितियोंके स्वामीको नमस्कार है। परार्धके स्वामी तथा परके स्वामीको नमस्कार है सभी रसोंके स्वामी तथा रत्नोंके स्वामीको नमस्कार है। क्षणोंके स्वामी तथा लवों (क्षणांश)-के स्वामीको नमस्कार है। दिन, रात, अर्धमास (पक्ष) तथा मासोंके स्वामीको नमस्कार है। ऋतुओंके स्वामी तथा संख्याओंके स्वामी आप शिवको नमस्कार है अपरार्ध तथा परार्धके स्वामीको नमस्कार है। पुराणोंक स्वामीको नमस्कार है। सर्गोके स्वामीको नमस्कार है। मन्वन्तरोंके स्वामी तथा योगके स्वामीको नमस्कार है। (जरायुज, अण्डज, स्वेदज तथा उद्धिज्जरूप) चार प्रकारकी सृष्टिके स्वामीको नमस्कार है। अनन्त ज्योतिको नमस्कार है कल्पके उदयमें प्रणीत धर्मशास्त्रों तथा वार्ताओं (कृषि एवं वाणिज्यशास्त्रों )-के स्वामीको नमस्कार है। विश्वके स्वामीको नमस्कार है। ब्रह्माधिपतिको नमस्कार है। विद्याओंके स्वामी तथा विद्याधिपतिको नमस्कार है। ब्रतोंके स्वामीको नमस्कार है। ब्रताधिपतिको नमस्कार है मन्त्रो के स्वामी तथा मन्त्रोंक अधिपति आपको नमस्कार है। पितरोंके पति तथा पशुओंके पति को नमस्कार है। श्रेष्ठ वाणीवाले त श्रेष्ठ आप शिव को नमस्कार है। पशुओंके पति तथा गोवृषेन्द्रध्वज को नमस्कार है॥ ११ - १९॥

प्रजापतीनां पतये सिद्धीनां पतये नमः। 
दैत्यदानवसडूननां रक्षमां पतये नमः॥ २०

गन्धर्वाणां च पतये यक्षाणां पतये नमः । 
गरुडोरगसर्पाणां पक्षिणां पतये नमः॥ २१

सर्वगुह्पिशाचानां. गुह्माधिपतये. नमः। 
गोकर्णाय च गोप्जे च शड्डुकर्णाय बै नम: ॥ २२

वराहायाप्रमेघाय. ऋक्षाय. विरजाय च। 
नमो सुराणां पतये गणानां पतये नमः॥ २३

अम्भसां पतये चैव ओजसां पतये नमः। 
नमोउस्तु लक्ष्मीपतये श्रीपाय क्षितिपाय च॥ २४

बलाबलसमूहाय अक्षोभ्यक्षोभगाय च। 
दीप्तश्रड्कश्रुद्भाय. वृषभाय ककुद्धिने॥ २५

नमः स्थेर्याय वपुषे तेजसानुव्रताय च। 
अतीताय भविष्याय वर्तमानाय वै नमः॥ २६

सुवर्चसे च वीर्याय शूराय हाजिताय च। 
वरदाय वरेण्याय. पुरुषाय महात्मने॥ २७

नमो भूताय भव्याय महते प्रभवाय च। 
जनाय च नमस्तुभ्यं तपसे वरदाय च॥ २८

अणवे महते चैव नमः सर्वगताय च। 
नमो बन्धाय मोक्षाय स्वर्गाय नरकाय च॥ २९

नमो भवाय देवाय इज्याय याजकाय च। 
प्रत्युदीर्णाय दीप्ताय तत्त्वायातिगुणाय च॥ ३०

नमः पाशाय शस्त्राय नमस्त्वाभरणाय च। 
हुताय उपहूताय प्रहुतप्राशिताय च॥ ३१

प्रजाओंके पति तथा सिद्धियोंके पतिको नमस्कार है। दैत्य, दानव तथा राक्षससमूहोंके पतिको नमस्कार है। गन्धर्वों तथा यक्षोंके पतिको नमस्कार है। गरुड़, उरग, सर्प तथा पक्षियोंक पतिको नमस्कार है सभी गुप्त पिशाचोंके गुह्माधिपतिको नमस्कार है। गोकर्ण, गोप्ता तथा शंकुकर्णको नमस्कार है। वाराहको, अप्रमेयको, ऋक्षको तथा विरजको नमस्कार है| देवताओंके पति तथा गणोंके पतिको नमस्कार है  जलो के पति तथा ओजोंके पतिको नमस्कार है। लक्ष्मीपति, लक्ष्मीके रक्षक तथा पृथ्वीके पालनकर्ताको नमस्कार है। शक्तिमान्‌ तथा शक्तिहीन प्राणियोंके समुच्चयरूप शिवको नमस्कार है। अक्षोभ्यक्षोभणको नमस्कार है। दीप्तश्रृंग, एकश्रृंग, वृषभ तथा ककुग्मीको नमस्कार हैस्थैर्य, तेजोमयवपु तथा अनुब्रतको नमस्कार है। अतीत, भविष्य तथा वर्तमानरूप शिवको नमस्कार है। सुवर्चा, वीर्य, शूर, अजित, वरद, वरेण्य, पुरुष तथा महात्माको नमस्कार है भूत, भव्य, महत्‌ तथा प्रभवको नमस्कार है। जन, तप तथा वरदकों नमस्कार है; आपको नमस्कार है। अणु (परम सूक्ष्म), महत्‌ (महा-आकारसम्पन्न) तथा सर्वगत (सर्वत्र व्याप्त रहनेवाले)-कों नमस्कार है। बन्ध (जन्म-मरण-बन्धन), मोक्ष, स्वर्ग तथा नरकरूपको नमस्कार है भव, देव, इज्य (देवताओंके आचार्य) तथा याजक (यज्ञ करानेवाले)-को नमस्कार है। प्रत्युदीर्ण (महान्‌), दीप्त (आलोकयुक्त), तत्त्व तथा अतिगुण (गुणातीत)-को नमस्कार है। पाश, शस्त्र तथा आभरणको नमस्कार है। हुत (हविद्रव्यरूप), उपहूत (यज्ञ आदियें आवाहन किये जानेवाले), प्रहुतप्राशित (भक्तिपूर्वक दी गयी आहुतिको भोज्यरूपमें ग्रहण करनेवाले) शिवको नमस्कार है ॥ २०-३१ ॥

नमोउस्त्विष्टाय पूर्ताय अग्निष्टोमद्विजाय च। 
सदस्याय नमश्चेव दक्षिणावभूथाय च॥३२

अहिंसायाप्रलोभाय पशुमन्त्रौचधाय चउ। 
नमः पुष्टिप्रदानाय सुशीलाय सुशीलिने॥ ३३

अतीताय भविष्याय वर्तमानाय ते नम:। 
सुवर्चसे च॒ वीर्याय शूराय हाजिताय च॥ ३४

वरदाय वरेण्याय. पुरुषाय महात्मने। 
नमो भूताय भव्याय महते चाभयाय च॥ ३५

जरासिद्ध नमस्तुभ्यमयसे वरदाय च। 
अधरे महते चैव नमः सस्तुपताय च॥ ३६

नमएचेन्द्रियपत्राणां लेलिहानाय स्त्रग्विणे। 
विश्वाय विश्वरूपाय विश्वतः शिरसे नम: ॥ ३७

सर्वतः पाणिपादाय रुद्रायाप्रतिमाय च। 
नमो हव्याय कव्याय हव्यवाहाय वे नमः॥ ३८

नम: सिद्धाय मेध्याय इृष्टायेज्यापराय च। 
सुवीराय सुघोराय अक्षोभ्यक्षोभणाय च॥ ३९

सुप्रजाय सुमेधाय दीप्ताय भास्कराय च। 
नमो बुद्धाय शुद्धाय विस्तृताय मताय च॥ ४०

नमः स्थूलाय सूक्ष्माय दृश्यादृश्याय सर्वशः । 
वर्षते ज्वलते चैव वायवे शिशिराय च॥ ४१

नमस्ते वक़््केशाय ऊरुवक्ष:शिखाय च। 
नमो नमः सुवर्णाय तपनीयनिभाय च॥ ४२

विरूपाक्षाय लिड्राय पिड्रलाय महोजसे। 
वृष्टिघ्नाय नमएचैव नमः सौम्येक्षणाय च॥ ४३

नमो धूम्राय श्वेताय कृष्णाय लोहिताय च। 
पिशिताय पिशड्भराय पीताय च निषद्धिणे॥ ४४

इष्ट (यज्ञकर्म आदि), पूर्त (कृप-तडागादिनिर्माण), अग्निष्टोमद्विजरूप शिवकों नमस्कार है। सदस्यरूप, दक्षिणारूप तथा अवभुथ (यज्ञकी समाप्तिके अनन्तर शुद्धिके लिये किये जानेवाले स्नान)-रूप शिवको नमस्कार है। अहिंसा-अप्रलोभ-पशुमन्त्रीषधरूप, पुष्टिप्रदियक, सुशील तथा सदाचारीको नमस्कार है  अतीत, भविष्य तथा वर्तमान कालरूप अर्थात्‌ सर्वकालव्यापी शिवको नमस्कार है। सुवर्चा (महान्‌ शक्तिमान्‌), वीर्य, शूर, अजित, वरद, वरेण्य, पुरुष, महात्मा, भूत, भव्य, महत्‌ तथा अभयरूप शिवको नमस्कार है जरासिद्ध (नित्य तरुणरूप), सुवर्णरूप तथा वरदानी शिव आपको नमस्कार हैं। अधोरूप, महान्‌्रूप तथा निद्रितोंके पतिको नमस्कार है इन्द्रियरूप वाहनवाले, आस्वादनरूप, हार धारण करनेवाले, विश्व, विश्वरूप तथा सभी ओरसे सिरवाले शिवको नमस्कार है। सभी दिशाओंमें हाथों तथा पैरोंवाले, अप्रतिम, हव्य, कव्य तथा हव्यवाहरूप रुद्रको नमस्कार है सिद्ध, पवित्रात्मा, यज्ञरूप, यज्ञपरायण, सुवीर, सुघोर, अक्षोभ्यका भी क्षोभण करनेवाले, सुन्दर प्रजाओंवाले, तीव्र मेधावाले, दीप्त, भास्कर, बुद्ध, शुद्ध, प्रतिष्ठित तथा विस्तृत शिवकों नमस्कार है स्थूल, सूक्ष्म, दृश्य, अदृश्य, वृष्टि, ताप, वायु तथा शिशिर (ठंड)-रूप शिवको नमस्कार है। वक्रकेश (टेढ़े बालोंवाले) तथा उन्‍नत ऊरुप्रदेश एवं वक्ष:स्थलवाले शिवको नमस्कार है। सुन्दर वर्णवाले तथा तप्त स्वर्णके तुल्य आभावाले शिवको बार-बार नमस्कार है  विरूपाक्ष, लिड्भररूप, पिंगल, महान्‌ ओजसे सम्पन्न, वृष्टिका अवरोध करनेवाले तथा सौम्य दृष्टिवाले शिवको नमस्कार है, नमस्कार है॥ ३२ ४३॥

नमस्ते सविशेषाय निर्विशेषाय वे नमः।
नम ईज्याय पूज्याय उपजीव्याय वे नमः॥ ४५ 

नम: क्षेम्याय वृद्धाय वत्सलाय नमो नमः। 
नमो भूताय सत्याय सत्यासत्याय वै नमः ॥ ४६

नमो बै पद्मवर्णाय मृत्युघ्नाय च मृत्यवे। 
नमो गौराय श्यामाय कद्गवे लोहिताय च॥ ४७

धूत्र, श्वेत, कृष्ण, लोहित, पिशित, पिशंग तथा पीतरूप धनुर्धर शिवको नमस्कार है। विशेषता युक्त तथा विशेषतारहित शिवकों नमस्कार है। ईज्य, पूज्य तथा उपजीव्य को नमस्कार है क्षेम्य, वृद्ध, वत्सलकों बार-बार नमस्कार है। भूत, सत्य तथा सत्य-असत्यरूप शिवको नमस्कार है। पद्मवर्ण, मृत्युके विनाशक तथा मृत्युरूप शिवको नमस्कार है। गौर, श्याम, कद्भू (भूरावर्ण) तथा लोहितवर्ण शिवको नमस्कार है॥ ४५ -४७ ॥

महासन्ध्याभ्रवर्णाय चारुदीप्ताय दीक्षिणे। 
नम: कमलहस्ताय टिग्वासाय कपर्दिने॥ ४८

अप्रमाणाय सर्वाय अव्ययायामराय च। 
नमो रूपाय गन्धाय शाश्वतायाक्षताय च॥ ४९

पुरस्ताद्‌ बृंहते चैव विश्रान्ताय कृताय च। 
दुर्गगाय महेशाय क्रोधाय कपिलाय च॥ ५०

तर्क्यातर्क्यशरीराय. बलिने रंहसाय च। 
सिकत्याय प्रवाह्मयाय स्थिताय प्रसुताय च॥ ५१

सुमेधसे कुलालाय नमस्ते शशिखण्डिने। 
चित्राय चित्रवेषाय चित्रवर्णाय मेधसे॥ ५२

चेकितानाय तुष्टाय नमस्ते निहिताय च। 
नमः क्षान्ताय दान्ताय वज्संहननाय च॥ ५३

रक्षोघ्नाय विषघ्नाय शितिकण्ठोर्ध्वमन्यवे। 
लेलिहाय कृतान्ताय तिग्मायुधधराय च॥ ५४

प्रमोदाय सम्मोदाय यतिवेद्याय ते नमः। 
अनामयाय सर्वाय महाकालाय वबै नमः:॥ ५५

महासन्ध्याकालीन बादलों के समान वर्णवाले, सुन्दर दीप्तिवाले, दीक्षा प्रदान करनेवाले, हाथमें कमल धारण करनेवाले, दिग्वास (दिशाओंमें वास करनेवाले अथवा दिगम्बर) तथा जटाजूटधारी शिवको नमस्कार है। अप्रमाणरूप (इयत्तारहित), समग्ररूप, अव्यय, मरणरहित, रूप, गन्ध, नित्य तथा अविनाशी शिवको नमस्कार है  उपस्थित होकर पालन-पोषण करनेवाले, अस्थिर, कर्मरूप, दुर्गम, महेश, क्रोधरूप, कपिल, तर्क-अतर्कसे परे विग्रहवाले, बलवान, वेगरूप, बालुकामें विराजमान, प्रवाहरूप, स्थित, व्यापक, उत्तम मेधासम्पन्न, पृथिवीका लालन-पालन करनेवाले, चन्द्रकला धारण करनेवाले, चित्ररूप, विचित्र वेष धारण करनेवाले, विचित्र वर्णवाले तथा यज्ञरूप शिव आपको नमस्कार है  चेकितान (विशिष्ट ज्ञानवाले), संतोषरूप तथा निहित (अत्यन्त हितकारक) आपको नमस्कार है। क्षमाशील, इन्द्रियजित्‌ तथा वज़्के समान आघात करनेवाले शिवको नमस्कार है राक्षस्रों का विनाश करने वाले, विषका शमन करनेवाले, शुभ्न ग्रीवावाले, क्रुद्ध प्रतीत होते हुए भी सौम्य रूपवाले, सर्परूप, यमराजस्वरूप, तीक्ष्ण शस्त्र धारण करनेवाले, आनन्दस्वरूप, मोदसदृश, संन्यासियोंके द्वारा ज्ञेगय आप शिवको नमस्कार है। रोगविकारसे रहित, सर्वरूप महाकालको नमस्कार है॥ ५४-५५ ॥

प्रणवप्रणवेशाय भगनेत्रानन्‍तकाय च। 
मृगव्याधाय दक्षाय दक्षयज्ञान्काय च॥ ५६

सर्वभूतात्मभूताय सर्वेशातिशयाय. च। 
पुरध्नाय सुशस्त्राय धन्विनेषथ परश्वधे॥ ५७

पूषदन्‍्तविनाशाय. भगनेत्रान्तकाय चउअ। 
कामदाय वरिष्ठाय कामाड्रदहनाय च॥ ५८

रड् करालवक्त्राय नागेन्द्रददनाय च। 
दैत्यानामन्तकेशाय दैत्याक्रन्दकराय चचञ॥५९

हिमघ्नाय च तीकणाय आर्द्रचर्मधराय च। 
श्मशानरतिनित्याय नमोउस्तूल्मुकधारिणे॥ ६०

ओंकार, ओंकारेश्वर, भग नामक देवताके नेत्रका नाश करनेवाले, मृगव्याधरूप, दक्षरूप, दक्षप्रजापतिके यज्ञका विध्वंस करनेवाले, सभी प्राणियोंके आत्मस्वरूप, सर्वेश्वर, अतिशयस्वरूप, त्रिपुरके संहर्ता, सुन्दर शस्त्र धारण करनेवाले, धनुर्ध,, कुठार धारण करनेवाले, दक्षके यज्ञमें पूषानामक देवताका दाँत तोड़नेवाले तथा भग नामक देवताको नेत्रविहीन करनेवाले, मनोरथ पूर्ण करनेवाले, वरिष्ठ, कामदेवका शरीर दग्ध करनेवाले, रणभूमिमें विकराल वक्त्रवाले, गजाननरूप, दैत्योंके संहारक हम ब्रह्मा, विष्णु आदि देवताओंके भी स्वामी, दैत्योंको क्रन्दित करनेवाले, शीतका निवारण करनेवाले, तीक्ष्ण रूपवाले, मृदुचर्म धारण करनेवाले, नित्य श्मशानसे अनुराग रखनेवाले तथा हाथमें प्रज्वलित काष्ठ धारण करनेवाले भगवान्‌ शिवको नमस्कार है॥ ५६--६० ॥

नमस्ते प्राणपालाय मुण्डमालाधराय च। 
प्रहीणशोकैर्विविधेर्भूती: परिवृताय च॥ ६१

नरनारीशरीराय देव्या: प्रियकराय च। 
जटिने मुण्डिने चेव व्यालयज्ञोपवीतिने॥ ६२

नमोस्तु नृत्यशीलाय उपनुत्यप्रियाय च। 
मन्यवे गीतशीलाय मुनिभिर्गायते नमः॥ ६३

कटड्डूटाय तिग्माय अप्रियाय प्रियाय च। 
विभीषणाय भीष्माय भगप्रमथनाय च॥ ६४

सिद्धसड्डानुगीताय महाभागाय वे नमः। 
नमो मुक्ताइहासाय क्ष्वेडितास्फोटिताय च॥ ६५

प्रिय भक्तों का पालन करने वाले, मुण्डकी माला धारण करनेवाले, शोकरहित, अनेकविध भूतोंसे घिरे रहने वाले शिवको नमस्कार हैं। नर-नारीका विग्रह धारण करनेवाले (अर्धनारीश्वर), देवी पार्वतीका सदा प्रिय करनेवाले, जटाधारी, मुण्डी, सर्पोका यज्ञोपवीत धारण करनेवाले, नृत्यमें अभिरुचि रखने वाले, नृत्यशाला के प्रति प्रीति रखनेवाले, क्रोधरूप, गीतप्रिय तथा मुनियोंके द्वारा स्तुत्य शिव को नमस्कार है हाथी का मस्तक काटने वाले अर्थात्‌ सिंहरूप, तीक्ष्ण, अप्रिय, प्रिय, अति भयानक, प्रचण्ड, भगका प्रमथन करनेवाले, सिद्धसमुदायद्वारा नित्य अनुगीत महाभागको नमस्कार है। मुक्तरूप से अट्टहास करनेवाले, क्रोधावस्थामें सिंहगर्जना करके प्रकम्पित शरीरवाले शिवको नमस्कार है॥ ६१ - ६५ ॥

नर्दते कूर्दती चैव नमः प्रमुदितात्मने। 
नमो मृडाय श्वसते धावतेडथिष्ठिते नमः॥ ६६

ध्यायते जृम्भते चैव रुदते द्रवते नमः। 
वल्गते क्रीडते चैव लम्बोदरशरीरिणे॥ ६७

नमो5कृत्याय कृत्याय मुण्डाय विकटाय च। 
नम उन्मत्तदेहाय किड्लिणीकाय वे नमः॥ ६८

नमो विकृतवेषाय क्रूरायामर्षणाय च। 
अप्रमेयाय गोप्मे च दीप्तायानिर्गुणाय च॥ ६९

तीत्र नाद करने वाले, कूदने-फाँदने वाले तथा प्रमुदित आत्मावाले शिवको नमस्कार है। श्वास लेने वाले, दौड़ने वाले, अधिष्ठाता तथा आनन्दरूप शिवको नमस्कार है। ध्यान करनेवाले, जम्भाई लेनेवाले, रुदन करनेवाले तथा द्रवित होनेवाले शिवको नमस्कार है। छलाँग लगाने वाले, क्रीड़ा करने वाले तथा लम्बे उदरयुक्त शरीर वाले शिव को नमस्कार है विधि-निषेधरूप. (कृत्य-अकृत्य), मुण्ड, विकट रूप शिव को नमस्कार है। उन्मत्त देहवाले तथा किंकिणीसे शोभायमान शरीर वाले शिव को नमस्कार है। विकृत वेष धारण करने वाले, क्रूर, कोपाविष्ट, अप्रमेय, रक्षा करने वाले, दीप्त तथा सगुणरूप शिव को नमस्कार है ॥ ६६-६९ ॥

वामप्रियाय. वामाय चूडामणिधराय च। 
नमस्तोकाय तनवे गुणैरप्रमिताय. च।॥ ७०

नमो गुण्याय गुह्याय अगम्यगमनाय च। 
लोकथात्री त्वियं भूमि: पादौ सजजनसेवितो ॥ ७१

सर्वेषां सिद्धियोगानामधिष्ठानं तवोदरम्‌। 
मध्येउन्तरिक्ष॑ विस्तीर्ण तारागणविभूषितम्‌॥ ७२

स्वाते: पथ इवाभाति श्रीमान्‌ हारस्तवोरसि। 
दिशो दशभुजास्तुभ्यं॑ केयूराड्रदभूषिता: ॥ ७३

वामभाग में अपनी प्रिया गौरी से विभूषित, सुन्दर, चूड़ामणि धारण करनेवाले, बालरूप विग्रहवाले तथा अप्रमेय गुणोंसे सम्पन्न शिवको नमस्कार है सदगुणों से युक्त, निगूढ़ तथा अगम्य गतिवाले शिवको नमस्कार है। सदाचारीजनों द्वारा सेवित आपके दोनों चरण लोकधात्री इस पृथ्वीके तुल्य हैं। सभी सिद्धियों तथा योगोंका अधिष्ठानस्वरूप मध्यस्थित आपका उदर तारासमूहोंसे विभूषित विस्तृत अन्तरिक्षके समान है। आपके वक्ष:स्थलपर शोभायमान श्रीयुक्त हार तायपुंजोंके मार्गकी भाँति प्रतीत होता है। केयूर तथा अंगदसे विभूषित आपके दस हाथ दसों दिशाओंके तुल्य हैं॥७० - ७३॥

विस्तीर्णपरिणाहह्च नीलाझ्जनचयोपम:। 
कण्ठस्ते शोभते श्रीमान्‌ हेमसूत्रविभूषित: ॥ ७४

दंष्ट्रा करालं दुर्धर्षमनोपम्यं मुखं तथा। 
पद्ममालाकृतोष्णीषं शिरो द्यो: शोभतेडधिकम्‌॥ ७५

दीप्ति: सूर्य वपुएचन्द्रे स्थेर्य शलेडनिले बलम्‌। 
औष्ण्यमग्नो तथा शैत्यमप्सु शब्दो म्बरे तथा ॥

अक्षरान्तरनिष्पन्दाद्‌ गुणानेतान्‌ विदुर्ब॒धा:। 
जपो जप्यो महादेवों महायोगो महेश्वर:॥ ७७

पुरेशयो गुहावासी खेचरो रजनीचरः। 
तपोनिधिग्गुहगुरुर्नन्दनो नन्दवर्धन: ॥ ७८

हयशीर्षा पयोधाता विधाता भूतभावन:। 
बोद्धव्यो बोधिता नेता दुर्धर्षों दुष्प्रकम्पन: ॥ ७९

बृहद्रथो भीमकर्मा बृहत्कीर्तिर्धनज्जय:। 
घण्टाप्रियो ध्वजी छत्री पिनाकी ध्वजिनीपति: ॥ ८०

कवची पट्टिशी खड़गी धनुईस्त: परश्वधी। 
अधस्मरोधनघ: शूरो देवराजोउऊरिमर्दन:॥ ८९

नीले अंजनके समूह के तुल्य विस्तृत परिधिवाला आपका श्रीयुक्त कण्ठ स्वर्णसूत्र से सुशोभित है । विकराल दाँतोंवाला आपका मुख अत्यन्त भयावह तथा अनुपमेय हैं। पद्ममाला तथा पगड़ीसे शोभायमान आपका सिर आकाशकी भाँति अत्यधिक शोभाको प्राप्त हो रहा है सूर्य में प्रकाश, चन्द्रमामें कान्ति, पर्वतमें स्थिरता, वायुमें शक्ति, अग्निमें उष्णता, जलमें शीतलता तथा आकाशमें शब्दरूप विद्यमान ये गुण अविनाशी शिवके निष्पन्द अर्थात्‌ अल्पांशसे उत्पन्न हुए हैं--ऐसा मनीषी लोग मानते हैं। जप, जप्य, महादेव, महायोग, महेश्वर, पुरेशय, गुहावासी (गुफामें निवास करनेवाले), खेचर (आकाशमें विचरणशील), रजनीचर (सात्रिमें भ्रमण करनेवाले), तपोनिधि, कार्तिकेयके गुरु, आनन्दरूप, आनन्दकी वृद्धि करनेवाले, हयशीर्ष (घोड़ेके सिरवाले विष्णुरूप), पयोधाता (जल धारण करनेवाले इन्द्ररूप), विधाता (ब्रह्मारूप), भूतभावन, बोद्धव्य (बोध करनेयोग्य), बोधिता (बोध करानेवाले), नेता, दुर्धर्ष (अपराजेय), दुष्प्रकम्पन, बृहद्रथ (विशाल रथवाले), भीमकर्मा (भयंकर कर्मवाले), बृहत्कीर्ति (महान्‌ यशवाले), धनंजय, घण्टाप्रिय, ध्वजी (ध्वज धारण करनेवाले), छत्री (छत्र धारण करनेवाले), पिनाकी (धनुर्धर), ध्वजिनीपति (सेनापति), कवची (कवच धारण करनेवाले), पट्टिशी (एक प्रकारका तीक्ष्ण लौहदण्डरूप शस्त्र धारण करनेवाले), खड़्गी (तलवार धारण करनेवाले), धनुर्हस्त (हाथमें धनुष धारण करनेवाले ), परश्वधी (परशु धारण करनेवाले), अघस्मर (सबके पापकर्मोंको स्मृतिमें रखनेवाले ), निष्पाप, पराक्रमी, देवताओंके स्वामी तथा शत्रुओंका संहार करनेवाले सब कुछ आप ही हैं ॥ ७४ - ८१॥

त्वां प्रसाद्य पुरास्माभिद्विंषन्तो निहता युधि। 
अग्नि: सदार्णवाम्भस्त्वं पिबन्नपि न तृप्यसे॥ ८२

क्रोधाकारः प्रसन्‍नात्मा कामद: कामग: प्रिय: ।
ब्रह्मचारी चागाधश्च ब्रह्मण्य: शिष्टपूजित: ॥ ८३

देवानामक्षय: कोशस्त्वया यज्ञ: प्रकल्पित:। 
हव्यं तवेदं वहति वेदोक्त हव्यवाहन:। 
प्रीते त्वयि महादेव बयं प्रीता भवामहे॥ ८४

भवानीशोनादिमांस्त्व॑ च . सर्वलोकानां त्वं ब्रह्मकर्तादिसर्ग:।
सांख्या: प्रकृतेः परमं त्वां विदित्वा क्षीणध्यानास्त्वाममृत्युं विशन्ति॥ ८५

योगाच्च त्वां ध्यायिनो नित्यसिद्धं ज्ञात्वा योगान्‌ सन्त्यजन्ते पुनस्तान्‌।
ये चाप्यन्ये त्वां प्रसन्‍ना विशुद्धाः स्वकर्मभिस्ते दिव्यभोगा भवन्ति॥ ८६

अप्रसड्ख्येयतत्त्वस्थ यथा विदा: स्वशक्तित: । 
कीर्तितं तव माहात्म्यमपारस्य महात्मन: ॥ ८७

शिवो नो भव सर्वत्र योउसि सो5सि नमोःस्तु ते।

पूर्वकाल में आपको प्रसन्‍न करके हम देवताओंने अपने शत्रुओंका युद्धमें संहार किया था। अग्निरूप आप सदा महासागरका जल पीते हुए भी कभी तृप्त नहीं होते हैं  आप क्रोधमय भावाकृतिवाले, प्रसन्‍न आत्मावाले, मनोरथोंको पूर्ण करने वाले, अपनी इच्छासे विचरण करनेवाले, प्रिय, ब्रह्मचारी, दुस्तर, ब्रह्मण्य, शिष्टजनोंद्वारा पूजित तथा देवताओंकी अक्षय निधि हैं। आपने ही यज्ञोंका विधान किया है। अग्निदेव आपके ही वेदोक्त हव्यका वहन करते हैं। हे महादेव! आपके प्रसन्न होनेपर हम देवतालोग प्रसन्न हो जाते हैं आप भवानी के ईश हैं तथा आदिसे रहित हैं। सभी लोकोंके ब्रह्मरूप कर्ता आप ही हैं। आप ही आदि सृष्टि हैं। क्षीण ध्यानवाले सांख्यशास्त्री आपको प्रकृतिसे परे जानकर अमृत्युरूप आपको ही प्राप्त होते हैं ध्यान परायण योगी अपने योग बल से नित्य-सिद्ध आपको जानकर पुनः उन योगों का परित्याग कर देते हैं। और भी अन्य जो प्रसन्‍नचित्त तथा विशुद्ध मनवाले लोग हैं, वे अपने उत्तम कमःंके द्वारा आपको जानकर दिव्य भोगोंकी प्राप्ति करते हैं गणनातीत तत्त्वोंवाले तथा सीमारहित आप महात्माका जैसा माहात्म्य हम जानते हैं, वैसा अपनी सामर्थ्यके अनुसार हमने कह दिया। आप हमारे लिये सर्वत्र कल्याणकारी हों। आप जो कुछ भी हैं, आपको नमस्कार है॥ ८२ - ८७॥

सूत उवाच 

य इदं कीरततयेद्धक्त्या ब्रह्मनारायणस्तवम्‌॥ ८८

श्रावयेद्वा द्विजान्‌ विद्वान्‌ श्रणुयाद्वा समाहितः । 
अश्वमेधायुतं कृत्वा यत्फलं॑ तदवाप्नुयात्‌॥ ८९

पापाचारोपि यो मर्त्य: श्रणुयाच्छिवसनिधी ।
जपेद्वापि विनिर्मुक्तो ब्रह्मलोक॑ स गच्छति॥ ९०

श्राद्धे वा दैविके कार्ये यज्ञे वावभूथान्तिके।
कीर्तयेद्ठा सतां मध्ये स याति ब्रह्मणोउन्तिकम्‌॥ ९९

सूतजी बोले - [हे ऋषियो!] जो प्राणी एकाग्र होकर भक्ति पूर्वक ब्रह्मा तथा विष्णु के द्वारा की गयी स शिव स्तुति को कहता है, सुनता है अथवा द्विजों तथा विद्वानोंको सुनाता है; वह दस हजार अश्वमेध यज्ञ करके जो फल मिलता है, उस फलको प्राप्त कर लेता है घोर पापकर्म करने वाला जो कोई भी प्राणी शिवके समीप इस स्तुतिका पाठ करता है अथवा इसे सुनता है, वह सभी पापोंसे मुक्त होकर ब्रह्मलोकको जाता है जो सज्जनोंके बीचमें, श्राद्धकर्ममें, देवकर्म में, यज्ञधर्मादि अनुष्ठानोंक बाद किये जानेवाले स्नान के अनन्तर इस स्तोत्र का पाठ करता है, वह ब्रह्मलोक को प्राप्त होता है॥ ८८ - ९१॥

॥ ज्ञति श्रीलिंग महापुराणे पूर्वभागे ब्रह्मविष्णुस्तुतिनमिकर्विशोडध्याय: ॥ २९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिंग महापुराण के अन्तर्गत एर्वभाग में 'ब्रह्मविष्यु स्दुति ' नामक इक्कीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ २१ ॥

FAQs (अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न)

प्रश्न 1: इस अध्याय में किस प्रकार से भगवान महेश्वर की स्तुति की गई है?

उत्तर: इस अध्याय में भगवान विष्णु ने ब्रह्मा के साथ महेश्वर की स्तुति की। इसमें वेदों, स्मृतियों और विभिन्न नामों का उपयोग करके महादेव के व्यापक स्वरूप और उनकी महिमा का वर्णन किया गया है।

प्रश्न 2: भगवान महेश्वर के कौन-कौन से रूपों का उल्लेख है?

उत्तर: इस अध्याय में महेश्वर को क्षेत्राधिपति, बीजस्वरूप, त्रिशूलधारी, सुमेंद्र, गह्वर, घटेश, सद्योजात, अणु, महत, सर्वगत, पाशुपति, हव्यवाहक, और विश्वरूप जैसे कई रूपों में वर्णित किया गया है।

प्रश्न 3: महेश्वर की स्तुति के पीछे क्या उद्देश्य था?

उत्तर: भगवान विष्णु और ब्रह्मा ने त्रिकाल (अतीत, वर्तमान, और भविष्य) के आधार पर महेश्वर के प्रति अपनी श्रद्धा व्यक्त की। इस स्तुति का उद्देश्य उनकी असीम महिमा, जगत के प्रति उनका प्रभुत्व और भक्ति का आदर्श प्रस्तुत करना था।

प्रश्न 4: भगवान महेश्वर को कौन-कौन से विशेषण दिए गए हैं?

उत्तर: महेश्वर को अनेक विशेषणों से संबोधित किया गया है, जैसे:

  • ज्येष्ठ और श्रेष्ठ: सर्वोत्तम और प्राचीनतम।
  • प्रभु: वेद, स्मृतियां, ग्रह, नक्षत्र, पर्वत, नदियां, द्वीप, ऋतुएं, और विश्व के स्वामी।
  • योग और सांख्य के अधिपति: ज्ञान और साधना के स्रोत।
  • विश्वरूप: सम्पूर्ण ब्रह्मांड में व्याप्त।

प्रश्न 5: इस अध्याय का भक्तों के लिए क्या महत्व है?

उत्तर: यह अध्याय महेश्वर की भक्ति और उनकी महिमा का गान करने का मार्ग दिखाता है। यह भक्तों को भगवान शिव के प्रति समर्पण और उनकी शक्ति की व्यापकता का अनुभव करने के लिए प्रेरित करता है।

प्रश्न 6: भगवान महेश्वर को किस प्रकार संबोधित किया गया है?

उत्तर: भगवान महेश्वर को विश्व का पालनकर्ता, रचनाकार, संहारकर्ता, धर्म के रक्षक, ज्ञान के प्रदाता, और भक्तों के संकटहरणकर्ता के रूप में संबोधित किया गया है।

प्रश्न 7: इस अध्याय में स्तुति का कौन-सा भाग सबसे विशेष है?

उत्तर: "अणवे महते चैव नमः सर्वगताय च।" इस पंक्ति में महेश्वर की सूक्ष्मता और व्यापकता का वर्णन किया गया है, जो उनकी सर्वव्यापकता को दर्शाता है।

प्रश्न 8: इस स्तुति के लाभ क्या हैं?

उत्तर: इस स्तुति का नियमित पाठ करने से भक्तों को महेश्वर की कृपा प्राप्त होती है। इससे उनके जीवन में शांति, समृद्धि और आध्यात्मिक उन्नति होती है।

प्रश्न 9: क्या इस स्तुति का पाठ किसी विशेष समय पर करना चाहिए?

उत्तर: इस स्तुति का पाठ किसी भी समय किया जा सकता है, लेकिन प्रातःकाल या प्रदोष काल (शाम के समय) में इसका पाठ विशेष फलदायी होता है।

प्रश्न 10: क्या यह अध्याय योग साधना के महत्व को भी दर्शाता है?

उत्तर: हां, इस अध्याय में महेश्वर को योग और सांख्य के अधिपति के रूप में वर्णित किया गया है। यह योग साधना और ज्ञान के प्रति शिव की भूमिका को दर्शाता है।


निष्कर्ष

भगवान महेश्वर की यह स्तुति उनके सर्वव्यापक, सर्वज्ञ और सर्वशक्तिमान स्वरूप को दर्शाती है। यह अध्याय भक्ति और शिव की महिमा के माध्यम से भक्तों को धर्म और साधना के मार्ग पर अग्रसर करता है।

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