श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग बारहवाँ अध्याय
भगवान् शिवकी अष्टमूर्तियोंका स्वरूप तथा उनकी विश्वरूपता
सनत्कुमार उवाच
मूर्तयोऽष्टौ ममाचक्ष्व शङ्करस्य महात्मनः ।
विश्वरूपस्य देवस्य गणेश्वर महामते ।। १
सनत्कुमार बोले- हे गणेश्वर! हे महामते। विश्वरूप महात्मा भगवान् शंकरकी आठ मूर्तियोंको आप मुझे बतायें ॥ १॥
नन्दिकेश्वर उवाच
हन्त ते कथयिष्यामि महिमानमुमापतेः ।
विश्वरूपस्य देवस्य सरोजभवसम्भव ॥ २
भूरापोऽग्निर्मरुद् व्योम भास्करो दीक्षितः शशी।
भवस्य मूर्तयः प्रोक्ताः शिवस्य परमेष्ठिनः ॥ ३
खात्मेन्दुवह्रिसूर्याम्भोधराः पवन इत्यपि।
तस्याष्टमूर्तयः प्रोक्ता देवदेवस्य श्रीमतः ॥ ४
अग्निहोत्रेऽर्पिते तेन सूर्यात्मनि महात्मनि।
तद्विभूतीस्तथा सर्वे देवास्तृप्यन्ति सर्वदा ॥ ५
वृक्षस्य मूलसेकेन यथा शाखोपशाखिकाः ।
तथा तस्यार्चया देवास्तथा स्युस्तद्विभूतयः ॥ ६
नन्दिकेश्वर बोले- है कमलयोनि (ब्रह्मा) के पुत्र! मैं उमापति विश्वरूप महादेवकी महिमाका वर्णन आपसे अवश्य करूँगा। भूमि, जल, अग्नि, वायु, आकाश, भास्कर, यजमान तथा चन्द्र- ये परमेष्ठी भगवान् शिवकी आठ मूर्तियाँ कही गयी हैं। आकाश, आत्मा (जीव), चन्द्र, अग्नि, सूर्य, जल, पृथ्वी, पवन-ये भी उन बुद्धिसम्पन्न देवाधिदेवकी आठ मूर्तियाँ कहो गयी हैं। इसीलिये अग्निमें विधिपूर्वक दी गयी आहुति, सूर्यको प्रदत्त अर्घ्य आदि तथा परमात्माके प्रति समर्पित पदार्थसे उनकी समस्त विभूतियाँ और सभी देवता सदैव तृप्त होते हैं। जिस प्रकार वृक्षके मूलको सींचनेसे उसकी शाखाएँ तथा उपशाखाएँ स्वयं पोषित होती हैं, उसी प्रकार उन शिवकी पूजासे देवगण तथा उनकी विभूतियाँ स्वयं सन्तुष्ट हो जाती हैं ॥ २-६॥
तस्य द्वादशधा भिन्नं रूपं सूर्यात्मकं प्रभोः।
सर्वदेवात्मकं याज्यं यजन्ति मुनिपुङ्गवाः ।। ७
अमृताख्या कला तस्य सर्वस्यादित्यरूपिणः ।
भूतसञ्जीवनी चेष्टा लोकेऽस्मिन् पीयते सदा ।। ८
चन्द्राख्यकिरणास्तस्य धूर्जटेर्भास्करात्मनः ।
ओषधीनां विवृद्धयर्थ हिमवृष्टिं वितन्वते ॥ ९
शुक्लाख्या रश्मयस्तस्य शम्भोर्मार्तण्डरूपिणः ।
घर्म वितन्वते लोके सस्यपाकादिकारणम् ॥ १०
उन प्रभु शिवके बारह प्रकारके भिन्न सूर्यात्मक रूप हैं; श्रेष्ठ मुनिगण उसी सर्वदेवात्मक पूज्य रूपका यजन करते हैं उन आदित्यरूप भगवान् शिवकी अमृता नामक कला प्राणियोंको जीवन प्रदान करती है; इस लोकमें सभीके लिये प्रिय इस कलाका सदा पान किया जाता है सूर्यरूप उन भगवान् शिवकी चन्द्र नामक किरणें औषधियों की वृद्धिके लिये हिमवृष्टिका विस्तार करती हैं मार्तण्डरूपी उन शिवकी शुक्ल नामक किरणें फसलोंके पाक आदिकी कारणरूप ऊष्माका लोकमें विस्तार करती हैं ॥ ७-१० ॥
दिवाकरात्मनस्तस्य हरिकेशाह्वयः करः।
नक्षत्रपोषकश्चैव प्रसिद्धः परमेष्ठिनः ॥ ११
विश्वकर्माहृयस्तस्य किरणो बुधपोषकः।
सर्वेश्वरस्य देवस्य सप्तसप्तिस्वरूपिणः ॥ १२
विश्वव्यच इति ख्यातः किरणस्तस्य शूलिनः ।
शुक्रपोषकभावेन प्रतीतः सूर्यरूपिणः ॥ १३
संयद्वसुरिति ख्यातो यस्य रश्मिस्त्रिशूलिनः ।
लोहिताङ्गं प्रपुष्णाति सहस्त्रकिरणात्मनः ॥ १४
अर्वावसुरिति ख्यातो रश्मिस्तस्य पिनाकिनः ।
बृहस्पतिं प्रपुष्णाति सर्वदा तपनात्मनः ॥ १५
स्वराडिति समाख्यातः शिवस्यांशुः शनैश्चरम्।
हरिदश्वात्मनस्तस्य प्रपुष्णाति दिवानिशम् ॥ १६
सूर्यात्मकस्य देवस्य विश्वयोनेरुमापतेः ।
सुषुम्णाख्यः सदा रश्मिः पुष्णाति शिशिरद्युतिम् ।। १७
उन सूर्यरूप परमेष्ठी शिवकी हरिकेश नामसे प्रसिद्ध किरण नक्षत्रोंको दीप्ति प्रदान करती है। उन सूर्यस्वरूप सर्वेश्वर प्रभुकी विश्वकर्मा नामक किरण बुधका पोषण करती है। उन शूलधारी सूर्यरूप शिवकी विश्वव्यच-इस नामसे प्रसिद्ध किरण शुक्रके पौषकभावसे प्रतिष्ठित है। उन सूर्यरूप त्रिशूलधारी शिवकी संयद्वसु- इस नामसे प्रसिद्ध किरण मंगलका पोषण करती है। वन सूर्यरूप पिनाकी शिवकी अर्वावसु-इस नामवाली किरण सर्वदा बृहस्पतिका पोषण करती है। सूर्यरूप उन शिवकी स्वराद्-इस नामसे प्रसिद्ध किरण दिन-रात शनैश्चरका पौषण करती है। विश्वकी उत्पत्ति करनेवाले उमापति सूर्वरूप महादेवकी सुषुम्णा नामक किरण सदा चन्द्रमाका पोषण करती है॥ ११-१७॥
सौम्यानां वसुजातानां प्रकृतित्वमुपागता।
तस्य सोमाह्वया मूर्तिः शङ्करस्य जगद्गुरोः ॥ १८
तस्य सोमात्मकं रूपं शुक्रत्वेन व्यवस्थितम् ।
शरीरभाजां सर्वेषां देवस्यान्तकशासिनः ॥ १९
शरीरिणामशेषाणां मनस्येव व्यवस्थितम्।
वपुः सोमात्मकं शम्भोस्तस्य सर्वजगद्गुरोः ॥ २०
शम्भोः षोडशधा भिन्ना स्थितामृतकलात्मनः ।
सर्वभूतशरीरेषु सोमाख्या मूर्तिरुत्तमा ॥ २१
देवान् पितृ॑श्च पुष्णाति सुधयामृतया सदा।
मूर्तिः सोमाह्वया तस्य देवदेवस्य शासितुः ॥ २२
उन जगद्गुरु शंकरकी सोम (चन्द्र) नामक मूर्ति समस्त शान्त किरणोंकी प्रकृतिको प्राप्त है। कालपर शासन करनेवाले उन शिवका सोमात्मकरूप सभी देहधारियोंमें शुक्र (वीर्य) रूपसे व्यवस्थित है। समस्त जगत्के गुरु उन शिवका चन्द्ररूप शरीर ही सभी जीवोंके मनमें प्रतिष्ठित है चन्द्ररूप शिवकी सोम नामक उत्तम मूर्ति सम्पूर्ण प्राणियोंके शरीरोंमें सोलह प्रकारके विभिन्न रूपोंमें स्थित है उन देवाधिदेव प्रभुकी 'चन्द्र' नामक मूर्ति अपनी अविनाशी सुधासे देवताओं और पितरोंको सदा तृप्त करती रहती है॥ १८-२२ ॥
पुष्णात्योषधिजातानि देहिनामात्मशुद्धये।
सोमाङ्ख्या तनुस्तस्य भवानीमिति निर्दिशेत् ॥ २३
यज्ञानां पतिभावेन जीवानां तपसामपि।
प्रसिद्धरूपमेतद्वै सोमात्मकमुमापतेः ॥ २४
जलानामोषधीनां च पतिभावेन विश्रुतम्।
सोमात्मकं वपुस्तस्य शम्भोर्भगवतः प्रभोः ॥ २५
देवो हिरण्मयो मृष्टः परस्परविवेकिनः ।
करणानामशेषाणां देवतानां निराकृतिः ॥ २६
उन शिवकी सीम नामक मूर्ति प्राणियोंकी देहशुद्धिके लिये समस्त औषधियोंको पोषित करती है; उस मूर्तिको भवानीरूप ही समझना चाहिये उमापति शिवकी यह चन्द्ररूप मूर्ति यज्ञों, जीवों और तपोंक स्वामीके रूपमें प्रसिद्ध है। उन सर्वशक्तिमान् भगवान् शम्भुका चन्द्ररूप विग्रह जल और औषधियोंके स्वामीके रूपमें विख्यात है आत्मा और अनात्मा-सम्बन्धी विचारसम्पन्न जनोंसे सुविचारित जो सदाशिव हैं, वे समस्त इन्द्रियों तथा उनके देवताओंसे अग्राहृा हैं तथा विशुद्ध अमृतरूप हैं ॥ २३-२६ ॥
जीवत्वेन स्थिते तस्मिन् शिवे सोमात्मके प्रभौ।
मधुरा विलयं याति सर्वलोकैकरक्षिणी ॥ २७
यजमानाह्वया मूर्तिः शैवी हव्यैरहर्निशम् ।
पुष्णाति देवताः सर्वाः कव्यैः पितृगणानपि ॥ २८
यजमानाह्वया या सा तनुश्चाहुतिजा तया।
वृष्ट्वा भावयति स्पष्टं सर्वमेव परापरम् ॥ २९
अन्तःस्थं च बहिः स्थं च ब्रह्माण्डानां स्थितं जलम् ।
भूतानां च शरीरस्थं शम्भोर्मूर्तिगरीयसी ॥ ३०
उन चन्द्ररूप भगवान् शिवके जीवरूपमें आत्मामें निश्चल हो जानेपर समस्त लोकोंपर एकमात्र शासन करनेवाली माया तिरोहित हो जाती है शिवकी यजमान नामक मूर्ति हव्य द्रव्योंसे सभी देवताओं तथा कव्य द्रव्योंसे पितरोंको भी निरन्तर सन्तृप्त करती है यजमान नामक जो [शिवको] मूर्ति है, वह आहुतिजन्य वृष्टिसे सभी परापर पदार्थोंको उत्पन्न करती है-यह प्रसिद्ध ही है ब्रह्माण्डोंके भीतर तथा बाहर व्याप्त जल तथा प्राणियोंक शरीरमें स्थित जल उन्हीं शिवकी श्रेष्ठ मूर्ति है॥ २७-३० ॥
नदीनाममृतं साक्षान्नदानामपि सर्वदा।
समुद्राणां च सर्वत्र व्यापी सर्वमुमापतिः ॥ ३१
सञ्जीविनी समस्तानां भूतानामेव पाविनी।
अम्बिका प्राणसंस्था या मूर्तिरम्बुमयी परा ॥ ३२
अन्तःस्थश्च बहिःस्थश्च ब्रह्माण्डानां विभावसुः ।
यज्ञानां च शरीरस्थः शम्भोर्मूर्तिर्गरीयसी ॥ ३३
शरीरस्था च भूतानां श्रेयसी मूर्तिरैश्वरी।
मूर्तिः पावकसंस्था या शम्भोरत्यन्तपूजिता ।। ३४
भेदा एकोनपञ्चाशद्वेदविद्भिरुदाहृताः ।
हव्यं वहति देवानां शम्भोर्यज्ञात्मकं वपुः ॥ ३५
कव्यं पितृगणानां च हूयमानं द्विजातिभिः ।
सर्वदेवमयं शम्भोः श्रेष्ठमग्न्यात्मकं वपुः ॥ ३६
नदियों, नदों और समुद्रोंके अमृतमय सारे जलके रूपमें सर्वत्र उमापत्ति शिव ही सर्वदा व्याप्त हैं। यह मूर्ति समस्त जीवोंको जीवन प्रदान करनेवाली तथा उन्हें पवित्र करनेवाली है। चन्द्ररूपा उमाके हृदयमें जो मूर्ति स्थित है, वह भगवान् शिवकी जलमयी परामूर्ति ही है ब्रह्माण्डोंके भीतर तथा बाहर व्याप्त और यज्ञविग्रहमें स्थित अग्नि भगवान् शिवकी श्रेष्ठ [अग्निरूप] मूर्ति ही है। जीवकि शरीरमें भी जठराग्निरूपसे ईश्वर शिवकी कल्याणमयी मूर्ति ही विराजमान है। भगवान् शिवकी जो अग्निरूप मूर्ति है, वह अत्यन्त पूजित है। वेदवेत्ताओंने इसके उनचास भेद बताये हैं। भगवान् शिवका यह अग्निरूप विग्रह द्विजातियोंके द्वारा आहुति प्रदान किये जानेपर देवताओंके लिये हव्य तथा पितरोंके लिये कव्यका वहन करता है। वेद तथा शास्त्रोंको जाननेवाले भगवान् शिवकी अग्निरूप मूर्तिको सर्वदेवमय तथा श्रेष्ठ कहते हैं और विधिपूर्वक उसकी पूजा करते हैं ॥ ३१-३६ ॥
वदन्ति वेदशास्त्रज्ञा यजन्ति च यथाविधि।
अन्तःस्थो जगदण्डानां बहिःस्थश्च समीरणः ॥ ३७
शरीरस्थश्च भूतानां शैवी मूर्तिः पटीयसी।
प्राणाद्या नागकूर्माद्या आवहाद्याश्च वायवः ॥ ३८
ईशानमूर्तेरेकस्य भेदाः सर्वे प्रकीर्तिताः।
अन्तःस्थं जगदण्डानां बहिःस्थं च वियद्विभोः ॥ ३९
शरीरस्थं च भूतानां शम्भोर्मूर्तिगरीयसी ।
शम्भोर्विश्वम्भरा मूर्तिः सर्वब्रह्माधिदेवता ।। ४०
ब्रह्माण्डोंके भीतर तथा बाहर स्थित और जीवोंके शरीरमें स्थित जो वायु है, वह शिवकी महिमामयी मूर्ति ही है। प्राण आदि, नाग-कूर्म आदि और आहव आदि वायु हैं; वे सब उसी एकमात्र शिवकी मूर्तिके भेद कहे गये हैं ब्रह्माण्डों के भीतर तथा बाहर स्थित और प्राणियोंके देहमें स्थित जो आकाश है, वह सर्वव्यापी शम्भुकी ही महिमायुक्त मूर्ति है। भगवान् शिवको धरारूप मूर्ति सभी ब्राह्मणोंकी मुख्य देवता है तथा समस्त चराचर प्राणियोंको धारण करनेवाली कही गयी है॥ ३७-४०॥
चराचराणां भूतानां सर्वेषां धारणे मता।
चराचराणां भूतानां शरीराणि विदुर्बुधाः ॥ ४१
पञ्चकेनेशमूर्तीनां समारब्धानि सर्वथा।
पञ्चभूतानि चन्द्रार्कावात्मेति मुनिपुङ्गवाः ॥ ४२
मूर्तयोऽष्टौ शिवस्याहुर्देवदेवस्य धीमतः।
आत्मा तस्याष्टमी मूर्तिर्यजमानाह्वया परा ॥ ४३
चराचरशरीरेषु सर्वेष्वेव स्थिता तदा।
दीक्षितं ब्राह्मणं प्राहुरात्मानं च मुनीश्वराः ॥ ४४
यजमानाह्वया मूर्तिः शिवस्य शिवदायिनः ।
मूर्तयोऽष्टौ शिवस्यैता वन्दनीयाः प्रयत्नतः ॥ ४५
श्रेयोऽर्थिभिर्नरैर्नित्यं श्रेयसामेकहेतवः ॥ ४६
स्थावर जंगम प्राणियोंके शरीर भगवान् शिवकी मूर्तियोंक [पृथ्वी, जल आदि पंचमहाभूत समुदायसे सम्यक् उत्पन्न किये गये हैं-ऐसा विद्वानोंने कहा है। श्रेष्ठ मुनियोंने बताया है कि पंचमहाभूत (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश), चन्द्र, सूर्य और आत्मा-ये ही देवदेव धीमान्की आठ मूर्तियाँ हैं। उन शिवकी जो आठों श्रेष्ठ मूर्ति आत्मा है, वह यजमान मामवाली भी है; यह सभी चराचर प्राणियोंके शरीरोंमें सदा स्थित रहती है। मुनीश्वरोंने दीक्षित ब्राह्मणको भी आत्मा कहा है। इसे ही कल्याणकारी शिवकी यजमान नामक मूर्ति कहा गया है। अपने कल्याणकी कामना करनेवाले मनुष्योंको शिवकी इन कल्याणकी साधनभूता अष्ट- मूर्तियोंकी प्रयत्नपूर्वक नित्य वन्दना करनी चाहिये ॥ ४१-४६ ॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवविश्वरूपवर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः ॥ १२॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवविश्वरूपवर्णन 'नामक बारहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ १२॥
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