लिंग पुराण : अलिङ्ग एवं लिङ्गत्तत्त्वका स्वरूप, जगत्‌की उत्पत्ति का क्रम तथा महेश्वर शिवकी महिमा

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तीसरा अध्याय

अलिङ्ग एवं लिङ्गत्तत्त्वका स्वरूप, शिवतत्त्वकी व्यापकता, महदादि तत्त्वोंका विवेचन, जगत्‌ की उत्पत्तिका क्रम तथा महेश्वर शिवकी महिमा

सूत उवाच

अलिङ्गो लिङ्गमूलं तु अव्यक्तं लिङ्गमुच्यते। 
अलिङ्गः शिव इत्युक्तो लिङ्गं शैवमिति स्मृतम् ॥ १

प्रधानं प्रकृतिश्चेति यदाहुर्लिङ्गमुत्तमम् । 
गन्धवर्णरसैहींनं शब्दस्पर्शादिवर्जितम् ॥ २

अगुणं ध्रुवमक्षय्यमलिङ्ग शिवलक्षणम्। 
गन्धवर्णरसैर्युक्तं शब्दस्पर्शादिलक्षणम् ॥ ३

सूतजी बोले- वह निर्गुण ब्रह्म शिव (अलिङ्ग) ही लिङ्ग (प्रकृति) का मूल कारण है तथा स्वयं लिङ्गरूप (प्रकृतिरूप) भी है। लिङ्ग (प्रकृति)-को भी शिवोद्भासित जाना गया है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गन्ध आदिसे रहित, अगुण, ध्रुव, अक्षय, अलिङ्ग (निर्गुण) तत्त्वको ही शिव कहा गया है तथा शब्द- स्पर्श-रूप-रस-गन्धादिसे संयुक्त प्रधान प्रकृतिको ही उत्तम लिङ्ग कहा गया है॥१-३॥

जगद्योनिं महाभूतं स्थूलं सूक्ष्मं द्विजोत्तमाः । 
विग्रहो जगतां लिङ्गमलिङ्गादभवत् स्वयम् ॥ ४

हे श्रेष्ठ विप्रो। वह जगत्‌का उत्पत्तिस्थान है, पंचभूतात्मक अर्थात् पृथ्वी, जल, तेज, आकाश, वायुसे युक्त है, स्थूल है, सूक्ष्म है, जगत्‌का विग्रह है तथा यह लिङ्गतत्त्व निर्गुण परमात्मा शिवसे स्वयं उत्त्पन्न हुआ है॥४॥

सप्तधा चाष्टधा चैव तथैकादशधा पुनः। 
लिङ्गान्यलिङ्गस्य तथा मायया विततानि तु ॥ ५

उस अलिङ्ग अर्थात् निर्गुण परमात्माको मायासे सात, आठ तथा फिर ग्यारह इस तरह कुल छब्बीस रूपवाले लिङ्गतत्त्व इस ब्रह्माण्डमें व्याप्त हैं ॥५॥

तेभ्यः प्रधानदेवानां त्रयमासीच्छिवात्मकम् । 
एकस्मात् त्रिष्वभूद्विश्वमेकेन परिरक्षितम् ॥ ६

एकेनैव हुतं विश्वं व्याप्तं त्वेवं शिवेन तु। 
अलिङ्गञ्चैव लिङ्गञ्च लिङ्गालिङ्गानि मूर्तयः ॥ ७

यथावत् कथिताश्चैव तस्माद् ब्रह्म स्वयं जगत्। 
अलिङ्गी भगवान् बीजी स एव परमेश्वरः ॥ ८

उन्हीं माया-वितत लिङ्गॉसे उद्भुत तोनों प्रधान देव शिवात्मक हैं। उन तीनोंमें एक ब्रह्मासे यह जगत् उत्पन्न हुआ, एक विष्णुसे जगत्‌की रक्षा होती है तथा एक रुद्रसे जगत्‌का संहार होता है। इस प्रकार शिवतत्त्वसे यह विश्व व्याप्त है। वह परमात्मा निर्गुण भी है तथा सगुण भी है। लिङ्ग अर्थात् व्यक्त तथा अलिङ्ग अर्थात् अव्यक्तरूपमें कही गयी सभी मूर्तियाँ शिवात्मक ही हैं; इसलिये यह ब्रह्माण्ड साक्षात् ब्रह्मरूप है। वही अलिङ्गी अर्थात् अव्यक्त तथा बीजी भगवत्तत्त्व परमेश्वर है॥ ६-८॥

बीजं योनिश्च निर्बीजं निर्बीजो बीजमुच्यते। 
बीजयोनिप्रधानानामात्माख्या वर्तते त्विह ॥ ९

वह परमात्मा बीज (ब्रह्मा) भी है, योनि (विष्णु) भी है तथा निर्वाज (शिव) भी है और बीजरहित वह शिव जगत्‌का बीज अर्थात् मूल कारण कहा जाता है। बीजरूप ब्रह्मा, योनिरूप विष्णु तथा प्रधानरूप शिवकी इस जगत्नें अपनी-अपनी विश्व, प्राज्ञ तथा तैजस अवस्थाकी संज्ञा भी है॥ ९॥

परमात्मा मुनिर्ब्रह्मा नित्यबुद्धस्वभावतः । 
विशुद्धोऽयं तथा रुद्रः पुराणे शिव उच्यते ॥ १०

यह विशुद्ध मुनिरूप परब्रह्म परमात्मा रुद्र नित्यबुद्धस्वभावके कारण पुराणोंमें 'शिव' कहे गये हैं ॥ १०॥

शिवेन दृष्टा प्रकृतिः शैवी समभवद् द्विजाः । 
सर्गादौ सा गुणैर्युक्ता पुरा व्यक्ता स्वभावतः ॥ ११

अव्यक्तादिविशेषान्तं विश्वं तस्याः समुच्छ्रितम् । 
विश्वधात्री त्वजाख्या च शैवी सा प्रकृतिः स्मृता ॥ १२

तामजां लोहितां शुक्लां कृष्णामेकां बहुप्रजाम् । 
जनित्रीमनुशेते स्म जुषमाणः स्वरूपिणीम् ॥ १३

हे विप्रो। शिवकी दृष्टिमात्रसे प्रकृति 'शैवी' हो गयी तथा सृष्टिके समय अव्यक्त स्वभाववाली वह प्रकृति गुणोंसे युक्त हो गयी  अव्यक्त तथा महत्तत्त्वादिसे लेकर स्थूल पंचमहाभूतपर्यन्त सम्पूर्ण जगत् उसी प्रकृतिके अधीन है। अतः विश्वको धारण करनेवाली शैवीशक्ति प्रकृति ही अजा नामसे कही गयी है रक्तवर्णा अर्थात् रजोगुणवाली, शुक्लवर्णा अर्थात् सत्त्वगुणवाली तथा कृष्णवर्णा अर्थात् तमोगुणवाली एवं बहुविध प्रजाओंकी उत्पत्ति करनेवाली अञ्स्वरूपिणी उस प्रकृतिकी प्रेमपूर्वक सेवा करता हुआ यह बढ़ जीव उसका अनुसरण करता है॥ ११ - १३॥

तामेवाजामजोऽन्यस्तु भुक्तभोगां जहाति च। 
अजा जनित्री जगतां साजेन समधिष्ठिता ॥ १४

प्रादुर्बभूव स महान् पुरुषाधिष्ठितस्य च। 
अजाज्ञया प्रधानस्य सर्गकाले गुणैस्विभिः ॥ १५

सिसृक्षया चोद्यमानः प्रविश्याव्यक्तमव्ययम् । 
व्यक्तसृष्टिं विकुरुते चात्मनाधिष्ठितो महान् ॥ १६

महतस्तु तथा वृत्तिः सङ्कल्पाध्यवसायिका। 
महतस्त्रिगुणस्तस्मादहङ्कारो रजोऽधिकः ॥ १७

तेनैव चावृतः सम्यगहङ्कारस्तमोऽधिकः । 
महतो भूततन्मात्रं सर्गकृद्वै बभूव च ॥ १८

अहङ्काराच्छब्दमात्रं तस्मादाकाशमव्ययम्। 
सशब्दमावृणोत्पश्चादाकाशं शब्दकारणम् ॥ १९

तन्मात्राद्भूतसर्गश्च द्विजास्त्वेवं प्रकीर्तितः ।
स्पर्शमात्रं तथाकाशात्तस्माद्वायुर्महान् मुने ॥ २०

तस्माच्च रूपमात्रं तु ततोऽग्निश्च रसस्ततः । 
रसादापः शुभास्ताभ्यो गन्धमात्रं धरा ततः ॥ २१

आवृणोद्धि तथाकाशं स्पर्शमात्रं द्विजोत्तमाः । 
आवृणोद्रूपमात्रं तु वायुर्वाति क्रियात्मकः ॥ २२

दूसरे प्रकारका अनासक्त जीव प्रकृतिके भोगों को भोगकर और उसकी असारता तथा क्षणभंगुरता को समझ कर उस मायाका परित्याग कर देता है। परमेश्वरके द्वारा अधिष्ठित वह अजा अनन्त ब्रह्माण्ड को उत्पत्तिकर्जी है सृष्टि के समयमें तीन गुणोंसे युक्त अजरूप पुरुषको आज्ञासे उसमें अधिष्ठित माथासे वह महत्तत्त्व उत्पन्न हुआ सृष्टि करनेकी इच्छासे युक्त होकर उस अधिष्ठित महत्तत्त्वने स्वतः अव्यय तथा अव्यक्त पुरुषमें प्रविष्ट होकर व्यक्त सृष्टिमें विक्षोभ उत्पन्न किया उस महत्तत्त्वसे संकल्प-अध्यवसायवृत्तिरूप सात्त्विक अहंकार उत्पन्न हुआ तथा उसी महत्तत्त्व से त्रिगुणात्मक रूप रजोगुण की अधिकतावाला राजस अहंकार उत्पन्न हुआ और उस रजोगुणसे सम्यक् प्रकारसे आवृत तमोगुणको अधिकतावाला तामस अहंकार भी उसी महत्तत्त्वसे उत्पन्न हुआ है तथा उसी अहंकारसे सृष्टिको व्याप्त करनेवाली शब्द, स्पर्श आदि तन्मात्राएँ भी उत्पन्न हुई हैंमहत्तत्त्वजन्य उस तामस अहंकारसे शब्द तन्मात्रावाले अव्यय आकाशकी उत्पत्ति हुई और बादमें शब्दके कारणरूप उस अहंकारने शब्दयुक आकाशको व्याप्त कर लिया। हे विप्रो। इसी प्रकार तन्मात्रात्मक भूतसर्गक विषयमें कहा गया है। हे मुने। उस आकाशसे स्पर्श- तन्मात्रावाला महान् वायु उत्पन्न हुआ। पुनः उस वायुसे रूपतन्मात्रा वाले अग्निको उत्पत्ति हुई तथा अग्नि से रसतन्मात्रावाले जलका प्रादुर्भाव हुआ। फिर रसतन्मात्रावाले उस जलसे गन्धतन्मात्रा वाली कल्याणमयी पृथ्वी की उत्पत्ति हुई  हे श्रेष्ठ विप्रो! आकाश स्पर्शतन्मात्रा वाले वायुको आवृत किये रहता है तथा रूपतन्मात्रावाले अग्निको आच्छादित करके यह क्रियाशील वायु बहता रहता है॥ १४ - २२॥

आवृणोद्रसमात्रं वै देवः साक्षाद्विभावसुः । 
आवृण्वाना गन्धमात्रमापः सर्वरसात्मिकाः ॥ २३

क्ष्मा सा पञ्चगुणा तस्मादेकोना रससम्भवाः । 
त्रिगुणो भगवान् वह्निद्विगुणः स्पर्शसम्भवः ।। २४

अवकाशस्ततो देव एकमात्रस्तु निष्कलः। 
तन्मात्राद्भूतसर्गश्च विज्ञेयश्च परस्परम् ॥ २५

वैकारिकः सात्त्विको वै युगपत्सम्प्रवर्तते। 
सर्गस्तथाप्यहङ्कारादेवमत्र प्रकीर्तितः ॥ २६

पञ्च बुद्धीन्द्रियाण्यस्य पञ्च कर्मेन्द्रियाणि तु। 
शब्दादीनामवाप्त्यर्थं मनश्चैवोभयात्मकम् ॥ २७

महदादिविशेषान्ता ह्यण्डमुत्पादयन्ति च। 
जलबुद्बुदवत्तस्मादवतीर्णः पितामहः ॥ २८

स एव भगवान् रुद्रो विष्णुर्विश्वगतः प्रभुः । 
तस्मिन्नण्डे त्विमे लोका अन्तर्विश्वमिदं जगत् ॥ २९

अण्डं दशगुणेनैव वारिणा प्रावृतं बहिः । 
आपो दशगुणेनैव तद्वाहो तेजसा वृताः ॥ ३०

तेजो दशगुणेनैव बाह्यतो वायुना वृतम्। 
वायुर्दशगुणेनैव बाह्यतो नभसा वृतः ॥ ३१

आकाशेनावृतो वायुरहङ्कारेण शब्दजः । 
महता शब्दहेतुर्वै प्रधानेनावृतः स्वयम् ॥ ३२

सप्ताण्डावरणान्याहुस्तस्यात्मा कमलासनः । 
कोटिकोटियुतान्यत्र चाण्डानि कथितानि तु ॥ ३३

साक्षात् अग्निदेव रसतन्मात्रावाले जलको आच्छादित किये रहते हैं तथा सभी रसोंसे युक्त जलतत्त्व गन्धतन्मात्रावाली पृथ्वीको आच्छादित किये रहता है इस प्रकार पृथ्वी पाँच (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध) गुणोंसे, गन्धरहित शेष चार गुणोंसे जल, भगवान् अग्नि तीन गुणोंसे तथा स्पर्शसमन्वित वायु दो गुणोंसे युक्त हुए और अन्य अवयवोंसे रहित आकाशदेव मात्र एक गुणवाले हुए। इस प्रकार तन्मात्राओंके पारस्परिक संयोगवाला भूतसर्ग कहा गया है राजस, तामस तथा सात्त्विक सर्ग साथ-साथ प्रवृत्त होते हैं, किंतु यहाँपर तामस अहंकारसे ही सर्गका होना बताया गया है शब्द-स्पर्श आदिको ग्रहण करनेके लिये पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, पाँच कर्मेन्द्रियाँ तथा उभयात्मक मन इस जीवके लिये बनाये गये हैं महत्तत्त्वादिसे लेकर पंचमहाभूतपर्यन्त सभी तत्त्व अण्डकी उत्पत्ति करते हैं। वह परमात्मा ही पितामह ब्रह्मा, शंकर तथा विश्वव्यापी प्रभु विष्णुके रूपमें उस अण्डसे जलके बुलबुलेकी भाँति अवतीर्ण हुआ। ये सभी लोक तथा उनके भीतरका यह सम्पूर्ण जगत् उस अण्डमें सन्निविष्ट था वह अण्ड अपनेसे दस गुने जलसे बाहरसे व्याप्त था और जल बाहरसे अपनेसे दस गुने तेजसे आवृत था  तेज अपनेसे दस गुने वायुसे बाहरसे आवृत था और वायु अपनेसे दस गुने आकाशसे बाहरसे आवृत था  शब्दजन्य वायुको आवृत किये हुए वह आकाश तामस अहंकारसे आवृत है। शब्द हेतु आकाशको आवृत करनेवाला वह तामस अहंकार महत्तत्त्वसे घिरा हुआ है और वह महत्तत्त्व स्वयं अव्यक्त प्रधानसे आवृत है  उस अण्ड (ब्रह्माण्ड) के ये सात प्राकृत आवरण कहे गये हैं। कमलासन ब्रह्माजी उसकी आत्मा हैं। इस सृष्टिमें करोड़ों-करोड़ों अण्डों (ब्रह्माण्डों) की स्थितिके विषयमें कहा गया है॥ २३ - ३३॥ 

तत्र तत्र चतुर्वक्त्रा ब्रह्माणो हरयो भवाः । 
सृष्टाः प्रधानेन तदा लब्ध्वा शम्भोस्तु सन्निधिम् ॥ ३४

लयश्चैव तथान्योऽन्यमाद्यन्तमिति कीर्तितम्। 
सर्गस्य प्रतिसर्गस्य स्थितेः कर्ता महेश्वरः ॥ ३५

सर्गे च रजसा युक्तः सत्त्वस्थः प्रतिपालने। 
प्रतिसर्गे तमोद्रिक्तः स एव त्रिविधः क्रमात् ॥ ३६

आदिकर्ता च भूतानां संहर्ता परिपालकः। 
तस्मान्महेश्वरो देवो ब्रह्मणोऽधिपतिः शिवः ॥ ३७

सदाशिवो भवो विष्णुर्ब्रह्या सर्वात्मको यतः । 
एतदण्डे तथा लोका इमे कर्ता पितामहः ॥ ३८

प्राकृतः कथितस्त्वेष पुरुषाधिष्ठितो मया।
सर्गश्चाबुद्धिपूर्वस्तु द्विजाः प्राथमिकः शुभः ॥ ३९ 

प्रधान (प्रकृति) ही सदाशिवके आश्रयको प्राप्त करके इन करोड़ों ब्रह्माण्डोंमें सर्वत्र चतुर्मुख ब्रह्मा, विष्णु और शिवका सूजन करती है। अन्तमें शम्भुका सहयोग प्राप्तकर वहीं प्रधान लय भी करती है। इस प्रकार परस्पर सम्बद्ध आदि (सृष्टि) तथा अन्त (प्रलय) के विषयमें कहा गया है। इस सृष्टिको रचना, पालन तथा संहार करनेवाले वे ही एकमात्र महेश्वर हैं वे ही महेश्वर क्रमपूर्वक तीन रूपोंमें होकर सृष्टि करते समय रजोगुणसे युक्त रहते हैं, पालनकी स्थितिमें सत्त्वगुणमें स्थित रहते हैं तथा प्रलयकालमें तमोगुणसे आविष्ट रहते हैं वे ही भगवान् शिव प्राणियोंके सृष्टिकर्ता, पालक तथा संहर्ता हैं। अतएव वे महेश्वर ब्रह्माके अधिपतिरूपमें प्रतिष्ठित हैं, जिस कारणसे भगवान् सदाशिव भव, विष्णु, ब्रह्मा आदि रूपोंमें स्थित हैं तथा सर्वात्मक हैं, इसी कारण वे ही ब्रह्माण्डवर्ती इन लोकोंके रूपमें तथा इनके कर्ता पितामहके रूपमें कहे गये हैं हे द्विजो। पुरुषाधिष्ठित यह प्राथमिक ईश्वरकृत अबुद्धिपूर्वक उत्पन्न तथा कल्याणकारी प्राकृत सर्ग मैंने तुम्हें सुनाया है ॥ ३९ ॥

॥ इति श्रीलिङ्ग‌महापुराणे पूर्वभागे प्राकृतप्राथमिकसर्गकथनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३॥

इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'प्राकृतप्राथमिक सर्गकथन' नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ३॥

लिंग पुराण पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

यहां लिंग पुराण के तीसरे अध्याय के लिए लिंगम की प्रकृति, सृष्टि और शिव के गुणों जैसे विभिन्न पहलुओं पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न दिए गए हैं:

प्रश्न 1: लिंग पुराण के तीसरे अध्याय में 'लिंग' की अवधारणा क्या है ?

उत्तर 1: लिंग पुराण में , 'लिंग' का तात्पर्य शिव के भौतिक और अव्यक्त दोनों रूपों में सर्वोच्च की दृश्यमान अभिव्यक्ति से है। इसे सृष्टि के अंतिम कारण के रूप में वर्णित किया गया है, जो ईश्वर के 'प्रकट' (सगुण) और 'अव्यक्त' (निर्गुण) दोनों पहलुओं के परस्पर क्रिया का प्रतिनिधित्व करता है।

प्रश्न 2: लिंग पुराण 'अलिंग' को कैसे परिभाषित करता है और शिव से इसका क्या संबंध है?

उत्तर 2: 'अलिंग' (अव्यक्त रूप) शिव के निराकार, शुद्ध सार का पर्याय है। इसे ध्वनि, स्पर्श, दृष्टि, स्वाद और गंध जैसी विशेषताओं से रहित बताया गया है, जो शिव की अनंत, शाश्वत और अविनाशी प्रकृति का प्रतिनिधित्व करता है। यह 'अलिंग' 'लिंग' की उत्पत्ति के रूप में कार्य करता है, जो प्रकट रूप है।

प्रश्न 3: 'लिंग' और ब्रह्मांड के निर्माण के बीच क्या संबंध है?

उत्तर 3: अध्याय में बताया गया है कि शिव, अपने 'लिंग' रूप में, सृजन, संरक्षण और विनाश का कारण हैं। शिव के अव्यक्त रूप (अलिंग) से, 'माया' (भ्रम) की शक्ति के माध्यम से ब्रह्मांड का निर्माण होता है। प्राथमिक तत्व - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश - शिव के दिव्य प्रभाव के तहत इन गुणों की परस्पर क्रिया से पैदा होते हैं।

प्रश्न 4: सृष्टि प्रक्रिया में 'माया' की अवधारणा क्या है?

उत्तर 4: 'माया' का तात्पर्य उस मायावी शक्ति से है जो 'लिंग' को प्रक्षेपित करती है और ब्रह्मांड को उसके विभिन्न रूपों में प्रकट करती है। लिंग पुराण बताता है कि माया के माध्यम से, निराकार शिव (अलिंग) विभिन्न रूपों में 'लिंग' को जन्म देते हैं और इसे ब्रह्मांड के भीतर छब्बीस अलग-अलग अभिव्यक्तियों में विभाजित करते हैं।

प्रश्न 5: लिंग पुराण ब्रह्मा, विष्णु और शिव की ब्रह्मांड में भूमिकाओं का वर्णन कैसे करता है ?

उत्तर 5: लिंग पुराण के अनुसार , ब्रह्मा (निर्माता), विष्णु (संरक्षक) और शिव (संहारक) सभी अलग-अलग भूमिकाओं में शिव की ऊर्जा की अभिव्यक्तियाँ हैं। ये रूप अव्यक्त (अलिंग) से निकलते हैं और तीन प्राथमिक गुणों (गुणों) के माध्यम से कार्य करते हैं: सत्व, रजस और तम। वे सृजन, संरक्षण और विनाश के ब्रह्मांडीय चक्र में अपनी-अपनी भूमिकाएँ निभाते हैं।

प्रश्न 6: सृजन प्रक्रिया में 'महातत्व' का क्या महत्व है?

उत्तर 6: 'महातत्व' वह आदिम अवस्था है, जिससे ब्रह्मांड का उद्भव होता है। यह शिव के 'अलिंग' रूप के बाद पहला सिद्धांत है, जो सृजन की क्षमता का प्रतिनिधित्व करता है। महातत्व से, विभिन्न तत्व और संस्थाएँ (समय और स्थान सहित) विकसित होती हैं, जिससे ब्रह्मांड का निर्माण होता है।

प्रश्न 7: लिंग पुराण में पांच तत्वों की अभिव्यक्ति के बारे में कैसे बताया गया है?

उत्तर 7: लिंग पुराण में बताया गया है कि कैसे पांच तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश) सूक्ष्म तत्वों या 'तन्मात्राओं' के परस्पर क्रिया से उत्पन्न होते हैं। ये तत्व सबसे सूक्ष्म (ध्वनि, स्पर्श, रूप, स्वाद और गंध) से लेकर अधिक स्थूल भौतिक तत्वों तक क्रमिक रूप से निर्मित होते हैं। उदाहरण के लिए, आकाश (अंतरिक्ष) तत्व ध्वनि से, वायु स्पर्श से, अग्नि रूप से, जल स्वाद से और पृथ्वी गंध से उत्पन्न होता है।

प्रश्न 8: ब्रह्मांड में 'सर्ग' (सृजन) और 'प्रतिसर्ग' (पुनर्निर्माण) की क्या भूमिका है?

उत्तर 8: लिंग पुराण में उल्लेख है कि ब्रह्मांड सृजन (सर्ग) और विनाश (प्रतिसर्ग) के चक्र से गुजरता है, दोनों ही शिव की इच्छा से शुरू होते हैं। सृजन सत्व गुण से प्रभावित होता है, जबकि विनाश तामस गुण से प्रभावित होता है। ये प्रक्रियाएँ निरंतर और चक्रीय हैं, जो शिव की दिव्य ऊर्जा द्वारा नियंत्रित होती हैं।

प्रश्न 9: ब्रह्मांडीय अंडे (ब्रह्मांड) के सात आवरण क्या हैं?

उत्तर 9: लिंग पुराण में ब्रह्मांड को एक ब्रह्मांडीय अंडे के रूप में वर्णित किया गया है, जो आवरणों की सात परतों से घिरा हुआ है, जिनमें से प्रत्येक अलग-अलग तत्वों और ऊर्जाओं से संबंधित है। ये परतें ब्रह्मांड की रक्षा और पोषण करती हैं। सात परतों में पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश और स्थान और समय के दिव्य गुण शामिल हैं।

प्रश्न 10: लिंग पुराण ब्रह्मांडीय व्यवस्था और तत्वों की परस्पर क्रिया का वर्णन कैसे करता है ?

उत्तर 10: लिंग पुराण तत्वों के बीच अंतर्संबंध, उनके सूक्ष्म रूपों (तन्मात्राओं) और सृष्टि पर उनके प्रभावों का विस्तृत विवरण प्रदान करता है। यह बताता है कि प्रत्येक तत्व अपने अंतर्निहित गुणों के माध्यम से दूसरों के साथ परस्पर क्रिया करता है, जिससे ब्रह्मांड की संरचना और इसके निर्माण, संरक्षण और विनाश के निरंतर चक्र बनते हैं।

यह अध्याय शिव की प्रकृति, ब्रह्मांड और वैदिक शिक्षाओं के अनुसार अस्तित्व को नियंत्रित करने वाली मूलभूत प्रक्रियाओं से जुड़ी गहन दार्शनिक अवधारणाओं पर जोर देता है।

click to read 👇👇

टिप्पणियाँ