लिंग पुराण : देवदारुवन का वृत्तान्त, अतिथिमाहात्म्यमें सुदर्शनमुनि का आख्यान तथा संन्यासधर्मका वर्णन | Linga Purana: Narrative of Devdaruvan, Narration of Sudarshanmuni in Atithimahatmya and description of Sanyasdharma

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] उनतीसवाँ अध्याय 

देवदारुवन का वृत्तान्त, अतिथिमाहात्म्य में सुदर्शनमुनि का आख्यान तथा संन्यास धर्म का वर्णन

सनत्कुमार उवाच 

इदानीं ओतुमिच्छामि पुरा दारुवने विभो। 
प्रवृत्तं तद्वनस्थानां तपसा भावितात्मनाम् ॥ १

कथं दारुवनं प्राप्तो भगवान्नीललोहितः। 
विकृतं रूपमास्थाय चोर्ध्वरेता दिगम्बरः ॥ २

किं प्रवृत्तं वने तस्मिन् रुद्रस्य परमात्मनः । 
वक्तुमर्हसि तत्त्वेन देवदेवस्य चेष्टितम् ॥ ३

सूत उवाच

तस्य तद्वचनं श्रुत्वा श्रुतिसारविदां वरः। 
शिलादसूनुर्भगवान् प्राह किञ्चिद्धवं हसन् ॥ ४

शैलादिरुवाच

मुनयो दारुगहने तपस्तेपुः सुदारुणम्।
तुष्ट्यर्थ देवदेवस्य सदारतनयाग्नयः ।। ५

सनत्कुमार जी बोले- हे विभो! प्राचीन काल में दारुवन में तपस्यासे भावित आत्मावाले उन वनवासी मुनियोंक साथ जो भी घटित हुआ, उसे मैं इस समय सुनना चाहता हूँ ऊर्ध्वरेता दिगम्बर भगवान् शिव विकृत रूप धारण करके दारुवनमें क्यों गये? उस वनमें परमात्मा रुद्रके साथ क्या हुआ? उन देवाधिदेव शिवके क्रिया- कलापोंका भी यथार्थ रूपसे वर्णन करनेकी कृपा कीजिये  सूतजी बोले- [हे ऋषिगण!] उन सनत्कुमारका यह वचन सुनकर श्रुतिसारविदों में वरिष्ठ शिलादपुत्र भगवान् नन्दिकेश्वर कुछ-कुछ हँसते हुए उनसे कहने लगे शैलादि बोले- एक बार घने देवदारुवनमें देवाधिदेव रुद्रकी प्रसन्नता के लिये अपने स्त्री-पुत्रादिसहित पंचाग्निका सेवन करते हुए मुनिगण कठोर तप कर रहे थे ॥१ - ५॥

तुष्टो रुद्रो जगननाथश्चेकितानो वृषध्वज:।
धूर्जटि: परमेशानो भगवान्नीललोहित:॥६

प्रवृत्तिलक्षणं ज्ञानं ज्ञातुं दारुवनौकसाम्‌। 
परीक्षार्थ जगन्नाथ: श्रद्धया क्रीडया च स:॥ ७

निवृत्तिलक्षणज्ञानप्रतिष्ठा्थ च. शट्ढूरः। 
देवदारुवनस्थानां प्रवृत्तिज्ञानचेतसाम्‌ ॥ ८

विकृतं रूपमास्थाय दिग्वासा विषमेक्षण:। 
मुग्धो द्विहस्त: कृष्णाड्गे दिव्यं दारुवनं ययौ॥ ९

मन्दस्मितं च भगवान्‌ स्त्रीणां मनसिजोद्धवम।
भ्रूविलासं च गान॑ च चकारातीव सुन्दर:॥ १०

उनके तपसे प्रसन्न जगन्नाथ, चेकितान, वृषध्वज, धूर्जटि, परमेशान, नीललोहित भगवान् रुद्र दारुवनमें निवास करनेवाले उन मुनियोंके प्रवृत्ति लक्षण तथा ज्ञानकी जानकारी करनेके लिये एवं उनमें श्रद्धाभावकी परीक्षा करनेके लिये और साथ ही प्रवृत्तिज्ञानसे युक्त चित्तवाले उन देवदारुवनवासी मुनियोंमें निवृत्ति-लक्षण तथा ज्ञान स्थापित करनेके निमित्त लीलापूर्वक विकृत रूप धारण करके अलौकिक दारुवनमें पहुँचे। उस समय शंकरजी कृष्ण वर्ण वाले, दो भुजाओंवाले, तीन आँखोंवाले, दिगम्बर तथा मोहक स्वरूपवाले थेअत्यन्त सुन्दर रूपवाले भगवान् शिव मन्द मुसकान तथा ध्रुविलास करते हुए गीत गाकर स्त्रियोंमें कामभावना उत्पन्न कर रहे थे ॥ ६ - १०॥

सम्प्रेक् नारीवृन्द॑ वे मुहुर्मुहुरनड्रहा। 
अनड्डवृद्धिमकरोदतीव मधुराकृति: ॥ १९

बने तं पुरुष दृष्ट्वा विकृतं नीललोहितम। 
स्त्रियः पतिब्रताश्चापि तमेवान्वयुरादरात्‌॥ १२

वनोटजद्वारगताएच नार्यो विस्त्रस्तवस्त्राभणा विचेष्टा:।
लब्ध्वा स्मितं तस्य मुखारविन्दाद्‌ ब्रमालयस्थास्तमथान्वयुस्ता:। १३

दृष्ट्वा काश्चिद्धवं नायों मदघूर्णितलोचना: । 
विलासबाह्मास्ताश्चापि भ्रूविलासं प्रचक्रिरे॥ १४

कामदेवका संहार करनेवाले तथा अत्यन्त मोहक आकृतिवाले भगवान् शिव वहाँ नारीसमूहको बार-बार देखकर उनके भीतर कामभावनाको बढ़ा रहे थे वनमें उस विकृत तथा नीललोहित वर्णवाले पुरुषको देखकर पतिव्रता स्त्रियाँ भी प्रेमपूर्वक उनके पीछे-पीछे चलने लगीं आरण्यक कुटीरोंके द्वारतक आयी हुई स्त्रियोंके वस्त्र एवं अलंकार शिथिल हो गये। वे मूच्छित सी हो गयीं, उन लीलामय शिवके मुखारविन्दकी मोहक मुसकानको पाकर वृक्षोंके आश्रयमें रहनेवाली वे नारियाँ उनके पीछे-पीछे चल दर्दी  शिव जी को देखकर प्रौढ़ावस्थावाली होनेपर भी कुछ स्त्रियाँ मदमत्त होकर आँखें घुमाने लगीं तथा भौंहोंका संचालन करने लगीं ॥ १९ - १४ ॥

अथ दृष्ट्वा परा नार्य: किज्चित्प्रहसितानना: । 
किज्चिद्विस्त्रस्तवसना: स्त्रस्तकाउ्चीगुणा जगुः॥ १५

काछ्चित्तदा तं विपिने तु दृष्ट्वा विप्राड़नाः स्त्रस्तनवांशुक॑ वा।
स्वान्‌ स्वान्‌ विचित्रान्‌ वलयान्‌ प्रविध्य मदान्विता बन्धुजनांश्च जग्मु:॥ १६

काचित्तदा त॑ न विवेद दृष्द्वा विवासना स्रस्तमहांशुका च।
शाखाविचित्रान्‌ विटपान्‌ प्रसिद्धान्‌ मदान्विता बन्धुजनांस्तथान्या: ॥ १७

तदनन्तर शिवको देखकर दूसरी स्त्रियाँ मुसकानयुक्त मुखवाली हो गयीं, उनके वस्त्र कुछ शिथिल से हो गये, कांचीबन्धन भी ढीले हो गये; वे मिलकर गाने लगीं उस समय शिवको विपिनमें देखकर कुछ ऋषिपत्नियाँ तो शिथिल नूतन वस्त्रों तथा अपने-अपने विचित्र वलयोंको फेंककर मदान्वित हो स्वजनोंके पास पहुंचीं  उस समय शिथिल वस्त्रवाली कोई तो शिवको देखकर विशिष्ट वासनायुक्त हो गयी तथा अन्य स्त्रिों मतवाली-सी होकर विचित्र शाखावाले प्रसिद्ध वृक्षोंको एवं घनिष्ठ बन्धुजनोंतकको नहीं पहचानती थीं ॥ १५ - १७॥

काश्चिज्जगुस्तं ननृतुर्निपेतुश्च धरातले। 
निषेदुर्गजवच्चान्या प्रोवाच द्विजपुङ्गवाः ॥ १८

अन्योन्यं सस्मितं प्रेक्ष्य चालिलिङ्गः समन्ततः । 
निरुध्य मार्ग रुद्रस्य नैपुणानि प्रचक्रिरे ॥ १९

को भवानिति चाहुस्तं आस्यतामिति चापराः । 
कुत्रेत्यथ प्रसीदेति जजल्पुः प्रीतमानसाः ॥ २०

विपरीता निपेतुर्वे विस्त्रस्तांशुकमूर्धजाः । 
पतिव्रताः पतीनां तु सन्निधौ भवमायया ॥ २१

दृष्ट्वा श्रुत्वा भवस्तासां चेष्टावाक्यानि चाव्ययः । 
शुभं वाध्यशुभं वापि नोक्तवान् परमेश्वरः ॥ २२

दृष्ट्वा नारीकुलं विप्रास्तथाभूतं च शङ्करम् । 
अतीव परुषं वाक्यं जजल्पुस्ते मुनीश्वराः ॥ २३

तपांसि तेषां सर्वेषां प्रत्याहन्यन्त शङ्करे। 
यथादित्यप्रकाशेन तारका नभसि स्थिताः ॥ २४

हे द्विजश्रेष्ठो ! कुछ स्त्रियाँ उनके पास जाकर नाचने लगीं और जमीनपर गिर पड़ीं। कुछ स्त्रियों हाथीको भाँति बैठ गयीं। कोई दूसरी स्त्री कुछ बोलने लगी मुसकराते हुए एक-दूसरेको देखकर वे परस्पर आलिंगन करने लगीं। वे सभी ओर से शिवजी का मार्ग रोककर अनेक प्रकारके हाव-भाव दर्शाने लगीं  कुछ स्त्रियाँ उनसे कहने लगीं कि 'आप कौन हैं? बैठिये। अन्य स्त्रियाँ भी प्रसन्नचित्त होकर कहने लगों- आप कहाँ जा रहे हैं? आप हम सबपर प्रसन्न होइये ' भगवान् शंकरकी मायाके प्रभावसे अपने पत्तियोंके सम्मुख ही पतिव्रता स्त्रियोंके वस्त्रपरिधान, केश आदि अस्त-व्यस्त हो गये और वे कामुक स्त्रियोंकी भाँति स्वेच्छाचारितापूर्ण व्यवहार प्रदर्शित करने लगींउन स्त्रियोंके हाव-भाव देखकर तथा उनके वचन सुनकर निर्विकार परमेश्वर शिव शुभ अधवा अशुभ कुछ भी नहीं बोले उस प्रकारकी चेष्टावाली नारियोंके समूहको देखकर वे विप्र मुनीश्वर दिगम्बरवेशधारी शिवको उस अवस्थामें देखकर [शंकरजीके प्रति] अत्यन्त कठोर वचन कहने लगे। किंतु उनकी सभी तपस्याएँ शंकरजीके सम्मुख उसी प्रकार निष्फल सिद्ध हुई, जिस प्रकार सूर्यके प्रकाशसे आकाश-मण्डलमें स्थित तारागण निस्तेज हो जाते हैं ॥ १८ - २४ ॥

श्रूयते ऋषिशापेन ब्रह्मणस्तु महात्मनः । 
समृद्धश्रेयसां योनिर्यज्ञो वै नाशमाप्तवान् ॥ २५

भृगोरपि च शापेन विष्णुः परमवीर्यवान्। 
प्रादुर्भावान् दश प्राप्तो दुःखितश्च सदा कृतः ।। २६

इन्द्रस्यापि च धर्मज्ञ छिन्नं सवृषणं पुरा।
ऋषिणा गौतमेनोव्यां कुद्धेन विनिपातितम् ॥ २७

गर्भवासो वबसूनां च शापेन विहितस्तथा। 
ऋषीणां चैव शापेन नहुष: सर्पतां गत:॥ २८

क्षीरोदश्च समुद्रोड्सौ निवास: सर्वदा हरे: । 
द्वितीयश्चामृताधारो हापेयो ब्राह्मणै: कृतः॥ २९

अविमुक्तेश्वरं प्राप्प वाराणस्यां जनार्दन:। 
क्षेरेण चाभिषिच्येशं देवदेवं त्रियम्बकम्‌॥ ३०

श्रद्धया परया युक्तो देहाश्लेषामृतेन वै। 
निषिक्तेन स्वयं देव: क्षरेण मधुसूदनः॥ ३९

सेचयित्वाथ भगवान्‌ ब्रह्मणा मुनिभि: समम्‌। 
क्षीरोदं पूर्ववच्चक्रे निवासं चात्मन: प्रभुः॥ ३२

ऐसा सुना जाता है कि महात्मा ब्रह्माका सभी समृद्धियों तथा कल्याणोंका उत्पत्तिस्थलस्वरूप यज्ञ ऋषिके शापसे विनष्ट हो गया था भृगुमुनि के शाप से परम ऐश्वर्यशाली विष्णुको भी दस अवतार लेने पड़े तथा अनेक दुःख सहने पड़े  है धर्मज्ञ सनत्कुमार! कुद्ध ऋषि गौतमने शापसे इन्द्रका अण्डकोषसहित गुह्मांग काटकर पृथ्वी पर गिरा दिया था मुनि वसिष्ठ के शापसे वसुओंको गर्भमें वास करना पड़ा, अगस्त्य आदि ऋषियोंके शापसे राजा नहुषको सर्प होना पड़ा था भगवान् विष्णुका निवासस्थान तथा अमृतका आधारस्वरूप वह क्षीरसागर ब्राह्मणोंके द्वारा सदाके लिये दूसरे अपेय जलवाले समुद्रके रूपमें कर दिया गया था जनार्दन भगवान् विष्णुने वाराणसीपुरीमें पहुँचकर अविमुक्तेश्वर देवाधिदेव त्र्यम्बकेश्वरका दूधसे अभिषेक करके परम श्रद्धासे युक्त होकर देहसंस्पर्शजन्य अमृतस्वरूप क्षीरद्वारा स्वयं उन मधुसूदनने ब्रह्माजी एवं मुनियोंके साथ भगवान् शिवको अभिषिक्त करके पूर्ववत् क्षीरसागरको अपना निवासस्थान बनाया ॥ २५-३२ ॥

धर्मश्चेव तथा शप्तो माण्डव्येन महात्मना। 
वृष्णयश्चेव कृष्णेन दुर्वासाद्यैर्महात्मभि: ॥ ३३

राघव: सानुजएचापि दुबसिन महात्मना।
श्रीवत्सश्च मुने: पादपतनात्तस्थ धीमतः॥ ३४

एते चान्‍ये च बहवो विप्राणां वशमागता:। 
वर्जयित्वा विरूपाक्ष॑ देवदेवमुमापतिम्‌॥ ३५

एवं हि मोहितास्तेन नावबुध्यन्त शद्भूरम्‌। 
अत्युग्रवचनं प्रोचुएचोग्रोप्यन्तरधीयत ॥ ३६

तेडपि दारुवनात्तस्मात्प्रातट: संविग्नमानसा:।
पितामहं महात्मानमासीनं परमासने ॥ ३७

गत्वा विज्ञापयामासुः प्रवृत्तमखिलं विभोः । 
शुभे दारुवने तस्मिन् मुनयः क्षीणचेतसः ॥ ३८

महात्मा माण्डव्यने धर्मको शापित किया तथा श्रीकृष्णकी प्रेरणासे दुर्वासा आदि महात्माओंके द्वारा वृष्णिवंशी शापित हुए थे  महान् आत्मावाले दुर्वासामुनिने लक्ष्मणसहित श्रीरामको शाप दे दिया और श्रीवत्स (श्रीयुक्त वक्षःस्थलवाले) विष्णुको भूगुमुनिका चरण-प्रहार सहना पड़ा देवाधिदेव विरूपाक्ष उमापति शिवको छोड़कर ये तथा अन्य बहुत से लोग भी विप्रों (ब्राह्मणों) के वशवर्ती हुए हैं  उन्हीं शिव की माया से मोहित होनेके कारण वे मुनिगण शंकरको नहीं जान पाये और अत्यन्त कठोर वचन बोलने लगे, फिर भगवान् शिव भी अन्तर्धान हो गये  तत्पश्चात् व्याकुल चित्तवाले वे मुनिगण प्रातःकाल होते ही उस दारुवनसे ब्रह्माजीके पास पहुँचे। वहाँ श्रेष्ठ आसनपर विराजमान महात्मा ब्रह्मासे उस सुन्दर दारुवनमें रहनेवाले क्षीण चेतनावाले मुनियोंने शंकरका सारा वृत्तान्त कह सुनाया ॥ ३३-३८॥ 

सोपि सउ्चिन्त्य मनसा क्षणादेव पितामह:। 
तेषां प्रवृत्तमखिलं पुण्ये दारुवने पुरा॥३९

उत्थाय प्राज्जलिर्भूत्वा प्रणिपत्य भवाय च। 
उवाच सत्वरं ब्रह्मा मुनीन्‌ दारुवनालयान्‌॥ ४०

धिग्युष्मान्‌ प्राप्तनिधनान्‌ महानिधिमनुत्तमम्‌।
बृधाकृतं यतो विप्रा युष्माभिर्भाग्यवर्जितै:॥ ४१

यस्तु दारुवने तस्मिल्लिड्डी दृष्टोउप्यलिड्रिभि: । 
युष्माभिविकृताकार: स एवं परमेश्वर: ॥ ४२

गृहस्थैश्च न निन्द्यास्तु सदा ह्यतिथयो द्विजा:। 
विरूपाएच सुरूपाएच मलिनाश्चाप्यपण्डिता: ॥ ४३

सुदर्शनेन मुनिना कालमृत्युरपि स्वयम्‌। 
पुरा भूमौ द्विजाग्रयेण जितो हातिथिपूजया॥ ४४

अन्यथा नास्ति सन्तर्तु गृहस्थेश्च द्विजोत्तमै: । 
त्यक्त्वा चातिथिपूजां तामात्मनो भुवि शोधनम्‌॥ ४५

उन ब्रह्माजीने भी क्षणभरमें ही मनमें सोचकर पवित्र दारुवनमें उनका पूर्वघटित सम्पूर्ण वृत्तान्त जान लिया अपने आसनसे तत्काल उठकर और दोनों हाथ जोड़कर ब्रह्माजीने मन-ही-मन शिवजीको प्रणाम करके दारुवनमें रहनेवाले उन मुनियोंसे कहा-हे विजप्रो । विनाशको प्राप्त तुम सभीको धिक्‍कार है; क्योंकि सर्वोत्तम निधि प्राप्त करके भी तुम अभागोंने उसे गँवा दिया  तुम अलिंगियों ने उस दारुवनमें जिस विकृत आकारवाले पुरुषको देखा था; वे साक्षात्‌ परमेश्वर शिव ही थे हे विप्रो! गृहस्थोंकों अतिथियोंकी निन्‍दा कभी नहीं करनी चाहिये; वे अतिथि विकृत रूपवाले, सुन्दर रूपवाले, मलिन तथा मूर्ख--चाहे जैसे भी हों पूर्वकाल में पृथ्वी पर द्विजोंमें अग्रणी सुदर्शनमुनिने अतिथिपूजाके प्रभावसे साक्षात्‌ कालमृत्युको भी जीत लिया था भवसागर से पार होने तथा आत्मशुद्धिके लिये अतिथिपूजाको छोड़कर गृहस्थों एवं श्रेष्ठ द्विजोंके लिये लोकमें अन्य कोई भी उपाय नहीं है॥ ३९ - ४५ ॥

गृहस्थो5पि पुरा जेतुं सुदर्शन इति श्रुतः। 
प्रतिज्ञामकरोजायां भार्यामाह पतिक्रताम्‌॥ ४६

सुब्रते सुभ्रु सुभगे श्रणु सर्व प्रयलत:। 
त्वया वै नावमन्तव्या गृहे हतिथयः सदा॥ ४७

सर्व एवं स्वयं साक्षादतिधिर्य॑त्पिनाकधृक्‌ । 
तस्मादतिथये दत्त्वा आत्मानमपि पूजय॥ ४८

एवमुक्त्वाथ सन्तप्ता विवज्ञा सा पतिकब्रता। 
पतिमाह रुदन्ती च किमुक्त भवता प्रभो॥ ४९

तस्थास्तद्वचनं श्रुत्वा पुनः प्राह सुदर्शन:। 
देयं सर्व शिवायायें शिव एवातिथि: स्वयम्‌॥ ५०

तस्मात्सवे पूजनीया: सर्वेड्प्पतिथय: सदा। 
एवमुक्ता तदा भर्त्रा भार्या तस्य पतिक्वता॥ ५१

शेषामिवाज्ञामादाय मूर्ध्ना सा प्राचरत्तदा। 
परीक्षितुं तथा श्रद्धां तयोः साक्षाद्‌ द्विजोत्तमा:॥ ५२

धर्मों द्विजोत्तमो भूत्वा जगामाथ मुनेर्गृहम्‌।
तं॑ दृष्ट्वा चार्चयामास सार्घाशिरनघा द्विजम्‌॥ ५३ 

पूर्वकालमें सुदर्शन नामसे विख्यात गृहस्थ मुनिने मृत्युपर विजय प्राप्त करनेकी प्रतिज्ञा की और अपनी संतानयुक्त पतिब्रता पत्नीसे कहा-हे सुद्रते! है सुन्दर भौहोंवाली ! हे सौभाग्यवति ! सुनो, तुम पूर्ण प्रयत्नके साथ अतिथियोंका सदा सत्कार करना और कभी भी उनका निरादर न करना अतिथि साक्षात्‌ पिनाकधारी शिवका ही स्वरूप होता है, अतएव सब कुछ अर्पित करके भी अतिथिकी पूजा करो। सुदर्शनने पुन: कहा--हे आर्ये ! अतिथि साक्षात्‌ शिव होता है; शिवस्वरूप अतिथिको सब कुछ प्रदान करना चाहिये। अत: सभी अतिथियोंकी सदा पूजा करनी चाहिये पति के ऐसा कहनेपर वह पातिब्रतपरायण मुनिभार्या पतिकी आज्ञाको देवप्रतिमाके समक्ष अर्पित किये गये पुष्प आदिकी भाँति शिरोधार्य करके अतिथि-सत्कार में प्रवृत्त हो गयी हे श्रेष्ठ द्विजो! उन दोनोंकी श्रद्धाकी परीक्षा करनेके लिये एक सुन्दर ब्राह्मणका रूप धारण करके साक्षात्‌ धर्म मुनिके घर पधारे। उस ब्राह्मणफो देखकर विशुद्ध हृदयवाली उस मुनिभार्याने अर्ध आदिसे उस ब्राह्मण का पूजन किया॥ ४६-५३ ॥

सम्पूजितस्तया तां तु प्राह धर्मो द्विज: स्वयम्‌। 
भद्रे कुतः पतिथर्धीमांस्तव भर्ता सुदर्शन:॥ ५४

अन्नाद्यैरलमद्यार्ये स्व॑ दातुमिह चाईसि। 
सा च लज्ञावृता नारी स्मरन्ती कथितं पुरा॥ ५५ 

भरत्रा न्‍यमीलयन्नेत्रे चचाल च पतिद्रता। 
कि चेत्याह पुनस्तं वै धर्मे चक्रे च सा मतिम्‌॥ ५६

निवेदितुं किलात्मानं तस्मै पत्युरिहाज्ञया। 
एतस्मिन्नन्तरे भर्ता तस्या नार्या: सुदर्शन:॥ ५७

गृहद्वारं गतो धीमांस्तामुवाच महामुनि:। 
एह्लेहि क्व गता भद्रे तमुवाचातिथि: स्वयम्‌॥ ५८

भार्यया त्वनया सार्ध मैथुनस्थोहमद्य वे। 
सुदर्शन महाभाग किंकर्तव्यमिहोच्यताम्‌॥ ५९

सुरतान्तस्तु विप्रेन्द्र सन्तुष्टो5हं द्विजोत्तम। 
सुदर्शनस्तत: प्राह सुप्रहृष्टो द्विजोत्तम:॥ ६०

भुड्छ्व चैनां यथाकामं गमिष्येहं द्विजोत्तम
हृष्टोथ दर्शयामास स्वात्मानं धर्मराट्‌ स्वयम्‌॥ ६९

प्रददौ चेप्सितं सर्व तमाह च महाद्युति:। 
एषा न भुक्ता विप्रेन्द्र ममसापि सुशोभना॥ ६२

मया चैषा न सन्देहः श्रद्धां ज्ञातुमिहागतः। 
जितो बै यस्त्वया मृत्युर्धमेणेकेन सुत्रत॥ ६३

अहो5स्य तपसो वीर्यमित्युक्त्वा प्रययो च सः । 
तस्मात्तथा पूजनीया: सर्वे ह्॒तिथयः सदा॥ ६४

बहुनात्र किमुक्तेन भाग्यहीना द्विजोत्तमा:। 
तमेव शरणं तूर्ण गन्तुमहथ शड्डूरम्‌॥ ६५

तस्य तद्गचनं श्र॒त्वा ब्रह्मणो ब्राह्मणर्ष भा: । 
ब्रह्माणमभिवन्दार्ता: प्रोचुराकुलितेक्षणा: ॥ ६६

ब्राह्मणा ऊचु:

नापेक्षितं महाभाग जीवितं विकृता: स्त्रिय: । 
दृष्टोउस्माभिम्महादेवो निन्दितो यस्त्वनिन्दित: ॥ ६७

उस स्त्रीके द्वारा भलीभाँति पूजित होकर ब्राह्मणवेषधारी साक्षात्‌ धर्मने उससे कहा--हे कल्याणि ! तुम्हारे बुद्धिसम्पन्न पति सुदर्शन कहाँ हैं ? तत्पश्चात्‌ अपने पतिद्वारा कही गयी बातका स्मरण करती हुई उस स्त्रीने पतिकी आज्ञाको ध्यानमें रखकर धर्मरूप उस ब्राह्मणके लिये आतिथ्यसेवा करनेका मनमें निश्चय किया इसी बीच उस स्त्रीके पति प्रज्ञासम्पन्न सुदर्शन घरके द्वारपर आ गये। मुनिवर सुदर्शनने अपनी भार्याको आवाज दी--हे भद्रे! तुम कहाँ चली गयी हो? तब साक्षात्‌ धर्मरूप अतिथि उनसे बोले--हे महाभाग सुदर्शन! में इस समय तुम्हारी इस भायके आतिथ्यसे परम सन्तुष्ट हूँ तदनन्तर धर्मराजने अपना वास्तविक रूप उन्हें दिखाया और मनोवांछित वर देकर महान्‌ कान्तिवाले धर्मने उनसे कहा-हे विप्रेन्द्र! में यहाँ केवल तुम्हारी श्रद्धाकी परीक्षा करनेके निमित्त आया हूँ। हे सुत्रत! तुमने अपने एकमात्र अतिथिपूजारूप धर्मसे मृत्युतकको जीत लिया है 'अहो, इस तपस्वीका ऐसा ओज'--इस प्रकार कहकर धर्म वहाँसे चले गये। [हे मुनियो!] इसलिये सभी अतिथियोंकी सदा पूजा करनी चाहिये। हे अभागे मुनीश्वरो! अब अधिक कहनेसे क्या लाभ ? तुम लोग शीघ्र ही उन्हीं महादेवकी शरणमें जाओ उन ब्रह्माजी का वह वचन सुनकर व्याकुल नेत्रोंवाले वे द्विजश्रेष्ठ दु:खित होकर ब्रह्माजीसे प्रार्थना करते हुए कहने लगे विप्रगण बोले--हे महाभाग | स्त्रियाँ तो विकार युक्त क्त होती ही हैं, जिनके लिये हमलोगोंने अपना जीवन नष्ट कर डाला। जिन अनिन्‍द्य महादेवने कृपा करके हमलोगोंको दर्शन दिया था, उन्हींका हमलोगोंने अनादर किया॥ ५४ - ६७॥

शप्तश्च सर्वगः शूली पिनाकी नीललोहितः। 
अज्ञानाच्छापजा शक्तिः कुण्ठितास्य निरीक्षणात् ।। ६८

वक्तुमर्हसि देवेश संन्यासं वै क्रमेण तु । 
द्रष्टुं वै देवदेवेशमुग्रं भीमं कपर्दिनम् ॥ ६९

पितामह उवाच

आदौ वेदानधीत्यैव श्रद्धया च गुरोः सदा। 
विचार्यार्थ मुनेर्धर्मान् प्रतिज्ञाय द्विजोत्तमाः ।। ७०

ग्रहणान्तं हि वा विद्वानथ द्वादशवार्षिकम् । 
स्नात्वाहृत्य च दारान् वै पुत्रानुत्पाद्य सुव्रतान् ॥ ७१

वृत्तिभिश्चानुरूपाभिस्तान् विभज्य सुतान् मुनिः । 
अग्निष्टोमादिभिश्चेष्ट्‌वा यज्ञैर्यज्ञेश्वरं विभुम् ॥ ७२

पूजयेत्परमात्मानं प्राप्यारण्यं विभावसी।
मुनिर्द्वादशवर्षं वा वर्षमात्रमथापि वा ॥ ७३

पक्षद्वादशकं वापि दिनद्वादशकं तु वा। 
क्षीरभुक् संयतः शान्तः सर्वान् सम्पूजयेत्सुरान् ॥ ७४

इष्ट्‌वैवं जुहुयादग्नी यज्ञपात्राणि मन्त्रतः। 
अप्सु वै पार्थिवं न्यस्य गुरवे तैजसानि तु ॥ ७५

स्वधनं सकलं चैव ब्राह्मणेभ्यो विशङ्कया। 
प्रणिपत्य गुरुं भूमौ विरक्तः संन्यसेद्यतिः ॥ ७६

निकृत्य केशान् सशिखानुपवीतं विसृज्य च। 
पञ्चभिर्जुहुयादप्सु भूः स्वाहेति विचक्षणः॥ ७७

ततश्चोर्ध्व चरेदेव॑ यतिः शिवविमुक्तये। 
ब्रतेनानशनेनापि तोयवृत्त्यापि वा पुनः ॥ ७८

पर्णवृत्त्या पयोवृत्त्या फलवृत्त्यापि वा यति:। 
एवं जीवन्मृतो नो चेत्बण्मासाद्वत्सरात्तु वा॥ ७९

प्रस्थानादिकमायासं स्वदेहस्य॒चरेद्यति:। 
शिवसायुज्यमाणनोति कर्मणाप्येवमाचरन्‌॥ ८०

सद्योडपि लभते मुक्ति भक्तियुक्तो दृढब्रता:॥ ८९

त्यागेन वा कि विधिनाप्यनेन भक्तस्य रुद्रस्य शुभेव्रतिश्च। 
यज्श्च दानैर्विवेधेश्च॒ होमै-ल॑ब्धेश्च शास्त्रैर्विविधेश्च वेदै: ॥ ८२

श्वेतेनेव॑ जितो मृत्युर्भवभक्त्या महात्मना। 
वोउस्तु भक्तिर्महादेवे श्भरे परमात्मनि॥ ८३

हमने उन सर्वव्यापी, शूलधारी, पिनाकी तथा नीललोहित वर्णवाले शिव जी को अज्ञानता से शाप दे दियाः किंतु उनके देखनेमात्रसे हमारे शापकी शकि कुण्ठित हो गयी हे देवेश। अब आप कृपा करके हमें संन्यास धर्मके विषयमें क्रमसे बताइये; जिससे हमलोग उन देवाधिदेव, उग्र, भीम तथा कपर्दी शिवका दर्शन करनेमें समर्थ हो सकें पिता मह बोले- हे श्रेष्ठ मुनियो! सर्वप्रथम श्रद्धा पूर्वक गुरु से निरन्तर वेद का अध्ययन करे, उसका अर्थ समझे और धर्मोका ज्ञान करे इस प्रकार विद्वान्‌ को चाहिये कि बारह वर्षीतक वेदाध्ययन करनेके अनन्तर वेदव्रत नामक स्नानसे संस्कारित होकर विवाह करके पुनः सदाचारी पुत्र उत्पन्न करके उन पुत्रोंके अनुकूल वृत्तिका उपाय करके उनमें धनादिका विभाजन कर दे। तत्पश्चात् अग्निष्टोम आदि यज्ञोंसे यज्ञेश्वर विभुका यजन करके मुनिको वनमें आकर अग्निमें परमेश्वरकी पूजा करनी चाहिये वन में रहते हुए मुनिको बारह वर्षतक या एक वर्ष (बारह माह) तक या बारह पक्ष (छः माह) तक अथवा बारह दिनतक दुग्धका सेवन करते हुए शान्ति तथा संयमपूर्वक सभी देवताओंकी पूजा करनी चाहिये इस प्रकार यजन-पूजनके अनन्तर यज्ञसम्बन्धी काष्ठपात्र मन्त्रपूर्वक अग्निमें हवन कर दे, मिट्टीके पात्र जलमें छोड़ दे तथा धातुके पात्र गुरुको अर्पित कर दे और निष्कपट भावसे अपना सम्पूर्ण धन ब्राह्मणोंको देकर गुरुको दण्डवत् प्रणाम करके विरक्त यति संन्यासधर्मका आचरण करे  शिखासहित बालों को कटवाकर तथा यज्ञोपवीत त्यागकर विद्वान् यतिको 'भूः स्वाहा' इस मन्त्रसे जल में पाँच आहुति देनी चाहिये इसके पश्चात्‌ यतिको शिवसायुज्यरूपी विमुक्तिके लिये आगेकी भी साधना करनी चाहिये। इसके लिये छ: माह अथवा वर्षपर्यन्त यति अनशन करे अथवा जल पीकर या पत्ते खाकर या दूध पीकर या फल खाकर जीवन-निर्वाह करे। ऐसा करनेपर यदि मृत्यु नहीं हुई और वह जीवित रहता है, तो उसे अपने देहके प्रस्थान आदि अर्थात्‌ स्थूल शरीरके त्यागका प्रयास करना चाहिये। ऐसा आचरण करते हुए वह यति अपने कर्मसे भी शिवसायुज्य प्राप्त कर लेता है परंतु हे दृढ़त्रती मुनियो! शिवजीमें भक्ति रखनेवाला प्राणी शीघ्र ही मुक्ति प्राप्त कर लेता है। महादेवजीके भक्तको त्याग, विधि, महान्‌ ब्रतों, यज्ञों, विविध प्रकारके दानों, होमों, विविध शास्त्रों तथा वेदोंसे क्‍या प्रयोजन! महान्‌ आत्मावाले श्वेतमुनिने महादेवकी भक्तिसे ही मृत्युतकको जीत लिया था। अतएव परमेश्वर महादेव शिव जी के प्रति आपलोग भी भक्ति परायण हों॥ ६८ - ८३॥

॥ श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे देवदारुवनवृत्तान्तवर्णन॑ नामेकोोनत्रिंशोउध्याय: ॥ २९ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभाय में 'देवदारुवनवृत्तान्तवर्णन ” नामक उनतवीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ २९ ॥

दारुवन वृत्तांत और संबंधित कहानियों पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न

प्रश्न 1: हिंदू पौराणिक कथाओं में दारुण का क्या महत्व है?

  • उत्तर 1: देवदार के जंगल के नाम से भी जाना जाने वाला दारुवन हिंदू पौराणिक कथाओं में एक विशेष स्थान रखता है। यह भगवान शिव और ऋषियों से जुड़ी विभिन्न घटनाओं का स्थल है, जिन्होंने भगवान रुद्र (शिव) को प्रसन्न करने के लिए यहाँ कठोर तपस्या की थी। प्राचीन ग्रंथों में वर्णित अनुसार यह जंगल आध्यात्मिक साधना और दिव्य अभिव्यक्तियों का मंच बन गया।

प्रश्न 2: भगवान शिव ने विकृत रूप धारण कर दारुवन क्यों जाया?

  • उत्तर 2: भगवान शिव, जिन्हें नीललोहित (नीला-लाल) के नाम से जाना जाता है, ने दारुवन में तपस्या कर रहे ऋषियों की भक्ति की परीक्षा लेने के लिए विकृत रूप धारण किया था। अपना रूप बदलकर, वे उनकी वास्तविक भक्ति और ज्ञान का मूल्यांकन कर सकते थे, साथ ही अपने चंचल और रहस्यमय व्यवहार के माध्यम से कुछ आध्यात्मिक परिवर्तन भी प्रेरित कर सकते थे।

प्रश्न 3: दारुवन में ऋषि क्या कर रहे थे?

  • उत्तर 3: दारुवन के ऋषि भगवान शिव की कृपा पाने के लिए घोर तपस्या में लगे हुए थे। उन्होंने भगवान को प्रसन्न करने और आध्यात्मिक विकास और मुक्ति पाने की आशा में पंचाग्नि (पांच पवित्र अग्नि) सहित विभिन्न अनुष्ठान किए।

प्रश्न 4: भगवान शिव ने दारुवन में ऋषियों की भक्ति की परीक्षा कैसे ली?

  • उत्तर 4: ऋषियों की भक्ति की परीक्षा लेने के लिए भगवान शिव एक आकर्षक, मनमोहक रूप में प्रकट हुए। उन्होंने कम से कम कपड़े पहने थे, एक रहस्यमय मुस्कान थी, और चंचल हाव-भाव में लगे हुए थे। उनकी उपस्थिति ने महिलाओं और ऋषियों में विभिन्न प्रतिक्रियाओं को जन्म दिया, जिससे उनके आध्यात्मिक संकल्प और लगाव की परीक्षा हुई।

प्रश्न 5: भगवान शिव के प्रकट होने से दारुणवन की महिलाओं पर क्या प्रभाव पड़ा?

  • उत्तर 5: भगवान शिव के आकर्षक रूप को देखकर, जंगल में कई महिलाएँ उनके आकर्षण से प्रभावित हुईं। कुछ ने उनके पीछे चलना शुरू कर दिया, उनके कपड़े अस्त-व्यस्त थे, और उनमें भावनात्मक उथल-पुथल के लक्षण दिखाई दिए, जो शिव के मोहक रूप के कारण उनकी भक्ति में व्यवधान का संकेत था। इसने उनके मन की पवित्रता और एकाग्रता की परीक्षा ली।

प्रश्न 6: दारुवन में भगवान शिव के व्यवहार पर ब्राह्मणों और ऋषियों की क्या प्रतिक्रिया थी?

  • उत्तर 6: भगवान शिव के शरारती आचरण को देखकर ब्राह्मण और ऋषिगण महिलाओं और उनकी अपनी तपस्या प्रथाओं पर आध्यात्मिक प्रभाव के बारे में चिंतित हो गए। कुछ ने कठोर शब्दों के साथ प्रतिक्रिया व्यक्त की, शिव के कार्यों पर सवाल उठाया, जबकि अन्य उनके चंचल हस्तक्षेप को रोकने में असमर्थ थे, क्योंकि उन्हें एहसास हुआ कि उनके दिव्य कार्यों के गहरे उद्देश्य थे।

प्रश्न 7: भगवान शिव के प्रति ऋषियों की कठोर प्रतिक्रिया का क्या परिणाम हुआ?

  • उत्तर 7: ऋषियों की कठोर प्रतिक्रियाएँ शिव के कार्यों को रोकने में अप्रभावी थीं। उनकी तपस्या और शब्द भगवान की दिव्य शक्ति को कम करने में विफल रहे, जैसे कि सूर्य के प्रकाश में तारे फीके पड़ जाते हैं। इससे सभी प्राणियों पर भगवान शिव के सर्वोच्च अधिकार का पता चलता है, चाहे उनकी तपस्या कुछ भी हो।

प्रश्न 8: दारुवाणा कथा से अन्य कौन सी कहानियाँ जुड़ी हुई हैं?

  • उत्तर 8: दारुवन की कहानी अन्य पौराणिक कथाओं से जुड़ती है, जैसे देवताओं और ऋषियों पर लगाए गए श्राप। उदाहरण के लिए, भगवान विष्णु को भृगु ऋषि के श्राप के कारण दस अवतार लेने पड़े। इसी तरह, इंद्र जैसे अन्य देवताओं को शक्तिशाली ऋषियों के श्राप के प्रभाव के कारण चुनौतियों और परिवर्तनों का सामना करना पड़ा।

प्रश्न 9: संन्यास धर्म की अवधारणा इस कहानी से कैसे संबंधित है?

  • उत्तर 9: संन्यास धर्म, जिसमें सांसारिक इच्छाओं से त्याग और वैराग्य शामिल है, इस कहानी का एक आवश्यक विषय है। दारुवन में ऋषि आध्यात्मिक मुक्ति पाने के लिए गहन तपस्या कर रहे थे। भगवान शिव की उनके साथ बातचीत वैराग्य की परीक्षा और सांसारिक विकर्षणों से अप्रभावित रहने के महत्व को दर्शाती है, जिसका प्रतीक उनके आकर्षक रूप के प्रति महिलाओं की प्रतिक्रिया है।

प्रश्न 10: दारुण वृत्तांत से क्या नैतिक शिक्षा ली जा सकती है?

  • A10: मुख्य नैतिक पाठों में अटूट भक्ति का महत्व और सांसारिक इच्छाओं से विचलित होने के खतरे शामिल हैं। यह इस बात पर प्रकाश डालता है कि आध्यात्मिक विकास के लिए आंतरिक शुद्धता और वैराग्य की आवश्यकता होती है, और दैवीय परीक्षण विभिन्न रूपों में आ सकते हैं, जो अक्सर आत्म-साक्षात्कार और मुक्ति के अंतिम लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करने को चुनौती देते हैं।

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