लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तिरानबेवाँ अध्याय
हिरण्याक्ष पुत्र अन्धकासुर का आख्यान तथा शिवा नुग्रह से उसे गाणपत्यपद की प्राप्ति
ऋषय ऊचुः
अन्धको नाम दैत्येन्द्रो मन्दरे चारुकन्दरे।
दमितस्तु कथं लेभे गाणपत्यं महेश्वरात् ॥ १
ऋषिगण बोले- [हे सूतजी।] अन्धक नामक दैत्यराजने मन्दरपर्वतकी सुन्दर गुफामें दमित होकर किस प्रकार महेश्वरसे गाणपत्य (गणपतिपद) प्राप्त किया; जिस प्रकार यह घटित हुआ और जैसा आपने सुना है, वह कृपापूर्वक हम लोगोंको बताइये ॥ १॥
वक्तुमर्हसि चास्माकं यथावृत्तं यथाश्रुतम्।
सूत उवाच
अन्धकानुग्रहं चैव मन्दरे शोषणं तथा ॥ २
वरलाभमशेषं च प्रवदामि समासतः ।
हिरण्याक्षस्य तनयो हिरण्यनयनोपमः ।। ३
पुरान्धक इति ख्यातस्तपसा लब्धविक्रमः ।
प्रसादाद् ब्रह्मणः साक्षादवध्यत्वमवाप्य च ॥ ४
त्रैलोक्यमखिलं भुक्त्वा जित्वा चेन्द्रपुरं पुरा।
लीलया चाप्रयत्नेन त्रासयामास वासवम् ॥५
बाधितास्ताडिता बद्धाः पातितास्तेन ते सुराः ।
विविशुर्मन्दरं भीता नारायणपुरोगमाः ॥ ६
एवं सम्पीड्य वै देवानन्धकोऽपि महासुरः ।
यदृच्छया गिरिं प्राप्तो मन्दरं चारुकन्दरम् ॥ ७
सूतजी बोले- [हे ऋषियो!] मैं अन्धकपर [शिवजीके) अनुग्रह, मन्दरपर उसके दमन तथा वरप्राप्ति-यह सब संक्षेपमें बता रहा हूँ। प्राचीनकालमें हिरण्याक्षका एक पुत्र था; हिरण्याक्षके समान शक्तिशाली वह अन्धक-इस नामसे प्रसिद्ध हुआ और उसने तपस्यासे महान् पराक्रम प्राप्त कर लिया। वह साक्षात् ब्रह्माकी कृपासे [किसीसे] न मारे जानेका वर प्राप्त करके सम्पूर्ण त्रिलोकोंका उपभोग करके इन्द्रलोकको लीलापूर्वक बिना प्रयासके ही जीतकर इन्द्रको पीड़ित करने लगा उसके द्वारा कष्ट पहुँचाये गये, पीटे गये, बाँधे गये, गिराये गये नारायण आदि वे देवता डरकर मन्दरपर्वत की गुफामें प्रविष्ट हो गये इस प्रकार देवताओंको बहुत पीड़ित करके महादैत्य अन्धक भी अपनी इच्छासे सुन्दर गुफावाले मन्दरपर्वतपर पहुँच गया ॥ २-७ ॥
ततस्ते समस्ताः सुरेन्द्राः ससाध्याः सुरेशं महेशं पुरेत्याहुरेवम् ।
हुर्त चाल्पवीर्यप्रभिन्नाङ्गभिन्ना वयं दैत्यराजस्य शस्त्रैर्निकृत्ताः ॥ ८
इतीदमखिलं श्रुत्वा दैत्यागममनौपमम्।
गणेश्वरैश्च भगवानन्धकाभिमुखं ययौ ॥ ९
तत्रेन्द्रपद्योद्भवविष्णुमुख्याः सुरेश्वरा विप्रवराश्च सर्वे।
जयेति वाचा भगवन्तमूचुः किरीटबद्धाञ्जलयः समन्तात् ॥ १०
अथाशेषासुरांस्तस्य कोटिकोटिशतैस्ततः ।
भस्मीकृत्य महादेवो निर्बिभेदान्धकं तदा ॥ ११
शूलेन शूलिना प्रोतं दग्धकल्मषकञ्चुकम्।
दृष्ट्वान्धकं ननादेशं प्रणम्य स पितामहः ॥ १२
तब साध्योंसहित वे सभी देवगण शीघ्र ही सुरेश्वर महेशके सामने पहुँचकर इस प्रकार बोले- 'दैत्यराज [अन्धक] के शस्त्रोंसे काटे गये हमलोग छिन्न-भिन्न अंगोंवाले हो गये हैं और अल्प पराक्रमवाले ही गये हैं तब दैत्यका अद्भुत आगमन सम्बन्धी यह सब वृत्तान्त सुनकर भगवान् शिव अपने गणेश्वरोंके साथ अन्धकके समक्ष पहुँचे उस समय इन्द्र, ब्रह्मा, विष्णु आदि प्रधान सुरेश्वर तथा श्रेष्ठ विप्र ये सब बद्ध अंजलियोंको सिरसे लगाकर चारों ओरसे भगवान् शिवकी जय बोलने लगे तब महादेवने सैकड़ों-करोड़ों सैनिकोंके साथ उस अन्धकके समस्त राक्षसोंको भस्म करके अन्धकको [अपने त्रिशूलसे] बींध डाला शिव के द्वारा त्रिशूलसे बींचे गये उस दग्धपापरूपी कंचुकवाले अन्धकको देखकर ब्रह्माजी ईश्वर (शिव)- को प्रणाम करके [प्रसन्नतासे] निनाद करने लगे ॥ ८-१२ ॥
तन्नादश्रवणान्नेदुर्देवा देवं प्रणम्य तम्।
ननृतुर्मुनयः सर्वे मुमुदुर्गणपुङ्गवाः ॥ १३
ससृजुः पुष्पवर्षाणि देवाः शम्भोस्तदोपरि।
त्रैलोक्यमखिलं हर्षान्ननन्द च ननाद च ॥ १४
दग्धोऽग्निना च शूलेन प्रोतः प्रेत इवान्धकः ।
सात्त्विकं भावमास्थाय चिन्तयामास चेतसा ॥ १५
जन्मान्तरेऽपि देवेन दग्धो यस्माच्छिवेन वै।
आराधितो मया शम्भुः पुरा साक्षान्महेश्वरः ॥ १६
तस्मादेतन्मया लब्धमन्यथा नोपपद्यते।
यः स्मरेन्मनसा रुद्रं प्राणान्ते सकृदेव वा ॥ १७
स याति शिवसायुज्यं किं पुनर्बहुशः स्मरन् ।
ब्रह्मा च भगवान् विष्णुः सर्वे देवाः सवासवाः ॥ १८
उस ध्वनिको सुनकर सभी देवता, मुनि तथा श्रेष्ठ गण भी उन्हें प्रणाम करके हर्षध्वनि करने लगे, नाचने लगे और आनन्द मनाने लगे। देवताओंने उस समय शिवजीके ऊपर पुष्पोंकी वर्षा की और सम्पूर्ण त्रैलोक्य हर्षके कारण आनन्दित हो उठा तथा ध्वनि करने लगा प्रज्वलित अग्निवाले त्रिशूलसे बींधा हुआ प्रेततुल्य वह अन्धक सात्त्विक भावमें स्थित होकर मनमें सोचने लगा 'पूर्वजन्ममें भी शिवने मुझे दग्ध किया था, मैंने पहले साक्षात् महेश्वर शिवकी आराधना की थी, इसीलिये मैंने ऐसी गति प्राप्त की, अन्यथा ऐसा कभी न होता। जो [व्यक्ति] मृत्युकालके समय एक बार भी मनसे शिवका स्मरण करता है, वह शिवसायुज्य प्राप्त करता है, तो फिर जो बहुत बार स्मरण करे, उसका कहना ही क्या। ब्रह्मा, भगवान् विष्णु और इन्द्रसहित सभी देवता उन्होंकी शरण ग्रहण करके स्थित हैं, अतः उनों [शिव] की शरणमें जाना चाहिये'॥ १३-१८॥
शरणं प्राप्य तिष्ठन्ति तमेव शरणं व्रजेत् ।
एवं सञ्चिन्त्य तुष्टात्मा सोऽन्धकश्चान्धकार्दनम् ॥ १९
सगणं शिवमीशानमस्तुवत्पुण्यगौरवात् ।
प्रार्थितस्तेन भगवान् परमार्तिहरो हरः ॥ २०
हिरण्यनेत्रतनयं शूलाग्रस्थ सुरेश्वरः ।
प्रोवाच दानवं प्रेक्ष्य घृणया नीललोहितः ॥ २१
तुष्टोऽस्मि वत्स भद्रं ते कामं किं करवाणि ते।
वरान् वरय दैत्येन्द्र वरदोऽहं तवान्धक ॥ २२
श्रुत्वा वाक्यं तदा शम्भोर्हिरण्यनयनात्मजः ।
हर्षगद्गदया वाचा प्रोवाचेदं महेश्वरम् ॥ २३
भगवन् देवदेवेश भक्तार्तिहर शङ्कर।
त्वयि भक्तिः प्रसीदेश यदि देयो वरश्च मे ॥ २४
श्रुत्वा भवोऽपि वचनमन्धकस्य महात्मनः ।
प्रददौ दुर्लभां श्रद्धां दैत्येन्द्राय महाद्युतिः ।। २५
गाणपत्यं च दैत्याय प्रददौ चावरोप्य तम्।
प्रणेमुस्तं सुरेन्द्राद्या गाणपत्ये प्रतिष्ठितम् ॥ २६
इस प्रकार विचार करके वह अन्धक अपने पुण्यगौरवके कारण गणोंसहित अन्धकका संहार करनेवाले जन ईशान शिवको स्तुति करने लगा। तब उसके द्वाप प्रार्थित होकर बड़े-से-बड़े दुःखका हरण करनेवाले नीललोहित सुरेश्वर भगवान् हर [अपने] त्रिशूलके अग्रभागपर स्थित हिरण्याक्षपुत्र [अन्धक]-की ओर दयापूर्वक देखकर उससे बोले- 'हे वत्स । मैं [तुमपर] प्रसन्न हूँ, तुम्हारा कल्याण हो; मैं तुम्हारी कौन-सी कामना पूर्ण करूँ? हे दैत्येन्द्र। वर माँगी। है अन्धक मैं तुम्हें वर देनेवाला हूँ' तब शम्भुका वचन सुनकर हिरण्याक्षपुने हर्षके कारण गद्गद वाणीमें महेश्वरसे यह कहा-'है भगवन् ! हे देवदेवेश। भक्तोंका कष्ट हरनेवाले हे शंकर। मुझपर प्रसन्न होइये। हे ईश। यदि आप मुझे वर देना ही चाहते हैं, तो यही वर प्रदान करें कि आपमें [सदा] मेरी भक्ति हो' महान् आत्मावाले अन्धकका वचन सुनकर परम कान्तिवाले शिवने [उस] दैत्येन्द्रको [अपनी] दुर्लभ भक्ति प्रदान की और उस दैत्यको त्रिशूलपरसे उतारकर उसे गणाधिप पद प्रदान किया। तब इन्द्र आदि देवताओंने गाणपत्य पदपर प्रतिष्ठित उस अन्धकको प्रणाम किया ॥ २५-२६॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे अन्धकगाणपत्यात्मको नाम त्रिनवतितमोऽध्यायः ॥ ९३ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'अन्धकगाणपत्यात्मक' नामक तिरानबेवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ९३॥
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