लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] बासठवाँ अध्याय
उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव का आख्यान, ध्रुव की तपस्या तथा ध्रुवलोकसंस्थान का वर्णन
ऋषय ऊचुः
कथं विष्णोः प्रसादाद्वै ध्रुवो बुद्धिमतां वरः ।
मेढीभूतो ग्रहाणां वै वक्तुमर्हसि साम्प्रतम् ॥ १
ऋषिगण बोले- [हे सूतजी!] बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ ध्रुव भगवान् विष्णुकी कृपासे ग्रहोंके मेढ़ीभूत (मध्य स्थानवाले) किस प्रकार हुए, [हमलोगोंको] इस समय बताइये ॥ १ ॥
सूत उवाच
एतमर्थं मया पृष्टो नानाशास्त्रविशारदः ।
मार्कण्डेयः पुरा प्राह महां शुश्रूषवे द्विजाः ॥ २
सूतजी बोले- हे द्विजो! मैंने पूर्वकालमें अनेक शास्त्रोंके ज्ञाता मार्कण्डेयजीसे इसी बातको पूछा था, तब उन्होंने सुनने की इच्छावाले मुझको बताया था ॥ २॥
मार्कण्डेय उवाच
सार्वभौमो महातेजाः सर्वशस्त्रभृतां वरः ।
उत्तानपादो राजा वै पालयामास मेदिनीम् ॥ ३
तस्य भार्याद्वयमभूत्सुनीतिः सुरुचिस्तथा।
अग्रजायामभूत्पुत्रः सुनीत्यां तु महायशाः ॥ ४
ध्रुवो नाम महाप्राज्ञः कुलदीपो महामतिः ।
कदाचित्सप्तवर्षोऽपि पितुरङ्कमुपाविशत् ॥ ५
सुरुचिस्तं विनिर्धूय स्वपुत्रं प्रीतिमानसा।
न्यवेशयत्तं विप्रेन्द्रा ह्यङ्क रूपेण मानिता ॥ ६
मार्कण्डेयजी बोले- [प्राचीन कालमें] सार्वभौम (चक्रवर्ती सम्राट्), महान् तेजस्वी तथा सभी शस्त्रधारियोंमे श्रेष्ठ राजा उत्तानपाद पृथ्वीका पालन करते थे। सुनीटि तथा सुरुचि ये उनकी दो भार्याएँ थीं। उनकी ज्येष्ठ भार्या सुनीतिसे ध्रुव नामक पुत्र उत्पन्न हुआ था; वह महायशस्वी, महाज्ञानी, कुलका दीपक तथा महाबुद्धिमान् था। जब वह सात वर्षका था, तब किसी समय अपने पिताकी गोदमें बैठ गया। हे विप्रेन्द्रो! उस समय अपने रूपपर गर्व करनेवाली सुरुचिने उसे [गोदसे] उतारकर प्रसन्नचित्त होकर अपने पुत्रको [राजाकी] गोदमें बैठा दिया ॥ ३-६ ॥
अलब्ध्वा स पितुर्धीमानङ्क दुःखितमानसः ।
मातुः समीपमागम्य रुरोद स पुनः पुनः ॥ ७
रुदन्तं पुत्रमाहेदं माता शोकपरिप्लुता।
सुरुचिर्दयिता भर्तुस्तस्याः पुत्रोऽपि तादृशः ॥ ८
मम त्वं मन्दभाग्याया जातः पुत्रोऽप्यभाग्यवान्।
किं शोचसि किमर्थं त्वं रोदमानः पुनः पुनः ॥ ९
सन्तप्तहृदयो भूत्वा मम शोकं करिष्यसि ।
स्वस्थस्थानं ध्रुवं पुत्र स्वशक्त्या त्वं समाप्नुयाः ॥ १०
तदनन्तर पिताकी गोद न पाकर उस बुद्धिमान् [ध्रुव]-के हृदयमें दुःख हुआ और वह [अपनी] माताके पास आकर बार-बार रोने लगा तब शोकमें डूबी हुई माताने रोते हुए पुत्रसे कहा-सुरुचि [अपने] पतिकी प्रिय पत्नी है और उसका पुत्र भी उसी प्रकार उन्हें प्रिय है। तुम मुझ अभागिनके अभागे पुत्र उत्पन्न हुए हो। तुम क्यों चिन्ता करते हो और बार-बार किसलिये रो रहे हो? तुम दुःखितचित्त होकर मेरे शोकको ही बढ़ाओगे। हे पुत्र ! तुम्हें अपनी शक्तिसे शान्त तथा अटल स्थान प्राप्त करना चाहिये ॥ ७-१०॥
इत्युक्तः स तु मात्रा वै निर्जगाम तदा वनम् ।
विश्वामित्रं ततो दृष्ट्वा प्रणिपत्य यथाविधि ॥ ११
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा भगवन् वक्तुमर्हसि।
सर्वेषामुपरिस्थानं केन प्राप्स्यामि सत्तम ॥ १२
पितुद्ढे समासीन॑ माता मां सुरुचिर्मुने।
व्यधूनयत्स तां राजा पिता नोवाच किउ्चन॥ १३
एतस्मात्कारणाद् ब्रह्मंस्त्रस्तोह॑ मातरं गत:।
सुनीतिराह मे माता मा कृथा: शोकमुत्तमम्॥ १४
स्वकर्मणा परं स्थान प्राप्तुमहसि पुत्रक।
तस्या हि वचन श्रुत्वा स्थानं तब महामुने॥ १५
प्राप्तो वनमिदं ब्रह्मन्नद्य त्वां दृष्टवान् प्रभो।
तव प्रसादात्प्राप्स्येअह॑ स्थानमद्धुतमुत्तमम्॥ १६
तब माताके इस प्रकार कहनेपर वह वनमें चला गया। वहाँ [ऋषि] विश्वामित्रको देखकर उन्हें विधिपूर्वक प्रणाम करके दोनों हाथ जोड़कर उसने कहा-है भगवन्। हे सत्तम! आप कृपा करके मुझे बतायें कि में किस उपायसे सबके ऊपर स्थान प्राप्त करूँगा? हे मुने! माता सुरुचिने पिताकी गोदमें बैठे हुए मुझको [गोदसे| उतार दिया और उन राजाने उन्हें कुछ नहीं कहा। हे ब्रह्मन्! इस कारणसे दुःखी होकर मैं माताके पास गया। तब मेरी माता सुनीतिने कहा--हे पुत्र! शोक मत करो, तुम अपने कर्मसे उत्तम तथा परम स्थान प्राप्त कर सकते हो। हे महामुने! उनका वचन सुनकर में इस बनमें आपके स्थानपर आया हूँ। हे ब्रह्मन्! आज मैंने आपका दर्शन किया, अत: हे प्रभो! आपको कृपासे में अद्भुत तथा उत्तम स्थान [अवश्य] प्राप्त करूँगा॥ ११--१६॥
इत्युक्त: स मुनिः श्रीमान् प्रहसन्निदमब्रवीत्।
राजपुत्र श्रृणुष्वेदं स्थानमुत्तममाप्स्यसि॥ १७
आराध्य जगतामीशं केशवं क्लेशनाशनम्।
दक्षिणाड़्भव॑ शम्भोर्महादेवस्थ धीमतः ॥ १८
जप नित्यं महाप्राज्ञ सर्वपापविनाशनम्।
दवृष्टट॑ परम शुद्ध॑ पवित्रममलं॑ परम्॥ १९
ब्रृहि मन्त्रमिमं दिव्यं प्रणवेन समन्वितम्।
नमोउस्तु वासुदेवाय इत्येवं॑ नियतेन्द्रिय:॥ २०
[ ध्रुवके द्वारा] इस प्रकार कहे गये श्रीमान् मुनिने हँसते हुए यह कहा--हे राजपुत्र! सुनो, तुम जगत्के स्वामी, कष्टोंका नाश करनेवाले तथा बुद्धिमान् महादेव शम्भुके दक्षिण अंगसे उत्पन्न केशव (विष्णु)की आराधना करके इस श्रेष्ठ स्थानको प्राप्त कर सकोगे। हे महाप्राज्ञ। तुम सभी पापोंका नाश करनेवाले, अभीष्ट प्रदान करनेवाले, परम शुद्ध, पवित्र, दोषरहित तथा श्रेष्ठ मन्त्रका नित्य जप करो। तुम इन्द्रियोंको वशमें करके प्रणवसहित नमोस्तु वासुदेवाय [अर्थात् नमोस्तु वासुदेवाय] इस दिव्य मन्त्रको जपो और सनातन विष्णुका ध्यान करते हुए जप-होममें संलग्न रहो॥ १७--२० ॥
ध्यायन् सनातनं विष्णुं जपहोमपरायण:।
इत्युक्त: प्रणिपत्यैनं विश्वामित्र॑ महायशा: ॥ २१
प्राइमुखो नियतो भूत्वा जजाप प्रीतमानसः।
शाकमूलफलाहारः संवत्सरमतन्द्रितः ॥ २२
जजाप मन्त्रमनिशमजरस्तं॑स॒ पुनः पुनः।
बेताला राक्षसा घोरा: सिंहाद्याश्च महामृगा: ॥ २३
तमभ्ययुर्महात्मानं बुद्धधिमोहाय भीषणा:।
जपन् स वासुदेवेति न किज्वित्प्रत्यपद्यत॥ २४
उनके ऐसा कहनेपर महान् यशवाले श्रुवने उन विश्वामित्रको प्रणाम करके पूर्वकी ओर मुख करके ध्यानमग्न होकर प्रसन्नचित्त हो जप आरम्भ किया। शाक, मूल तथा फलका आहार करते हुए उसने आलस्यरहित होकर दिन-रात निरन्तर एक वर्षतक मन्त्रका बार-बार जप किया। वेताल, भयंकर राक्षस तथा भयानक सिंह आदि बड़े जानवर बुद्धिको मोहित करनेके लिये उस महात्माके पास आये, किंतु वासुदेवका जप करता हुआ वह तनिक भी विचलित नहीं हुआ॥ २१--२४॥
सुनीतिरस्यथ या माता तस्या रूपेण संवृता।
पिशाची समनुप्राप्ता रुरोद भृशदु:खिता॥ २५
मम त्वमेकः पुत्रोडईसि किमर्थ क्लिश्यते भवान्।
मामनाथामपहाय. तप आस्थितवानसि॥ २६
एवमादीनि वाक्यानि भाषमाणां महातपा:।
अनिरीक्ष्यैव हृष्टात्मा हरेनाम जजाप सः॥ २७
ततः प्रशेमुः सर्वत्र विध्नरूपाणि तत्र वै।
ततो गरुडमारुछ्य कालमेघसमप्युति: ॥ २८
सर्वदेवै: परिवृत: स्तूयमानो मह्षिभि:।
आययो भगवान् विष्णु: ध्रुवान्तिकमरातिहा॥ २९
इसकी माता जो सुनीति थी, उसका रूप धारण करके एक पिशाची उसके पास आयी और अत्यन्त दुःखित होकर रोने लगी--तुम मेरे एकमात्र पुत्र हो, तुम कष्ट क्यों सह रहे हो, मुझे अनाथ छोड़कर तुम तपमे लग गये हो--इस प्रकारके वचन बोलती हुई उस स्त्रीकी ओर बिलकुल न देखकर वह महातपस्वी प्रसनचित्त होकर हरिका नाम जपता रहा तदनन्तर वहाँ सर्वत्र विध्नोंके स्वरूप शान्त हो गये। तब गरुड़पर सवार होकर कालमेघके समान (श्याम) कान्तिवाले, समस्त देवताओंसे घिरे हुए तथा महर्षियोंके द्वारा स्तुति किये जाते हुए शत्रुसंहारक भगवान् विष्णु ध्रुवके पास आये॥ २५-२९॥
समागतं विलोक्याथ कोसावित्येव चिन्तयन्।
पिबन्निव हषीकेशं नयनाभ्यां जगत्पतिम्॥ ३०
जपनू स वासुदेवेति श्रुवस्तस्थौ महाद्युतिः।
शद्डुप्रान्तेन गोविन्द: पस्पर्शास्यं हि तस्य बै॥ ३१
ततः स॒ परमं ज्ञानमवाप्य पुरुषोत्तमम्।
तुष्टाव प्राउ्जलिभ्भूत्वा सर्वलोकेश्वरं हरिम्॥ ३२
प्रसीद॑ देवदेवेश शह्डुचक्रगदाधर।
लोकात्मन् बेदगुह्त्मन् त्वां प्रपन्नोउस्मि केशव ॥ ३३
न विदुस्त्वां महात्मानं सनकाद्या महर्षय:।
तत्कर्थ त्वामहं विद्यां नमस्ते भुवनेश्वर॥ ३४
उनको आया हुआ देखकर यह कौन है-ऐसा सोचता हुआ तथा अपने नेत्रोंसे जगत्पति हषीकेशका पान करता हुआ-सा वह महान प्रभावाला श्रुव नमो भगवते वासुदेवाय '--इस मन्त्रका जप करता रहा। तब गोविन्दने [अपने] शंखके अग्रभागसे उसके मुखका स्पर्श किया उसके बाद वह [ध्रुव] परम ज्ञान प्राप्त करके हाथ जोड़कर सभी लोकोंके स्वामी पुरुषोत्तम हरिको [इस प्रकार] स्तुति करने लगा--हे देवदेवेश! हे शंख, चक्र, गदा धारण करनेवाले! हे लोकात्मन्! है वेदगुद्यात्मन् (वेदोंके द्वारा अज्ञातस्वरूपवाले) ! प्रसन्न होइये। हे केशव! मैं आपकी शरणमें आया हूँ। सनक आदि महर्षि भी आप महात्माको नहीं जान सके, तब मैं आपको कैसे जान सकता हूँ। हैं भुवनेश्वर! आपको नमस्कार है॥ ३०--३४॥
तमाह प्रहसन् विष्णुरेहि वत्स ध्रुवो भवान्।
स्थान श्रुव समासाद्य ज्योतिषामग्रभुग्भव॥ ३५
मात्रा त्वं सहितस्तत्र ज्योतिषां स्थानमाप्लुहि।
मत्थ्थानमेतत्परमं श्रुवं नित्यं सुशोभनम्॥ ३६
तपसाराध्य देवेशं पुरा लब्धं हि शड्ढरात्।
वासुदेबेति यो नित्य॑ प्रणवेन समन्वितम्॥ ३७
नमस्कारसमायुक्ते भगवच्छब्दसंयुतम्।
जपेदेवं हि यो दिद्वान् श्रुवं स्थानं प्रपद्यते॥ ३८
तत्पश्चातू भगवान् विष्णुने उससे हँसते हुए कहा-हे वत्स! आओ, तुम ध्रुव हो, तुम ध्रुव (अटल) स्थान प्राप्त करके ज्योतिर्गणोंमें अग्रणी हो जाओ। तुम अपनी मातासहित वहाँ ग्रहोंमें स्थान प्राप्त करो, यह मेरा स्थान है, जो उत्कृष्ट, अचल, शाश्वत तथा अत्यन्त सुन्दर है। पूर्वकालमें मैंने तपस्याके द्वीरि देवेशकी आराधना करके शंकरसे इसे (मन्त्रको) प्राप्त किया था। प्रणव (3) तथा नमःसे युक्त और भगवत्-इस शब्दसे संयुक्त वासुदेव मन्त्र (& नमो भगवते वासुदेवाय)-को जो विद्वान् जपता है, वह ध्रुवस्थान प्राप्त करता है॥ ३५-३८ ॥
ततो देवा: सगन्धर्वा: सिद्धाएच परमर्षय:।
मात्रा सह शुवं सर्वे तस्मिन् स्थाने न्यवेशयन्॥ ३९
विष्णोराज्ञां पुरस्कृत्य ज्योतिषां स्थानमाप्तवान्।
एवं श्रुवी महातेजा द्वादशाक्षरविद्यया॥ ४०
अवाप महतीं सिद्धिमेतत्ते कथितं मया।॥ ४१
सूत उवाच
तस्माद्यो वासुदेवाय प्रणामं कुरुते नरः।
स याति ध्रुवसालोक्यं थ्रुवत्व॑ तस्य तत्तथा॥ ४२
तदनन्तर सभी देवताओं, गन्धर्वों, सिद्धों तथा महर्षियोंने मातासहित ध्रुवको उस स्थानपर स्थापित किया। इस प्रकार महातेजस्वी श्लुवने विष्णुकी आज्ञा स्वीकार करके द्वादशाक्षरमन्त्र (३७ नमो भगवते वासुदेवाय ) -के द्वारा ज्योतिर्गणोंमें स्थान प्राप्त किया तथा महती सिद्धि प्राप्त की। मैंने यह [वृत्तान्त] आपलोगोंसे कह दिया सूतजी बोले--अत: जो मनुष्य वासुदेवको प्रणाम करता है, वह ध्रुवलोकको जाता है और उसे भी वह ध्रुवत्व प्राप्त हो जाता है॥३९ - ४२॥
॥ श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे थुवनकोशे ध्रुवरसंस्थानवर्णन॑ नाम द्विषष्टितमोउध्याय: ॥ ६२ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहा पुराण के अन्तर्गत पूर्वभाय में 'भुवनकोश में ध्रुवरसंस्थान वर्णन ' नामक बासठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ६२॥
टिप्पणियाँ