श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग सत्रहवाँ अध्याय
भगवान् शिव द्वारा देवताओं से अपने यथार्थ स्वरूप का कथन
सनत्कुमार उवाच
भूयो देवगणश्रेष्ठ शिवमाहात्म्यमुत्तमम् ।
शृण्वतो नास्ति मे तृप्तिस्त्वद्वाक्यामृतपानतः ॥ १
कथं शरीरी भगवान् कस्माद्रुद्रः प्रतापवान्।
सर्वात्मा च कथं शम्भुः कथं पाशुपतं व्रतम् ॥ २
कथं वा देवमुख्यैश्च श्रुतो दृष्टश्च शङ्करः।
सनत्कुमार बोले- हे देवगणोंमें श्रेष्ठ। आपके वचनामृतका बार-बार पान करके भी उसे सुनते हुए मुझे तृप्ति नहीं हो रही है। भगवान् रुद्र शरीरवान् कैसे हुए, वे प्रतापी कैसे हुए, शिवजी सर्वात्मा कैसे हैं, पाशुपतव्रत कैसा है और प्रमुख देवताओंने शंकरजीके विषयमें श्रवण तथा उनका दर्शन कैसे किया ? ॥ १-२ ॥
शैलादिरुजाच
अव्यक्तादभवत्स्थाणुः शिवः परमकारणम् ॥ ३
स सर्वकारणोपेत ऋषिर्विश्वाधिकः प्रभुः ।
देवानां प्रथमं देवं जायमानं मुखाम्बुजात् ॥ ४
शैलादि बोले- अव्यक्त परमात्मासे संसारमण्डपके स्तम्भ तथा जगत्के परम कारण शिव उत्पन्न हुए। सर्वकारणमय, सर्वोपरि तथा ऋषिरूप उन प्रभुने अपने मुखकमलसे प्रकट हुए देवताओंके आदिदेव ब्रह्माको अपने सम्मुख देखा और सृष्टि करनेकी आज्ञासे उनकी ओर दृष्टिपात किया ॥ ३-४॥
ददर्श चाग्रे ब्रह्माणं चाज्ञया तमवैक्षत।
दृष्टो रुद्रेण देवेशः ससर्ज सकलं च सः ॥ ५
वर्णाश्रमव्यवस्थाश्च स्थापयामास वै विराट्।
सोमं ससर्ज यज्ञार्थं सोमादिदमजायत । ६
चरुश्च वह्निर्यज्ञश्च वज्रपाणिः शचीपतिः ।
विष्णुर्नारायणः श्रीमान् सर्वं सोममयं जगत् ॥ ७
रुद्राध्यायेन ते देवा रुद्रं तुष्टुवुरीश्वरम्।
प्रसन्नवदनस्तस्थौ देवानां मध्यतः प्रभुः ॥ ८
अपहृत्य च विज्ञानमेषामेव महेश्वरः ।
देवा ह्यपृच्छंस्तं देवं को भवानिति शङ्करम् ॥ ९
अब्रवीद्भगवान् रुद्रो हाहमेकः पुरातनः।
आसं प्रथम एवाहं वर्तामि च सुरोत्तमाः ॥ १०
भविष्यामि च लोकेऽस्मिन् मत्तो नान्यः कुतश्चन।
व्यतिरिक्तं न मत्तोऽस्ति नान्यत्किञ्चित्सुरोत्तमाः ।। ११
रुद्रके द्वारा देखे गये उन ब्रह्माने सम्पूर्ण जगत्का सूजन किया और तदुपरान्त वर्णाश्रमव्यवस्था स्थापित की। इसके बाद उन विराट्ने यज्ञहेतु सोमकी सृष्टि की। पुनः उस सोमसे ये सब चरु, अग्नि, यज्ञ, वज्रपाणि इन्द्र, श्रीयुक्त नारायण विष्णु आदि उत्पन्न हुए; इस प्रकार सम्पूर्ण जगत् सोममय हो गया तब वे समस्त देवगण रुद्राध्यायसे भगवान् रुद्रकी स्तुति करने लगे। वे प्रभु महेश्वर इन देवताओंका ज्ञान अपहृत करके प्रसन्नमुख होकर इनके मध्य स्थित हो गये। तत्पश्चात् देवताओंने भगवान् शंकरसे पूछा- आप कौन हैं? तब भगवान् रुद्रने कहा- हे श्रेष्ठ देवगण ! मैं एक पुरातन पुरुष हूँ। सर्वप्रथम मैं ही था, अब भी हूँ और भविष्यमें भी रहूँगा, इस लोकमें मुझसे बढ़कर अन्य कोई नहीं है। है श्रेष्ठ देवताओ। अन्य कुछ भी मुझसे भिन्न नहीं है॥ ५-११ ॥
नित्योऽनित्योऽहमनघो ब्रह्याहं ब्रह्मणस्पतिः ।
दिशश्च विदिशश्चाहं प्रकृतिश्च पुमानहम् ॥ १२
त्रिष्टुब्जगत्यनुष्टुप् च च्छन्दोऽहं तन्मयः शिवः ।
सत्योऽहं सर्वगः शान्तस्त्रेताग्निगौरवं गुरुः ॥ १३
गौरहं गह्वरश्चाहं नित्यं गहनगोचरः ।
ज्येष्ठोऽहं सर्वतत्त्वानां वरिष्ठोऽहमपां पतिः ।। १४
मैं नित्य हूँ तथा अनित्य भी हूँ। मैं पापशून्य, ब्रह्मा तथा ब्रह्मणस्पति (वेदोंका पालक) हूँ। मैं [पूर्व आदि] दिशाएँ तथा [आग्नेय आदि विदिशाएँ भी हूँ। मैं प्रकृति हूँ और पुरुष भी हूँ। मैं त्रिष्टुप, जगती और अनुष्टुप् छन्द हूँ, मैं छन्दराशिसे परिपूर्ण हूँ। मैं कल्याणस्वरूप, सत्यरूप, सर्वगामी, शान्त, त्रेताग्नि (गाईंपल्य, दक्षिणाग्नि, आहवनीय) रूप गौरव और हितोपदेशक हूँ। मैं पृथ्वीरूप हूँ। मैं गढ़र (गुहारूप) तथा आनन्दवन आदिमें सदा प्रत्यक्ष रहनेवाला हूँ। मैं समस्त तत्त्वोंमें ज्येष्ठ तथा वरिष्ठ हूँ, मैं समुद्ररूप हूँ ॥ १२-१४॥
आपोऽहं भगवानीशस्तेजोऽहं वेदिरप्यहम्।
ऋग्वेदोऽहं यजुर्वेदः सामवेदोऽहमात्मभूः ॥ १५
अथर्वणोऽहं मन्त्रोऽहं तथा चाङ्गिरसां वरः।
इतिहासपुराणानि कल्पोऽहं कल्पनाप्यहम् ॥ १६
अक्षरं च क्षरं चाहं क्षान्तिः शान्तिरहं क्षमा।
गुह्योऽहं सर्ववेदेषु वरेण्योऽहमजोऽप्यहम् ॥ १७
पुष्करं च पवित्रं च मध्यं चाहं ततः परम्।
बहिश्चाहं तथा चान्तः पुरस्तादहमव्ययः ॥ १८
ज्योतिश्चाहं तमश्चाहं ब्रह्माविष्णुर्महेश्वरः ।
बुद्धिश्चाहमहङ्कारस्तन्मात्राणीन्द्रियाणि च ॥ १९
एवं सर्वं च मामेव यो वेद सुरसत्तमाः।
स एव सर्ववित्सर्वं सर्वात्मा परमेश्वरः ॥ २०
भगवान् शिव कहते हैं- मैं जल हूँ, मैं तेज हूँ और मैं परिष्कृत यज्ञभूमिरूप भी हूँ। मैं ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेद हूँ। मैं आकाशरूप हूँ। मैं अंगिरसोंमें श्रेष्ठ अथर्वणमन्त्र (चतुर्थ वेदरूप) हूँ। मैं [महाभारत आदि] इतिहास, पुराण तथा कल्प (कर्मप्रयोगरचना) हूँ। मैं कल्पना भी हूँ। मैं अक्षर (कूटस्थरूप) तथा क्षर (नाशवान्) हूँ। मैं क्षान्ति (धैर्य), शान्ति तथा क्षमा हूँ। मैं सभी वेदोंमें गुह्य (संवृतरूप) हूँ। मैं सबसे श्रेष्ठ हूँ। मैं अजन्मा भी हूँ मैं पवित्र हृदयकमलरूप हूँ, मैं उसका मध्यभाग हूँ तथा उससे पर भी हूँ। मैं बाहर हूँ, भीतर हूँ तथा समक्ष भी हूँ। मैं शाश्वत हूँ। मैं ज्योति हूँ तथा अन्धकार भी हूँ। मैं ब्रह्मा, विष्णु तथा महेश्वर हूँ। बुद्धि, अहंकार, तन्मात्राएँ तथा इन्द्रियाँ मैं हो हूँ। हे श्रेष्ठ देवगण। इस प्रकार जो मुझ विश्वरूपको जानता है, वही सर्वज्ञ है, सर्वात्मा है और वह परमेश्वररूप हो जाता है॥ १५-२०॥
गां गोभिर्ब्रह्मणान् सर्वान् ब्राह्मण्येन हवींषि च।
आयुषायुस्तथा सत्यं सत्येन सुरसत्तमाः ।। २१
धर्म धर्मेण सर्वांश्च तर्पयामि स्वतेजसा।
इत्यादौ भगवानुक्त्वा तत्रैवान्तरधीयत ॥ २२
नापश्यन्त ततो देवं रुद्रं परमकारणम्।
ते देवाः परमात्मानं रुद्रं ध्यायन्ति शङ्करम् ॥ २३
सनारायणका देवाः सेन्द्राश्च मुनयस्तथा।
तथोर्ध्वबाहवो देवा रुद्रं स्तुन्वन्ति शङ्करम् ॥ २४
हे श्रेष्ठ देवगण। मैं वाणीको वेदोंसे, सभी ब्राह्मणों तथा हवियोंको ब्राह्मण्यसे, आयुको आयुसे, सत्यको सत्यसे, धर्मको धर्मसे और अन्य सबको अपने तेजसे तृप्त करता हूँ- ऐसा कहकर भगवान् वहीं अन्तर्धान हो गये। तदनन्तर जब उन देवताओंने परमकारणरूप रुद्रको नहीं देखा, तब वे उन परमात्मा शंकरका ध्यान करने लगे। नारायण विष्णु तथा इन्द्रसहित सभी देवता और मुनिगण ऊपरकी और हाथ उठाकर कल्याणकारी रुद्रकी स्तुति करने लगे॥ २१-२४॥
॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवमाहात्म्यवर्णनं नाम सप्तदशोऽध्यायः ॥ १७॥
॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवमाहात्म्यवर्णन' नामक सत्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १७ ॥
टिप्पणियाँ