लिंग पुराण : भगवान्‌ शिव द्वारा भस्म, भस्मस्नान एवं शिव योगियों की महिमा का प्रतिपादन | Linga Purana: Lord Shiva's rendering of ashes, bathing in ashes and the glory of Shiva yogis

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चौंतीसवाँ अध्याय 

भगवान्‌ शिव द्वारा भस्म, भस्म स्नान एवं शिव योगियों की महिमा का प्रतिपादन

श्रीभगवानुवाच 

एतद्द: सम्प्रवक्ष्यामि कथासर्वस्वमद्य बवै।
अग्नि हं सोमकर्ता सोमश्चाग्निमुपाश्रित:॥ १

कृतमेतद्वहत्यग्निभुगी  लोकसमाश्रयात्‌।
असकृत्त्वग्निना दग्धं जगत्स्थावरजड्डमम्‌॥ २

भस्मसाद्विहितं सर्व पवित्रमिदमुत्तमम्‌ । 
भस्मना वीर्यमास्थाय भूतानि परिषिञ्चति॥ ३

भगवान्‌ शिव बोले--हे मुनीश्वर! इन सबके माहात्म्य से युक्त कथाके सारभाग का वर्णन मैं आप लोगों से हूँ इस लोक (भारतवर्ष)-में रहने के कारण सबके कर्मोका फल अग्निके द्वारा ही धारण किया जाता हैं।  अग्निने इस स्थावर-जंगम जगत्‌को अनेक बार किया है। अग्निसे भस्मीभूत हो जानेसे यह सम्पूर्ण जगत्‌ पवित्र तथा उत्तम हो जाता है। उसी भस्मसे ओज प्राप्त करके यह सोम प्राणियों कों जीवित करता है॥ २-३॥

अग्निकार्य च यः कृत्वा करिष्यति त्रियायुषम्‌।
भस्मना मम वीर्येण मुच्यते सर्वकिल्बिषै:॥ ४

भासतेत्येव यद्धस्म शुभं भावयते च यत्‌।
भक्षणात्सर्वपापानां भस्मेति परिकीर्तितम्‌॥ ५

ऊष्मपा: पितरो ज्या देवा वै सोमसम्भवा:।
अग्नीषोमात्मक॑ सर्व जगत्स्थावरजड्रमम्‌॥ ६

अहमग्निर्महातेजा: सोमएचैषा महाम्बिका।
अहमग्निश्च सोमएच प्रकृत्या पुरुष: स्वयम्‌॥ ७

तस्माद्धस्म महाभागा मद्दीर्यमिति चोच्यते। 
स्ववीर्य वपुषा चैव धारयामीति वै स्थिति:॥ ८

तदाप्रभति लोकेषु रक्षार्थभशुभेषु च। 
भस्मना क्रियते रक्षा सूतिकानां गृहेषु च॥ ९

भस्मस्नानविशुद्धात्मा जितक्रोधो जितेन्द्रिय: । 
मत्समीपं॑ समागम्य न भूयो विनिवर्तते॥ १०

जो मनुष्य अग्निहोत्र-कार्य सम्पन्न करके भस्मसे ज्यायुष करता है, वह मेरे ओजसे समस्त पापोंसे मुक्त हो जाता है
यह भस्म प्रकाशित करता है, कल्याण सम्पादित करता हैं तथा समस्त पापोंका नाश करता है, अतएव इसे भस्म कहा जाता है ऊष्मपसंज्ञक पितर तथा देवतागण चन्द्रमासे उत्पन्न कहे गये हैं। स्थावर-जंगममय यह समस्त जगत अग्नि-सोमात्मक है मैं महान्‌ तेजसे युक्त अग्नि हूँ तथा ये महिमामयी अम्बा पार्वती सोमस्वरूपा हैं। प्रकृतिके साथ पुरुषरूप मैं अग्नि सोम दोनों ही हूँ अतएव हे महाभाग मुनियो! यह भस्म मेरा वीर्य है--ऐसा कहा जाता है। मैं अपने शरीरमें अपने वीर्य (भस्म)-को धारण करके अधिष्ठित हूँ और उसी समयसे यह भस्म सभी अमंगलोंसे लोकोंकी रक्षा करता है तथा इसी भस्मसे सूतिकागृहोंकी भी रक्षा की जाती है जो मनुष्य क्रोध तथा इन्द्रियोंको जीतकर भस्मस्नान करके पवित्र अन्त: करणवाला हो जाता है, वह मेरा सांनिध्य प्राप्त कर लेता है एवं पुनर्जन्मसे मुक्त हो जाता है॥ ४-१०॥

ब्रत॑ पाशुपतं योगं कापिलं चैव निर्मितम्‌। 
पूर्व॑पाशुपतं॑ ह्तनिनर्मितं तदनुत्तमम्‌॥ ११

शेषाएचा श्रमिण: सर्वे पश्चात्सृष्टा: स्वयम्भुता। 
सृष्टिरेषा मया सृष्टा लज्ञामोहभयात्मिका॥ १२

नग्ना एव हि जायन्ते देवता मुनयस्तथा। 
ये चानन्‍ये मानवा लोके सर्वे जायन्त्यवाससः ॥ ९३

इन्द्रियेरजितैर्नग्नो. दुकूलेनापि स्वृतः। 
तैरेव संवृतैर्गुप्तो न वस्त्र कारण स्मृतम।॥ ९४

क्षमा धृतिरहिंसा च वैराग्यं चेव सर्वशः। 
तुल्याौँ मानावमानौ च तदावरणमुत्तमम्‌॥ १५

पाशुपतब्रत, योगशास्त्र तथा कापिल (सांख्यशास्त्र)की रचना मैंने ही की। इनमें पाशुपतयोगकी रचना पहले हुई है, इसलिये यह उत्तम है आश्रम-सम्बन्धी शेष सभी शास्त्र स्वयंभू ब्रह्माजीके द्वारा बादमें रचे गये और लज्जा, मोह तथा भयसे युक्त इस सृष्टिकी रचना मैंने ही की है देवता तथा मुनिगण नग्न ही उत्पन्न होते हैं। लोकमें अन्य जो मनुष्य हैं, वे भी वस्त्रविहीनअवस्थामें उत्पन्न होते हैं। इन्द्रियोंपर विजय प्राप्त न किये हुए लोग सुन्दर वस्त्र धारण करके भी नग्न हैं और इन्द्रियजित्‌ लोग नग्न रहते हुए भी वस्त्रसे ढँके हुए हैं इसमें वस्त्र हेतु नहीं माना गया है॥ ११-१४॥

भस्मस्नानेन दिग्धाड़ो ध्यायते मनसा भवम्‌। 
यद्यकार्यसहस्त्राणि कृत्वा यः सनाति भस्मना॥ १६

तत्सर्व दहते भस्म यथाग्निस्तेजसा वनम्‌। 
तस्माद्यलपरो भूत्वा त्रिकालमपि यः: सदा॥ १७

भस्मना कुरुते स्नानं गाणपत्यं स गच्छति। 
समाहत्य क्रतून्‌ सर्वान्‌ गृहीत्वा ब्रतमुत्तमम्‌॥ १८

ध्यायन्ति ये महादेवं लीलासद्धावभाविता: । 
उत्तरेणार्यपन्धानं ते3मृतत्वमवाप्नुयु: ॥ १९

दक्षिणेन च पन्थानं ये श्मशानानि भेजिरे। 
अणिमा गरिमा चेव लघिमा प्राप्तरिव च॥ २०

इच्छाकामावसायित्वं तथा प्राकाम्यमेव च। 
ईशित्वं च वशित्वं च अमरत्वं च ते गता:॥ २९

क्षमा, थैर्य, अहिंसा, वेराग्य तथा हर तरहसे मान अपमानमें समानता उत्तम आवरण कहे गये हैं भस्म-स्नान के द्वारा पूरे शरीरमें भस्मका अनुलेपनकर मनसे शिवजीका ध्यान करना चाहिये। हजारों प्रकारके कुकृत्य करके भी यदि जो कोई मनुष्य भस्मसे स्नान करे, तो उसके सभी पापोंको भस्म उसी प्रकार जला डालता है, जिस प्रकार अग्नि अपने तेजसे वनको दग्ध कर देता है अतएव जो मनुष्य प्रयत्नशील होकर त्रिकाल भस्म-स्नान करता है, वह मेरे गणोंमें श्रेष्ठताको प्राप्त होता है जो लोग उत्तम व्रत धारण करके समस्त यज्ञ सम्पन्न करके महादेवके लीला विग्रहका चिन्तन करते हुए उनकी आराधना करते हैं; वे अमृतत्व (मोक्ष)- को प्राप्त होते हैं। इसे श्रेष्ठ उत्तरमार्ग कहा गया है  जो लोग दक्षिण-मार्गक द्वारा नाशवान् काम्यकर्मोंके लिये परमेश्वरकी आराधना करते हैं, वे अणिमा, गरिमा, लधिमा, प्राप्ति, इच्छाकामावसायित्व, प्राकाम्य, ईशित्व तथा वशित्व सिद्धियाँ प्राप्तकर अमर हो जाते हैं ॥ २०-२१ ॥

इन्द्रादयस्तथा देवा: कामिकत्रतमास्थिता:। 
ऐश्वर्य परमं प्राप्य सर्वे प्रथिततेजस:॥ २२

व्यपगतमदमोहमुक्तरागस्तमरजदोषविवर्जितस्वभाव: ।
परिभवमिदमुत्तमं विदित्वा पशुपतियोगपरो भवेत्सदेव॥ २३

इमं पाशुपतं ध्यायन्‌ सर्वपापप्रणाशनम्‌। 
यः पठेच्च शुचिर्भूत्वा श्रद्दधानो जितेन्द्रिय: ॥ २४

सर्वपापविशुद्धात्मा रुद्रलोकं स गच्छति। 
ते सर्वे मुनयः श्रुत्वा वसिष्ठाद्या द्विजोत्तमा:॥ २५

भस्मपाण्डुरदिग्धाड्रा बभूवुर्विगतस्पृहा:। 
रुद्रलोकाय कल्पान्ते संस्थिता: शिवतेजसा॥ २६

इन्द्र आदि सभी देवता भी काम्य व्रतका आश्रयणकर परम ऐश्वर्यकी प्राप्ति करके अपरिमित तेजस्वी हो गये मद - मोह से शून्य, रागोंसे मुक्त तथा तम-रज आदि विकारोंसे रहित स्वभाववाला होकर संसारको परिभूत करनेवाले पाशुपतयोगको उत्तम जानकर सदा इस पशुपतियोगमें स्थित रहना चाहिये सभी इन्द्रियोंको जीतकर जो मनुष्य पवित्र मनसे सभी पापोंका नाश करनेवाले इस पाशुपतयोगका ध्यान पूर्वक श्रद्धा- भावसे पाठ करता है, सभी पातकोंसे रहित विशुद्ध आत्मावाला वह प्राणी रुद्रलोकको प्राप्त होता है महादेवजीका यह वचन सुनकर द्विजोंमें श्रेष्ठ वसिष्ठ आदि वे सभी मुनि अपने अंगोंमें पीताभ-श्वेत भस्म लगाने लगे और इच्छारहित वे मुनिगण कल्पके अन्तमें शिव जी के तेजके प्रभावसे रुद्रलोकके लिये प्रस्थित हुए॥ २२ -२६ ॥

तस्मान्न निन्द्या: पूज्याएच विकृता मलिना अपि। 
रूपान्विताश्च विप्रेन्द्राः सदा योगीन्द्रशड्डया ॥ २७

बहुना कि प्रलापेन भवभक्ता द्विजोत्तमा:। 
सम्पूज्या: सर्वयत्नेन शिववन्नात्र संशय:॥ २८

मलिनाश्चेव विप्रेन्द्रा भवभक्ता दूढब्रता:। 
दधीचस्तु यथा देवदेवं जित्वा व्यवस्थित:॥ २९

नारायणं तथा लोके रुद्रभक्त्या न संशय: । 
तस्मात्सर्वप्रयत्नेन भस्मदिग्धतनूरुहा: ॥ ३०

जटिनो मुण्डिनएचेव नग्ना नानाप्रकारिण:।
सम्पूज्या: शिववन्नित्यं मनसा कर्मणा गिरा॥ ३१

[ नन्दी कहते हैं--हे सनत्कुमारजी !] अत: मलिन, विकृत, रूपसम्पन्न चाहे जिस रूपमें हो, महान्‌ योगीकी शंका करके उनकी निन्‍दा नहीं करनी चाहिये, अपितु उनकी सदा पूजा करनी चाहिये अधिक कहनेकी क्‍या आवश्यकता; दृढ़ ब्रतवाले भगवान्‌ शिवके द्विजश्रेष्ठ भक्त चाहे वे मलिन ही क्‍यों न हों, पूरे प्रयत्तसे शिवकी ही भाँति उनकी पूजा करनी चाहिये, इसमें कोई सन्देह नहीं है इसी भाँति मुनि दधीच शिवकी भक्तिसे देवदेव नारायणको जीतकर लोकमें प्रतिष्ठित हो गये थे; इसमें सन्देह नहीं है अतएव भस्मसे लिप्त शरीरवाले, जटाधारी, मुण्डित सिरवाले तथा दिगम्बर वेशवाले अनेक प्रकारके महात्माओंकी मन, वचन एवं कर्मसे पूर्ण प्रयत्तके साथ महादेव की भाँति विधिवत्‌ पूजा करनी चाहिये॥ २७-३१॥

॥  श्रीलिड्गरमहापुराणे पूर्वभागे योगिप्रशंसा नाम चतुस्त्रिशोउध्याय: ॥ ३४ ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभायमें 'योगिप्रशंसा ' नामक चौतीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ३४॥

FAQs :- भगवान् शिव द्वारा भस्म, भस्म स्नान एवं शिव योगियों की महिमा का प्रतिपादन

प्रश्न 1: भस्म का महत्व क्या है, और यह कैसे पवित्र मानी जाती है?

उत्तर: भगवान् शिव के अनुसार, भस्म सम्पूर्ण जगत के पवित्रता का प्रतीक है। यह अग्नि द्वारा स्थावर-जंगम जगत को भस्मीभूत कर शुद्ध करती है। इसके उपयोग से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं और इसे ओजस्वी एवं कल्याणकारी माना गया है।

प्रश्न 2: भस्म स्नान का आध्यात्मिक महत्व क्या है?

उत्तर: भस्म स्नान करने वाला व्यक्ति पवित्र अंतःकरण वाला बन जाता है। ऐसे व्यक्ति के क्रोध और इंद्रियां वश में रहती हैं। भगवान शिव का सान्निध्य प्राप्त कर वह पुनर्जन्म से मुक्त हो जाता है।

प्रश्न 3: पाशुपत योग का उद्देश्य और महत्व क्या है?

उत्तर: पाशुपत योग का उद्देश्य आत्मा को समस्त सांसारिक विकारों से मुक्त करना है। यह सभी पापों का नाश करता है और रुद्रलोक की प्राप्ति कराता है। इसे शिव द्वारा निर्मित उत्तम योग बताया गया है।

प्रश्न 4: भगवान शिव ने भस्म के माध्यम से कौन-कौन से सिद्धांत बताए?

उत्तर: भगवान शिव ने बताया कि भस्म केवल शरीर को शुद्ध करने का माध्यम नहीं, बल्कि यह आध्यात्मिक शुद्धि का भी प्रतीक है। यह सभी विकारों को समाप्त कर जीवन को शांति और मोक्ष की ओर ले जाती है।

प्रश्न 5: भस्म स्नान का उपयोग कैसे किया जाता है?

उत्तर: भस्म को पूरे शरीर पर लगाकर मन से भगवान शिव का ध्यान करना चाहिए। यह सभी पापों को उसी प्रकार नष्ट करता है, जैसे अग्नि वन को जला देती है।

प्रश्न 6: भगवान शिव ने योगियों और साधकों के लिए क्या संदेश दिया?

उत्तर: भगवान शिव ने कहा कि योगियों और साधकों को इंद्रियों पर विजय प्राप्त करनी चाहिए, क्रोध को जीतना चाहिए, और पाशुपत योग का पालन करना चाहिए। ऐसा करने वाले व्यक्ति अमरत्व, सिद्धियों और रुद्रलोक की प्राप्ति करते हैं।

प्रश्न 7: शिव के अनुसार, वस्त्र और नग्नता का क्या आध्यात्मिक अर्थ है?

उत्तर: भगवान शिव के अनुसार, वस्त्र का वास्तविक महत्व नहीं है। इंद्रियों पर विजय प्राप्त करने वाले नग्न रहते हुए भी पूर्णतः आवृत्त माने जाते हैं, जबकि इंद्रिय-विजय से रहित व्यक्ति वस्त्र धारण करने के बावजूद नग्न माने जाते हैं।

प्रश्न 8: भगवान शिव ने मुनियों और देवताओं के बारे में क्या कहा?

उत्तर: भगवान शिव ने कहा कि मुनि और देवता नग्न अवस्था में उत्पन्न होते हैं। वे भस्म का उपयोग कर अपने शरीर और मन को पवित्र करते हैं और अंततः शिवलोक प्राप्त करते हैं।

प्रश्न 9: भस्म से जुड़ी धार्मिक परंपराओं का क्या उद्देश्य है?

उत्तर: भस्म से धार्मिक परंपराएं, जैसे सूतिकागृह की रक्षा और त्रिकाल स्नान, भौतिक एवं आध्यात्मिक पवित्रता के लिए की जाती हैं। यह अमंगलों को दूर कर कल्याणकारी ऊर्जा प्रदान करती हैं।

प्रश्न 10: भस्म का उपयोग जीवन में क्या बदलाव लाता है?

उत्तर: भस्म का उपयोग करने से व्यक्ति का मन और आत्मा शुद्ध होती है। वह संसार के बंधनों से मुक्त होकर शिवत्व प्राप्त करता है, जो मोक्ष का मार्ग है।

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