लिंग पुराण : का परिचय तथा इसमें प्रतिपादित विषयों का वर्णन |

लिङ्गपुराण  दूसरा अध्याय

लिङ्गपुराण  दूसरा अध्याय - परिचय तथा इस में प्रतिपादित विषयों का वर्णन

सूत उवाच 

ईशानकल्पवृत्तान्तमधिकृत्य महात्मना। 
ब्रह्मणा कल्पितं पूर्वं पुराणं लैङ्गमुत्तमम् ॥ १ 

ग्रन्थकोटिप्रमाणं तु शतकोटिप्रविस्तरे। 
चतुर्लक्षेण सङ्क्षिप्ते व्यासैः सर्वान्तरेषु वै॥ २

वही बृहद् पुराणसंहिता प्रत्येक द्वापरयुगमें
व्यस्तेऽष्टादशधा चैव ब्रह्मादौ द्वापरादिषु। 
लिङ्गमेकादशं प्रोक्तं मया व्यासाच्छ्रुतञ्च तत् ॥ ३

अस्यैकादशसाहस्त्रे ग्रन्थमानमिह द्विजाः। 
तस्मात् सङ्क्षेपतो वक्ष्ये न श्रुतं विस्तरेण यत् ॥ ४

चतुर्लक्षेण सङ्क्षिप्ते कृष्णद्वैपायनेन तु। 
अत्रैकादशसाहस्त्रैः कथितो लिङ्गसम्भवः ॥ ५

सूतजी बोले- ईशानकल्पमें लिङ्गके प्रादुर्भाव आदिसे सम्बद्ध वृत्तान्तोंको आश्रित करके महात्मा ब्रह्माने सर्वप्रथम श्रेष्ठ लिङ्गपुराणकी उद्भावना की सौ करोड़ विस्तारवाले पुराणसमुच्चयमें एक करोड़ श्लोकोंवाला यह लिङ्गपुराण सभी मन्वन्तरोंमें विभिन्न व्यासोंके द्वारा चार लाख श्लोकोंमें संक्षिप्त किया गया  वही बृहद् पुराणसंहिता प्रत्येक द्वापरयुगमें ब्रह्मपुराणादि अठारह पुराणंकि रूपमें व्यासजीद्वारा विभक्त होती है, उनमें ग्यारहवाँ लिङ्गपुराण कहा गया है, जिसका श्रवण मैंने व्यासजीसे किया है हे विप्रो! [चार लाख श्लोकोंमें संक्षेपके पश्चात्] इस ग्रन्थमें श्लोकोंकी संख्या मात्र ग्यारह हजार है। अतः मैं संक्षेपमें ही इसका वर्णन कर रहा हूँ; क्योंकि मैं इसे विस्तारसे नहीं सुन सका हूँ  विभिन्न मन्वन्तरोंमें अनेक व्यासोंद्वारा चार लाख श्लोकोंमें संक्षिप्त किये गये इस लिङ्गपुराणमेंसे वैवस्वत मन्वन्तरमें श्रीकृष्णद्वैपायन व्यासजीने ग्यारह हजार श्लोकोंमें लिङ्गपुराणका वर्णन किया है॥ १ - ५॥

सर्गः प्राधानिकः पश्चात्प्राकृतो वैकृतानि च। 
अण्डस्यास्य च सम्भूतिरण्डस्यावरणाष्टकम् ॥ ६

अण्डोद्भवत्वं शर्वस्य रजोगुणसमाश्रयात् । 
विष्णुत्वं कालरुव्रत्वं शयनं चाप्सु तस्य च ॥ ७

प्रजापतीनां सर्गश्च पृथिव्युद्धरणं तथा। 
ब्रह्मणश्च दिवारात्रमायुषो गणनं पुनः ॥ ८

सवनं ब्रह्मणश्चैव युगकल्पश्च तस्य तु। 
दिव्यञ्च मानुषं वर्षमार्ष वै श्रीव्यमेव च ॥ ९

पित्र्यं पितॄणां सम्भूतिर्धर्मश्चाश्रमिणां तथा। 
अवृद्धिर्जगतो भूयो देव्याः शक्युद्भवस्तथा ॥ १०

इसमें सर्वप्रथम प्राधानिक तदनन्तर प्राकृत तथा वैकृत सृष्टिका वर्णन किया गया है। इस अण्डको उत्पत्ति तथा अण्डके आठ आवरणोंका इसमें वर्णन है॥६॥ सदाशिवके ही रजोगुणके समाश्रयणसे अण्डके मध्यसे ब्रह्मारूपमें, (सत्त्वके आश्रयसे) विष्णुरूपमें, (तमोगुणके आश्रयसे) कालरुद्ररूपमें प्रादुर्भावका तथा अन्तमें उन्हीं सदाशिवका ही प्रलयकालीन जलराशिमें (नारायणके रूपमें) शयनका वर्णन किया गया है इस पुराणके अन्तर्गत प्रजापतियोंकी सृष्टि, पृथ्वीके उद्धारकी कथा तथा ब्रह्मसके दिन-रात और उनकी आयुकी गणनाका वर्णन किया गया है  इसमें ब्रह्माकी उत्पत्ति तथा उनके युग एवं कल्प वर्णित हैं। दिव्य वर्ष, मानुष वर्ष, आर्षवर्ष, ध्रौव्यवर्ष तथा पित्र्यवर्षका इसमें वर्णन है। पितरोंकी उत्पत्ति, आश्रमियोंके धर्म, सृष्टि-विस्तारको प्रारम्भिक दशामें सृष्टिके त्वरित अभीष्ट विकासके अभाव तथा शक्तिस्वरूपा देवीके उद्भवका वर्णन इसमें किया गया है॥६ - १०॥ 

स्त्रीपुम्भावो विरिञ्चस्य सर्गो मिथुनसम्भवः । 
आख्याष्टकं हि रुद्रस्य कथितं रोदनान्तरे ॥ ११

ब्रह्मविष्णुविवादश्च पुनर्लिङ्गस्य सम्भवः । 
शिलादस्य तपश्चैव वृत्रारेर्दर्शनं तथा ॥ १२

प्रार्थनायोनिजस्याथ दुर्लभत्वं सुतस्य तु। 
शिलादशक्रसंवादः पायोनित्वमेव च ॥ १३

भवस्य दर्शनञ्चैव तिष्येष्वाचार्यशिष्ययोः । 
व्यासावताराश्च तथा कल्पमन्वन्तराणि च ॥ १४

कल्पत्त्वं चैव कल्पानामाख्याभेदेष्वनुक्रमात्। 
कल्पेषु कल्पे वाराहे वाराहत्वं हरेस्तथा ॥ १५

मनु तथा शतरूपाको उत्पत्तिरूपमें ब्रह्माके स्त्री- पुरुष भावका वर्णन, मैथुनी सृष्टिका वर्णन तथा रुद्रके रुदनके पश्चात् उनके आत नामोंका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें किया गया है ब्रह्मा-विष्णुके विवाद तथा उसके बाद शिवलिङ्गके प्राकट्यका वर्णन इसमें विद्यमान है। शिलादकी तपस्या तथा उन्हें वृत्रारि (इन्द्र) का दर्शन इस पुराणमें वर्णित है शिलाद तथा इन्द्रका संवाद, शिलादद्वारा अयोनिज पुत्रके लिये की गयी प्रार्थना, ऐसे पुत्रका दुर्लभत्व तथा कमलसे ब्रह्माकी उत्पत्ति इस पुराणमें वर्णित हैं कलियुगोंमें आचार्य तथा शिष्यको शिवके दर्शन, व्यासोंके अवतार, कल्प, मन्वन्तर, कल्पका स्वरूप, भेदक्रमसे कल्पोंके आख्यान, कल्पोंमें वाराहकल्पमें विष्णुके वाराहावतारकी कथा आदिका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें है॥ ११ - १५ ॥

मेघवाहनकल्पस्य वृत्तान्तं रुद्रगौरवम्। 
पुनर्लिङ्गोद्भवश्चैव ऋषिमध्ये पिनाकिनः ॥ १६

लिङ्गस्याराधनं स्नानविधानं शौचलक्षणम्। 
वाराणस्याश्च माहात्म्यं क्षेत्रमाहात्म्यवर्णनम् ॥ १७

भुवि रुद्रालयानां तु संख्या विष्णोगृहस्य च। 
अन्तरिक्षे तथाण्डेऽस्मिन् देवायतनवर्णनम् ॥ १८

दक्षस्य पतनं भूमौ पुनः स्वारोचिषेऽन्तरे। 
दक्षशापश्च दक्षस्य शापमोक्षस्तथैव च ॥ १९

कैलासवर्णनञ्चैव योगः पाशुपतस्तथा। 
चतुर्युगप्रमाणञ्च युगधर्मः सुविस्तरः ॥ २०

मेघवाहन कल्पका वृत्तान्त, रुद्रगरिमा, ऋषियकि मध्य शिवलिङ्गका उद्भव, लिङ्गकी उपासना-स्नानविधि, शौचाचार का लक्षण, वाराणसीका माहात्म्य तथा क्षेत्रमाहात्म्य आदिका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें उपलब्ध है  पृथ्वी पर शिवालयों तथा विष्णुके मन्दिरोंकी संख्याका वर्णन और अन्तरिक्ष तथा इस ब्रह्माण्डमें देवालयोंका वर्णन इसमें है  स्वारोचिष मन्वन्तरमें दक्षप्रजापतिका पृथ्वीपर पतन, दक्षको प्रदत्त शाप तथा उस शापसे दक्षकी मुक्ति इस लिङ्गपुराणमें वर्णित है  कैलास का वर्णन, पाशुपतयोगका वर्णन, चारों युगोंके स्वरूप एवं प्रमाणका वर्णन तथा युगधर्म का वर्णन लिङ्गपुराण में विस्तार के साथ उपलब्ध है ॥ १६ - २० ॥

सन्ध्यांशकप्रमाणञ्च सन्ध्यावृत्तं भवस्य च। 
श्मशाननिलयश्चैव चन्द्ररेखासमुद्भवः ॥ २९

उद्वाहः शङ्करस्याथ पुत्रोत्पादनमेव च। 
मैथुनातिप्रसङ्गेन विनाशो जगतां भयम् ॥ २२

शापः सत्या कृतो देवान् पुरा विष्णुञ्च पालितम्। 
शुक्रोत्सर्गस्तु रुद्रस्य गाङ्गेयोद्भव एव च ॥ २३

ग्रहणादिषु कालेषु स्नाप्य लिङ्गं फलं तथा। 
क्षुब्दधीचविवादश्च दधीचोपेन्द्रयोस्तथा ॥ २४

उत्पत्तिर्नन्दिनाम्ना तु देवदेवस्य शूलिनः । 
पतिव्रतायाश्चाख्यानं पशुपाशविचारणा ॥ २५

प्रवृत्तिलक्षणं ज्ञानं निवृत्त्यवधिकृता तथा। 
वसिष्ठतनयोत्पत्तिर्वासिष्ठानां महात्मनाम् ॥ २६

मुनीनां वंशविस्तारो राज्ञां शक्तेर्विनाशनम्। 
दौरात्म्यं कौशिकस्याथ सुरभेर्बन्धनं तथा ॥ २७

चारों युगों के सन्ध्याकालमान का वर्णन, शिव जी के सन्ध्याताण्डव का वर्णन, शंकरजीके श्मशानवास का वर्णन तथा चन्द्रमाकी कलाओंकी उत्पत्तिका वर्णन इस पुराणमें किया गया है इस लिङ्गपुराणमें शंकरजीका विवाह, तत्पश्चात् पुत्ररूपमें श्रीगणेशजीकी उत्पत्ति, दीर्घकालीन कामोपभोग- प्रसंगसे जगत्‌के विनाशका भय, सतीके द्वारा प्रदत्त शाप, उत्पत्ति आदि वर्णित हैप्राचीनकालमें शिवजीद्वारा त्रिपुरवध करके देवताओं तथा विष्णुकी रक्षा, शिवजीका शुक्रोत्सर्ग तथा कार्तिकेयकी ग्रहण आदि कालोंमें लिङ्गके अभिषेकका विधान तथा उसका फल, क्षुप् तथा दधीच और दधीच तथा विष्णुका विवाद इस पुराणमें वर्णित है इस लिङ्गपुराणमें देवाधिदेव शूलधारी शिवजीका नन्दीश्वर नामसे प्रादुर्भाव, पतिव्रताका आख्यान, पशु (जीव) तथा पाश (बन्धन) की मीमांसा, आसक्तिके स्वरूपका ज्ञान, निवृत्तिकी योग्यताप्राप्ति, वसिष्ठके पुत्रोंकी उत्पत्ति, महात्मा बसिष्ठपुत्रों तथा मुनियों और राजाओंका वंशविस्तार, वसिष्ठपुत्र शक्तिका विनाश, विश्वामित्र को दुर्भावना तथा उनके द्वारा वसिष्ठको सुरभिधेनु का बलात् अधिग्रहण आदि वर्णित किये गये है॥ २९ -२७॥

सुतशोको वसिष्ठस्य अरुन्धत्याः प्रलापनम् । 
स्नुषायाः प्रेषणञ्चैव गर्भस्थस्य वचस्तथा ॥ २८

पराशरस्यावतारो व्यासस्य च शुकस्य च। 
विनाशो राक्षसानाञ्च कृतो वै शक्तिसूनुना ॥ २९

देवतापरमार्थं तु विज्ञानञ्च प्रसादतः । 
पुराणकरणञ्चैव पुलस्त्यस्याज्ञया गुरोः ॥ ३०

वसिष्ठके पुत्रशोक, अरुन्धतीके विलाप, उनकी पुत्रवधूके प्रेषण, गर्भस्थित शिशुके वचनोद्गार, पराशर- ज्यास तथा शुकदेवके अवतार, शक्तिपुत्र पराशरके द्वारा किये गये राक्षसध्वंस, देवताओंके गूढ़ रहस्यरूप विशिष्ट ज्ञान तथा गुरु पुलस्त्यके आज्ञानुसार उनके कृपाप्रसादसे [पराशरद्वारा विष्णु]-पुराणकी रचनासे सम्बन्धित विषयोंका वर्णन किया गया है॥ २८-३० ॥

भुवनानां प्रमाणञ्च ग्रहाणां ज्योतिषां गतिः । 
जीवच्छ्राद्धविधानञ्च श्राद्धार्हाः श्रद्धमेव च ।। ३१

नान्दीश्राद्धविधानञ्च तथाध्ययनलक्षणम्।
पञ्चयज्ञप्रभावश्च पञ्चयज्ञविधिस्तथा ॥ ३२

रजस्वलानां वृत्तिश्च वृत्त्या पुत्रविशिष्टता।
मैथुनस्य विधिश्चैव प्रतिवर्णमनुक्रमात् ॥ ३३

भोज्याभोज्यविधानञ्च सर्वेषामेव वर्णिनाम्। 
प्रायश्चित्तमशेषस्य प्रत्येकञ्चैव विस्तरात् ॥ ३४

भुवनोंकी परिमिति, ग्रहों-नक्षत्रोंको गति, जीवच्छाद्धकी विधि, श्राद्धके अधिकारी पात्रों तथा आद्धके विषयमें इस पुराणमें वर्णन है इस पुराणमें नान्दीश्राद्धके विधान, वेदाध्ययनका स्वरूप, ब्रह्मयज्ञ-पितृयज्ञ दैवयज्ञ-भूतयज्ञ नृयज्ञ- इन पाँच महायज्ञोंक प्रभाव तथा इन पाँच महायज्ञोंके करनेकी विधिका वर्णन किया गया है। रजस्वला स्त्रियोंके सदाचार, उस सदाचार-पालनसे विशिष्ट पुत्रकी प्राप्ति, प्रत्येक वर्गकेि अनुसार मैथुनके नियम, सभी वर्षोंके लिये अलग-अलग भोज्य तथा अभोज्यके विधिविधान और समस्त पापकि प्रायश्चित्तके विषयमें पृथक् पृथक् रूपसे विस्तारसे वर्णन किया गया है ॥ ३१-३४॥

नरकाणां स्वरूपञ्च दण्डः कर्मानुरूपतः । 
स्वर्गिनारकिणां पुंसां चिह्न जन्मान्तरेषु च ॥ ३५

नानाविधानि दानानि प्रेतराजपुरं तथा। 
कल्पं पञ्चाक्षरस्याथ रुद्रमाहात्म्यमेव च ।। ३६

वृत्रेन्द्रयोर्महायुद्धं विश्वरूपविमर्दनम्। 
श्वेतस्य मृत्योः संवादः श्वेतार्थे कालनाशनम् ॥ ३७

देवदारुवने शम्भोः प्रवेशः शङ्करस्य तु। 
सुदर्शनस्य चाख्यानं क्रमसंन्यासलक्षणम् ॥ ३८

श्रद्धासाध्योऽथ रुद्रस्तु कथितं ब्रह्मणा तदा। 
मधुना कैटभेनैव पुरा इतगतेर्विभोः ॥ ३९

ब्रह्मणः परमं ज्ञानमादातुं मीनता हरेः। 
सर्वावस्थासु विष्णोश्च जननं लीलयैव तु ॥ ४०


नरकोंके स्वरूप, कर्मानुसार दण्डके विधान, स्वर्ग और नरक प्राप्त करनेवाले पुरुषोंमें दूसरे जन्मोंमें प्रकट होनेवाले चिह्न, अनेक प्रकारके दानों, यमपुरी, पंचाक्षर मन्त्रकी मीमांसा तथा रुद्रमाहात्म्यका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें किया गया है इन्द्र-वृत्रासुरके महासंग्रामका वर्णन, विश्व रूपके वधका निरूपण, श्वेतमुनि तथा कालका संवाद, श्वेतमुनिकी रक्षाके लिये शिवद्वारा कालके संहारका इसमें वर्णन है ॥ देवदारुवनमें कल्याणकारी भगवान् शम्भुके प्रवेश, सुदर्शनके आख्यान एवं क्रमसंन्यासके लक्षणका वर्णन इस पुराणमें किया गया है शिव-प्राप्ति श्रद्धाद्वारा ही साध्य है इस सिद्धान्तका ब्रह्माद्वारा निरूपण, मधु-कैटभ-संसर्गसे नष्ट ज्ञानवाले ब्रह्माको परम ज्ञान प्रदान करनेके लिये शिवप्रादुर्भाव, भगवान् विष्णुका मत्स्यरूपमें अवतार तथा सभी अवस्थाओंमें लोलापूर्वक विष्णुकी उत्पत्तिका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें उपलब्ध है॥ ३७-४० ॥

रुद्रप्रसादाद्विष्णोश्च जिष्णोश्चैव तु सम्भवः । 
मन्थानधारणार्थाय हरेः कूर्मत्वमेव च ॥ ४१

सङ्कर्षणस्य चोत्पत्तिः कौशिक्याश्च पुनर्भवः । 
यदूनाञ्चैव सम्भूतिर्यादवत्वं हरेः स्वयम् ॥ ४२

भोजराजस्य दौरात्म्यं मातुलस्य हरेर्विभोः । 
बालभावे हरेः क्रीडा पुत्रार्थ शङ्करार्चनम् ॥ ४३

नारस्य च तथोत्पत्तिः कपाले वैष्णवाद्धरात् । 
भूभारनिग्रहार्थे तु रुद्रस्याराधनं हरेः ॥ ४४

भगवान् शंकरकी कृपासे श्रीकृष्ण तथा कामदेव के रूपमें प्रद्युम्नके प्रादुर्भाव एवं समुद्रमन्थनके समय मथानी-धारणके लिये भगवान् विष्णुके कूर्मावतारका वर्णन इस पुराणमें है  संकर्षण की उत्पत्ति, चण्डिका के रूप में कौशिकी के प्रादुर्भाव, यदुवंशियों की उत्पत्ति, स्वयं विष्णु के यदुकुल में प्रादुर्भाव, श्रीकृष्णके मामा भोजराज (कंस) के दुर्भाव, बालरूप में श्री कृष्ण की लीलाओं तथा पुत्रके लिये शंकरजीकी पूजाका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें किया गया है विष्णुरूप शिवसे कपालमें जलकी उत्पत्ति तथा पृथ्वीका भार उतारनेके लिये विष्णुद्वारा शंकरजीकी की गयी आराधनाका वर्णन इस पुराणमें है ॥ ४१ - ४४ ॥

वैन्येन पृथुना भूमेः पुरा दोहप्रवर्तनम् । 
देवासुरे पुरा लब्धो भृगुशापश्च विष्णुना ।॥ ४५

कृष्णत्वे द्वारकायां तु निलयो माधवस्य तु। 
लब्धो हिताय शापस्तु दुर्वासस्याननाद्धरेः ।। ४६

वृष्ण्यन्धकविनाशाय शापः पिण्डारवासिनाम् । 
एरकस्य तथोत्पत्तिस्तोमरस्योद्भवस्तथा ॥ ४७

एरकालाभतोऽन्योन्यं विवादे वृष्णिविग्रहः । 
लीलया चैव कृष्णेन स्वकुलस्य च संहतिः ॥ ४८

एरकास्त्रबलेनैव गमनं स्वेच्छयैव तु ।
 ब्रह्मणश्चैव मोक्षस्य विज्ञानं तु सुविस्तरम् ॥ ४९ ।

प्राचीनकाल में वेनपुत्र पृथु के द्वारा गौरूप पृथ्वी के दोहन तथा देवासुरसं ग्राम में कृष्ण के द्वारा प्राप्त किये गये भृगु- प्रदत्त शाप, द्वारकापुरीमें कृष्णरूपमें विष्णुके निवास, लोक- कल्याणके लिये विष्णु के द्वारा स्वीकार किये गये दुर्वासाप्रदत्त शापका वर्णन इस लिङ्गपुराणमें किया गया है  वृष्णि तथा अन्धक वंशोंके विनाशके लिये पिण्डारक क्षेत्रवासी यादवोंको दिये गये शाप, मूसल तथा एरकाकी उत्पत्ति, एरका घास ले-लेकर आपस में एक- दूसरेपर प्रहार करनेसे वृष्णिवंशियोंके विनाश, अपनी ही लीलासे श्रीकृष्णके द्वारा अपने ही कुलके विनाश, उसी एकारूपी अस्त्रके प्रभावसे श्रीकृष्णके इच्छापूर्वक अपने धामके लिये प्रयाण तथा कृष्णरूपी ब्रह्मकी प्रयाणलीलाके रहस्यका विस्तृत वर्णन इस लिङ्गपुराणमें किया गया है॥ ४५-४९॥

पुरान्धकाग्निदक्षाणां शक्रेभमृगरूपिणाम्। 
मदनस्यादिदेवस्य ब्रह्मणश्चामरारिणाम् ॥ ५०

हलाहलस्य दैत्यस्य कृतावज्ञा पिनाकिना। 
जालन्धरवधश्चैव सुदर्शनसमुद्भवः ॥ ५१

विष्णोर्वरायुधावाप्तिस्तथा रुद्रस्य चेष्टितम्। 
तधान्यानि च रुद्रस्य चरितानि सहस्त्रशः ॥ ५२

हरेः पितामहस्याथ शक्रस्य च महात्मनः । 
प्रभावानुभवश्चैव शिवलोकस्य वर्णनम् ॥ ५३

भूमौ रुद्रस्य लोकञ्च पाताले हाटकेश्वरम्। 
तपसां लक्षणञ्चैव द्विजानां वैभवं तथा ॥ ५४

आधिक्यं सर्वमूर्तीनां लिङ्गमूर्तेर्विशेषतः । 
लिङ्गेऽस्मिन्नानुपूव्र्येण विस्तरेणानुकीर्त्यते ।। ५५

एतज्ज्ञात्वा पुराणस्य सङ्क्षेपं कीर्तयेत्तु यः। 
सर्वपापविनिर्मुक्तो ब्रह्मलोकं स गच्छति ॥ ५६

इन्द्र बने हुए त्रिपुरासुर, गजरूपी अन्धकासुर, मृगरूपी यज्ञाग्नि, दक्ष, कामदेव, देवताओंके आदिदेव ब्रह्मा, हलाहल विष, दैत्य एवं अन्य असुरोंके शिवकृत दमनका वर्णन तथा जालन्धरवध एवं सुदर्शनकी उत्पत्तिका वर्णन भी इस पुराणमें प्राप्त है इस लिङ्गपुराणमें भगवान् विष्णुको श्रेष्ठ आयुधकी प्राप्ति, रुद्रके क्रिया-कलाप तथा उनके अन्य हजारों चरित्रोंका वर्णन किया गया है विष्णु-ब्रह्मा तथा महात्मा इन्द्रके अनुभव एवं प्रभावका वर्णन तथा शिवलोकका भी वर्णन है। भूमिष्ठ रुद्रलोक, पातालस्थ हाटकेश्वर, तपोंक लक्षण एवं द्विजोंके वैभवका निरूपण भी इस पुराणमें किया गया है भगवान् शंकरके विग्रहोंको व्यापकता तथा उनकी लिङ्गमूर्तिको विशेषता इस पुराणमें वर्णित है। इस लिङ्गमहापुराणमें पूर्वोक्त विषयोंका प्रायः क्रमिक रूपसे वर्णन किया गया है। इसे जानकर जो मनुष्य लिङ्ग- पुराणको इस संक्षिप्त अनुक्रमणिकाका कीर्तन (पाठ) करता है, वह सभी पापोंसे छूटकर ब्रह्मलोकको प्राप्त होता है ॥५५-५६ ॥

इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागेऽनुक्रमणिकावर्णनं नाम द्वितीयोऽध्यायः ॥ २॥

इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'अनुक्रमणिकावर्णन' नामक दूसरा अध्याय पूर्ण हुआ ॥२॥

लिंगपुराण के द्वितीय अध्याय से संबंधित FAQ (प्रश्नोत्तर)

सूतजी का उपदेश

सूतजी लिंगपुराण के दूसरे अध्याय में बताते हैं कि यह पुराण ईशानकल्प से सम्बद्ध विषयों का वर्णन करता है। महात्मा ब्रह्माजी ने सबसे पहले इसे उद्भूत किया था। यह पुराण प्रारंभ में सौ करोड़ श्लोकों का था, जो विभिन्न मन्वंतर में व्यासों द्वारा चार लाख श्लोकों तक संक्षिप्त किया गया। अंततः वैवस्वत मन्वंतर में व्यासजी ने इसे ग्यारह हजार श्लोकों में वर्णित किया।

FAQ: प्रश्नोत्तर

प्रश्न 1: लिंगपुराण की रचना किसने की?

उत्तर: लिंगपुराण की रचना सर्वप्रथम महात्मा ब्रह्मा ने की। इसे विभिन्न मन्वंतर में व्यासों द्वारा संशोधित और संक्षिप्त किया गया।


प्रश्न 2: लिंगपुराण में कुल कितने श्लोक हैं?

उत्तर: मूल लिंगपुराण में एक करोड़ श्लोक थे, लेकिन इसे चार लाख और फिर 11,000 श्लोकों में संक्षिप्त किया गया।


प्रश्न 3: लिंगपुराण के द्वितीय अध्याय में किस विषय का वर्णन है?

उत्तर: इसमें प्राधानिक, प्राकृत और वैकृत सृष्टि, ब्रह्मांड की उत्पत्ति, ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र की उत्पत्ति, शिवलिंग प्राकट्य और सृष्टि प्रक्रिया का वर्णन किया गया है।


प्रश्न 4: लिंगपुराण में शिवलिंग का क्या महत्व है?

उत्तर: शिवलिंग को शिव के सर्वोच्च स्वरूप का प्रतीक माना गया है। इसका प्राकट्य ब्रह्मा और विष्णु के विवाद के समय हुआ था।


प्रश्न 5: द्वितीय अध्याय में पृथ्वी उद्धार की कथा किससे संबंधित है?

उत्तर: यह कथा भगवान विष्णु के वाराह अवतार से संबंधित है, जिन्होंने पृथ्वी का उद्धार किया था।


प्रश्न 6: लिंगपुराण के अनुसार कैलाश पर्वत का क्या महत्व है?

उत्तर: कैलाश पर्वत को शिव का निवास स्थान और साधना का केंद्र माना गया है। द्वितीय अध्याय में इसका विस्तृत वर्णन है।


प्रश्न 7: द्वितीय अध्याय में युगों और कल्पों का वर्णन कैसे किया गया है?

उत्तर: इसमें चार युगों (सत्य, त्रेता, द्वापर, और कलियुग) और कल्पों का स्वरूप, अवधि और उनके धर्मों का वर्णन किया गया है।


प्रश्न 8: इस अध्याय में वाराणसी का क्या महत्व बताया गया है?

उत्तर: वाराणसी को शिव की प्रिय नगरी और मोक्षदायिनी क्षेत्र बताया गया है। इसका माहात्म्य विस्तार से वर्णित है।


प्रश्न 9: लिंगपुराण में नान्दी श्राद्ध का क्या वर्णन है?

उत्तर: नान्दी श्राद्ध को पितरों की प्रसन्नता के लिए अनुष्ठान बताया गया है। इसका विधान और प्रक्रिया भी इस अध्याय में दी गई है।


प्रश्न 10: इस अध्याय में प्रायश्चित्त और धर्म पालन का क्या महत्व है?

उत्तर: द्वितीय अध्याय में वर्णित है कि धर्म पालन और प्रायश्चित्त मनुष्य के पापों को नष्ट कर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग प्रशस्त करते हैं।


प्रश्न 11: ब्रह्मा, विष्णु और महेश के कार्य विभाजन का क्या विवरण है?

उत्तर: ब्रह्मा सृष्टि के रचयिता, विष्णु पालनकर्ता और महेश (रुद्र) संहारकर्ता के रूप में कार्य करते हैं।


प्रश्न 12: रजस्वला स्त्रियों के लिए क्या नियम बताए गए हैं?

उत्तर: अध्याय में रजस्वला स्त्रियों के लिए शुद्धता, आचरण और नियमों का पालन आवश्यक बताया गया है।


प्रश्न 13: द्वितीय अध्याय में स्वर्ग और नरक का क्या वर्णन है?

उत्तर: इसमें कर्मानुसार स्वर्ग और नरक की स्थिति और उनके स्वरूप का वर्णन किया गया है। अच्छे कर्म स्वर्ग और बुरे कर्म नरक का कारण बनते हैं।


प्रश्न 14: इस अध्याय में दान का क्या महत्व है?

उत्तर: दान को पवित्र कर्म माना गया है। इसका सही समय, पात्र और विधि का विस्तार से वर्णन है।


प्रश्न 15: शिव और शक्ति का संबंध इस अध्याय में कैसे दर्शाया गया है?

उत्तर: शिव और शक्ति को एक-दूसरे का पूरक बताया गया है। शक्ति के बिना शिव निर्जीव माने गए हैं।

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