लिंग पुराण : योग साधना के अन्तराय (विघ्न), योग से प्राप्त होने वाली विघ्न रूप विभिन्न सिद्धियाँ तथा ऐश्वर्य |

लिंग पुराण : नौवाँ अध्याय

योग साधना के अन्त राय (विघ्न), योग से प्राप्त होने वाली विघ्न रूप विभिन्न सिद्धि याँ तथा ऐश्वर्य, गुणवैतृष्ण्य तथा वैराग्य से पाशुपत योग की प्राप्ति

सूत उवाच

आलस्यं प्रथमं पश्चाद् व्याधिपीडा प्रजायते । 
प्रमादः संशयस्थाने चित्तस्येहानवस्थितिः ।। १

अश्रद्धादर्शनं भ्रान्तिर्दुःखं च त्रिविधं ततः । 
दौर्मनस्यमयोग्येषु विषयेषु च योगता ॥ २

दशधाभिप्रजायन्ते मुनेर्योगान्तरायकाः । 
आलस्यं चाप्रवृत्तिश्च गुरुत्वात्कायश्चित्तयोः ॥ ३

व्याधयो धातुवैषम्यात् कर्मजा दोषजास्तथा। 
प्रमादस्तु समाधेस्तु साधनानामभावनम् ।। ४ ।

सूतजी बोले- [हे मुनीश्वरी!] योगसाधनके कालमें पहले आलस्य तथा बादमें व्याधिपीड़ा उत्पन्न होती है, इसी प्रकार प्रमाद, संशय, चित्तकी अनवस्थिति, अश्रद्धादर्शन, भ्रान्ति, त्रिविध दुःख, दौर्मनस्य (मनमें असत्संकल्प-विकल्पका होना), निषिद्ध विषयोंमें मनका लगना ये कुल दस प्रकारके विघ्न साधकके योगाभ्यासमें उत्पन्न होते हैं शरीर तथा चित्तके भारीपनके कारण योगमें प्रवृत्त न होना ही आलस्य है। धातुवैषम्य (न्यूनाधिक्य) के कारण क्रियासे होनेवाले तथा वात-पित्त आदि दोषोंसे होने वाले विकार ही व्याधियाँ हैं। समाधिके साधनों का अनुष्ठान न करना प्रमाद है॥ १-४ ॥

इदं वेत्युभयस्पृक्तं विज्ञानं स्थानसंशयः । 
अनवस्थितचित्तत्वमप्रतिष्ठा हि योगिनः ॥ ५

लब्धायामपि भूमौ च वित्तस्य भवबन्धनात् । 
अश्रद्धाभावरहिता वृत्तिवै साधनेषु च ॥ ६

साध्ये चित्तस्य हि गुरौ ज्ञानाचारशिवादिषु। 
विपर्ययज्ञानमिति भ्रान्तिदर्शनमुच्यते ॥ ७

अनात्यन्यात्मविज्ञानमज्ञानात्तस्य सन्निधौ। 
दुःखमाध्यात्मिकं प्रोक्तं तथा चैवाधिभौतिकम् ।। ८

आधिदैविकमित्युक्तं त्रिविधं सहर्ज पुनः। 
इच्छाविधातात्सङ्क्षोभश्चेतसस्तदुदाहृतम् ॥ ९

दौर्मनस्यं निरोद्धव्यं वैराग्येण परेण तु। 
तमसा रजसा चैव संस्पृष्टं दुर्मनः स्मृतम् ॥ १०

यह करू अथवा वह कसै-इन दोनों स्थितियोंध मिश्रित अनिश्चिततापूर्ण विज्ञानको स्थानसंशय कवा गया है। समाधि-अवस्थाको पाकर भी भवबन्धनके कारण योगीके चित्तका (लक्ष्यमें) न ठहर पाना अनवस्थित-चित्तत्व है योगके साधन, साध्य, गुरु, ज्ञान, आचार तथा भगवान् शिव आदिमें चित्तको सद्भावरहित वृत्तिका नाम अबद्धा है समाधिके समीप पहुँचकर अज्ञानताके कारण अनात्मपदार्थोंमें आत्मज्ञानरूप विपरीत ज्ञान रखना भ्रान्तिदर्शन कहा जाता है आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक- ये तीन प्रकारके सहज दुःख बताये गये हैं। इच्छा- विघातके कारण चित्तमें उत्पन्न विक्षोभ हो दुःख कहा गया है परम वैराग्यके द्वारा दौर्मनस्यको नियन्त्रित करना चाहिये। तमोगुण तथा रजोगुणसे मिला हुआ यह मन दुर्मन कहा गया है। इसलिये ऐसे मनमें उत्पन्न होनेवाला दूषित भाव दौर्मनस्य कहा गया है॥ ५ - १०॥ 

तदा मनसि सञ्जातं दौर्मनस्यमिति स्मृतम्। 
हठात्स्वीकरणं कृत्वा योग्यायोग्यविवेकतः ॥ ११

विषयेषु विचित्रेषु जन्तोर्विषयलोलता।
अन्तराया इति ख्याता योगस्यैते हि योगिनाम् ॥ १२

अत्यन्तोत्साहयुक्तस्य नश्यन्ति न च संशयः। 
प्रनष्टेष्वन्तरायेषु द्विजाः पश्चाद्धि योगिनः ॥ १३

उपसर्गाः प्रवर्तन्ते सर्वे तेऽसिद्धिसूचकाः। 
प्रतिभा प्रथमा सिद्धिर्दितीया श्रवणा स्मृता ॥ १४

वार्ता तृतीया विप्रेन्द्रास्तुरीया चेह दर्शना। 
आस्वादा पञ्चमी प्रोक्ता वेदना षष्ठिका स्मृता ॥ १५

स्वल्पष‌सिद्धिसन्यागात्सिद्धिदाः सिद्धयो मुनेः। 
प्रतिभा प्रतिभावृत्तिः प्रतिभाव इति स्थितिः ॥ १६

बुद्धिर्विवेचना वेद्यं बुद्धयते बुद्धिरुच्यते। 
सूक्ष्मे व्यवहितेऽतीते विप्रकृष्टे त्वनागते ।। १७

योग्य तथा अयोग्य जानते हुए भी अयोग्य विषयोंके प्रति हठपूर्वक आसक्ति रखना हो विषय- लौलता है। योगियोंके योगसाधनमें इन्हें विग्नरूप कहा गया है। अत्यन्त उत्साहसे युक्त होकर अभ्यास करनेवाले साधककी ये बाधाएँ दूर हो जाती हैं, इसमें संशय नहीं है है द्विजो। इन विघ्नोंके समाप्त हो जानेके उपरान्त योगीके योगसाधनमें नानाविध उपसर्ग (उपद्रव) उत्पन्न होते हैं। वे सभी उपसर्ग भी असिद्धिसूचक हैं है विप्रेन्द्रो! प्रतिभा पहली सिद्धि, श्रवणा दूसरी सिद्धि, वार्ता तीसरी सिद्धि, दर्शना चौथी सिद्धि, आस्वादा पाँचवीं सिद्धि तथा वेदना छठी सिद्धि कही गयी है। इन प्रतिभा आदि स्वल्प षट् सिद्धियोंके आकर्षणसे मुक्त मुनिको अणिमादि सिद्धियों अभिलषित सिद्धि प्रदान करती हैं, प्रत्येक पदार्थविषयक अवबोधात्मक वृत्तिको प्रतिभा कहते हैं, विवेचनापूर्वक वेद्य वस्तुको जिससे जाना जाय, वह बुद्धि कही गयी है। अतीत (भूत), अनागत (भविष्य), सूक्ष्म, अदृष्ट, दूरस्थ, अत्यन्त समीप (वर्तमान) पदार्थोंका सर्वदा एवं सर्वत्र ज्ञान प्रदान करनेवाली प्रतिभासिका वृत्ति ही प्रतिभा है॥ ११-१७॥

सर्वत्र सर्वदा ज्ञानं प्रतिभानुक्रमेण तु।
श्रवणात्सर्वशब्दानामप्रयत्नेन योगिनः ॥ १८

ह्रस्वदीर्घप्लुतादीनां गुह्यानां श्रवणादपि। 
स्पर्शस्याधिगमो यस्तु वेदना तूपपादिता ॥ १९

दर्शनाद्दिव्यरूपाणां दर्शनं चाप्रयत्नतः। 
संविद्दिव्यरसे तस्मिन्नास्वादो हाप्रयत्नतः ॥ २०

वार्ता च दिव्यगन्धानां तन्मात्रा बुद्धिसंविदा। 
विन्दन्ते योगिनस्तस्मादाब्रह्मभवनं द्विजाः ॥ २१

जगत्यस्मिन् हि देहस्थं चतुःषष्टिगुणं समम् । 
औपसर्गिकमेतेषु गुणेषु गुणितं द्विजाः ॥ २२

सभी शब्दों, हस्व-दीर्घ-प्लुत आदि स्वरों तथा गुह्य ध्वनियोंका बिना किसी प्रयासके श्रवण होकर उनका यथार्थ ज्ञान हो जाना श्रयणासिद्धि है और स्पर्शकी जो अनुभूति है, वह वेदनासिद्धि कही गयी है बिना किसी प्रयत्नके दिव्य रूपोंका भी नेत्रेन्द्रियसे दिखायी पड़ना दर्शनासिद्धि है और दिव्य रसोंका सहज रूपमें बिना किसी प्रयत्नके ठीक-ठीक ज्ञान होना आस्वादासिद्धि है। इसी तरह बुद्धिके द्वारा दिव्य गन्धोंका भी ठीक-ठीक गन्धतन्मात्राके रूपमें अनुभव कर लेना वार्तासिद्धि है हे द्विजो! इस योगजनित धर्मरूप संसर्गसे योगीलोग इस जगत्‌में ब्रह्मलोकपर्यन्त जी सब कुछ है, उसे अपने देहमें स्थित देखते हैं। हे द्विजो। आगे बताये जानेवाले आठ गुण वृद्धिक्रमसे गुणित होकर संख्यामें चौंसठ गुणोंके बराबर हो जाते हैं॥ १८-२२॥ 

सन्त्याचं सर्वथा सर्वमौपसर्गिकमात्मनः । 
पैशाचे पार्थिवं चाप्यं राक्षसानां पुरे द्विजाः ॥ २३

याक्षे तु तैजसं प्रोक्तं गान्धर्वे श्वसनात्मकम् । 
ऐन्द्रे व्योमात्मकं सर्व सौम्ये चैव तु मानसम् ॥ २४

प्राजापत्ये त्वहङ्कारं ब्राहो बोधमनुत्तमम् । 
आधे चाष्टौ द्वितीये च तथा षोडशरूपकम् ॥ २५

चतुर्विशत्तृतीये तु द्वात्रिंशच्य चतुर्थके। 
चत्वारिंशत् पञ्बमे तु भूतमात्रात्मके स्मृतम् ॥ २६

गन्धो रसस्तथा रूपं शब्दः स्पर्शस्तथैव च। 
प्रत्येकमष्टधा सिद्धं पञ्चमे तच्छतक्रतोः ॥ २७

तथाष्टचत्वारिंशच्च षट्पञ्चाशत्तथैव च। 
चतुःषष्टिगुणं ब्राह्यं लभते द्विजसत्तमाः ॥ २८

औपसर्गिकमाब्रह्मभुवनेषु परित्यजेत् । 
लोकेवालोक्य योगेन योगवित्परमं सुखम् ॥ २९

स्थूलता ह्रस्वता बाल्यं वार्धक्यं यौवनं तथा। 
नानाजातिस्वरूपं च चतुर्भिर्देहधारणम् ॥ ३०

पार्थिवांशं विना नित्यं सुरभिर्गन्धसंयुतः । 
एतदष्टगुणं प्रोक्तमैश्वर्यं पार्थिवं महत् ॥ ३१

हे द्विजो! साधकको अपने इन औपसर्गिक अर्थात् विध्नकारी गुणोंका सर्वथा परित्याग कर देना चाहिये। पिशाचलोक में पार्थिव गुण, राक्षस लोक में जल- सम्बन्धी गुण, यक्ष लोक में तेजसम्बन्धी गुण, गन्धर्व लोक में वायुसम्बन्धी गुण, इन्द्रलोकमें व्योमात्मक अर्थात् आकाशसम्बन्धी गुण, सोमलोक में मनसम्बन्धी गुण, प्रजापति लोक में अहंकार सम्बन्धी गुण तथा ब्रह्मलोकमें सर्वोत्तम बोधगुण कहे गये हैं पहले पार्थिवमें आठ गुण, दूसरे जलमें सोलह गुण, तीसरे तेजमें चौबीस गुण, चौथे वायुमें बत्तीस गुण तथा पाँचवें आकाशमें चालीस गुणवाले ऐश्वर्य विद्यमान हैं। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श तथा शब्द पूर्वोक्त पंचमहाभूतोंकी तन्मात्राएँ कही गयी हैं। इन्द्रसम्बन्धी व्योमात्मक गुणपर्यन्त इन पाँचोंमें प्रत्येक आठ-आठके बुद्धिक्रमसे बताये जा चुके हैं हे उत्तम द्विजो। इसी प्रकार मनसम्बन्धी अड़‌तालीस गुण तथा अहंकारसम्बन्धी छप्पन गुण और अन्तमें चौंसठ गुणात्मक ब्राहा अर्थात् बुद्धिसम्बन्धी ब्राके ऐश्वर्यको साधक प्राप्त कर लेता है जो योगी ब्रह्मलोकपर्यन्त सभी लोकों में औपसर्गिक अर्थात् योगविनोंको विचारपूर्वक उनका परित्याग कर देता है, वह परम सुखी हो जाता है शरीरको स्थूलता, हस्वता, बालकपन, वृद्धता, यौवन, अनेकविध रूप धारण करना, बिना पार्थिव अंशके शेष चार तत्त्वोंसे देह धारण करना तथा नित्य सुगन्धिसे युद्ध रहना-ये आठ प्रकारके महान् पार्थिव गुण कहे गये हैं॥ ३०-३१॥

जले निवसनं यद्वद्धम्यामिव विनिर्गमः । 
इच्छेच्छक्तः स्वयं पातुं समुद्रमपि नातुरः ॥ ३२

यत्रेच्छति जगत्यस्मिंस्तत्रास्य जलदर्शनम्। 
यद्यद्वस्तु समादाय भोक्तुमिच्छति कामतः ॥ ३३

तत्तद्रसान्विर्त तस्य त्रयाणां देहधारणम्। 
भाण्डं विनाथ हस्तेन जलपिण्डस्य धारणम् ॥ ३४

अव्रणत्वं शरीरस्य पार्थिवेन समन्वितम्। 
एतत् षोडशकं प्रोक्तमाप्यमैश्वर्यमुत्तमम् ॥ ३५

देहादग्निविनिर्माणं तत्तापभयवर्जितम् । 
लोकं दग्धमपीहान्यददग्धं स्वविधानतः ॥ ३६

जलमध्ये हुतवहं चाधाय परिरक्षणम्। 
अग्निनिग्रहणं हस्ते स्मृतिमात्रेण चागमः ॥ ३७

भस्मीभूतविनिर्माणं यथापूर्व सकामतः।
द्वाभ्यां रूपविनिष्पत्तिर्विना तैस्त्रिभिरात्मनः ॥ ३८

पृथ्वीपर रहनेकी भाँति जलमें निवास करना, उससे बाहर आनेकी सामर्थ्य रखना, इच्छा होनेपर स्वयं सम्पूर्ण समुद्रका पान करनेमें समर्थ होना तथा उससे किसी प्रकारका प्रतिकूल प्रभाव न पड़ना, इस जगत्में जहाँ भी इच्छा करे, वहाँ जलका दर्शन कर लेना, जिस-जिस वस्तुका भक्षण किया जाय, उसे अपनी इच्छाके अनुसार रसयुक्त बना देना, तेज, वायु, आकाश- इन तीनोंसे देह धारण करना, बिना पात्रके हाथसे जलपिण्डका धारण करना तथा शरीरमें व्रण आदिका न होना-इन आठ तथा पूर्वोक्त पार्थिव गुणोंको मिलाकर- ये सोलह गुणात्मक आप्य (जलसम्बन्धी) उत्तम ऐश्वर्य कहे गये हैं हे श्रेष्ठ मुनियो। देहसे अग्निका निर्माण, अग्निके तापका भय न होना, दग्धलोकको भी अपने योगविधानसे अदग्धतुल्य अर्थात् पूर्ववत् कर देना, जलके भीतर अग्नि स्थापित करके उसे वैसे ही बनाये रखना, हाथसे आग पकड़ लेना, स्मरणमात्रसे अग्नि प्रकट कर देना, भस्म हुए पदार्थको इच्छापूर्वक पहलेकी भाँति कर देना तथा उन तीनों (पृथ्वी, जल, तेज) के बिना दो तत्त्वों अर्थात् वायु और आकाशसे अपनी देह धारण करना-वे चौबीस गुणवाले तैजस ऐश्वर्य हैं॥ ३२-३८ ॥

चतुर्विशात्मकं होतत्तैजर्स मुनिपुङ्गवाः। 
मनोगतित्वं भूतानामन्तर्निवसनं तथा ॥ ३९

पर्वतादिमहाभारस्कन्धेनोद्वहनं पुनः । 
लघुत्वं च गुरुत्वं च पाणिभ्यां वायुधारणम् ॥ ४०

अड्डुल्यग्रनिधातेन भूमेः सर्वत्र कम्पनम् । 
एकेन देहनिष्पत्तिर्वातैश्वर्यं स्मृतं बुधैः ॥ ४१

छायाविहीननिष्पत्तिरिन्द्रियाणां च दर्शनम्। 
आकाशगमनं नित्यमिन्द्रियार्थीः समन्वितम् ।। ४२

दूरे च शब्दग्रहणं सर्वशब्दावगाहनम्।
तन्मात्रलिङ्गग्रहणं सर्वप्राणिनिदर्शनम् ॥ ४३

ऐन्द्रमैश्वर्यमित्युक्तमेतैरुक्तः पुरातनः । 
यथाकामोपलब्धिश्च यथाकामविनिर्गमः ॥  ४४

सर्वत्राभिभवश्चैव सर्वगुह्यनिदर्शनम् । 
कामानुरूपनिर्माणं वशित्वं प्रियदर्शनम् ।। ४५

मनकी गति प्राप्त कर लेना अर्थात् जहाँ मनकी इच्छा हो वहाँ चले जाना, अन्य प्राणियोंके अन्तर्मनमें निवास करना, पर्वत आदि महाभार कंधेपर धारण करके चलना, हलका तथा भारी होनेकी सामर्थ्य रखना, हाथोंसे वायु पकड़ लेना, अंगुलिके अग्रभागसे आधात करके पृथ्वीमें सर्वत्र कम्पन उत्पन्न कर देना, केवल आकाश तत्त्वसे देह धारण करना ये वातसम्बन्धी ऐश्वर्य विद्वानोंके द्वारा कहे गये हैं शरीर की छाया न होना, इन्द्रियोंका प्रत्यक्ष दर्शन होना, आकाशमें गमन करना, इन्द्रियोंके अर्थका ज्ञान, दूरसे ही शब्दोंको सुननेकी क्षमता रखना, सभी शब्दोंक ज्ञानमें पारंगत होना, हन्मात्राओंके स्वरूपका ज्ञान तथा सभी प्राणियोंको साक्षात् देखनेमें समर्थ होना- ये ऐन्द्र ऐश्वर्य अर्थात् आकाश सम्बन्धी ऐश्वर्य हैं। इन समस्त पाँच प्रकारके ऐश्वयोंसे युक्त साधक कायव्यूहसामर्थ्यवान् कहा जाता है किसी भी अभिलषित वस्तुको प्राप्ति, जहाँ भी जानेकी इच्छा हो, वहाँ पहुँच जाना, सभी जगह अपना शक्तिप्राबल्य प्रदर्शित करना अर्थात् अपने प्रभावसे सभीको पराभूत कर देना, सभी गुप्त पदार्थोंको देख लेना, अपनी इच्छाके अनुसार रूप धारण करना, सभीको अपने वशमें कर लेना, सभीको प्रिय लगना, सम्पूर्ण जगत्‌को देखनेको सामर्थ्य रखना ये सब मानस गुणोंके लक्षण हैं॥३९-४५ ॥ 

संसारदर्शनं चैव मानर्स गुणलक्षणम्।
छेदनं ताड़ने बन्धं संसारपरिवर्तनम् ॥ ४६

सर्वभूतप्रसादश्च मृत्युकालजयस्तथा । 
प्राजापत्यमिदं प्रोक्तमाहङ्कारिकमुत्तमम् ।। ४७

अकारणजगत्सृष्टिस्तथानुग्रह एव च। 
प्रलयश्चाधिकारश्च लोकवृत्तप्रवर्तनम् ।। ४८

असादृश्यमिदं व्यक्त निर्माणं च पृथक् पृथक् । 
संसारस्य च कर्तृत्वं ब्राह्यमेतदनुत्तमम् ॥ ४९

एतावत्तत्त्वमित्युक्तं प्राधान्यं वैष्णवं पदम् । 
ब्रह्मणा तद्गुणं शक्यं वेत्तुमन्यैर्न शक्यते ॥ ५०

छेदन, ताड़न, बन्ध, संसारपरिवर्तन, सर्वभूतप्रसाद, मृत्यु तथा कालका जय- ये प्रजापतिसम्बन्धी श्रेष्ठ आहंकारिक ऐश्वर्य कड़े गये हैं बिना कारण जगत्‌की सृष्टि, अनुग्रह, प्रलय, अधिकार, लोकवृत्तका प्रवर्तन, असादृश्य, पृथक् पृथक् व्यक्त निर्माण तथा संसारका कर्तृत्व यह उत्तम ब्राह्म ऐश्वर्य है ये ब्राह्म ऐश्वर्यके तत्त्व कहे गये हैं और ये ही प्रधानसम्बन्धी वैष्णव पद हैं। ब्रह्माके बिना उस गुणको अन्य कोई नहीं जान सकता है॥ ४६ - ५०॥

विद्यते तत्परं शैवं विष्णुना नावगम्यते। 
असंख्येयगुणं शुद्धं को जानीयाच्छिवात्मकम् ॥ ५१

व्युत्वाने सिद्धयश्चैता ग्रुपसर्गाश्च कीर्तिताः।
निरोद्धव्याः प्रयलेन वैराग्येण परेण तु॥५२

नाशातिशयतां ज्ञात्या विषयेषु भयेषु च। 
अश्रद्धया त्यजेत्सर्व विरक्त इति कीर्तितः ॥५३

वैतृषार्थ पुरुषे ख्यातं गुणवैतृष्ण्यमुच्यते। 
वैराग्येणैव सन्यान्याः सिद्धयश्चीपसर्गिकाः ॥५४

औपसर्गिकमाब्रह्मभुवनेषु परित्यजेत्। 
निरुद्धचैव त्यजेत्सर्व प्रसीदति महेश्वरः ॥५५ 

प्रसने विमला मुक्तिवैराग्येण पोण वै। 
अथवानुग्रहार्थ च लीलार्थ या तदा मुनिः ॥ ५६

उस वैष्णवपदसे भी परे शैवपद है, जिसे विष्णु थो नहीं जानते हैं। असंख्य गुणोंवाले गुद्ध शिवामक  थो नहीं जानते हैं। असंख्य गुणोंवाले गुद्ध शिवामक को फौजा सकता है अर्थाद कोई नहीं ज सकता चौसठ गुणात्मक ये ऐश्वर्य व्यवहारकालमें विद्धि कहे जाते हैं, किंतु समाधिकालमें ये ही उपसर्ग अर्थात् विघ्न कये गये हैं। इन्हें प्रधानपूर्वक परम वैराग्य रोकना चाहिये भय उत्पन्न करनेवाले विषय-भोगोंको अवश्यम्भार्थ नश्वरता जानकर सबका अश्रद्धाचे त्याग कर देन चाहिये। ऐसा करनेवाला विरक्त कहा जाता है पुरुष में वितृष्णा समसे प्रसिद्ध भावको ही गुणवैष्य कहा जाता है। औपसर्गिक अर्थात् विघ्नरूप सिद्धियों का वैराग्यके द्वारा पशियल कर देना चाहिये चितको विषयभोगोंसे हटाकर भुवनोंमें समस्त विष्नरूप ब्राड़ा ऐश्वयौंका परित्याग करनेसे महेश्वर प्रसन्न होते हैं और इस प्रकार साधकके परम वैराग्यसे शिवके प्रसन्न होनेपर उसे विमल मुक्ति प्राप्त होती है अथवा जो योगी सांसारिक प्राणियोंके कल्यामार्थ लीलाके निमित्त इन सिद्धियोंका त्याग नहीं करता, वा भी सुखी ही रहता है॥५१ - ५६ ॥ 

अनिरुद्धध विचेष्टेशः सोऽप्येवं हि सुखी भवेत्। 
क्वचिद्धर्मि परित्यन्य ह्याकाशे कीडते श्रिया ॥५७

उ‌द्गिरेच्य क्वचिद्वेदान् सूक्ष्मानर्थान् समासतः । 
क्वचिच्छुते तद‌र्थेन श्लोकवन्धं करोति सः ॥ ५८

व्यचिदण्डकवन्धं तु कुर्याद बन्धं सहस्रशः। 
मृगपक्षिसमूहस्य रुतज्ञानं च विन्दति ॥ ५९

ब्रह्माचं स्थावरान्तं च हस्तामलकवद्भवेत्। 
बहुनात्र किमुक्तेन विज्ञानानि सहस्त्यशः ॥ ६०

उत्पद्यन्ते मुनिश्रेष्ठा मुनेस्तस्य महात्मनः। 
अभ्यासेनैव विज्ञानं विशुद्धं च स्थिरे भवेत् ॥ ६१

कभी भूमि छोड़कर अपनी प्रबल शकिसे आकाशमें क्रोडा करता है और कभी सूक्ष्म अर्थात् सामान्य लोगोंके लिये अबोधगम्य वेदाचौंको संक्षेपमें उच्चारित कला है यह कभी कोई प्रसंग सुनकर उसके अर्थसे स्लोक-रथना कर डालता है। कभी दण्डक छन्दमें और इसी प्रकार हजारों प्रकारके छन्दोंमें काव्यरचना करत उसे मृग तथा पश्चिवर्गको ध्वनियोंका ज्ञान हो जाता है। यहाँतक कि ब्रह्मासे लेकर स्थावरपर्यन्त समा संसार उस योगीके लिये हस्तामलकतुल्य हो जाता है श्रेष्ठ मुनियो। अधिक क्या कहा जाप, उस महात्मा योगीमें हजारों प्रकारके विज्ञान उत्पन्न हो जाते है। सतत अभ्यासके द्वारा ही यह विशुद्ध विज्ञान सदा स्थिर रहता है।॥ ६१ - ५७ ॥

तेजोरूपाणि सर्वाणि सर्वं पश्यति योगवित्। 
देवविम्यान्यनेकानि विमानानि सहस्रशः ॥ ६२

पश्यति ब्रह्मविष्णवीन्द्रयमाग्निवरुणादिकान्। 
ग्रहनक्षत्रताराश्च भुवनानि सहस्रशः ॥ ६३

पातालतलसंस्थाश्च समाधिस्थः स पश्यति। 
आत्मविद्याप्रदीपेन स्वस्थेनाचलनेन तु ॥ ६४

प्रसादामृतपूर्णेन सत्त्वपात्रस्थितेन तु। 
तमो निहत्य पुरुषः पश्यति ह्यात्मनीश्वरम् ।। ६५

तस्य प्रसादाद्धर्मश्च ऐश्वर्यं ज्ञानमेव च। 
वैराग्यमपवर्गश्च नात्र कार्या विचारणा ॥ ६६

न शक्यो विस्तरो वक्तुं वर्षाणामयुतैरपि। 
योगे पाशुपते निष्ठा स्थातव्यं च मुनीश्वराः ॥ ६७

योगी सभी डेजसम्पन्न देवताओं के बिम्ब तथा हजारों प्रकार के विमानों को देखने की सामर्थ्य प्राप्त कर लेता  यह ब्रहा, विष्णु, इन्द्र, यम, अग्नि, वरुण आदि देवताओं, ग्रहों, नक्षत्रों, तारों तथा हजारों भुवनोंको देख लेता वह पातालके तलमें स्थित पदार्थोंको भी आत्मविद्यारूप स्वस्थ तथा अचल दौपकसे समाधिस्थ होकर देखता है यह साधक प्रसादरूप अमृतसे पूर्ण सत्त्वपात्र में स्थित उस आत्मविद्यारूप प्रदीपसे अज्ञानान्धकारको नष्ट करके अपने भीतर साक्षात् ईश्वरका दर्शन करता हैउसी परमेश्वरकी कृपासे धर्म, ऐश्वर्य, ज्ञान, वैराग्य तथा मोक्ष सुलभ हो जाते हैं, इसमें किसी प्रकारका संदेह नहीं करना चाहिये हे मुनीश्वरो। शिवकी महिमाका विस्तृत वर्णन हजारों वर्षोंमें भी नहीं किया जा सकता है। अतएव पाशुपत्योगमें निष्ठापूर्वक रहना चाहिये तथा उसीमें सदा मनको स्थिर रखना चाहिये ॥ ६७॥

इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागेोगान्तराधाम नवमोऽध्यायः ॥१॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'योगान्तरायकथन' नामक नौ अध्याय पूर्ण हुआ४९॥ 

लिंग पुराण : नौवाँ अध्याय – प्रश्न-उत्तर(FAQs)

यहाँ लिंग पुराण के नौवें अध्याय पर आधारित कुछ महत्व पूर्ण प्रश्न-उत्तर दिए गए हैं, जो योग साधना, विघ्न और पाशुपत योग से संबंधित हैं:

प्रश्न 1: योग साधना में उत्पन्न होने वाली विघ्नों का प्रमुख कारण क्या है?

उत्तर: योग साधना में उत्पन्न होने वाली विघ्नों का प्रमुख कारण आलस्य, व्याधिपीड़ा, प्रमाद, संशय, चित्त की अनवस्थिति, अश्रद्धा, भ्रांति, और दौर्मनस्य जैसे विभिन्न मानसिक और शारीरिक विकार हैं। इन विघ्नों के कारण साधक का योग अभ्यास प्रभावित होता है।


प्रश्न 2: योग में आलस्य का क्या अर्थ है?

उत्तर: आलस्य का अर्थ है शरीर और चित्त में भारीपन के कारण योग में प्रवृत्त न होना। जब साधक में योगाभ्यास के लिए उत्साह और सक्रियता की कमी होती है, तो यह आलस्य का रूप है, जो साधना में विघ्न डालता है।


प्रश्न 3: व्याधियाँ और प्रमाद किस प्रकार से योग साधना में विघ्न उत्पन्न करते हैं?

उत्तर: व्याधियाँ शरीर के विकारों जैसे वात, पित्त, और कफ के असंतुलन से उत्पन्न होती हैं, जो योगाभ्यास में अवरोध डालती हैं। प्रमाद का मतलब है समाधि में गहरी स्थिति तक न पहुँच पाना और साधनाओं का अनुष्ठान न करना, जिससे साधक का ध्यान भटकता है और साधना में विघ्न उत्पन्न होते हैं।


प्रश्न 4: त्रिविध दुःख क्या होते हैं?

उत्तर: त्रिविध दुःख का मतलब है आध्यात्मिक दुःख (आध्यात्मिक संघर्ष), आधिभौतिक दुःख (शारीरिक कष्ट) और आधिदैविक दुःख (दैविक या प्रकृति से जुड़े कष्ट)। ये तीनों प्रकार के दुःख साधक के योगाभ्यास में विघ्न डालते हैं।


प्रश्न 5: दौर्मनस्य को कैसे नियंत्रित किया जा सकता है?

उत्तर: दौर्मनस्य को परम वैराग्य और ध्यान द्वारा नियंत्रित किया जा सकता है। जब मन अशांत और विक्षिप्त होता है, तो इसे संतुलित करने के लिए वैराग्य (त्याग) और मानसिक शांति की आवश्यकता होती है।


प्रश्न 6: योग साधक को किस प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं?

उत्तर: योग साधक को विभिन्न प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं, जैसे श्रवणासिद्धि (शब्दों का सही ज्ञान), वेदनासिद्धि (स्पर्श और अनुभव की सिद्धि), दर्शनासिद्धि (दिव्य रूपों का दर्शन), आस्वादासिद्धि (दिव्य रस का अनुभव), और वार्तासिद्धि (दिव्य गंधों का अनुभव)। इन सिद्धियों के माध्यम से साधक आत्मज्ञान और ब्रह्म के निकट पहुँचता है।


प्रश्न 7: ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए कौन से गुण जरूरी हैं?

उत्तर: ऐश्वर्य प्राप्ति के लिए योगी को कुछ विशेष गुणों की आवश्यकता होती है, जैसे गंध, रस, रूप, स्पर्श और शब्द की तन्मात्राएँ (पंचमहाभूतों की तन्मात्राएँ), साथ ही दिव्य सिद्धियाँ जैसे दिव्य रूपों का दर्शन और दिव्य रसों का अनुभव। इन गुणों के माध्यम से योगी को ब्रह्मलोक तक पहुँचने और परम सुख की प्राप्ति होती है।


प्रश्न 8: ब्रह्मलोक तक पहुँचने के बाद योगी की स्थिति क्या होती है?

उत्तर: ब्रह्मलोक तक पहुँचने के बाद योगी को सभी प्रकार के आध्यात्मिक, भौतिक और दैविक दुःखों से मुक्ति मिल जाती है। वह परम सुख की स्थिति में रहता है और उसे अपने शरीर में स्थित हर तत्व का ब्रह्म से संबंधित ज्ञान प्राप्त होता है।


प्रश्न 9: योगी को कैसे शारीरिक और मानसिक परिष्करण के लिए तैयार किया जाता है?

उत्तर: योगी को शारीरिक और मानसिक परिष्करण के लिए ध्यान, साधना और तप की आवश्यकता होती है। योगी को अपने मन को नियंत्रित करना होता है, इच्छाओं से मुक्त होना पड़ता है और शरीर को स्थिर और स्वस्थ बनाना होता है। इस प्रकार वह योग की उच्चतम अवस्था को प्राप्त कर सकता है।


प्रश्न 10: योगी के लिए आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया क्या है?

उत्तर: योगी के लिए आत्मज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया में ध्यान, साधना, और शुद्ध मन की आवश्यकता होती है। जब योगी अपने चित्त को स्थिर करता है और ब्रह्म में विलीन होता है, तब उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। इस अवस्था में वह अपने अस्तित्व को परमात्मा के साथ एकता अनुभव करता है।

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