लिंग पुराण : देवताओं तथा मुनियोंको सूर्यमण्डल में उमासहित नीललोहित पंचमुख सदाशिवके विराट्स्वरूपका दर्शन होना | Linga Purana: Gods and sages got the vision of the huge form of Panchmukh Sadashiva, blue-red with Uma in the solar system

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग उन्नीसवाँ अध्याय

देवताओं तथा मुनियोंको सूर्यमण्डल में उमा सहित नील लोहित पंचमुख सदा शिव के विराट्स्वरूप का दर्शन होना और उनकी पूजा एवं स्तुति करना

शैलादिस्वाच

तं प्रभुं प्रीतमनसं प्रणिपत्य वृषध्वजम्। 
अपृच्छन्मुनयो देवाः प्रीतिकण्टकितत्वचः ॥ १

शैलादि बोले- [हे सनत्कुमार।] प्रसन्न मनवाले उन प्रभु वृषध्वज शिवको प्रणाम करके हर्षसे रोमांचित शरीरवाले मुनियों तथा देवताओंने उनसे पूछा- ॥ १॥

देवा ऊचुः

भगवन् केन मार्गेण पूजनीयो द्विजातिभिः ।
कुत्र वा केन रूपेण वक्तुमर्हसि शङ्कर ॥ २

कस्याधिकारः पूजायां ब्राह्मणस्य कथं प्रभो।
क्षत्रियाणां कथं देव वैश्यानां वृषभध्वज ॥ ३

स्त्रीशूद्राणां कथं वापि कुण्डगोलादिनां तु वा।
हिताय जगतां सर्वमस्माकं वक्तुमर्हसि ॥ ४

देवता बोले- हे भगवन् । द्विजातिगण किस विधिसे, कहाँ और किस रूपसे आपका पूजन करें, हे शंकर। आप बतानेकी कृपा कीजिये। हे प्रभो। किस ब्राहाणक्का [आपकी] पूजामें अधिकार है? हे देव! हे वृषध्वज ! क्षत्रियों, वैश्यों, स्त्रियों, शूद्रों, कुण्ड-गोलक आदि वर्णसंकर लोगोंका आपकी पूजामें किस प्रकारसे अधिकार है? जगत्‌के कल्याणके लिये हमें यह सब बतानेका अनुग्रह करें ॥ २-४॥

सूत उवाच

तेषां भावं समालोक्य मुनीनां नीललोहितः ।
प्राह गम्भीरया वाचा मण्डलस्थः सदाशिवः ॥ ५

मण्डले चाग्रतो पश्यन् देवदेवं सहोमया।
देवाश्च मुनयः सर्वे विद्युत्कोटिसमप्रभम् ॥ ६

अष्टबाहुं चतुर्वक्त्रं द्वादशाक्षं महाभुजम् ।
अर्धनारीश्वरं देवं जटामुकुटधारिणम् ॥ ७

सर्वाभरणसंयुक्तं रक्तमाल्यानुलेपनम्।
रक्ताम्बरधरं सृष्टिस्थितिसंहारकारकम् ॥ ८

सूतजी बोले- उन देवताओं और मुनियोंको भक्ति देखकर सूर्यमण्डलमें स्थित नीललोहित सदाशिव गम्भीर वाणीमें बोले। उस अवसरपर सभी देवताओं और मुनियोंने सामने देखा कि सृष्टि, पालन तथा संहार करनेवाले देवदेव शिव सूर्यमण्डलमें उमाके साथ विराजमान हैं, करोड़ों विद्युत्‌के समान उनकी प्रभा है, वे आठ भुजाओं, चार मुखों तथा बारह नेत्रोंसे शोभा पा रहे हैं, वे बड़ी-बड़ी भुजाओंसे युक हैं, वे प्रभु अर्धनारीश्वररूपमें हैं, वे जटाजूटरूपों मुकुट धारण किये हुए हैं, वे सभी आभरणोंसे समन्वित हैं और रक्तवर्णकी माला, चन्दन तथा वस्त्र धारण किये हुए हैं ॥५-८॥

तस्य पूर्वमुखं पीतं प्रसन्नं पुरुषात्मकम् ।
अघोरं दक्षिणं वक्त्रं नीलाञ्जनचयोपमम् ॥ ९

दंष्ट्राकरालमत्युग्रं ज्वालामालासमावृतम् ।
रक्तश्मश्रुं जटायुक्तं चोत्तरे विद्रुमप्रभम् ॥ १०

प्रसन्नं वामदेवाख्यं वरदं विश्वरूपिणम् ।
पश्चिमं वदनं तस्य गोक्षीरधवलं शुभम् ॥ ११

मुक्ताफलमयैहरै भूषितं तिलकोज्वलम् ।
सद्योजातमुखं दिव्यं भास्करस्य स्मरारिणः ॥ १२

उनका पूर्वमुख तत्पुरुषसंज्ञक था, जो पीतवर्ण तथा प्रसन्नतासे युक्त था, उनका अघोर नामक दक्षिणमुख नीले अंजनके तुल्य, विकराल दाढ़ोंसे युक्त, अत्यन्त उग्र, प्वालासमूहसे समावृत, रक्तवर्णकी दाढ़ीसे युक्त और जटाओंसे सुशोभित था, उत्तर दिशामें उनका वामदेव नामक मुख था, जो प्रवालमणिके सदृश प्रभासे युक्त, प्रसन्न, वरदायक तथा विश्वरूप था और उन कामरिपु भास्कररूप शिवका पश्चिममुख सद्योजात नामवाला था, जो गीके दुग्धके समान धवल, सुन्दर, मुक्ताफलसे युक्त हारोंसे सुशोभित, तिलकसे प्रकाशित तथा अत्यन्त दिव्य था ॥ ९-१२॥ 

आदित्यमग्रतोऽपश्यन्पूर्ववच्चतुराननम् ।
भास्करं पुरतो देवं चतुर्वक्त्रं च पूर्ववत् ॥ १३

भानुं दक्षिणतो देवं चतुर्वक् च पूर्ववत् । 
रविमुत्तरतोऽपश्यन्पूर्ववच्चतुराननम् ॥ १४

विस्तारां मण्डले पूर्वे उत्तरां दक्षिणे स्थिताम्। 
बोधनीं पश्चिमे भागे मण्डलस्य प्रजापतेः ॥ १५

अध्यायनीं च कौबेर्यामेकवक्त्रां चतुर्भुजाम् । 
सर्वाभरणसम्पन्नाः शक्तयः सर्वसम्मताः ॥ १६

उन्होंने आगेकी ओर शिवके ही सदृश चार मुखोंवाले आदित्यको, पूर्वकी ओर शिवसदृश चतुर्मुख भगवान् भास्करको, दक्षिणकी ओर शिवतुल्य चतुर्मुख प्रभु भानुको और उत्तरको और शिक्के ही समान चतुर्मुख रबिको देखा। इसी प्रकार उन देवताओंने सूर्यमण्डलकी पूर्वदिशामें देवी विस्ताराको, दक्षिणमें उत्तराको, पश्चिमभागमें बोधनीको और उत्तर दिशामें एक मुख तथा चार भुजाओंवाली अध्यायनीको विराजमान देखा। सबको पूज्य ये शक्तियाँ सभी आभरणोंसे सम्पन्न थीं ॥ १३-१६ ॥

ब्रह्माणं दक्षिणे भागे विष्णुं वामे जनार्दनम्। 
ऋग्यजुःसाममार्गेण मूर्तित्रयमयं शिवम् ॥ १७

ईशानं वरदं देवमीशानं परमेश्वरम् । 
ब्रह्मासनस्थं वरदं धर्मज्ञानासनोपरि ॥ १८

वैराग्यैश्वर्यसंयुक्त प्रभूते विमले तथा। 
सारं सर्वेश्वरं देवमाराध्यं परमं सुखम् ॥ १९

सितपङ्कजमध्यस्थं दीप्ताहौरभिसंवृतम्। 
दीप्तां दीपशिखाकारां सूक्ष्मां विद्युत्प्रभां शुभाम् ॥ २०

जयामग्निशिखाकारां प्रभां कनकसप्रभाम्। 
विभूतिं विद्रुमप्रख्यां विमलां पद्मसन्निभाम् ॥ २१

अमोघां कर्णिकाकारां विद्युतं विश्ववर्णिनीम् । 
चतुर्वक्त्रां चतुर्वर्णा देवीं वै सर्वतोमुखीम् ॥ २२

सोममङ्गारकं देवं बुधं बुद्धिमतां वरम् । 
बृहस्पतिं बृहद्बुद्धिं भार्गवं तेजसां निधिम् ॥ २३

मन्दं मन्दगतिं चैव समन्तात्तस्य ते सदा। 
सूर्यः शिवो जगन्नाथः सोमः साक्षादुमा स्वयम् ॥ २४

पञ्चभूतानि शेषाणि तन्मयं च चराचरम्। 
दृष्ट्वैव मुनयः सर्वे देवदेवमुमापतिम् ।। २५

कृताञ्जलिपुटाः सर्वे मुनयो देवतास्तथा। 
अस्तुवन् वाग्भिरिष्टाभिर्वरदं नीललोहितम् ।। २६

देवताओं तथा मुनियोंने उनके दाहिनी ओर ब्रह्माको और बार्थी ओर जनार्दन विष्णुको देखा। उन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद और सामवेदके क्रमसे [ब्रह्मा, रुद्र तथा विष्णुमय रूपमें] तीन विग्रहोंसे सुशोभित सबके स्वामी, वरद, ईशान, वरदायक, परमेश्वर शिवको धर्मज्ञानके आसनपर ब्रह्मासनमें स्थित देखा। उन्होंने वैराग्य तथा ऐश्वर्यसे सुशोभित विशाल तथा विमल आसनपर श्वेत कमलके मध्यमें विराजमान सबके स्वामी, देवताओंके आराध्य, सर्वोपरि तथा सुखदायक शिवको दीप्ता आदि [नौ] शक्तियोंसे आवृत देखा। उन देवताओं और मुनियोंने प्रज्वलित अग्निकी शिखाके समान दीप्ताको, विद्युत्प्रभाके समान शुभ सूक्ष्माको, अग्निशिखाके आकारवाली जयाको, सुवर्णके कान्तिसदृश प्रभाको, विद्रुम (मूँगा) के समान वर्णवाली विभूतिको, कमलसदृश विमलाको, कमलकी कणिकाके रूपवाली अमोधाको, अनेक वर्णोंवाली देवी विद्युत्‌को, चार मुखों और चार वर्षोंवाली देवी सर्वतोमुखीको, चन्द्रमाको, मंगलको, बुद्धिमानोंमें श्रेष्ठ देव बुधको, महान् बुद्धिवाले बृहस्पतिको, तेजोनिधि शुक्रको और मन्दगतिवाले शनैश्चरको सदा उन शिवके चारों ओर स्थित देखा। स्वयं जगत्स्वामी शिवरूप सूर्य, साक्षात् उमारूप चन्द्र और गगनादि पंचमहाभूतरूप भौम आदि पाँच ग्रह हैं, इन्हींसे चराचर जगत् व्याप्त है। इस प्रकार देवदेव उमापति सदाशिवको देखते ही सभी मुनियोंको पूजाविधिका ज्ञान हो गया और उन सभी मुनियों तथा देवताओंने हाथ जोड़‌कर अभिलषित वाणीद्वारा वर प्रदान करनेवाले नीललोहित भगवान् शिवकी स्तुति की ॥ १७-२६ ॥

ऋषय ऊचुः

नमः शिवाय रुद्राय कद्रुद्राय प्रचेतसे।
मीदुष्टमाय शर्वाय शिपिविष्टाय रंहसे ।। २७

प्रभूते विमले सारे ह्याधारे परमे सुखे।
नवशक्त्यावृतं देवं पद्मस्थं भास्करं प्रभुम् ।। २८

आदित्यं भास्करं भानुं रविं देवं दिवाकरम्। 
उमां प्रर्भा तथा प्रज्ञां सन्ध्यां सावित्रिकामपि ।। २९

विस्तारामुत्तरां देवीं बोधर्ती प्रणमाम्यहम्। 
आप्यायनीं च वरर्दा ब्रह्माणं केशवं हरम् ॥ ३०

सोमादिवृन्दं च यथाक्रमेण सम्पूज्य मन्त्रैर्विहितक्रमेण।
स्मरामि देवं रविमण्डलस्थं सदाशिवं शङ्करमादिदेवम् ॥ ३१

इन्द्रादिदेवांश्च तथेश्वरांश्च नारायणं पद्मजमादिदेवम् ।
प्रागाद्यधोध्वं च यथाक्रमेण वज्रादिपद्यं च तथा स्मरामि ॥ ३२

सिन्दूरवर्णाय समण्डलाय सुवर्णवज्राभरणाय तुभ्यम्।
पद्माभनेत्राय सपङ्कजाय ब्रह्येन्द्रनारायणकारणाय ॥ ३३

ऋषिगण बोले- शिव, रुद्र, कहुद्र, प्रचेता, मीढुष्टम, शर्व, शिपिविष्ट तथा रहको नमस्कार है। विशाल, विमल, श्रेष्ठ तथा परम सुखदायक आसनपर विराजमान, नौ शक्तियोंसे आवृत तथा कमलके मध्यमें स्थित भगवान् भास्करको, आदित्य-भास्कर-भानु, रवि, देव तथा दिवाकरको उमा, प्रभा, प्रज्ञा, सन्ध्या, सावित्रिका, विस्तारा, उत्तरा, देवी बोधनी, वर प्रदान करनेवाली आप्यायनी, ब्रह्मा, केशव तथा हरको मैं प्रणाम करता हूँ। विहित विधिसे मन्त्रोंके द्वारा यथाक्रम सोम आदिका सम्यक् पूजन करके मैं सूर्यमण्डलमें विराजमान सदाशिव आदिदेव भगवान् शंकरका स्मरण करता हूँ इन्द्र आदि आठ दिक्पालोंका, उनके अधिदेवताओंका, नारायणका, आदिदेव ब्रह्माका, यथाक्रम पूर्व आदि आठ दिशाओंका, ऊर्ध्व तथा अधः दिशाओंका और बज्र, पद्म आदिका स्मरण करता हूँ सिन्दूरके समान वर्णवाले, मण्डलयुक्त, सुवर्ण तथा हरिके आभरणोंसे सुशोभित, कमलसदृश नेत्रोंवाले, कमल धारण करनेवाले तथा ब्रह्मा इन्द्र नारायणके भी कारणरूप सदाशिवको नमस्कार है॥ २७-३३ ॥

रर्थ च सप्ताश्वमनूरुवीरं गणं तथा सप्तविधं क्रमेण।
ऋतुप्रवाहेण च वालखिल्यान् स्मरामि मन्देहगणक्षयं च ॥ ३४

हुत्वा तिलाद्यद्यैर्विविधैस्तथाग्नौ पुनः समाप्यैव तथैव सर्वम् ।
उद्वास्य हत्पङ्कजमध्यसंस्थं स्मरामि बिम्बं तव देवदेव ॥ ३५ 

स्मरामि विम्बानि यथाक्रमेण रक्तानि पद्मामललोचनानि ।
पद्यं च सव्ये वरदं च वामे करे तथा भूषितभूषणानि ॥ ३६

दंष्ट्राकरालं तव दिव्यवकां विद्युत्प्रभं दैत्यभयङ्करं च।
स्मरामि रक्षाभिरतं द्विजानां मन्देहरक्षोगणभर्त्सनं च।। ३७

मैं सूर्यके रथको, सात घोड़ोंको, पराक्रमी अरुणको, वसन्तादि ऋतुक्रमसे व्यवस्थित सप्तविध गणोंको, वालखिल्य आदि ऋषियोंको तथा मन्देह नामक असुरोंके विनाशको स्मृति-पथपर लाता हूँ हे देवदेव। तिल आदि विविध पदार्थोंसे अग्निमें हवन करके पुनः सम्पूर्ण कृत्यका समापन करके हृदयकमलके मध्य संस्थित आपके बिम्बको मण्डलसे निकालकर मैं स्मरण करता हूँ  मैं क्रमशः आपके रक्तबिम्बोंका, पद्मके समान निर्मल नेत्रोंका, दाहिने हाथमें स्थित पद्म, बायें हाथमें स्थित वरद मुद्राका तथा शोभासम्पन्न आभूषणोंका स्मरण करता हूँ मैं विकराल दाढ़ोंवाले, विद्युत्‌की कान्तिवाले, दैत्योंके लिये भयकारक, ब्राह्राणोंकी रक्षामें संलग्न तथा मन्देह नामक राक्षससमुदायकी भर्त्सना करनेवाले आपके दिव्य मुखका स्मरण करता हूँ॥ ३५-३७॥

सोमं सितं भूमिजमग्निवर्णं चामीकराभं बुधमिन्दुसुनुम् ।
बृहस्पतिं शुक्रं सितं कृष्णतरं च मन्दम् ॥ ३८

स्मरामि सव्यमभयं वाममूरुगतं वरम्।
सर्वेषां मन्दपर्यन्तं महादेवं च भास्करम् ॥ ३९

पूर्णेन्दुवर्णेन च पुष्पगन्ध- प्रस्थेन तोयेन शुभेन पूर्णम्।
पात्रं दृढं ताम्रमयं प्रकल्प्य दास्ये तवार्घ्य भगवन् प्रसीद ॥ ४०

नमः शिवाय देवाय ईश्वराय कपर्दिने। 
रुद्राय विष्णवे तुभ्यं ब्रह्मणे सूर्यमूर्तये ॥ ४१

सूत उवाच

यः शिवं मण्डले देवं सम्पूज्यैवं समाहितः ।
प्रातर्मध्याह्नसायाले पठेत्स्तवमनुत्तमम् ॥ ४२

इत्थं शिवेन सायुज्यं लभते नात्र संशयः ॥ ४३

श्वेतवर्णवाले चन्द्रमा, अग्निवर्णक तुल्य मंगल, घत्तूर- वृक्षके समान आभावाले चन्द्रपुत्र बुध, सुवर्णकी आभावाले बृहस्पति, श्वेत वर्णवाले शुक्र, अत्यन्त कृष्ण वर्णवाले शनि- इस प्रकार शनिपर्यन्त सप्तग्रहरूपात्मक सभी ग्रहोंके परम कारण तथा दाहिने हाथमें अभय मुद्रा और बायें हाथको अपने उरुदेशमें स्थित करके वरद मुद्रा धारण करनेवाले भास्कररूप महादेवका स्मरण करता हूँ पूर्ण चन्द्रमाके समान वर्णवाले तथा पुष्पगन्ध फैलानेवाले पवित्र जलसे पूरित दृढ़ ताम्रपात्रको प्रकल्पित करके मैं आपको अर्घ्य प्रदान करता हूँ। हे भगवन् । प्रसन्न होइये। ईश्वर, कपर्दी, रुद्र, विष्णुरूप, ब्रहास्वरूप, सूर्यमूर्ति आप भगवान् शिवको नमस्कार है सूतजी बोले [हे ऋषिगण!] इस प्रकार जो मनुष्य एकनिष्ठ होकर सूर्यमण्डलमें भगवान् शिवका विधिपूर्वक पूजन करके प्रातः, मध्याह्न तथा सायंवेलामें इस उत्तम स्तोत्रका पाठ करता है, वह शिवके साथ सायुज्य प्राप्त कर लेता है, इसमें सन्देह नहीं है॥ ३८-४३ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवपूजनवर्णनं नामैकोनविंशोऽध्यायः ॥ १९॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्ग महापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवपूजनवर्णन' नामक उन्नीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १९ ॥

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