लिंग पुराण : विविध नाम-रूपोंमें शिवकी आराधनाकी महिमा | Linga Purana: Glory of worship of Shiva in various names and forms

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग सोलहवाँ अध्याय

विविध नाम-रूपोंमें शिवकी आराधनाकी महिमा

सनत्कुमार उवाच

पुनरेव महाबुद्धे श्रोतुमिच्छामि तत्त्वतः । 
बहुभिर्बहुधा शब्दैः शब्दितानि मुनीश्वरैः ॥ १

सनत्कुमार बोले- हे महाबुद्धे । मुनीश्वरोंके द्वारा बहुत-से नामोंमें अनेक प्रकारसे कहे गये शिवके रूपोंको मैं यथार्थ रूपमें पुनः सुनना चाहता हूँ ॥१॥

शैलादिरुवाच

पुनः पुनः प्रवक्ष्यामि शिवरूपाणि ते मुने।
बहुभिर्बहुधा शब्दैः शब्दितानि मुनीश्वरैः ॥ २

क्षेत्रज्ञः प्रकृतिर्व्यक्तं कालात्मेति मुनीश्वरैः ।
उच्यते कैश्चिदाचार्यैरागमार्णवपारगैः ॥ ३

शैलादि बोले- हे मुने। मैं मुनीश्वरोंके द्वारा बहुत-से नामोंसे अनेक प्रकारसे कहे गये शिवके रूपोंका वर्णन आपसे पुनः पुनः करूँगा वेदरूपी समुद्रके पारगामी कुछ आचार्य तथा मुनीश्वर उन शिवको क्षेत्रज्ञ, प्रकृति, व्यक्त तथा कालारमा-ऐसा कहते हैं॥ २-३

क्षेत्रज्ञं पुरुषं प्राहुः प्रधानं प्रकृतिं बुधाः।
विकारजातं निःशेषं प्रकृतेर्व्यक्तमित्यपि ॥ ४

प्रधानव्यक्तयोः कालः परिणामैककारणम्।
तच्चतुष्टयमीशस्य रूपाणां हि चतुष्टयम् ॥ ५

हिरण्यगर्भ पुरुषं प्रधानं व्यक्तरूपिणम्।
कथयन्ति शिवं केचिदाचार्याः परमेश्वरम् ॥ ६

हिरण्यगर्भः कर्तास्य भोक्ता विश्वस्य पूरुषः ।
विकारजातं व्यक्ताख्यं प्रधानं कारणं परम् ॥ ७

तेषां चतुष्टयं बुद्धेः शिवरूपचतुष्टयम् ।
प्रोच्यते शङ्करादन्यदस्ति वस्तु न किञ्चन ॥ ८

विद्वज्जनोंने पुरुषको क्षेत्रज्ञ, प्रधानको प्रकृति और प्रकृतिके सम्पूर्ण विकारसमूहको व्यक्त कहा है; प्रधान तथा व्यक्तके विस्तारमें एकमात्र कारण काल ही है। ये चारों हो ईश्वरके रूपचतुष्टय हैं कुछ आचार्य परमेश्वर शिवको हिरण्यगर्भ, पुरुष, प्रधान तथा व्यक्तरूपवाला भी कहते हैं। इस जगत्‌का कर्ता हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा) है, भोक्ता पुरुष (विष्णु) है, समस्त प्रपंच 'व्यक्त' नामवाला है और मुख्य कारण प्रधान है। उन हिरण्यगर्भ आदिका तथा बुद्धि आदिका चतुष्टय भगवान् शिवका रूपचतुष्टय कहा जाता है, शंकरसे भिन्न अन्य कोई भी वस्तु नहीं है॥ ४-८॥

पिण्डजातिस्वरूपी तु कथ्यते कैश्चिदीश्वरः ।
चराचरशरीराणि पिण्डाख्यान्यखिलान्यपि ॥ ९

सामान्यानि समस्तानि महासामान्यमेव च।
कथ्यन्ते जातिशब्देन तानि रूपाणि धीमतः ॥ १०

विराट् हिरण्यगर्भात्मा कैश्चिदीशो निगद्यते।
हिरण्यगर्भो लोकानां हेतुर्लोकात्मको विराट् ॥ ११

सूत्राव्याकृतरूपं तं शिवं शंसन्ति केचन।
अव्याकृतं प्रधानं हि तद्रूपं परमेष्ठिनः ॥ १२

लोका येनैव तिष्ठन्ति सूत्रे मणिगणा इव।
तत्सूत्रमिति विज्ञेयं रूपमद्भुतविक्रमम् ॥ १३

कुछ लोग ईश्वर शिवको पिण्ड तथा जातिरूपवाला कहते हैं। चर तथा अचर समस्त शरीर ही पिण्डपदवाच्य है। उन बुद्धिसम्पन्न शिवके वे जाति, व्यक्ति और द्रव्योंके समस्त रूप ही जातिशब्दवाच्य हैं कुछ लोग शिवको विराट् तथा हिरण्यगर्भरूप कहते हैं। हिरण्यगर्भ सगस्त लोकोंका कारण है और विराट् लोकस्वरूप है। कुछ लोग उन शिवको सूत्राव्याकृतरूप कहते हैं। परमेष्ठी शिवका वह रूप अव्याकृत तथा प्रधान है। समस्त लोक उनमें उसी भाँति ओतप्रोत हैं, जैसे सूत्रमें मणियाँ, अतः उनके अद्भुत पराक्रमी स्वरूपको सूत्ररूप समझना चाहिये ॥ ९-१३॥

अन्तर्यामी परः कैश्चित्कैश्चिदीशः प्रकीर्त्यते ।
स्वयंज्योतिः स्वयंवेद्यः शिवः शम्भुर्महेश्वरः ॥ १४

सर्वेषामेव भूतानामन्तर्यामी शिवः स्मृतः।
सर्वेषामेव भूतानां परत्वात्पर उच्यते ।। १५

परमात्मा शिवः शम्भुः शङ्करः परमेश्वरः ।
प्राज्ञतैजसविश्वाख्यं तस्य रूपत्रयं विदुः ॥ १६

सुषुप्ति स्वप्नजाग्रन्तमवस्थात्रयमेव तत्।
विराट् हिरण्यगर्भाख्यमव्याकृत्तपदाह्वयम् ॥ १७

तुरीयस्य शिवस्यास्य अवस्थात्रयगामिनः ।
हिरण्यगर्भः पुरुषः काल इत्येव कीर्तिताः ॥ १८

तिस्त्रोऽवस्था जगत्सृष्टिस्थितिसंहारहेतवः ।
भवविष्णुविरिञ्चाख्यमवस्थात्रयमीशितुः ॥ १९

कोई-कोई लोग स्वयंज्योतिरूप तथा स्वयंवेद्य ईश परमेश्वर शंकर शम्भुको अन्तर्यामी तथा पर कहते हैं। वे शिव सम्पूर्ण प्राणियोंमें विराजमान हैं, अतः अन्तर्यामी कहे जाते हैं और सभी प्राणियोंसे श्रेष्ठ होनेके कारण वे परमात्मा परमेश्वर शम्भु शंकर शिव 'पर' कहे जाते है। प्राज्ञ, तैजस और विश्व नामक उनके तीन रूप कहे गये हैं। इन्हें ही सुषुप्ति, स्वप्न तथा जाग्रत्-तीन अवस्थाएँ भी कहते हैं और ये ही विराट्, हिरण्यगर्भ और अव्याकृत पदके भी वाचक हैं। तीनों अवस्थाओंमें विद्यमान रहनेवाले उन तुरीयस्वरूप शिवके हिरण्यगर्भ, पुरुष और काल- ये तीनों ही जगत्‌की सृष्टि, स्थिति और संहारको कारणरूपा तीन अवस्थाएँ कही गयी हैं। भव, विष्णु, विरिंचि (ब्रह्मा) नामक तीनों अवस्थाएँ महेश्वरकी ही हैं; भक्तिपूर्वक इनकी आराधना करके प्राणी मुक्ति प्राप्त करते हैं॥ १४-१९ ॥

आराध्य भक्त्या मुक्तिं च प्राप्नुवन्ति शरीरिणः ।
कर्ता क्रिया च कार्य च करणं चेति सूरिभिः ॥ २०

शम्भोश्चत्वारि रूपाणि कीर्त्यन्ते परमेष्ठिनः ।
प्रमाता च प्रमाणं च प्रमेयं प्रमितिस्तथा ॥ २१

चत्वार्येतानि रूपाणि शिवस्यैव न संशयः ।
ईश्वराव्याकृतप्राणविराट्भूतेन्द्रियात्मकम् ॥ २२

शिवस्यैव विकारोऽयं समुद्रस्येव वीचयः।
ईश्वरं जगतामाहुर्निमित्तं कारणं तथा ॥ २३

अव्याकृतं प्रधानं हि तदुक्तं वेदवादिभिः।
हिरण्यगर्भः प्राणाख्यो विराट् लोकात्मकः स्मृतः ॥ २४

महाभूतानि भूतानि कार्याणि इन्द्रियाणि च।
शिवस्यैतानि रूपाणि शंसन्ति मुनिसत्तमाः ॥ २५

कर्ता, क्रिया, कार्य तथा करण ये विद्वानोंके द्वारा परमेष्ठी शिवके चार रूप कहे गये हैं। प्रमाता, प्रमाण, प्रमेय तथा प्रमिति ये चारों भी शिवके ही रूप हैं; इसमें संशय नहीं है। ईश्वर, अव्याकृत, प्राण, विराट्, भूत, इन्द्रिय और आत्मा- ये सब समुद्रकी तरंगोंकी भाँति शिवके ही विकार हैं ईश्वरको जगत्‌का निमित्त कारण कहा गया है। वैदवेत्ताओंने अव्याकृतको प्रधान कहा है। हिरण्यगर्भको ही प्राण नामवाला तथा विराट्‌को लोकरूप कहा गया है। महाभूत, भूत, कार्य तथा इन्द्रियाँ श्रेष्ठ मुनिगण इन्हें शिवके रूप कहते हैं॥ २०-२५॥

परमात्मा शिवादन्यो नास्तीति कवयो विदुः ।
शिवजातानि तत्त्वानि पञ्चविंशन्मनीषिभिः ॥ २६

उक्तानि न तदन्यानि सलिलादूर्मिवृन्दवत् ।
पञ्चविंशत्पदार्थेभ्यः शिवतत्त्वं परं विदुः ॥ २७

तानि तस्मादनन्यानि सुवर्णकटकादिवत् ।
सदाशिवेश्वराद्यानि तत्त्वानि शिवतत्त्वतः ।। २८

जातानि न तदन्यानि मृद्रव्यं कुम्भभेदवत्। 
माया विद्या क्रिया शक्तिर्ज्ञानशक्तिः क्रियामयी ।। २९

जाताः शिवान्न सन्देहः किरणा इव सूर्यतः। 
सर्वात्मकं शिवं देवं सर्वाश्रयविधायिनम् ।। ३०

भजस्व सर्वभावेन श्रेयश्चेत्प्राप्तुमिच्छसि ।। ३१

परमात्मा शिवसे भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है ऐसा कवियोंने कहा है। मनीषियोंने [समस्त] पचीस तत्त्वोंको शिवसे ही उत्पन्न बताया है, वे जलसे तरंगकी भाँति उन [शिव] से अभिन्न हैं। किंतु शिवतत्त्वको पचीस तत्त्वोंसे भी पर कहा गया है। वे [सब तत्त्व] सुवर्णसे कुण्डल आदिकी तरह उनसे अभिन्न हैं। सदाशिव आदि सगुण तत्त्व भी उन्हीं शिव तत्त्व से प्रादुर्भूत हैं, वे सब भी मिट्टी तथा घड़ेकी ही भाँति उनसे भिन्न नहीं हैं। माया, विद्या, क्रिया, शक्ति तथा क्रियामयी ज्ञानशक्ति- ये पंचरूप गौरी भी शिवसे ही उसी प्रकार उत्पन्न हुई हैं-जैसे सूर्यसे किरणें। अतः [हे सनत्कुमार!] यदि आप कल्याण प्राप्त करना चाहते हैं तो सबको आश्रय प्रदान करनेवाले सर्वात्मा भगवान् शिवकी सब प्रकारसे आराधना कीजिये ॥ २६-३१॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवतत्वमाहात्म्यवर्णनं नाम षोडशोऽध्यायः ॥ १६॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवतत्त्वमाहात्म्यवर्णन नामक सोलहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १६॥

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