लिंग पुराण : भगवान्‌ शिवद्वारा नन्दिकेश्वरको गणों के अधिपति के रूप में प्रतिष्ठित करना | Linga Purana: Establishment of Nandikeshwara as the ruler of Ganas by Lord Shiva

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चौवालीसवाँ अध्याय

भगवान्‌ शिवद्वारा नन्दिकेश्वरको गणों के अधिपति के रूप में प्रतिष्ठित करना एवं सभी देवोंके द्वारा नन्दिकेश्ववका अभिषेक तथा शिवनाममन्त्र की महिमा

शैलादिस्वाच

स्मरणादेव रुद्रस्य सम्प्राप्ताश्च गणेश्वरा:। 
सर्वे सहसत्रहस्ताश्च सहस्रायुधपाणय:॥ ९

त्रिनेत्राएय महात्मानस्त्रिदशैरपि वन्दिता:। 
कोटिकालाग्निसड्राशाजटामुकुटधारिण:॥ २

दंष्ट्राकमलवदना नित्या बुद्धाश्च निर्मला:।
कोटिकोटिगणैस्तुल्यैरात्मना च गणेश्वरा:। 
असंख्याता महात्मानस्तत्राजग्मुर्मुदा युता:॥ ३

शैलादि बोले--रुद्रके स्मरण करते ही गणेश्वर लोग उपस्थित हो गये। उन सभीकी हजार-हजार भुजाएँ थीं, उन्होंने हाथोंमें हजार अस्त्र धारण कर रखे थे, उनके तीन नेत्र थे, वे महान्‌ गण देवताओंसे वन्दित हो रहे थे, वे करोड़ों कालाग्निके समान थे, वे जटामुकुट धारण किये हुए थे, दाढ़ोंक कारण वे विकराल मुखवाले थे, वे शाश्वत, शुद्ध तथा प्रबुद्ध थे, वे अपने ही समान करोड़ों-करोड़ों अनुचरोंसे युक्त थे--ऐसे असंख्य महात्मा गणेश्वर प्रसन्‍नता के साथ वहाँ आये॥ १-३॥

गायन्तए्च द्रवन्तश्च नृत्यन्तश्च महाबला:।
मुखाडम्बरवाद्यानि वादयन्तस्तथेव च॥ ४

रथैनगिईयैश्चेव सिंहमर्कटवाहना: ।
विमानेषु तथारूढा हेमचित्रेषु वे गणा:॥ ५

भेरीमृदड़काश्च_ पणवानकगोमुखे:।
वादिद्रैविविधैश्चान्यी: पटहैरेकपुष्करैः॥ ६

भेरीमुरजसंनादैराडम्बरकडिण्डिमै: ।
मर्दलैवेणुवीणाभिर्विविधैस्तालनि:स्वने: ॥ ७

दर्दुरैस्तलघातैश्च कच्छपै: पणवैरपि। 
वाद्यमानर्म्मायोगा_ आजम्मुर्देवसंसदम्‌॥ ८

ते गणेशा महासत्त्वा: सर्वदेवेश्वरेश्वरा: । 
प्रणम्य देवं॑ देवीं च इृदं वचनमन्नुवन्‌॥ ९

भगवन्‌ देवदेवेश त्रियम्बक वृषध्वज। 
किमर्थ च स्मृता देव आज्ञापय महाद्युते॥ १०

किं सागरान्‌ शोषयामो यम॑ वा सह किड्जरे:। 
हन्मो मृत्युसुतां मृत्युं पशुवद्धन्म पद्जम्‌॥ ११

बद्ध्वेन्द्रं सह देवेश्च सह विष्णुं च वायुना। 
आनयाम: सुसड्क्रुद्धा दैत्यान्‌ वा सह दानवै: ॥ १२

कस्याद्य व्यसन घोरं करिष्यामस्तवाज्ञया। 
कस्य वाद्योत्सवो देव सर्वकामसमृद्धये॥ १३

तांस्तथावादिन: सर्वान्‌ गणेशान्‌ सर्वसम्मतान्‌। 
डवाच देव: सम्पूज्य कोटिकोटिशतान्‌ प्रभु:

श्रृणुध्व॑ यत्कृते यूयमिहाहूता जगद्ध्विता:। 
श्रुत्वा च॒ प्रयतात्मान: कुरुध्वं तदशड्विता:॥ १५

नन्दीश्वरो यं पुत्रो नः सर्वेषामीएवरेश्वर: । 
विप्रोयं नायकश्चैव सेनानीर्व: समृद्धिमान्‌॥ १६

तमिमं मम सन्देशाद्यूयं सर्वेषपि सम्मता:।
सेनान्यमभिषिज्चध्व॑ महायोगपतिं पतिम्‌॥ १७

एवमुक्ता भगवता गणपा: सर्व एवं ते। 
एवमस्त्विति सम्मन्य सम्भारानाहरंस्तत:॥ १८

वे महान् बलसे सम्पन्न गण गाते, दौड़ते, भागते नाचते तथा अनेक मुखवाद्योंको बजाते हुए आये। के रथों, हाथियों, घोड़ों, सिंहों और बन्दरोंपर सवार थे। कुछ गण स्वर्णचित्रित विमानोंपर भी आरूढ़ थे महायोग से सम्पन्न वे गणेश्वर भेरी, मृदंग, पणद आनक, गोमुख, पटह, एकपुष्कर, मुरज, आडम्बर, डिण्डिम, मर्दल, वेणु, वीणा, दर्दुर, तलघात, कच्छा, पणव एवं अन्य प्रकारके वाद्योंको बजाते हुए तथा विविध तालध्वनियाँ करते हुए भगवान् शिवकी सभाये आये महान् शक्तिसे युक्त तथा सभी देवेश्वरोंके ईश्वर उन गणेश्वरोंने महादेव एवं पार्वतीको प्रणाम करके यह वचन कहा- हे भगवन्! हे देवदेवेश। हे त्रियम्बक ! हे वृषध्वज ! आपने हमलोगोंका स्मरण किसलिये किया है? हे देव! हे महाद्युते! आदेश दीजिये क्या हमलोग समुद्रोंको सोख लें ? क्या यमको उनके सेवकोंसहित मार डालें अथवा मृत्यु पुत्री (जरा) तथा मृत्युको मार डालें अथवा पद्मयोनि ब्रह्माका पशुकी भाँति वध कर दें। क्या अत्यन्त कुपित होकर हमलोग देवताओंसहित इन्द्रको, वायुसहित विष्णुको अथवा दानवोंसहित दैत्योंको बाँधकर यहाँ ले आयें? हमलोग आपकी आज्ञासे आज किसका घोर अनर्थ कर डालें? हे देव! सभी कामनाओंकी समृद्धिके लिये आज किसका उत्सव है ? भगवान् शंकरने वैसा कहनेवाले उन करोड़ों करोड़ों सभी सर्वपूज्य गणेश्वरोंका सम्मान करके उनसे कहा-हे जगत्‌के हितकारको! सुनिये, जिसलिये मैंने तुमलोगोंको यहाँ बुलाया है, उसे सुन करके है शुद्धात्माओ [गणेश्वरी]। निःशंक होकर कीजिये। यह नन्दी हमारा पुत्र है। यह सभीका ईश्वर है। यह समृद्धिशाली विप्र तुमलोगों का नायक तथा सेनानी है। अतः मेरे आदेशसे तुम सभी लोग अपना स्वामी एवं सेनानी मानकर इस महा योग पति का अभिषेक करो भगवान् शिवके इस प्रकार कहनेपर वे सभी गणेश्वर 'ऐसा ही होगा'--यह कहकर आपसमें परामर्श करके सामग्रियाँ एकत्र करने लगे॥ ४ - १८॥

तस्य सर्वाश्रियं दिव्यं जाम्बूनदमयं शुभम्‌। 
आसन मेरुसड्डाशं मनोहरमुपाहरन्‌॥ १९

नैकस्तम्भमयं चापि चामीकरवरप्रभम्‌। 
मुक्तादामावलम्बं च मणिरतावभासितम्‌॥ २०

स्तम्भेश्च बेड़ूर्यमये: किड्धिणीजालसंवृतम्‌। 
चारुरत्तकसंयुक्ते मण्डपं विश्वतोमुखम्‌॥ २९

कृत्वा विन्यस्य तन्मध्ये तदासनवरं शुभम। 
तस्याग्रतः पादपीठं नीलवबज्रावभासितम्‌॥ २२

चक्रुः पादप्रतिष्ठार्थ कलशौ चास्य पार्श्वगौ। 
सम्पूर्णो परमाम्भोभिररविन्दावृताननौ ॥ २३

कलशानां सहस्त्र तु सौवर्ण राजतं तथा। 
ताग्रज॑ मृण्मयं चेव सर्वतीर्थाम्बुपूरितम्‌॥ २४

वासोयुगं तथा दिव्यं गन्ध॑ दिव्यं तथेव च। 
केयूरे कुण्डले चैव मुकुर्ट हारमेव च॥२५

छत्रं शतशलाकं॑ च बालव्यजनमेव च। 
दत्त महात्मना तेन ब्रह्मणा परमेष्ठिना॥ २६

शट्डृहाराड्रगौरेण पृष्ठेनापि विराजितम्‌। 
व्यजनं चन्द्रशुभ्रं च हेमदण्ड सुचामरम्‌॥ २७

ऐरावत: सुप्रतीको गजाबवेतौ सुपूजितो। 
मुकुर्ट काञ्चनं चैव निर्मितं विश्वकर्मणा॥ २८

कुण्डले चामले दिव्ये बच्र॑ चेव वरायुधम्‌। 
जाम्बूनदमयं सूत्र केयूरद्यमेव च॥ २९

सम्भाराणि तथान्यानि विविधानि बहून्यपि। 
समन्तान्निन्‍युरव्यग्रा गणपा देवसम्मता:॥ ३०

ततो देवाएच सेन्द्राश्च नारायणमुखास्तथा। 
मुनयो भगवान्‌ ब्रह्मा नवब्रह्माण एवं च॥ ३१

देवैश्च लोका: सर्वे ते ततो जग्मुर्मुदा युताः। 
तेष्वागतेषु सर्वेषु भगवान्‌ परमेश्वर:॥ ३२

वे स्वर्णनिर्मित, दिव्य, सुन्दर, मेरुसदूश तथा मनोहर सिंहासन ले आये। उन्होंने अनेक स्तम्भोंवाले, उत्तम स्वर्णकी प्रभासे युक्त, लटकती हुई मोतियोंकी झालरोंसे सुशोभित, मणियों एवं रत्नोंसे जटित, वैदूर्यमणिके स्तम्भोंवाले, किंकिणियोंसे सुशोभित, सुन्दर रत्नोंसे समन्वित तथा सभी ओर मुखवाले एक मण्डपका निर्माण करके उसके मध्यमें उस सुन्दर आसनको स्थापितकर पादप्रतिष्ठाके लिये उसके आगे नीलवज़से जटित एक पादपीठ रखा। उसके दोनों ओर उन्होंने दो कलश रखे, जो सुगन्धित जलसे भरे हुए थे तथा उनके मुख कमलपुष्पोंसे ढँके हुए थे। सोने, चाँदी, ताँबे और मिट्टीके हजारों कलश वहाँ रखे थे, जो सभी तीर्थेके जलसे परिपूर्ण थे महात्मा परमेष्ठी ब्रह्माने दिव्य वस्त्रयुगल, दिव्य गन्ध, केयूर, कुण्डल, मुकुट, हार, सौ शलाकाओं (तीलियों)-वाला छत्र और एक बालव्यजन प्रदान किया शंख तथा मोतियोंकी मालाके समान गौरवर्णवाले दण्डसे सुशोभित और चन्द्रमाके समान शुभ्र व्यजन, स्वर्णका दण्ड (मूठ) लगा हुआ चामर, भलीभाँति पूजित ऐरावत तथा सुप्रतीक--ये दो हाथी, विश्वकर्माकि द्वारा बनाया हुआ एक सोनेका मुकुट, दो स्वच्छ तथा दिव्य कुण्डल, श्रेष्ठ आयुध वज्र, सोनेका सूत्र तथा दो केयूर वहाँ रखे गये। देवताओंके द्वारा पूजित उन गणेश्वरोंने चारों ओर अनेक प्रकारकी अन्य आवश्यक सामग्रियोंकोी सावधान होकर वहाँ उपस्थित कर दिया तदनन्तर इन्द्रसहित विष्णु आदि देवता, मुनिगण, भगवान्‌ ब्रह्मा, नवब्रह्माण, देवताओंसहित सभी लोकपाल प्रसन्‍नतापूर्वक वहाँ गये। उन सभीके वहाँ आ जानेपर भगवान्‌ परमेश्वरने समस्त संस्कारविधि सम्पन्न कराने के लिये पितामह ब्रह्माको आदेश दिया ॥ १९-३२॥

सर्वकार्यविधिं. कर्तुमादिदिश पितामहम्‌। 
पितामहोपि भगवान्‌ नियोगादेव तस्य तु॥ ३३

चकार सर्व भगवानभिषेक॑ समाहितः । 
अर्चयित्वा ततो ब्रह्मा स्वयमेवाभ्यषेचयत्‌॥ ३४

ततो विष्णुस्तत: शक्रो लोकपालास्तथेव च। 
अभ्यषिज्चन्त विधिवद्‌ गणेन्धं शिवशासनात्‌॥ ३५

ऋषदयस्तुष्टुवुश्चैव पितामहपुरोगमा: । 
स्तुतवत्सु ततस्तेषु विष्णु: सर्वजगत्पति:॥ ३६

शिरस्यञ्जलिमादाय तुष्टाव च समाहितः। 
प्राउजलि: प्रणतो भूत्वा जयशब्दं चकार च॥ ३७

ततो गणाधिपाः सर्वे ततो देवास्ततोसुरा: ।
एवं स्तुतश्चाभिषिक्तो देवै: सब्रह्मकेस्तदा॥ ३८

उद्बाहश्च कृतस्तत्र नियोगात्परमेष्ठिन: । 
मरुतां च सुता देवी सुयशाख्या बभूव या॥ ३९

लब्धं शशिप्रभं छत्र॑ तया तत्र विभूषितम्‌। 
चामरे चामरासक्तहस्ताग्रै: स्त्रीगणैर्युता॥ ४०

सिंहासनं च परम॑ तया चाधिष्ठितं मया। 
अलड्कृता महालक्ष्म्या मुकुटादः सुभूषणै: ॥ ४९

लब्धो हारएच परमो देव्या: कण्ठगतस्तथा। 
वृषेन्द्रश्च सितो नाग: सिंह: सिंहध्वजस्तथा ॥ ४२

रथश्च हेमच्छत्रं च चन्द्रबिम्बसमप्रभम्‌। 
अद्यापि सदृश: कश्चिन्मया नास्ति विभु: क्वचित्‌॥ ४३

सान्वयं च गृहीत्वेशस्तथा सम्बन्धिबान्धवै:। 
आरुह्य वृषमीशानो मया देव्या गत: शिव: ॥ ४४

तदा देवीं भवं दृष्ट्वा मया च प्रार्थयन्‌ गणै: । 
मुनिदेवर्षय: सिद्धा आज्ञां पाशुपतीं द्विजा:॥ ४५

अथाज्ञां प्रददो तेषामर्हाणामाज्ञया विभो:। 
नन्दिको नगजाभर्तुस्तेषां पाशुपती शुभाम्‌॥ ४६

तब उनका आदेश पाते ही भगवान् ब्रह्माने भी ध्यानपूर्वक सम्पूर्ण अभिषेक-कर्म सम्पन्न कराया। तत्पश्चात् भगवान् ब्रह्माने पूजन करके स्वयं उनका अभिषेक किया। इसके बाद शिवके आदेशसे विष्णुने, फिर इन्द्रने और लोकपालोंने गणेन्द्रका विधिपूर्वक अभिषेक किया  तदनन्तर ऋषियों तथा पितामह आदिने उनको स्तुति की। तब उन सभीके स्तुति कर लेनेपर समस्त जगत्‌के स्वामी विष्णुने सिरपर अंजलि बाँधकर एकाग्र- चित्त होकर उनकी स्तुति की और हाथ जोड़े हुए झुककर जय-जयकार किया। तत्पश्चात् सभी गणेश्वरों, देवताओं और असुरोंने भी क्रमसे सम्पूर्ण कृत्य किया इस प्रकार ब्रह्मासहित सभी देवताओंके द्वारा उनका अभिषेक तथा स्तवन हो जानेके बाद परमेष्ठीकी आज्ञासे उन्होंने विवाह किया। सुयशा नामक जो मरुतोंकी पुत्री थी, वह उनकी भार्या हुई। उस सुयशाको चन्द्रमाके समान प्रभायुक्त और विशेष शोभासम्पन्न एक छत्र भेंट किया गया। हाथोंमें चामर लिये हुए स्त्रियोंसे युक्त उस सुयशाको दो चामर भी प्रदान किये गये। मेरे साथ उसने भी एक अत्यन्त सुन्दर सिंहासन ग्रहण किया। भगवती महालक्ष्मीने मुकुट आदि सुन्दर आभूषणोंसे उसे अलंकृत किया  उत्ते देवीके गलेका अति सुन्दर हार भी प्राप्त हुआ। वृषेन्द्र, श्वेत हाथी, सिंह, सिंहध्वज, रथ और चन्द्रमण्डलके समान प्रभावाला स्वर्णछत्र भी भेंट किया गया। अब मेरे समान कहीं भी कोई प्रभु नहीं था मुझको परिवारसहित लेकर सम्बन्धियों तथा बान्धवोंको भी साथ लेकर देवीके साथ भगवान् महेश्वर वृषभपर आरूढ़ हो चल पड़े तब मेरे तथा गणोंके साथ शिव एवं पार्वतीको देखकर मुनियों, देवर्षियों, सिद्धों और द्विजोंने शिवकी आज्ञाहेतु प्रार्थना की तत्पश्चात् हिमालयकी पुत्रीके पति प्रभु शिवकी आज्ञासे नन्दीने उन पूजनीय लोगोंके लिये शुभ पाशुपत आज्ञा प्रदान की ॥ ३३ - ४६॥

तस्माद्द्धि मुनयो लब्ध्वा तदाज्ञां मुनिपुड़वात्‌। 
भवभक्तास्तदा चासंस्तस्मादेव॑समर्चयेत्‌॥ ४७

नमस्कारविहीनस्तु नाम उद्गिरयेद्धवे। 
ब्रह्मघ्नद्शसंतुल्यं॑ तस्य पापं गरीयसम्‌॥ ४८

तस्मात्सर्वप्रकारेण नमस्कारादिमुच्चरेत्‌।
आदौ कुर्याननमस्कारं तदन्ते शिवतां ब्रजेत्‌॥ ४

तब मुनिश्रेष्ठ (नन्दी)-से उन शिवको आज्ञा (दीक्षा) पाकर वे मुनिलोग शिवभक्त हो गये। अतः सभीको शिवकी पूजा करनी चाहिये यदि कोई मनुष्य बिना नमस्कारके ही शिवके नामका उच्चारण करता है, तो उसे दस ब्रह्महत्याके समान घोर पाप लगता है। अत: सब प्रकारसे नामके आदियमें नमस्कार (नम:)-का उच्चारण करना चाहिये। आदिदमें नम: अवश्य लगाना चाहिये, ऐसा करनेवाला शिवत्व को प्राप्त होता है ॥ ४७-४९॥

॥इति श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे नन्दिकेशवराभिषेको नाम चतुश्चत्वारिंशोउध्याय: ॥ ४४॥
॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'नन्दिकेश्वराभिषेक ' नायक चौवालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ४४॥

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