लिंग पुराण : भगवान्‌ विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव, भगवान्‌ शिव की माया | Linga Purana: The emergence of Lord Brahma from the navel lotus of Lord Vishnu, Maya of Lord Shiva

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] बीसवाँ अध्याय 

शेष शय्या पर आसीन भगवान्‌ विष्णु के नाभि कमल से ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव, भगवान्‌ शिव की माया से दोनों का विमोहित होना, विष्णु द्वारा ब्रह्मा के प्रति शिव माहात्म्य का कथन

ऋषय ऊचु: 

कथं पाद्ये पुरा कल्पे ब्रह्मा पद्मोद्धबोउडभवत्‌। 
भवं च॒ दृष्टवांस्तेन ब्रह्मणा पुरुषोत्तम:॥ १

एतत्सर्वविशेषेण साम्प्रत॑ वक्तुमहसि।

सूत उवाच 

आसीदेकार्णव॑ घोरमविभागं तमोमयम्‌॥ २
मध्ये चैकार्णवे तस्मिन्‌ शट्डुचक्रगदाधर:। 
जीमूताम्भो5म्बुजाक्षश्च किरीटी श्रीपतिहरि:॥

नारायणमुखोदगीर्णसर्वात्मा. पुरुषोत्तम:।
अष्टबाहुर्महावक्षा लोकानां योनिरुच्यते॥ ४

किमप्यचिन्त्यं योगात्मा योगमास्थाय योगवित्‌।
फणासहस्त्रकलितं तमप्रतिमवर्चसम्‌॥ ५

हिल कस साध्वास्तीर्य महोच्छूयम्‌। 
तस्मिन् महति पर्यङ्के शेते चैकार्णवे प्रभुः ॥ ६

ऋषिगण बोले[हे सूतजी प्राचीनकाल में कल्पमें ब्रह्माीजी कमल से किस प्रकार जायमान हुए और पुरुषोत्तम विष्णु ने उन ब्रह्म के साथ शिव का दर्शन  कैसे किया? कृपया अब इन सब तवृत्तान्तोंका आप विस्तार पूर्वक वर्णन करें सूतजी बोलेप्रलय के समय चारों ओर जल ही जल तथा घोर, घनीभूत अन्धकार व्याप्त था। उस प्रलयसागरके मध्य शंखचक्र गदा धारण किये, नील मेघके सदृश वर्णवाले, कमल के समान नेत्रवाले, मुकुट धारण किये, आठ भुजाओंवाले,विशाल वक्षःस्थल वाले, लोकों की योनि कहे जाने वाले, सभी जीवात्माएँ जिनके मुखसे निकली हैं ऐसे योगात्मा तथा योगवित् सर्वात्मा नारायण पुरुषो त्तम लक्ष्मी पति भगवान् विष्णु किसी अनिर्वचनीय योगमें स्थित होकर, हजार फणोंसे सुशोभित शेषनागके अप्रतिम ओजसम्पन्न, अति उन्नत तथा छायायुक्त फणरूप शय्याको भलीभाँति बिछाकर प्रलयसागरस्थित उस महान् पर्यंक (शेषशय्या) पर शयन कर रहे थे ॥१ - ६ ॥

एवं तत्र शयानेन विष्णुना प्रभविष्णुना ।
आत्मारामेण क्रीडार्थ लीलयाक्लिष्टकर्मणा॥ ७

शतयोजनविस्तीर्ण तरुणादित्यसन्निभम्‌ । 
वज्दण्डं महोत्सेथ॑ नाभ्यां सृष्टं तु पुष्करम्‌॥ ८

तस्थैव॑ क्रोडमानस्थ समीप॑ देवमीदुष:।
हेमगर्भाण्डजो ब्रह्मा रुक्मवर्णो ह्तीन्द्रिय:॥ ९

चतुर्वक्त्रो विशालाक्ष: समागम्य यदूच्छया।
थ्रिया युक्तेन दिव्येन सुशुभेन सुगन्धिना॥ १०

क्रीडमानं च पदोन दृष्ट्वा ब्रह्म शुभेक्षणम।
सविस्मयमथागम्य सौम्यसम्पन्नया गिरा॥ ९९

इस प्रकार वहाँ शयन कर रहे गूढ़ रहस्योंवाले सर्वव्यापी आत्माराम विष्णुने अपनी क्रीड़ाके निमित्त अत्यन्त ऊँचे वज्रदण्डसे युक्त एक कमल, जो शतयोजन विस्तीर्ण तथा प्रखर सूर्यके समान था, अपनी नाभिसे लीलापूर्वक उत्पन्न किया कमलके साथ क्रौड़ारत उन देवश्रेष्ठ विष्णुके पास आकर हिरण्यगर्भ, अण्डज, सोनेके वर्णवाले, अतीन्द्रिय, चार मुखवाले तथा विशाल नेत्रोंवाले ब्रह्माने शोभासम्पन्न, दिव्य, सुन्दर तथा सुगन्धित कमलके साथ सुन्दर नयनोंवाले विष्णुको खेलते हुए देखा। तत्पश्चात्‌ उनके सन्निकट पहुँचकर ब्रह्माजीने विस्मयपूर्ण भावसे विनग्रतायुक्त वाणी में उनसे पूछाआप कौन हैं और इस समुद्रके मध्य आश्रय लेकर क्‍यों सो रहे हैं?॥ ७ - ११॥

प्रोवाच को भवाउछेते हाश्रितो मध्यमम्भसाम्‌। 
अथ तस्याच्युत: श्रुत्वा ब्रह्मणस्तु शुभं बच: ॥ १२ 

उदतिष्ठतः पर्यड्डाद्विस्मयोत्फुल्ललोचन:। 
प्रत्युवाचोत्तर चेव कल्पे कल्पे प्रतिश्रय: ॥ १३

कर्तव्यं च कृतं चेव क्रियते यच्च किज्चन। 
झौरन्तरिक्षं भूर्चैव पर॑ पदमहं भुवः ॥ १४

तमेवमुक्त्वा भगवान्‌ विष्णु: पुनरथाब्रवीत्‌। 
कस्त्वं खलु समायातः समीप॑ भगवान्‌ कुतः॥ १५

क्व वा भूयएच गन्तव्यं कश्च वा ते प्रतिश्रय: । 
को भवान्‌ विएवमूर्तिबं कर्तव्यं किंच ते मया॥ १६ 

एवं ब्रुवन्तं वैकुण्ठं प्रत्युवाच पितामह:। 
मायया मोहितः शम्भोरविज्ञाय जनार्दनम्‌॥ १७ 

मायया मोहितं देवमविज्ञातं महात्मन:। 
यथा भरवांस्तथैवाहमादिकर्ता प्रजापति:॥ १८

सविस्मयं बच: श्रुत्वा ब्रह्यणो लोकतन्त्रिण:।
अनुज्ञातश्च ते नाथ वैकुण्ठो विश्वसम्भव:॥ १९

कौतूहलान्महायोगी प्रविष्टो ब्रह्मणो मुखम्‌।
इमानष्टादश द्वीपान्‌ ससमुद्रान्‌ सपर्वतान्‌॥ २०

प्रविश्य सुमहातेजाश्चातुर्वण्यसमाकुलान । 
ब्रह्मणस्तम्बपर्यन्त सप्तलोकान्‌ सनातनानू॥ २९

उन ब्रह्माका यह सुखद वचन सुनकर विष्णुजी पर्यकसे उठकर बैठ गये और नेत्रोंमें प्रसन्नता भरकर उनके उत्तर में कहने लगे कि मैं प्रत्येक कल्पमें इसी स्थानका आश्रय लेकर शयन करता हूँ जो कुछ भी किया जाना है, किया गया है और किया जा रहा है तथा स्वर्ग लोक, आकाश, पृथ्वी एवं भुव्लोकइन सबका परम पद मैं ही हूँ उनसे इस प्रकार कहकर भगवान्‌ विष्णु ने पुनः उनसे पूछा ऐश्वर्य सम्पन्न आप कौन हैं तथा मेरे पास कहाँ से आये हैं ? आप पुन: कहाँ जायँगे तथा आपका निवास स्थान कहाँ है? विश्वमूर्ति स्वरूप आप कौन हैं तथा मैं आपके लिये क्‍या करूँ ? विष्णु के ऐसा कहनेपर महात्मा शिवकी मायासे मोहित होनेके कारण भगवान्‌ जनार्दनको पहचाने बिना पितामह ब्रह्मा उन्हीं शिवकी मायासे मोहको प्राप्त अविज्ञात विष्णुदेवसे कहने लगे, जिस प्रकार आप इस जगतके आदिकर्ता तथा प्रजा पति हैं, वैसे ही मैं भी हँ जगत्‌ के रचयिता ब्रह्माजीका यह विस्मयकारी वचन सुनकर और उनकी आज्ञा लेकर विश्व की उत्पत्ति करने वाले योगी महायोगी विष्णु भगवान्‌ कौतृहलवश ब्रह्माके मुख में प्रविष्ट हो गये॥ १२ - १९, ॥

ब्रह्मणस्तूदरे दृष्ट्वा सर्वान्‌ विष्णुर्महाभुजः। 
अहोउस्य तपसो वीर्यमित्युक्त्वा च पुनः पुन: ॥ २२

अटित्वा विविधाँल्लोकान्‌ विष्णुर्नानाविधाश्रयान्‌। 
ततो वर्षसहस्रान्ते नान्‍्तं हि ददृशे यदा॥ २३

तदास्य वक्त्रानिष्क्रम्य पन्‍नगेन्द्रनिकेतन: । 
नारायणो जगद्धाता पितामहमथाब्रवीत्‌॥ २४

भगवानादिरन्तश्च मध्यं कालो दिशो नभः। 
नाहमन्तं॑ प्रपश्यामि उदरस्य तवानघ॥ २५

एवमुक्त्वाब्रवीद्धूय: पितामहमिदं हरिः। 
भगवानेवमेवाहं शाश्वतं हि. ममोदरम्‌॥ २६

ब्रह्मा जी के उदर में प्रवेश करके वहाँपर अठारह द्वीपों, सभी समुद्रों, समस्त पर्वतों, ब्राह्ण आदि चार वर्णो के जनसमूहों, सनातन सात लोकों तथा ब्रह्मा से लेकर तृणपर्यन्त सभी स्थावर जंगम पदार्थ देखकर महाभुज महातेजस्वी विष्णुभगवान्‌ अत्यन्त विस्मित हुए। 'अहो इनको तपस्याका ऐसा प्रभाव ऐसा बारबार कहते हुए विष्णुभगवान्‌ उदरके अन्दर विविध लोकों तथा अनेक स्थानोंपर हजार वर्षोतक भ्रमण करते रहे, किंतु जब उसका अन्त नहीं पा सके, तब वे शेषशायी जगदाधार नारायण उन ब्रह्माके मुखमार्गसे बाहर निकलकर उनसे कहने लगेहे अनघ! आप भगवान्‌ हैं। आप आदि, अन्त, मध्य, काल, दिशा, आकाश आदिसे युक्त हैं। में आपके उदरका अन्त नहीं देख पाया ऐसा कहकर भगवान्‌ विष्णुने ब्रह्मासे पुन: यह कहाहहे सुरश्रेष्ठ! मैं भी इसी तरह भगवान्‌ हूँ। अब आप भी मेरे शाश्वत उदरमें प्रवेश करके इन्हीं अनुपम लोकोंका दर्शन करें॥ २२ - २६ ॥

प्रविश्य लोकान्‌ पश्यैताननौपम्यान्‌ सुरोत्तम।
तत: प्राह्मदिनीं वाणीं श्रुत्वा तस्याभिनन्द्य च॥

श्रीपतेरुदर॑ भूय: प्रविवेश पितामहः। 
तानेव लोकान्‌ गर्भस्थानपश्यत्सत्यविक्रम: ।
पर्यटित्वा तु देवस्य ददूशेउन्तं न वे हरेः॥

ज्ञाचा गति तस्य पितामहस्य द्वाराणि सर्वाणि पिधाय विष्णु:।
विभुर्मनः कर्तुमियेष.. चाशु सुखं प्रसुप्तोडहहमिति प्रचिन्त्य॥

ततो द्वाराणि सर्वाणि पिहितानि समीक्ष्य वे। 
सूक्ष्म॑ कृत्वात्मनो रूप॑ नाभ्यां द्वारमविन्दत॥

पद्मसूत्रानुसारेण चान्वपश्यत्पितामह: । 
उज्हारात्मनो रूपं॑ पुष्कराच्चतुरानन:॥

विरराजारविन्दस्थ पद्मगर्भसमग्युति:। 
ब्रह्मा स्वयम्भूर्भगवाज्जगद्योनि: पितामह: ॥  २७ - ३२

लक्ष्मीकान्त विष्णुकी यह आह्वादकारिणी वाणी सुनकर उन्हें प्रसन्‍न करते हुए ब्रह्माजी उनके उदरमें प्रविष्ट हुएु सत्य पराक्रमवाले ब्रह्माजीने विष्णुके उदरमें स्थित उन्हीं सब लोकोंको देखा और उसमें बहुत भ्रमण करनेके उपरान्त भी विष्णु देव के उदरका अन्त नहीं पा सके सभी इन्द्रियद्वारों को निरुद्ध करके मैं सुखपूर्वक सो लियाऐसा सोचकर और ब्रह्माजीकी गतिको जानकर सर्वव्यापक विष्णुजीने शीघ्र ही उनकी अभिलाषा पूर्ण करनेकी इच्छा की तत्पश्चात्‌ सभी द्वारों को बन्द देखकर पितामहने अत्यन्त सूक्ष्म रूप धारण करके नाभिमें मार्ग पाया तथा पद्मसूत्र (कमलनाल)के सहारे पुष्कर (कमल)से स्वयंको बाहर निकाला, तदनन्तर पद्मगर्भके समान कान्तिवाले जगद्योनि स्वयम्भू पितामह भगवान्‌ ब्रह्मा कमलके ऊपर शोभित हुए॥ ३२॥

एतस्मिन्नन्तरे ताभ्यामेकैकस्य तु कृत्स्नशः । 
वर्तमाने तु सङ्घर्षे मध्ये तस्यार्णवस्य तु ॥ ३३

उस समुद्रके मध्य ब्रह्मा और विष्णुमें अनेक प्रकारसे संघर्ष चल रहा था, उसी समय श्रेष्ठ स्वर्णके समान वस्त्रको धारण करनेवाले, अमेय आत्मावाले, जीवोंके स्वामी शूलपाणि महादेव कहींसे वहाँपर पहुँच गये, जहाँ वे शेषशायी अनन्त विष्णुभगवान् थे ॥ ३३ ॥

कुतोऽप्यपरिमेयात्मा भूतानां प्रभुरीश्वरः । 
शूलपाणिर्महादेवो हेमवीराम्बरच्छदः ॥ ३४

अगच्छद्यत्र सोऽनन्तो नागभोगपतिर्हरिः । 
शीघ्रं विक्रमतस्तस्य पद्भ्यामाक्रान्तपीडिताः ॥ ३५

उद्भूतास्तूर्णमाकाशे पृथुलास्तोयबिन्दवः । 
अत्युष्णश्चातिशीतश्च वायुस्तत्र ववौ पुनः ॥ ३६

तदृष्ट्वा महदाश्चर्यं ब्रह्मा विष्णुमभाषत । 
अब्बिन्दवश्च शीतोष्णाः कम्पयन्त्यम्बुजं भृशम् ॥ ३७

एतन्मे संशयं ब्रूहि किं वा त्वन्यच्चिकीर्षसि । 
एतदेवंविधं वाक्यं पितामहमुखोद्गतम् ॥ ३८

श्रुत्वाप्रतिमकर्मा हि भगवानसुरान्तकृत्। 
किं नु खल्वत्र मे नाभ्यां भूतमन्यत्कृतालयम् ॥ ३९

वदति प्रियमत्यर्थ मन्युएचास्य मया कृतः। 
इत्येवं॑ मनसा ध्यात्वा प्रत्युवाचेदमुत्तरम्‌॥ ४०

किमत्र भगवानद्य पुष्करे जातसम्भ्रम:। 
किं मया च कृतं देव यन्मां प्रियमनुत्तमम्‌॥ ४१

भाषसे पुरुषश्रेष्ठ किमर्थ ब्रूहि तत्त्वतः। 
एवं ब्रुवाणं देवेशं लोकयात्रानु्ग ततः॥ ४२

प्रत्युवाचाम्बुजाभाक्षं ब्रह्मा वेदनिधिः प्रभुः। 
योउसौ तबोदरं पूर्व प्रविष्टो हं त्वदिच्छया॥ ४३

यथा ममोदरे लोकाः सर्वे दृष्टास्त्वया प्रभो। 
तथेव दृष्टा: कात्स्येंन मया लोकास्तवोदरे ॥ ४४

उनके शीघ्रता पूर्वक चलनेसे चरणोंके प्रहारसे संपीडित होकर समुद्रजलकी बड़ीबड़ी बूँदें आकाशतक पहुँचने लगीं और वहाँ कभी अत्यन्त गर्म तथा कभी अत्यन्त शीतल वायु बहने लगी  उस महान् आश्चर्यको देखकर ब्रह्माने विष्णुसे कहा कि ये शीतल एवं उष्ण जलकी बूँदें इस कमलको अत्यधिक कम्पायमान कर रही हैं। इस विषयमें मेरी शंकाका समाधान कीजिये अथवा आप कुछ और करना तो नहीं चाहते ? ब्रह्माके मुखसे निर्गत इस प्रकारकी बात सुनकर अप्रतिम कर्मवाले असुरसंहारक भगवान् विष्णु सोचने लगे कि मेरी नाभिमें इस कौनसे जीवने अपना स्थान बना लिया है, जो इस तरह प्रेमपूर्वक मधुरमधुर बोल रहा है; तथा मैंने इसके प्रति कहीं क्रोध किया हैऐसा मनमें ध्यान करके विष्णुभगवान् यह उत्तर देने लगे  आप भगवान्‌ हैं और आपको यहाँ कमलके विषयमें व्याकुलता क्‍यों हो रही है ? हे देव! मैंने कौनसा श्रेष्ठ कार्य किया है, जो आप मुझसे प्रेमपूर्वक बोल रहे हैं ? हे पुरुषश्रेष्ठ! इसका कारण मुझे यथार्थ रूपसे बताइये लोकयात्रा का अनुवर्तन करने वाले तथा कमल की आभाके समान नेत्रवाले देवेश्वर विष्णुके इस प्रकार बोलने पर वेदनिधि प्रभु ब्रह्माने उनसे कहा यह मैं आपकी ही इच्छासे पूर्वकालमें आपके उदरमें प्रविष्ट हुआ था। हे प्रभो। जिस प्रकार प्रथम मेरे उदरमें प्रवेश करके आपने सभी लोकोंको देखा था, उसी प्रकार मैंने भी आपके उदरमें उन सम्पूर्ण लोकोंका दर्शन किया है॥ ३५ - ४४॥

ततो वर्षसहस्तरात्तु उपावृत्तस्यथ मेउनघ। 
त्वया मत्सरभावेन मां वशीकर्तुमिच्छता॥ ४५

आशु द्वाराणि सर्वाणि पिहितानि समन्ततः। 
ततो मया महाभाग सज्चिन्त्य स्वेन तेजसा॥ ४६

लब्धो नाभिप्रदेशेन पद्दासूत्राद्विनिर्गम:। 
मा भूत्ते मनसो5ल्पो5पि व्याघातो5यं कथज्चन ॥ ४७

इत्येषानुगतिर्विष्णो कार्याणामौपसर्पिणी। 
यन्मयानन्तरं कार्य ब्रूहि कि करवाण्यहम्‌॥ ४८

ततः परममेयात्मा हिरण्यकशिपो रिपुः। 
अनवच्यां प्रियामिष्टां शिवां वाणी पितामहात्‌॥ ४९

श्रुत्ता विगतमात्सर्य वाक्यमस्मै ददौ हरिः।
न होवमीदृशं कार्य मयाध्यवसितं तव॥ ५०

त्वां बोधयितुकामेन क्रीडापूर्व यदृच्छया। 
आश द्वाराणि सर्वाणि घटितानि मयात्मन: ॥ ५१

न तेडन्यथावगन्तव्यं मान्य: पूज्यश्च मे भवान्‌। 
सर्व मर्षपध कल्याण यन्मयापकृतं तब॥ ५२

अस्मान्‌ मयोहामानस्त्वं पद्मादवतर प्रभो। 
नाहँ भवन्तं शक्‍्नोमि सोढुं तेजोमयं गुरुम्‌॥ ५३

स॒होवाच वरं ब्रृहि पद्मादवतर प्रभो। 
पुत्रो भव ममारिध्न मुद्ं प्राप्यसि शोभनाम्‌॥ ५४

हे अनघ! वहाँ मैं हजार वर्षोतक चक्कर लगाता रहा। इसके बाद ईर्ष्याभावसे युक्त होकर आपने मुझे वशमें करने की इच्छासे चारों ओरसे सभी इन्द्रियद्वार शीघ्रतापूर्वक्त बन्द कर लिये तदनन्तर हे महाभाग! मैं अपने तेजके प्रभावसे विवेकपूर्वक अतिसूक्ष्मरूप धारणकर आपके नाभिस्थलसे कमलनालके सहारे बाहर निकल आया। इसके लिये आपके मनमें थोड़ा भी विषाद नहीं होना चाहिये हे विष्णो! जो यह मेरा बाहर निकलना हुआ है, वह किसी विशेष कार्यके लिये है। अब आप मुझे यह बताइये कि मैं क्‍या करूँ ? तदनन्तर पितामह ब्रह्माकी प्रिय, मधुर, पवित्र तथा कल्याणमयी वाणी सुनकर हिरण्यकशिपुके शत्रु अप्रमेयात्मा भगवान्‌ विष्णुने ईर्ष्यारहित होकर उनसे यह वचन कहा कि आपके नाभिकमलोद्धवरूप इस कार्यके लिये मैंने कोई प्रयास नहीं किया है आपको बोध करानेकी इच्छासे मैंने तो क्रोड़ापूर्वक दैवयोगसे यों ही अपने सभी दरवाजे शीघ्र बन्द कर लिये थे। इसे आप कुछ भी अन्यथा न समझें। हे कल्याणकारक! आप मेरे मान्य तथा पूज्य हैं, अतएव मैंने आपका जो भी अपकार किया है, वह सब आप क्षमा करें हे प्रभो! मेरे द्वारा वहन किये जाते हुए आप अब कमलसे उतर आइये; क्योंकि आपके अत्यन्त गुरुतर तथा तेजसम्पन्न होनेके कारण मैं आपका भार सहन करनेमें समर्थ नहीं हूँ॥ ४५ - ५३ ॥

सद्धाववचनं ब्रूहि पद्मादवतर प्रभो। 
सत्वं च नो महायोगी त्वमीड्य: प्रणवात्मक: ॥ ५५

अद्यप्रभति सर्वेश: श्वेतोष्णीषविभूषित:। 
पद्मययोनिरिति होव॑ ख्यातो नाम्ना भविष्यसि॥ ५६

तब ब्रह्माने कहा कि आप मुझसे वरदान माँगिये। इसपर विष्णु कहने लगेहे प्रभो! आप कमलसे नीचे उतर आइये और यही वर दीजिये कि आप मेरे पुत्र बनेंगे। हे शत्रुदलन ! इससे आपको भी अपार हर्ष प्राप्त होगा हे प्रभो! आप सद्धावनापूर्ण वचन बोलिये और कमलसे नीचे उतर आइये। आप महायोगी तथा प्रणवरूप हैं। आप हमारे पूज्य हैं। आजसे आप सबके स्वामी हैं तथा श्वेत पगड़ीसे सदा शोभायमान रहेंगे और इस प्रकार 'पद्ययोनि' नामसे लोकमें प्रसिद्ध होंगे। हे ब्रह्मन्‌! हे प्रभो! आप मेरे पुत्र तथा सात लोकोंके स्वामी हों॥ ५५-५६ ॥

पुत्रो मे त्व॑ भव ब्रह्मन्‌ सप्तलोकाधिप: प्रभो।
ततः स भगवान्‌ देवो वरं दत्त्वा किरीटिने॥ ५७

एवं भवतु चेत्युक्त्वा प्रीतात्मा गतमत्सर:। 
प्रत्यासन्‍नमथायान्त॑ बालार्काभं महाननम्‌॥ ५८

भवमत्यद्धुतं दृष्ट्वा नारायणमथाब्रवीत्‌। 
अप्रमेयो महावक्त्रो दंष्ट्री ध्वस्तशिरोरुह:॥ ५९

दशबाहुस्त्रिशूलाड्डो नयनेर्विश्वतः स्थित:। 
लोकप्रभुः स्वयं साक्षाद्विकृतो मुज्जमेखली॥ ६०

मेढ़ेणोर्ध्वेन महता नर्दमानोतिभेरवम्‌। 
कः खल्वेष पुमान्‌ विष्णो तेजोराशिर्महाद्युति: ॥ ६९

व्याप्य सर्वा दिशो द्यां च इत एवाभिवर्तते। 
तेनेवमुक्तो भगवान्‌ विष्णुब्रह्माणमत्रवीत्‌॥ ६२

पदभ्यां तलनिपातेन यस्य विक्रमतोडर्णवे। 
वेगेन महताकाशेअप्युत्थिताएच जलाशया:॥ ६३

स्थूलाद्धिविश्वतो5त्यर्थ सिच्यसे पद्मसम्भव। 
घ्राणजेन च वातेन कम्प्यमानं त्वया सह॥ ६४

दोधूयते महापद्धां स्वच्छन्दं मम नाभिजम्‌। 
समागतो भवानीशो हानादिश्चान्तकृत्प्रभु:॥ ६५

भवानहं चर स्तोत्रेण उपतिष्ठाव गोध्वजम्‌। 
ततः क्रुद्धो म्बुजाभाक्षं ब्रह्मा प्रोवाच केशवम्‌॥ ६६

भवान्न नूनमात्मानं वेत्ति लोकप्रभुं विभुम्‌। 
ब्रह्माणं लोककर्तारें मां न वेत्सि सनातनम्‌॥ ६७

को हासौ शड्भरो नाम आवयोव्यतिरिच्यते।
तस्य तत्क्रोधजं वाक्य श्रुत्वा हरिरभाषत॥ ६८

मा मैवं वद कल्याण परिवादं महात्मन: ।
महायोगेन्धनो धर्मों दुराधर्षो वरप्रद:॥ ६९

तत्पश्चातू किरीटधारी विष्णुसे 'ऐसा ही होगा' कहकर अर्थात्‌ वर देकर ब्रह्माजी प्रसन्‍नतायुक्त तथा ट्वेषडहित हो गये। इसके बाद पितामहने उदीयमान सूर्यकी आभाके समान विशाल मुखवाले तथा अत्यन्त अद्भुत रूपवाले शिवको अति समीप आते हुए देखकर भगवान्‌ विष्णुसे कहा हे विष्णो! अप्रमेय, विशाल वक्त्रसम्पन्न, वाराहके समान दाढ़ोंवाला, फैले हुए केशोंवाला, दश भुजाओंवाला, त्रिशूलधारी, नेत्रोंसे हर जगह स्थित अर्थात्‌ सर्वदर्शी, मुंजकी मेखला धारण किये, विकृत रूपवाला, उन्‍नत तथा विशाल मेढ्रवाला, अत्यन्त भयंकर ध्वनि करता हुआ साक्षात्‌ लोकप्रभुतुल्य, महान्‌ कान्तिसम्पन्न तथा तेजपुंजसा यह कौन प्राणी सभी दिशाओं तथा आकाशको व्याप्त करके इधर ही चला आ रहा है ? ब्रह्मके इस प्रकार कहने पर भगवान्‌ विष्णुने उनसे कहाइस सागरमें चलनेके कारण जिनके दोनों पैरोंक आघातसे आकाशमें महान्‌ वेगसे जलाशय उठ रहे हैं, सभी ओर उठी हुई विशाल जलबूँदोंसे आप सिक्त हो चुके हैं, जिनकी नासिकासे निकली वायुसे आपके साथ कम्पायमान यह महापद्यजो मेरी नाभिसे उत्पन्न है, स्वच्छन्दतापूर्वक दोलायमान हो रहा है, वे ही आदि अन्तरहित पार्वतीनाथ प्रभु शिव आ रहे हैं। अब हम दोनों मिलकर स्तोत्रके द्वारा इन वृषध्वज महादेवकी प्रार्थना करें तत्पश्चात्‌ कमल की आभाके समान नेत्रोंवाले भगवान्‌ विष्णुसे ब्रह्माजीने कुपित होकर कहा कि लोकोंके स्वामी तथा सर्वव्यापी स्वयं अपनेको एवं जगत्‌के कर्ता मुझ सनातन ब्रह्माको आप नहीं जानते । हम दोनोंसे बढ़कर यह शंकर नामवाला कौन है ?॥ ६६ - ६७ ॥ 

हेतुरस्थाथ जगतः पुराणपुरुषो व्यय: । 
बीजी खल्वेष बीजानां ज्योतिरिकः प्रकाशते॥ ७०

बालक्रीडनकैर्देवः क्रीडते शट्डभूरः स्वयम्‌ । 
प्रधानमव्ययो योनिरव्यक्त॑ प्रकृतिस्तम: ॥ ७१

मम चैतानि नामानि नित्य॑ प्रसवधर्मिण:। 
यः कः स इति दुःखार्तैदेश्यते यतिभि: शिव: ॥ ७२

एष बीजी भवान्‌ बीजमहं योनि: सनातनः। 
स एवमुक्तो विश्वात्मा ब्रह्मा विष्णुमपृच्छत॥ ७३

भवान्‌ योनिरहं बीजं कथं बीजी महेश्वरः। 
एतन्मे सूक्ष्ममव्यक्ते संशयं छेत्तुमहसि॥ ७४

ज्ञात्वा च विविधोत्पत्तिं ब्रह्मणो लोकतन्त्रिण: । 
इमं परमसादृश्यं प्रशनमभ्यवदद्धरि: ॥ ७५

अस्मान्महत्तर' भूतं॑ गुहामन्यन्न विद्यते। 
महतः परम धाम शिवमध्यात्मिनां पदम्‌॥ ७६

द्विविधं॑ चेवमात्मानं प्रविभज्य व्यवस्थित: । 
निष्कलस्तत्र योउव्यक्त: सकलएच महेश्वर: ॥ ७७

यस्य मायाविधिज्ञस्थ अगम्यगहनस्य च। 
पुरा लिड्रोद्धवं बीज॑ प्रथमं त्वादिसर्गिकम्‌॥ ७८

मम योनौ समायुक्त तद्‌ बीज॑ कालपर्ययात्‌। 
हिरण्मयमकूपारे योन्यामण्डमजायत ॥ ७९

शतानि दशवर्षाणामण्डमप्सु प्रतिष्ठितम्‌। 
अन्ते वर्षसहस्रस्य वायुना तद्‌ द्विधा कृतम्‌॥ ८०

कपालमेक॑ टदोर्जज्ञे कपालमपरं क्षिति:। 
उल्बं तस्य महोत्सेधो योडइसौ कनकपर्वत:॥ ८९

उन ब्रह्माका वह क्रोधयुक्त वचन सुनकर भगवान्‌ विष्णु बोलेहे कल्याणकारक! महात्मा शिव के लिये ऐसा निन्दित वचन मत बोलिये। ये महादेव साक्षात्‌ धर्मस्वरूप हैं, अत्यन्त प्रचण्ड हैं, महायोग प्रदीप्त करनेवाले तथा वर प्रदान करनेवाले हैं ये शिव ही इस जगत्‌के कारण हैं। ये प्राचीन पुरुष हैं, समस्त बीजों अर्थात्‌ कारणोंके मूल बीज अर्थात्‌ परम कारण हैं, निर्विकार हैं एवं एकमात्र ज्योतिके रूपमें जगत्‌को प्रकाशित कर रहे हैं। जिस प्रकार बच्चे खिलौनोंसे खेलते हैं, उसी प्रकार ये महादेव स्वयं जगत्‌के साथ खेलते रहते हैं अर्थात्‌ नानाविध लीलाएँ रचते रहते हैं॥७०॥ प्रधान, अव्यय, योनि, अव्यक्त, प्रकृति, तम, नित्य आदि ये नाम मुझ प्रसवधर्मीके हैं और जिनके विषयमें आपने पूछा है कि ये कौन हैं, वे शिव जन्ममरण आदि दुःखोंका भलीभाँति अनुभव करके वैराग्यको प्राप्त यतियोंद्वारा दृष्टिगत किये जाते हैं। ये शिव बीजवान्‌ हैं, आप (ब्रह्मा) बीज हैं तथा सनातनरूप मैं (विष्णु) योनि हूँ विष्णुके इस प्रकार कहनेपर विश्वात्मा ब्रह्माने उनसे पूछा आप योनि, मैं बीज तथा महेश्वर शिव बीजी (बीजवान्‌) किस प्रकार हैं? आप मेरे इस सूक्ष्म तथा अव्यक्त संदेहका निवारण करनेकी कृपा करें अनेक प्रकारसे लोकतन्‍त्री ब्रह्माकी उत्पत्ति जानकर भगवान्‌ विष्णुने उनके इस परम निगूढ़ प्रश्नका उत्तर दिया। इन महादेवसे बढ़कर अन्य कोई भी गूढ़ तत्त्व नहीं है। महत्तत्त्वका सर्वोत्कृष्ट स्थान अध्यात्मज्ञानियोंका कल्याणमय पद है उन्होंने अपनेको सगुण तथा निर्गुणइन दो रूपोंमें विभाजित किया। उनमें जो निर्गुण हैं, वे अव्यक्तरूपमें तथा जो सगुण हैं, वे महेश्वररूपमें प्रतिष्ठित हैं प्राचीनकाल में सृष्टिकि आदिमें मायाकी विधिको भी जाननेवाले, अगम्य तथा दुर्बोध उन्हीं महादेवके लिड्जसे प्रादुर्भूत बीज सर्वप्रथम मेरी योनिमें गिरा। पुनः कालान्तरमें उस सागररूप योनिमें वह बीज स्वर्ण के अण्डमें परिवर्तित हो गया एक हजार वर्षोतक वह अण्ड जलमें ही स्थित रहा; इस अवधिके अन्तमें वायुके द्वारा यह दो भागोंमें विभक्त हो गया। एक खण्डसे आकाश तथा दूसरे खण्डसे पृथ्वीका प्रादुर्भाव हुआ। यह अति उन्नत जो स्वर्णपर्वत मेरु है, वह उस अण्डके गर्भावरणसे निर्मित हुआ॥ ६८-८१॥

ततश्च प्रतिसन्ध्यात्मा देवदेवो वर: प्रभु:। 
हिरण्यगर्भो भगवांस्त्वभिजज्ञे चतुर्मुख:॥८२

आतारार्केन्दुनक्षत्रं शून्य॑ लोकमवेक्ष्य च। 
को5हमित्यपि च ध्याते कुमारास्ते भवंस्तदा॥ ८३

प्रियदर्शनास्तु यतयो यतीनां पूर्वजास्तव। 
भूयो वर्षसहस्त्रान्ने तत एवात्मजास्तव॥ ८४

भुवनानलसड्भडाशाः: पच्मपत्रायतेक्षणा:। 
श्रीमान्‌ सनत्कुमारश्च ऋभुए्चेवोध्वरेतसो ॥ ८५

सनकः सनातनएचेव तथेव च सनन्दन:। 
उत्पन्ना: समकाल ते बुद्धयातीन्द्रियदर्शना: ॥ ८६

उत्पन्ना: प्रतिभात्मानो जगतां स्थितिहेतव:। 
नारप्स्यन्त च कर्माणि तापत्रयविवर्जिता:॥ ८७

अल्पसौख्यं बहुक्लेशं जराशोकसमन्वितम्‌। 
जीवन मरणं चैव सम्भवश्च पुनः पुनः॥ ८८

अल्पभूतं सुखं स्वर्गे दुःखानि नरके तथा। 
विदित्वा चागमं सर्वमवश्यं भवितव्यताम्‌॥ ८९

ऋशभुं सनत्कुमारं च दृष्ट्वा तव वशे स्थितो। 
त्रयस्तु त्रीन्‌ गुणान्‌ हित्वा चात्मजा: सनकादय: ॥ ९० 

तत्पश्चात्‌ प्रतिसन्ध्यात्मा देवाधिदेव हिरण्यगर्भ चतुर्मुख महाप्रभु भगवान्‌ ब्रह्मा आविर्भूत हुए तारा, सूर्य, चन्द्र तथा नक्षत्रपर्यन्त समस्त लोकोंको शुन्य देखकर "मैं कौन हूँ'ऐसा आपके विचार करनेपर पुनः: एक हजार वर्षके अनन्तर यतियोंके पूर्वज, यत्नशील, प्रिय दर्शनवाले, समस्त भुवनोंको अपने तेजसे व्याप्त करनेवाले, कमलपत्रके समान विशाल नेत्रोंवाले श्रीमान्‌ सनत्कुमार, ऋभु, सनक, सनातन तथा नामक वे कुमार आपके पुत्ररूपमें आविर्भूत हुए, जिनमें सनत्कुमार तथा ऋभु ऊर्ध्वरेता थे। बुद्धि तथा इन्द्रियोंसे अगोचर, विशिष्ट ज्ञानसम्पन्न, जगत्‌की स्थितिके कारणरूप तथा तीन प्रकारके तापोंसे रहित वे कुमार एक साथ उत्पन्न हुए थे, जिनकी कर्ममार्ममें प्रवत्ति नहीं थीजीवनमें सुख कम तथा दुःख अधिक है, जीवन जरा तथा शोकसे युक्त है, जीवनमें जन्म तथा मरण बारबार होते रहते हैं, स्वर्गमें अत्यल्प सुख तथा नरकमें दु:खहीदुःख है और भावी अटल हैये सब बातें अवश्यम्भावी हैं, ऐसा जानकर ऋभु तथा सनत्कुमारको आपके वशमें स्थित देखकर त्रिगुणातीत सनकसनातन सनन्दन ये आपके तीनों महातेजस्वी पुत्र अध्यात्म सम्बन्धी ब्रह्मज्क की ओर प्रवृत्त हो गये तत्पश्चातू उन सनक आदि तीनों कुमारोंके ज्ञानमार्गमें प्रवत्त हो जानेपर आप महादेवकी मायासे विमूढ़ (मोहित) हो गये। हे अनघ।! इस प्रकार कल्पके प्रवृत्त होने पर आपका ज्ञान नष्ट हो जाया करता है॥ ८२ - ९१॥

बैवर्तेन तु ज्ञानेन प्रवृत्तास्त महोजसः। 
ततस्तेषु॒प्रवृत्तेनु सनकादिषु वे त्रिषु॥९१ 

भविष्यसि विमूढस्त्वं मायया शड्डरस्य तु। 
एवं कल्पे तु वै वृत्ते संज्ञा नश्यति तेनघ॥ ९२

कल्पे शेषाणि भूतानि सूक्ष्माणि पार्थिवानि च। 
सर्वेषां हौशवरी माया जागृतिः समुदाहता॥ ९३

यथैष पर्वतो मेरुर्देवलोको ह्युदाहृतः । 
तस्य चेदं हि माहात्म्यं विद्धि देववरस्य ह ॥ ९४

ज्ञात्वा चेश्वरसद्भावं ज्ञात्वा मामम्बुजेक्षणम् । 
महादेवं महाभूतं भूतानां वरदं प्रभुम् ॥ ९५

प्रणवेनाथ साम्ना तु नमस्कृत्य जगद्गुरुम् । 
त्वां च मां चैव सङ्‌क्रुद्धो निःश्वासान्निर्दहेदयम् ।। ९६

एवं ज्ञात्वा महायोगमभ्युत्तिष्ठन्महाबलम् । 
अहं त्वामग्रतः कृत्वा स्तोष्याम्यनलसप्रभम् ॥ ९७
शक्ति ही ऐश्वरी माया कही गयी है॥ ९३ ॥

कल्पमें जो सूक्ष्म जीव तथा पार्थिव पदार्थ अवशिष्ट रह जाते हैं। उन सबको जाग्रत्‌ करने वाली जिस प्रकार यह मेरुपर्वत देवलोकके रूपमें प्रसिद्ध है, उसी प्रकार उन देवश्रेष्ठ महादेवके इस माहात्म्यको भी प्रसिद्ध समझिये परमेश्वर महादेवका सद्भाव जानकर तथा मुझ कमलनयनको जानकर प्रणवयुक्त साममन्त्रोंके द्वारा भूतोंके भी महाभूत वरदाता जगद्‌गुरु प्रभु महादेवको नमस्कार करके उठिये, अन्यथा ये क्रोधित होकर अपने निःश्वाससे मुझे तथा आपको दग्ध कर डालेंगे इस प्रकार उनके महान् योग तथा अमित बलको जानकर आपको आगे करके अग्निसदृश प्रभावाले महादेवके निकट खड़ा होकर मैं उनकी स्तुति करूँगा ॥ ९७ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागे ब्रह्मप्रबोधनं नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'ब्रह्मप्रबोधन' नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

यहाँ भगवान विष्णु, ब्रह्मा और शिव की गूढ़ कथाओं पर आधारित विषय को FAQ (प्रश्न-उत्तर) के रूप में प्रस्तुत किया गया है, जिससे पाठक इसे सरलता और रुचिकर ढंग से समझ सकें:-

FAQs (प्रश्न-उत्तर)

प्रश्न 1: भगवान विष्णु किस समय शेषशय्या पर शयन करते हैं?

उत्तर: भगवान विष्णु प्रलय के समय शेषशय्या पर शयन करते हैं। इस समय सम्पूर्ण सृष्टि जलमग्न होती है और चारों ओर अंधकार व्याप्त रहता है।

प्रश्न 2: ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव कैसे हुआ?

उत्तर: प्रलयकाल में भगवान विष्णु ने अपनी नाभि से एक कमल उत्पन्न किया, जिससे ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव हुआ। वे उस कमल के ऊपर विराजमान हुए।

प्रश्न 3: ब्रह्मा जी और विष्णु जी के बीच क्या संवाद हुआ?

उत्तर: ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु से पूछा कि वे कौन हैं और समुद्र के मध्य शयन क्यों कर रहे हैं। विष्णु जी ने उत्तर दिया कि वे ही सृष्टि के परम आधार हैं और हर कल्प में शेषशय्या पर विश्राम करते हैं।

प्रश्न 4: भगवान विष्णु ब्रह्मा जी के मुख में क्यों प्रविष्ट हुए?

उत्तर: भगवान विष्णु, ब्रह्मा जी की तपस्या और शक्ति को जानने के लिए कौतूहलवश उनके मुख में प्रविष्ट हुए और वहाँ अठारह द्वीप, पर्वत, समुद्र, और सातों लोकों का दर्शन किया।

प्रश्न 5: ब्रह्मा जी भगवान विष्णु के उदर में कैसे प्रविष्ट हुए?

उत्तर: भगवान विष्णु ने ब्रह्मा जी को अपने शाश्वत उदर का दर्शन करने का निमंत्रण दिया। ब्रह्मा जी विष्णु जी के उदर में प्रविष्ट होकर अनेक अद्भुत लोकों का दर्शन करते हैं।

प्रश्न 6: ब्रह्मा जी विष्णु के उदर से कैसे बाहर आए?

उत्तर: ब्रह्मा जी ने अपनी इन्द्रियों के द्वार बंद पाकर सूक्ष्म रूप धारण किया और नाभि के कमल के माध्यम से बाहर निकल आए।

प्रश्न 7: भगवान शिव की माया से ब्रह्मा और विष्णु का क्या संबंध है?

उत्तर: भगवान शिव की माया से ब्रह्मा जी और विष्णु जी मोहित हो गए। ब्रह्मा जी ने स्वयं को जगत का रचयिता और विष्णु जी ने सृष्टि का आधार माना। यह माया शिव की लीला का हिस्सा थी।

प्रश्न 8: यह कथा किस काल और किस स्थिति का वर्णन करती है?

उत्तर: यह कथा प्रलयकाल और सृष्टि के प्रारंभ का वर्णन करती है, जब भगवान विष्णु शेषनाग पर शयन कर रहे थे और ब्रह्मा जी का प्रादुर्भाव हुआ था।

प्रश्न 9: ब्रह्मा जी के उदर में विष्णु जी ने क्या देखा?

उत्तर: विष्णु जी ने ब्रह्मा जी के उदर में विभिन्न लोक, पर्वत, समुद्र और अठारह द्वीपों का दर्शन किया, लेकिन वे उस उदर का अंत नहीं देख सके।

प्रश्न 10: इस कथा का मुख्य संदेश क्या है?

उत्तर: यह कथा सृष्टि के आदि, मध्य और अंत के लिए भगवान विष्णु, ब्रह्मा और शिव के अभिन्न संबंध को दर्शाती है। साथ ही, यह भगवान की माया, उनकी शक्ति और उनके कार्यों की गूढ़ता को प्रकट करती है।

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