लिंग पुराण : श्वेतवाराहकल्प के अट्टाईस द्वापरों के अन्त में प्रकट होने वाले अट्टाईंस व्यासों | Linga Purana: The eighty-eight Vyasas appearing at the end of the twenty-eight Dwaparas of the Shvetavarah Kalpa

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चोबीसवाँ अध्याय

श्वेतवाराहकल्प के अट्टाईस द्वापरों के अन्त में प्रकट होने वाले अट्टाईंस व्यासों, अट्टाईस शिवावता रों तथा विविध शिव योगियों का वर्णन

यूत उवाच

श्रुत्नैवमखिलं ब्रह्मा रुद्रेण परिभाषितम्‌। 
पुनः प्रणम्य देवेशं रुद्रमाह प्रजापति: ॥ ९१

भगवन्‌ देवदेवेश विश्वरूप महेश्वर। 
उमाधव महादेव नमो लोकाभिवन्दित॥ २

विश्वरूप महाभाग कस्मिन्‌ काले महेश्वर। 
या इमास्ते महादेव तनवो लोकवन्दिता:॥ ३

कस्यां वा युगसम्भूत्यां द्रक्ष्यन्तीह द्विजातय:। 
केन वा तपसा देव ध्यानयोगेन केन वा॥ ४

नमस्ते बै महादेव शक्यो द्रष्ट द्विजातिभि:। 
तस्य तद्बचनं श्रुत्वा शर्व: सम्प्रेक्ष्य त॑ पुरः॥ ५

स्मयन्‌ प्राह महादेवो ऋग्यजुःसामसम्भवः।
श्रीधगवानुवाच तपसा नेव वृत्तेन दानधर्मफलेन च॥६

सूतजी बोले - [ हे मुनियो !] शिवके द्वारा कथित सम्पूर्ण वचनोंको सुनकर प्रजापति ब्रह्माने उन देवाधिदेव शिवको प्रणाम करके पुनः उनसे कहा- हे भगवन्‌! हे देवदेवेश! हे विश्वरूप! हे महेश्वर ! हे उमापते! हे महादेव हे लोकवन्द्य! आपको नमस्कार है हे विश्वरूप! हे महाभाग! हे महेश्वर! हे महादेव! आपके ये जो लोकवन्द्य अवतार हैं, वे किस कालमें तथा किस युगमें द्विजातियोंके द्वारा इस लोकमें देखे जा सकेंगे ? हे देव! हे महादेव! आपको नमस्कार है। द्विजातिगण किस तप या ध्यानयोगके द्वारा आपका दर्शन कर पानेमें समर्थ हो सकते हैं ? ब्रह्म जी का यह वचन सुनकर ऋग्वेद, यजुर्वेद तथा सामवेदसे प्रादुर्भूर महादेव रुद्र अपने सम्मुखस्थित उन पितामहकों देखकर मुसकराते हुए उनसे बोले ॥१ -५ ॥

न तीर्थफलयोगेन क्रतुभिर्वाप्तदक्षिणैः।
न वेदाध्ययनैर्वापि न वित्तेन न बेदनैः ॥ ७

न शक्यं मानवैर्द्रष्टुमृते ध्यानादहं त्विह।
सप्तमे चैव वाराहे ततस्तस्मिन् पितामह ॥ ८

कल्पेश्वरोऽथ भगवान् सर्वलोकप्रकाशनः ।
मनुर्वैवस्वतश्चैव तव पौत्रो भविष्यति ॥ ९

भगवान्‌ शिव बोले मानव मुझे न तो केवल तपसे, न आचारसे, न दानसे, न धर्मफलसे, न तीर्थाटनसे, न योगसे, न पुष्कल दक्षिणावाले यज्ञोंसे, न वेदकि अध्ययनसे, न धनसे तथा न तो शास्त्रोंके परिशीलनमात्रसे ही देख सकनेमें समर्थ हैं, मेरा दर्शन ध्यानरहित साधनाके द्वारा नहीं किया जा सकता है॥६ हे पितामह। वाराहकल्पके सातवें मन्वन्तरमें सभी लोकोंको प्रकाशित करनेवाला और कल्पका स्वामी मेरा अवताररूप वैवस्वत मनु आपके पौत्रके रूपमें अवतरित होगा ॥ ८-९ ॥

तदा चतुर्युगावस्थे तस्मिन् कल्पे युगान्तिके।
अनुग्रहार्थं लोकानां ब्राह्मणानां हिताय च ॥ १०

उत्पत्स्यामि तदा ब्रह्मन् पुनरस्मिन् युगान्तिके।
युगप्रवृत्त्या च तदा तस्मिश्च प्रथमे युगे ॥ ११

द्वापरे प्रथमे ब्रह्मन् यदा व्यासः स्वयं प्रभुः ।
तदाहं ब्राह्मणार्थाय कलौ तस्मिन् युगान्तिके ।। १२

भविष्यामि शिखायुक्तः श्वेतो नाम महामुनिः ।
हिमवच्छिखरे रम्ये छागले पर्वतोत्तमे ।। १३

तत्र शिष्याः शिखायुक्ता भविष्यन्ति तदा मम।
श्वेतः श्वेतशिखश्चैव श्वेतास्यः श्वेतलोहितः ॥ १४

चत्वारस्तु महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगाः।
ततस्ते ब्रह्मभूयिष्ठा दृष्ट्‌वा ब्रह्मगतिं पराम् ।। १५

उसी कल्पके द्वापरयुगके अन्तमें लोकोंपर अनुग्रह तथा ब्राह्मणोंके हितके लिये मैं अवतार ग्रहण करूँगा। पुनः हे ब्रह्मन् ! युगप्रवृत्तिके अनुसार इसी प्रथम द्वापरयुगके अन्तमें जब स्वयं प्रभु व्यास होंगे, उस समय ब्राह्मणोंके हितार्थ मेरा अवतार होगा। इसके अनन्तर उसी युगकी समाप्तिपर कलिमें मैं शिखाधारी 'श्वेत' नामक महामुनिके रूपमें अवतीर्ण होऊँगा और पर्वतोंमें उत्तम हिमालयके छागल नामवाले शिखरपर निवास करूँगा  वहाँ पर उस समय श्वेत, श्वेतशिख, श्वेतास्य तथा श्वेतलोहित नामक शिखायुक्त मेरे चार शिष्य प्रकट होंगे। ये चारों महात्मा, ब्रह्मनिष्ठ और वेदोंके पारगामी विद्वान् होंगे। तदनन्तर ध्यानयोगमें पूर्ण तत्पर वे ब्रह्मभूयिष्ठ शिष्य ब्रह्मकी परम गतिको जानकर मेरा सान्निध्य प्राप्त करेंगे ॥ १०-१५॥

मत्समीपं गमिष्यन्ति ध्यानयोगपरायणाः।
ततः पुनर्यदा ब्रह्मन् द्वितीये द्वापरे प्रभुः ॥ १६

प्रजापतिर्यदा व्यासः सद्यो नाम भविष्यति।
तदा लोकहितार्थाय सुतारो नाम नामतः ॥ १७

भविष्यामि कलौ तस्मिन् शिष्यानुग्रहकाम्यया।
तत्रापि मम ते शिष्या नामतः परिकीर्तिताः ॥ १८

दुन्दुभिः शतरूपश्च ऋचीकः केतुमांस्तदा।
प्राप्य योगं तथा ध्यानं स्थाप्य ब्रह्म च भूतले ॥ १९

रुद्रलोकं गमिष्यन्ति सहचारित्वमेव च।
तृतीये द्वापरे चैव यदा व्यासस्तु भार्गवः ॥ २०

तदाप्यहं भविष्यामि दमनस्तु युगान्तिके।
तत्रापि च भविष्यन्ति चत्वारो मम पुत्रकाः ।। २१

विकोशश्च विकेशश्च विपाश: शापनाशन:। 
तेडपि तेनैव मार्गेण योगोक्तेन महौजसः:॥ २२

हे ब्रह्मन् ! इसके बाद द्वितीय द्वापरके अन्तमें पुनः जब 'सद्य' नामक प्रजापतिरूप प्रभु व्यास होंगे, उसके अनन्तर कलि में अपने शिष्यंकि अनुग्रह की कामना से तथा लोक के कल्याणार्थ मैं सुतार नाम से अवतार ग्रहण करूँगा वहाँ भी दुन्दुभि, शतरूप, ऋचीक तथा केतुमान् नामसे प्रसिद्ध मेरे शिष्य प्रकट होंगे। वे योग तथा ध्यानको पूर्णतः प्राप्त होकर भूतलपर ब्रह्मज्ञान स्थापित करके शिवलोकको प्राप्त होंगे और सदा मेरे सान्निध्यमें रहेंगे पुनः तीसरे द्वापरके अन्तमें जब 'भार्गव' नामक व्यास होंगे, तब मैं दमन नामसे अवतीर्ण होऊँगा और उस समय भी विकोश, विकेश, विपाश तथा शापनाशन नामवाले मेरे चार शिष्य होंगे। उसी पूर्वोक्त ध्यानयोगके द्वारा वे महान्‌ ओजस्वी शिष्य भी शिव लोक को प्राप्त होंगे, जहाँसे जीवका पुन: आगमन नहीं होता है॥ १६ - २२॥

रुद्रलोक॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम। 
चतुर्थ द्वापरे चेव यदा व्यासोउड्रिरा: स्मृत:॥ २३

तदाप्यहं भविष्यामि सुहोत्रो नाम नामत:। 
तत्रापि मम ते पुत्राश्चत्वारोषपि तपोधना:॥ २४

द्विजश्रेष्ठा भविष्यन्ति योगात्मानो दृढब्रता:। 
सुमुखो दुर्मुखश्चेव दुर्दरो दुरतिक्रम: ॥ २५

प्राप्प योगगतिं सूक्ष्मां विमला दग्धकिल्बिषा:। 
तेडपि तेनैव मार्गेण योगयुक्ता महौजस:॥ २६

रुद्रलोक॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
पञ्चमे द्वापरे चरेव व्यासस्तु सविता यदा॥ २७

तदा चापि भविष्यामि कड़्जो नाम महातपा:। 
अनुग्रहार्थ लोकानां योगात्मैककलागति: ॥ २८

चत्वारस्तु महाभागा विमला: शुद्धयोनय:। 
शिष्या मम भविष्यन्ति योगात्मानो दृढब्रता: ॥ २९

सनक: सनन्दनएचेव प्रभुर्यश्च सनातनः। 
विभुः सनत्कुमारएच निर्ममा निरहड्ःकृता:॥ ३०

चौथे द्वापरके अन्तमें जब “अंगिरा' नामक व्यास होंगे, तब मैं भी सुहोत्र नामसे अवतीर्ण होऊँगा और उस समय भी मेरे चार पुत्र प्रकट होंगे। सुमुख, दुर्मुख, दुर्दर तथा दुरतिक्रम नामवाले मेरे वे सभी पुत्र तपस्वी, द्विजश्रेष्ठ, योगात्मा एवं दृढ़ ब्रतवाले होंगे विशुद्ध मन तथा नष्टपाप वाले, योगयुक्त और महान्‌ ओजस्वी वे पुत्र भी उसी मार्गसे योगकी सूक्ष्म गतिको प्राप्त होकर रुद्रलोकको जायँगे, जहाँसे जीवका पुनर्जन्म नहीं होता है पाँचवें द्वापर के अन्त में जब 'सविता' नामक व्यास होंगे; उस समय भी लोकोंके अनुग्रहार्थ योगात्मा, एक कला गति वाला तथा महान्‌ तपोब्रती मैं 'कंक' नामसे अवतार ग्रहण करूँगा उस समय सनक, सनन्दन, प्रभु सनातन तथा विभु सनत्कुमार नामक मेरे चार शिष्य प्रकट होंगे। महाभाग्यशाली, विशुद्ध चित्तवाले, शुद्धयोनि, योगात्मा, दृढ़त्रती, ममतारहित तथा अहंकारशून्य वे शिष्य पुनर्जन्मसे मुक्ति प्राप्त करानेवाले मेरे सान्निध्यको प्राप्त होंगे॥ २३ -३०॥

मत्समीपमुपेष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
परिवर्ते पुनः षष्ठे मृत्युरव्यासो यदा विभु:॥ ३१

तदाप्यहं भविष्यामि लोगाक्षिनाम नामतः। 
तत्रापि मम ते शिष्या योगात्मानो दूढब्ता:॥ ३२

भविष्यन्ति महाभागाश्चत्वारो लोकसम्मता: । 
सुधामा विरजाश्चैव शद्भुपाद्रज एवं च॥ ३३

योगात्मानो महात्मान: सर्वे वे दग्धकिल्बिषा: । 
तेडपि तेनैव मार्गेण ध्यानयोगसमन्विता:॥ ३४

मत्समीप॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
सप्तमे परिवर्ते तु यदा व्यासः शतक्रतु:॥ ३५

विभुनामा महातेजा: प्रथितः पूर्वजन्मनि। 
तदाप्यहं भविष्यामि कलौ तस्मिन्‌ युगान्तिके ॥ ३६

जैगीषव्यो विभु: ख्यातः सर्वेषां योगिनां वर: । 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति युगे तथा॥ ३

सारस्वतश्च मेघएच मेघवाह: सुवाहनः। 
तेषपि तेनैव मार्गेण ध्यानयोगपरायणा:॥ ३८

पुन: छठे द्वापरके अन्तमें जब “मृत्यु” नामक महान्‌ ऐश्वर्यशशाली व्यासका अवतार होगा, तब मैं लोगाक्षि नामसे आविर्भूत होऊँगा। उस समय भी सुधामा, विरजा, शंखपाद तथा रज नामक मेरे चार शिष्य होंगे। वे योगात्मा, दृढ़ ब्रतवाले, महाभाग्यवान्‌ एवं लोकविश्रुत होंगे योगात्मा, महान्‌ आत्मावाले तथा ध्यानयोगसे सम्पन्न वे सभी शिष्य उसी मार्गका आश्रय लेकर मेरे समीप पहुँचेंगे, जहाँसे पुनर्जन्म नहीं होता है पूर्वजन्म में विभु नामसे प्रख्यात महातेजस्वी शतक्रतु नामक व्यास जब सातवें द्वापरके अन्तमें होंगे, उस समय भी में उस द्वापरकौ समाप्तिपर कलिमें सभी योगियोंमें श्रेष्ठ विभु जैगीषव्य नामसे प्रसिद्ध होऊँगा। उस युगमें भी सारस्वत, मेघ, मेघवाह तथा सुवाहन नामक मेरे चार पुत्र होंगे। ध्यानयोगमें परायण बे महात्मा उसी योगमार्गपर चलकर निर्विकार शिवलोकको प्राप्त होंगे॥ ३१ - ३८ ॥

गमिष्यन्ति महात्मानो रुद्रलोकं॑ निरामयम्‌। 
वसिष्ठश्चाष्टमे व्यास: परिवर्ते भविष्यति॥ ३९

यदा तदा भविष्यामि नाम्नाहं दधिवाहनः। 
तत्रापि मम ते पुत्रा योगात्मानों दृढब्ता:॥ ४०

भविष्यन्ति महायोगा येषां नास्ति समो भुवि। 
कपिलशए्चासुरिश्चैव तथा पञ्चशिखो मुनि: ॥ ४१

बाष्कलएच महायोगी धर्मात्मानो महौजस:। 
प्राप्प माहेश्वरं योगं ज्ञानिनो दग्धकिल्बिषा: ॥ ४२

पुन: आठवें द्वाप के अन्त में जब 'वसिष्ठ' नामक व्यास होंगे, तब दधिवाहन नाम से में अवतरित होऊँगा। उस समय भी कपिल, आसुरि, पंचशिखमुनि तथा महायोगी बाष्कल-ये मेरे परम योगात्मा एवं दृढ़ब्रती चार पुत्र होंगे, जिनके सदृश महान्‌ योगी भूतलपर कोई नहीं होगा। वे धर्मात्मा तथा महान्‌ ओजस्वी पुत्र भी माहेश्वर योगमें सिद्ध होकर ज्ञानसम्पन्न और पापमुक्त हो मेरे सान्निध्यको प्राप्त होंगे, जहाँसे जीवका पुन: आगमन (जन्म) नहीं होता है॥ ३९- ४२॥

मत्समीपं॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
परिवर्ते तु नवमे व्यास: सारस्वतो यदा॥ ४३

तदाप्यहं भविष्यामि ऋषभो नाम नामतः। 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति महौजस: ॥ ४४

पराशरशएच गर्गश्च भार्गवाड्धिससाौ तदा। 
भविष्यन्ति महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगा:॥ ४५

ध्यानमार्ग समासाद्य गमिष्यन्ति तथेव ते। 
सर्वे तपोबलोत्कृष्टा: शापानुग्रहकोविदा: ॥ ४६

तेडपि तेनैव मार्गेण योगोक्तेन तपस्विन:। 
रुद्लोक॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌॥ ४७

नौवें द्वापके अन्तमें जब 'सारस्वत' नामके व्यास होंगे, तब मैं भी ऋषभनामसे अवतीर्ण होऊँगा। उस समय भी पराशर, गर्ग, भार्गव तथा अंगिरा नामवाले मेरे चार पुत्र होंगे, जो महान्‌ ओजस्वी, ब्रह्मनिष्ठ, वेदोंके पारगामी विद्वान्‌ एवं महान्‌ आत्मावाले होंगे। वे भी उसी प्रकार ध्यानमार्गको प्राप्त होकर इस लोकसे प्रस्थान करेंगे। तपोबलमें उत्कृष्ट, शाप-अनुग्रहके पूर्ण विद्वान्‌ एवं तपोब्रती वे सभी पुत्र भी पूर्वोक्त उसी योगमार्गका आश्रय लेकर रुद्रलोकको प्राप्त होंगे, जहाँसे पुनः आगमन नहीं होता है॥ ४३--४७ ॥

दश्मे द्वापरे व्यास: त्रिपाद्दै नाम नामतः। 
यदा भविष्यते विप्रस्तदाहं भविता मुनि:॥ ४८

हिमवच्छिखरे रम्ये भगुतुड़े नगोत्तमे। 
नाम्ता भृगोस्तु शिखरं प्रधितं देवपूजितम्‌॥ ४९

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति दृढब्रता:। 
बलबश्धुर्निरामित्र: केतुश्रड्डस्तपोधन: ॥ ५०

योगात्मानो महात्मानस्तपोयोगसमन्विता:
रुद्रलोक॑ गमिष्यन्ति तपसा दग्धकिल्बिषा:॥ ५१

अवतीर्ण होऊँगा तथा महातेजस्वी मैं उग्र नामसे सभी लोकोंमें विख्यात होऊकँगा। उस समय भी लम्बोदर, लम्बाक्ष, लम्बकेश एवं प्रलम्बक नामवाले मेरे चार महातेजस्वी पुत्र होंगे। वे माहेश्वरयोगको प्राप्त होकर रुद्र लोक जायँंगे बारहवें द्वापरयुग के अन्त में जब मुनि 'शततेजा' नामक महाते जस्वी तथा कविश्रेष्ठ व्यास होंगे, उस समय भी युगान्तमें इस लोकमें कलिमें मैं हैतुकवनमें अवतीर्ण होऊँगा और “अत्रि' नामसे विख्यात होऊँगा दसवें ट्वापकके अन्तमें जब त्रिपाद्‌ नामक विप्ररूप व्यास होंगे, तब मैं भृगुमुनिके रूपमें पर्वतोंमें उत्तम हिमालयके रमणीक भृगुतुंग नामक श्रेष्ठ पर्वत-शिखरपर अवतीर्ण होऊँगा। वह शिखर मेरे ही नामपर 'भृगुतुंग' नामसे प्रसिद्ध होगा तथा देवताओंद्वारा पूर्जित होगा स समय भी बलबन्धु, निरामित्र, केतुश्रृंग तथा तपोधन ये मेरे चार पुत्र होंगे, जो दृढ़ब्रती, योगात्मा, महात्मा एवं तपोयोगसे युक्त होंगे। वे अपनी तपस्यासे पापोंको दग्ध करके रुद्रलोकको प्राप्त होंगे॥ ४८-५१॥ 

एकादश द्वापरे तु व्यासस्तु त्रित्रतो यदा।
तदाप्यहं भविष्यामि गड़्द्वार कलौ तथा॥ ५२

उग्रो नाम महातेजा: सर्वलोकेषु विश्रुत:।
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति महौजस:॥ ५३

लम्बोदरश्च लम्बाक्षो लम्बकेश: प्रलम्बक:। 
प्राप्य माहेश्वरं योगं रुद्रलोक॑ गता हि ते॥ ५

द्वादशे परिवर्ते तु शततेजा यदा मुनिः।
भविष्यति महातेजा व्यासस्तु कविसत्तम:॥ ५५

तदाप्यहं भविष्यामि कलाविह युगान्तिके। 
हैतुके वनमासाद्य अत्रिर्नाम्ना परिश्रुतः॥ ५६

ग्यारह वें द्वापके अन्त में जब “त्रित्रत' नामक व्यास होंगे, उस समय भी मैं कलिमें गंगा द्वार क्षेत्र में अवतीर्ण होऊँगा तथा महातेजस्वी मैं उग्र नामसे सभी लोकोंमें विख्यात होऊकँगा। उस समय भी लम्बोदर, लम्बाक्ष, लम्ब केश एवं प्रलम्बक नाम वाले मेरे चार महातेजस्वी पुत्र होंगे। वे माहेश्वरयोग को प्राप्त होकर रुद्र लोक जायँंगे बारहवें द्वापरयुगके अन्तमें जब मुनि 'शततेजा' नामक महातेजस्वी तथा कविश्रेष्ठ व्यास होंगे, उस समय भी युगान्तमें इस लोकमें कलिमें मैं हैतुकवनमें अवतीर्ण होऊँगा और “अत्रि' नामसे विख्यात होऊँगा॥ ५०-५६ ॥

तत्रापि मम ते पुत्रा भस्मस्नानानुलेपना:। 
भविष्यन्ति महायोगा रुद्रलोकपरायणा: ॥ ५७

सर्वज्ञ: समबुद्धिश्च साध्य: सर्वस्तथेव च। 
प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोक॑ गता हि ते॥ ५८

त्रयोदशे पुनः प्राप्ते परिवर्ते क्रमेण तु। 
धर्मो नारायणो नाम व्यासस्तु भविता यदा॥ ५९

तदाप्यहं भविष्यामि बालिनऋाम महामुनि:। 
बालखिल्याश्रमे पुण्ये पर्वते गन्धमादने॥ ६०  

उस समय भी सर्वज्ञ, समबुद्धि, साध्य तथा सर्व नामक मेरे चार पुत्र होंगे, जो रुद्रलोककी प्राप्तिके लिये तत्पर, महान्‌ योगी तथा सदा भस्म से अनुलिप्त शरीर वाले होंगे। वे भी माहेश्वर योग को प्राप्त होकर शिव लोक को प्रस्थान करेंगे
पुन: क्रमसे तेरहवें द्वापपयुग का अन्त आनेपर जब धर्मरूप “नारायण” नामक व्यास होंगे, उस समय भी में गन्धमादन पर्वत पर पवित्र बालखिल्य आश्रम में महामुनि “बालि' नामसे अवतरित होऊँगा ॥ ५७ - ६० 

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपोधनाः। 
सुधामा काश्यपश्चैव वासिष्ठो विरजास्तथा ॥ ६१

महायोगबलोपेता विमला ऊध्वरेतसः। 
प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोक॑ गता हि ते॥ ६२

यदा व्यासस्तरक्षुस्तु पर्याये तु चतुर्दशे। 
तत्रापि पुनरेवाहं भविष्यामि युगान्तिके ॥ ६३

वंशे त्वड्विरसां श्रेष्ठे गौतमो नाम नामतः। 
भविष्यति महापुण्यं गोतम॑ नाम तद्बनम्‌॥ ६४

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति कलौ तदा। 
अतन्रिर्देवसदश्चैव श्रवणो5थ भ्रविष्ठक: ॥ ६५

योगात्मानो महात्मानः सर्वे योगसमन्विता:। 
प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय ते गता:॥ ६६ 

उस समय भी सुधामा, काश्यप, वासिष्ठ तथा विरजा नामक मेरे चार पुत्र होंगे। वे महान्‌ तपस्वी, महायोगसे सम्पन्न, विशुद्धात्मा एवं नैष्ठिक ब्रह्मचारी होंगे और माहेश्वरयोगको प्राप्त होकर रुद्रलोक जायेंगे  चौदहवें द्वापरके अन्तमें जब 'तरक्षु' नामक व्यास होंगे, उस समय भी में अंगिरामुनिके उत्तम वंशमें गौतम नामसे अवतार ग्रहण करूँगा और वह स्थान परम पवित्र 'गौतमवन' नामसे प्रसिद्ध होगा उस कलिमें भी अत्रि, देवसद, श्रवण तथा श्रविष्ठक नामक मेरे चार पुत्र होंगे। वे सभी योगात्मा, महान्‌ आत्मावाले और योगयुक्त पुत्र माहेश्वरयोगमें सिद्ध होकर रुद्रलोकको प्राप्त होंगे॥६१ -६६॥

तत: पञ्चदशे प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते। 
त्रैय्यारुणिर्यदा व्यासो द्वापरे समपद्यत॥ ६७

तदाप्यहं भविष्यामि नाम्ना वेदशिरा द्विज:। 
तत्र वेदशिरों नाम अस्त्रं तत्पारमेश्वरम्‌॥ ६८

भविष्यति महावीर्य॑वेदशीर्षश्च पर्वतः । 
हिमवत्पृष्ठमासाद्य. सरस्वत्यां नगोत्तमे॥ ६९

पुनः क्रमसे पन्द्रहवें द्वापका अन्त होनेपर जब 'त्रैय्यारणि' नामक व्यास होंगे, उस समय भी द्विजरूप 'वेदशिरा' नाम से मैं अवतार ग्रहण करूँगा। वहाँ मैं 'वेदशिरा' नामक अति दिव्य पारमेश्वर अस् प्रकट करूँगा और पर्वतों में श्रेष्ठ हिमालयके पृष्ठदेशमें सरस्वतीके तट पर वेदशीर्ष नामक पर्वत मेरा आश्रयस्थल होगा ॥ ६७- ६९ ॥

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपोधनाः। 
कुणिश्च कुणिबाहुश्च कुशरीरः कुनेत्रक:॥ ७०

योगात्मानो महात्मानः सर्व ते ह्यूर्ध्वरेतस:। 
प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय ते गता:॥ ७१

व्यासो युगे षोडशे तु यदा देवो भविष्यति।
तत्र योगप्रदानाय भक्तानां च यतात्मनाम्‌॥ ७२

तदाप्यहं भविष्यामि गोकर्णों नाम नामतः। 
भविष्यति सुपुण्यं च गोकर्ण नाम तद्बनम्‌॥ ७३

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति च योगिन:। 
काश्यपो ह्युशनाश्चैव च्यवनो5थ बृहस्पति: ॥ ७४

तेडपि तेनैव मार्गेण ध्यानयोगसमन्विता:। 
प्राप्प माहेश्वरं योगं गन्तारो रुद्रमेव हि॥ ७५ 

ततः सप्तदशे चैव परिवर्ते क्रमागते। 
यदा भविष्यति व्यासो नाम्ना देवकृतञज्जय: ॥ ७६

तदाप्यहं भविष्यामि गुहावासीति नामतः। 
हिमवच्छिखरे रम्ये महोत्तुड़े महालये।॥ ७७

सिद्धक्षेत्र महापुण्यं भविष्यति महालयम्‌। 
तत्रापि मम ते पुत्रा योगज्ञा ब्रह्मवादिनः॥ ७८

भविष्यन्ति महात्मानो निर्ममा निरहडन्कृता:। 
उतथ्यो वामदेवश्च महायोगो महाबल:॥ ७९ 

उस समय भी कुणि, कुणिबाहु, कुशरीर तथा कुनेत्रक नामवाले मेरे तपस्वी पुत्र प्रकट होंगे। योगात्मा, महात्मा एवं नैष्ठिक ब्रह्मचर्यत्रतका पालन करनेवाले वे सभी पुत्र माहेश्वरयोगकी सिद्धि करके शिवलोकको प्राप्त होंगे  सोलहवें द्वापके अन्तमें जब देव नामक व्यास होंगे, तब भक्तों तथा संयत आत्मावाले जनोंको योग प्रदान करनेके निमित्त मैं गोकर्ण नामसे अवतार लूँगा और वह स्थान परम पवित्र गोकर्णवनके नामसे प्रसिद्ध होगा उस समय भी काश्यप, उशना, च्यवन तथा बृहस्पति नामक मेरे चार महायोगी पुत्र होंगे। वे भी उसी मार्गसे ध्यानयोगसे युक्त होकर माहेश्वरयोग प्राप्त करके रुद्रलोक जायँगे पुनः क्रमसे सत्रहवें द्वापरके अन्तमें जब देवकृतंजय नामक व्यास होंगे, तब भी मैं हिमालयके अति उच्च महालय नामक रमणीक शिखरपर गुहावासी नामसे अवतीर्ण होऊँगा। वह महालयस्थल परम पवित्र तथा सिद्धक्षेत्र माना जायगा। वहाँपर भी उतथ्य, वामदेव, महायोग एवं महाबल नामवाले मेरे चार पुत्र होंगे। वे योगवेत्ता, ब्रह्मवादी, महात्मा, मोहरहित तथा अहंकारशून्य होंगे॥ ७० -७९ ॥ 

तेषां शतसहस्त्रं तु शिष्याणां ध्यानयोगिनाम्‌। 
भविष्यन्ति तदा काले सर्वे ते ध्यानयुज्ञका: ॥ ८० 

योगाभ्यासरताश्चैव हृदि कृत्वा महेश्वरम्‌। 
महालये पद न्यस्तं दृष्ट्वा यान्ति शिवं पदम्‌॥ ८१

ये चान्येपि महात्मान: कलौ तस्मिन्‌ युगान्तिके । 
ध्याने मनः समाधाय विमला: शुद्धबुद्धयः ॥ ८२

मम प्रसादाद्यास्यन्ति रुद्रलोक॑ गतज्वरा:। 
गत्वा महालयं पुण्य॑ दृष्ट्वा माहेश्वरं पदम्‌॥ ८३

तीर्णस्तारयते जन्तुर्दश पूर्वान्‌ दशोत्तरान्‌। 
आत्मानमेकविंशं तु तारयित्वा महालये॥ ८४

कलियुगमें उन पुत्रोंके ध्यानयोग करने वाले हजारों शिष्य होंगे। ध्यान करनेवाले तथा योगाभ्यासपरायण वे सभी शिष्य महेश्वरको हृदयमें धारण करके महालयक्षेत्रमें मेरे चरणोंका दर्शन करके शिवपदको प्राप्त होंगे इनके अतिरिक्त अन्य जो भी महात्मा उस द्वापरके अन्तमें कलिमें अपना मन ध्यानमें लगाकर निर्मल आत्मा तथा शुद्ध बुद्धिवाले हो जायँगे, वे शोकरहित होकर मेरे अनुग्रहसे रुद्रलोकको प्राप्त होंगे। पुण्यप्र महालय क्षेत्र में जाकर माहेश्वरपदका दर्शन करके प्राणी अपनी दस पूर्वकी तथा दस बादकी और अपनी स्वयं--इस प्रकार इक्कीस पीढ़ियोंका उद्धार कर देता है। इस प्रकार महालयक्षेत्रमें पहुँचकर लोग अपने वंशका उद्धार करके मेरी कृपासे कष्टसे रहित होकर रुद्रलोकको प्राप्त करेंगे॥८० - ८४॥

मम प्रसादाद्यास्यन्ति रुद्रलोक॑ गतज्वरा:। 
ततोउष्टादशमे चैव परिवर्ते यदा विभो॥८५ 

तदा ऋतञ्ञयो नाम व्यासस्तु भविता मुनि:।
तदाप्यहं भविष्यामि शिखण्डी नाम नामत:॥ ८६

सिद्धक्षेत्रे महापुण्ये देवदानवपूजिते। 
हिमवच्छिखरे रम्ये शिखण्डी नाम पर्वत:।॥ ८७

शिखण्डिनो वन चापि यत्र सिद्धनिषेवितम्‌। 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपोधना:॥ ८८

वाचश्रवा ऋचीकश्च एयावाशएवश्च यतीएवर: । 
योगात्मानो महात्मान: सर्वे ते वेदपारगा:॥ ८९

प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय संवृताः। 
अथ एकोनविंशे तु परिवर्ते क्रमागते॥९०

व्यासस्तु भविता नाम्ना भरद्वाजो महामुनि:। 
तदाप्यहं भविष्यामि जटामाली च नामतः॥ ९१

हिमवच्छिखरे रम्ये जटायुर्यत्र पर्वतः। 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति महौजसः॥ ९२

हिरण्यनाभ: कौशल्यो लोकाक्षी कुथुमिस्तथा। 
ईश्वरा योगधर्माण: सर्वे ते ह्यूर्ध्वरेतस:॥ ९३ 

हे विभो! पुनः अठारहवें द्वापरके अन्तमें जब ऋतंजयमुनि नामक व्यास होंगे, तब में सिद्धिप्रदायक, पुण्यप्रद तथा देव-दानवोंसे पूजित रमणीक हिमालयशिखरपर शिखण्डी नामसे अवतार ग्रहण करूँगा और वह शिखर मेरे नामसे शिखण्डी पर्वत तथा वह क्षेत्र शिखण्डीका वन कहा जायगा, जहाँ सिद्ध महात्मा निवास करेंगे वहाँ पर भी वाचश्रवा, ऋचीक, श्यावाश्व तथा यतीश्वर नामक मेरे पुत्र होंगे। वे सब परम तपस्वी, योगात्मा, महात्मा तथा वेदोंके पारगामी विद्वान्‌ होंगे, जो माहेश्वर योगमें सिद्ध होकर रुद्रलोकको प्राप्त होंगे तदनन्तर क्रमसे उन्‍नीसवें द्वापरके अन्तमें महामुनि भरद्वाज तो व्यास होंगे और उस समय में हिमालयके शिखरपर विराजमान रमणीक जटायु पर्वतपर जटामाली नामसे अवतीर्ण होऊँगा। उस समय भी हिरण्यनाभ, कौशल्य, लोकाक्षी तथा कुथुमि नामक मेरे चार पुत्र होंगे। वे महाप्रतापी, ऐश्वर्ययुक्त, योग-ध्यानपरायण और नैष्ठिक ब्रह्मचारी होंगे। वे सब माहेश्वरयोगको प्राप्त होकर रुद्रलोक को प्रस्थान करेंगे॥ ८५ -९३॥

प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय संस्थिता: । 
ततो विंशतिमएचैव परिवर्तों यदा तदा॥ ९४

गौतमस्तु तदा व्यासो भविष्यति महामुनि:। 
तदाप्यहं॑ भविष्यामि अट्टहासस्तु नामतः॥ ९७

अट्टहासप्रियाश्चैव भविष्यन्ति तदा नराः। 
तत्रैव हिमवत्पृष्ठे अट्ठहासो महागिरिः॥ ९६

देवदानवयक्षेन्द्रसिद्धचारणसेवितः । 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति महौजसः॥ ९७

योगात्मानो महात्मानो ध्यायिनो नियतक्रता:। 
सुमन्तुर्बर्बरी विद्वान्‌ कबन्धः कुशिकन्धरः॥ ९८

प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय ते गता:। 
एकविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते॥ ९९ 

वाचश्रवा: स्मृतो व्यासो यदा स ऋषिसत्तम: 
तदाप्यहं भविष्यामि दारुको नाम नामतः:॥ १००

तस्माद्धविष्यते पुण्यं देवदारुवनं शुभम्‌। 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति महौजस: ॥ १०१

प्लक्षो दार्भायणिश्चैव केतुमान्‌ गौतमस्तथा  
योगात्मानो महात्मानो नियता ऊर्ध्वरेतस:॥ १०२

नैष्ठिकं ब्रतमास्थाय रुद्रलोकाय ते गता:। 
द्वाविंशे परिवर्ते तु व्यास: शुष्मायणों यदा॥ १०३

तदाप्यहं भविष्यामि वाराणस्यां महामुनि:। 
नाम्ना वै लाड्ली भीमो यत्र देवा: सवासवा: ॥ १०४ 

पुन: जब बीसतवें द्वापपका अन्त होगा, तब उस समय महामुनि गौतम तो व्यास होंगे और मैं भी उसी समय हिमालय-द्षेत्रमें अट्टटास नामसे अवतरित होऊँगा। तभीसे लोगोंको अट्टहासके प्रति महान्‌ प्रीति हो जायगी। वह क्षेत्र महागिरि अट्टहासके नामसे विख्यात होगा और देवता, दानव, यक्ष, इन्द्र, सिद्ध-महात्मा तथा चारण वहाँ सदा निवास करेंगे वहींपर सुमन्तु, बर्बरी, विद्वान कबन्ध तथा कुशिकन्धर-ये मेरे चार पुत्र होंगे। वे महान्‌ ओजस्वी योगात्मा, महात्मा, ध्यानपरायण एवं दृढ़ब्रती होंगे जो माहेश्वरयोगमें सिद्ध होकर रुद्रलोकको प्राप्त होंगे पुनः क्रमसे इक्कीसवें द्वाप के अन्तमें जब ऋषिप्रवर वाचश्रवा व्यास होंगे, तब मैं भी दारुक नामसे आविर्भूत होऊँगा; इसलिये वह स्थान कल्याणप्रद तथा पुण्य कर होगा और मेरे नामपर वह देवदारुवनके नामसे प्रसिद्ध होगा। वहाँपर भी प्लक्ष, दार्भायणि, केतुमान्‌ तथा गौतम नामवाले मेरे चार पुत्र होंगे; जो महाप्रतापी, योगात्मा, महात्मा, संयत आत्मावाले एवं ब्रह्मचारी होंगे। वे सब निष्ठापूर्वक योगब्रतका पालन करके रुद्र लोक को प्राप्त होंगे बाईसवें द्वापरके अन्तमें जब शुष्मायण नामक व्यास होंगे, उस समय में महामुनि ' भीम ' नामसे हल धारण किये काशीमें अवतार ग्रहण करूँगा, जहाँपर उस कलिमें इन्द्रसहित सभी देवतागण अस्त्ररूपमें हल धारण करनेवाले हलायुध मुझ शिवका दर्शन प्राप्त करेंगे ॥ ९४-१०४॥

द्रक्ष्यन्ति मां कलौ तस्मिन्‌ भवं चेव हलायुधम्‌। 
तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति सुधार्मिका: ॥ १०५

भल्लवी मधुपिड्गश्च एवेतकेतु: कुशस्तथा। 
प्राप्य माहेश्वरं योगं तेडपि ध्यानपरायणा:॥ १०६

विमला ब्रह्मभूयिष्ठा रुद्लोकाय संस्थिता: । 
परिवर्ते त्रयोविंशे तृणबिन्दुर्यदया मुनि:॥ १०७

व्यासो हि भविता ब्रह्मंस्तदाहं भविता पुन: । 
श्वेतो नाम महाकायो मुनिपुत्रस्तु धार्मिक: ॥ १०८

तत्र कालं॑ जरिष्यामि तदा गिरिवरोत्तमे। 
तेन कालझ्जरो नाम भविष्यति स पर्वतः॥ १०९

तत्रापि मम ते शिष्या भविष्यन्ति तपस्विन:। 
उशिको बृहदश्वश्च देवल: कविरेव च॥ ११०

प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय ते गता:। 
परिवर्ते चतुर्विशे व्यासो ऋक्षो यदा विभो॥ ११९

तदाप्यहं भविष्यामि कलौ तस्मिन्‌ युगान्तिके । 
शूली नाम महायोगी नैमिषे देववन्दिते॥ ११२

तत्रापि मम ते शिष्या भविष्यन्ति तपोधना:। 
शालिहोत्रो3ग्निवेशश्च युवनाशव: शरद्वसु:॥ ११३

वहाँपर भी भल्लवी, मधुपिंग, श्वेतकेतु तथा कुश नामक मेरे चार पुत्र होंगे। अतिशय धर्मनिष्ठ, ध्यानपरायण, विशुद्धात्मा एवं ब्रह्मभावको प्राप्त वे पुत्र भी माहेश्वरयोगमें सिद्ध होकर शिवलोकको प्राप्त होंगे हे ब्रह्मन्‌! पुनः तेईसवें द्वापरके अन्तमें जब मुनि तृणबिन्दु नामक व्यास होंगे, उस समय मैं धर्मनिष्ठ तथा महाकाय मुनिपुत्रके रूपमें 'श्वेत' नामसे अवतीर्ण होऊँगा। वहाँ. उत्तम पर्वतपर मैं कालको जीर्ण (व्यतीत) करूँगा, अत: वह पर्वत “कालंजर' नामसे विख्यात होगा। वहाँपर भी उशिक, बहदश्व, देवल तथा कवि नामक मेरे चार तपस्वी शिष्य होंगे। वे माहेश्वर योगको प्राप्त होकर रुद्रलोक जायँगे हे विभो! चौबीसवें द्वापके अन्तमें जब ऋक्षमु्ि व्यास होंगे, तब मैं उस युगान्त तथा कलिके प्रारम्भमें देववन्द्य नैमिषारण्यमें महान्‌ योगीके रूपमें 'शूली' नामसे अवतार लूँगा। वहाँ भी शालिहोत्र, अग्निवेश, युवनाश्व एवं शरद्सु नामक मेरे चार तपोधन शिष्य होंगे। वे भी उसी योगमार्गसे रुद्रलोकको प्राप्त होंगे॥१०५  - ११३ ॥

तेडपि तेनैव मार्गेण रुद्रलोकाय संस्थिता:। 
पज्चविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते॥ ११४

वासिष्ठस्तु यदा व्यास: शक्तिर्नाम्ना भविष्यति। 
तदाप्यहं भविष्यामि दण्डी मुण्डीएवर: प्रभु:॥ १९५

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपोधना:। 
छगल: कुण्डकर्णश्च कुभाण्डश्च प्रवाहक:॥ ११६

प्राप्प माहेश्वरं योगममृतत्वाय ते गता:।
 षड्विंशे परिवर्ते तु यदा व्यास: पराशर:॥ ११७

तदाप्यहं भविष्यामि सहिष्णुर्नाम नामत:। 
पुरं भद्गवर्ट प्राप्प कलौ तस्मिन्‌ युगान्तिके ॥ ११८

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति सुधार्मिका: ।
उलूको विद्युतश्चैव शम्बूको ह्याशइवलायन: ॥ ११९ 

पुन: क्रमिक रूपसे पचीसवें द्वापरके अन्तमें जब वसिष्ठजीके पुत्र शक्तिमुनि व्यास होंगे, उस समय जगत्प्रभु मैं दण्ड धारण किये हुए मुण्डीश्वर नामसे अवतार ग्रहण करूँगा। उस समय भी छगल, कुण्डकर्ण, कुभाण्ड तथा प्रवाहक नामक मेरे चार तपोब्रती पुत्र होंगे। माहेश्वरयोगमें सिद्ध होकर वे अमरत्वको प्राप्त होंगे छब्बीसवें द्वापरके अन्तमें जब पराशर नामक व्यास होंगे, उस समय भी उस युगान्तमें में कलिके प्रारम्भमें भद्र-वरक्षेत्रमें सहिष्णु नामसे अवतीर्ण होऊँगा। वहाँ भी उलूक, विद्युत, शम्बूक तथा आश्वलायन नामक अत्यन्त धर्मपरायण मेरे चार पुत्र होंगे। वे माहेश्वरयोगको प्राप्त होकर रुद्रलोकको प्रस्थान करेंगे॥ ११४ - ११९ ॥

प्राप्प माहेश्वरं योगं रुद्रलोकाय ते गता:। 
सप्तविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते॥ १२०

जातूकर्ण्यो यदा व्यासो भविष्यति तपोधन: । 
तदाप्यहं भविष्यामि सोमशर्मा द्विजोत्तम:॥ १२१

प्रभासतीर्थमासाद्य योगात्मा योगविश्रुत:। 
तत्रापि मम ते शिष्या भविष्यन्ति तपोधना: ॥ १२२

अक्षपाद: कुमारश्च उलूको वत्स एवं च। 
योगात्मानो महात्मानो विमला: शुद्धबुद्धय: ॥ १२३

प्राप्य माहेश्वरं योगं रुद्रलोक॑ ततो गताः। 
अष्टाविंशे पुनः प्राप्ते परिवर्ते क्रमागते॥ १२४

पराशरसुतः श्रीमान्‌ विष्णुलॉकपितामह:। 
यदा भविष्यति व्यासो नाम्ना द्वैपायन: प्रभु: ॥ १२५

तदा षष्ठेन चांशेन कृष्ण: पुरुषसत्तम:। 
वसुदेवाद्यदुश्रेष्ठो वासुदेवों भविष्यति॥ १२६

तदाप्यहं भविष्यामि योगात्मा योगमायया। 
लोकविस्मयनार्थाय ब्रह्मचारिशरीरकः ॥ १२७

श्मशाने मृतमुत्सूष्टं दृष्ट्वा कायमनाथकम्‌ । 
ब्राह्मणानां हितार्थाय प्रविष्टो योगमायया॥ १२८

दिव्यां मेरुगुहां पुण्यां त्वया सार्ध॑ च विष्णुना 
भविष्यामि तदा ब्रह्मनू लकुली नाम नामत: ॥ ९२९ 

कायावतार इत्येवं सिद्धक्षेत्रं च वे तदा। 
भविष्यति सुविख्यातं यावद्धूमिर्धरिष्यति॥ १३०

पुन: क्रमिक रूप से सत्ताईसवें द्वापर के अन्त में जब तपस्वी जातूकर्ण्य व्यास होंगे, तब मैं योग विश्रुत तथा योगात्मा द्विजश्रेष्ठ सोमशर्माके रूपमें प्रभासक्षेत्रमें अवतरित होऊँगा। वहाँपर भी अक्षपाद, कुमार, उलूक एवं वत्स नामक मेरे चार तपस्वी शिष्य होंगे। योगात्मा, महात्मा, निर्विकारहदय तथा शुद्ध बुद्धिवाले वे शिष्य माहेश्वरयोग प्राप्त करके अन्तमें रुद्रलोक जायँगे पुनः क्रमसे अट्टाईसवें द्वापके आनेपर जब श्रीमान्‌ लोकपितामह विष्णु अपने छठे अंशसे पराशरपृत्र “कृष्णद्वैपायन' नामक व्यास होंगे, तब यदुश्रेष्ठ पुरुषोत्तम वासुदेव कृष्ण वसुदेवसे उत्पन्न होंगे। उस समय योगात्मा में लोकोंको विस्मित करनेके उद्देश्यसे योगमायासे एक ब्रह्मचारीका शरीर धारणकर प्रकट होऊँगा और योगमायाके प्रभावसे ब्राह्मणोंके कल्याणार्थ श्मशानमें मृत पड़े एक अनाथ ब्राह्मणका शरीर देखकर उसमें प्रवेश करूँगा। दिव्य तथा पुण्य प्रदान करनेवाली मेरुगुहामें आपके एवं विष्णुके साथ मैं निवास करूँगा। हे ब्रह्मन्‌! उस समय में लकुली नामसे विख्यात होऊँगा और मेरा अवतार-स्थल जबतक भूमिकी सत्ता रहेगी, तबतक एक सिद्धक्षेत्रके रूपमें कायावतार इस नामसे विख्यात रहेगा॥ १२० -१३० ॥

तत्रापि मम ते पुत्रा भविष्यन्ति तपस्विन:। 
कुशिकश्चैव गर्गश्च मित्र: कौरुष्य एव च॥ १३१

योगात्मानो महात्मानो ब्राह्मणा वेदपारगा: । 
प्राप्प माहेश्वरं योगं विमला ह्र्ध्वरेतस: ॥ १३२

रुद्रलोक॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
एते पाशुपताः सिद्धा भस्मोद्धूलितविग्रहा: ॥ १३३

लिड्रार्चनरता नित्यं बाह्याभ्यन्तरतः स्थिता:। 
भकत्या मयि च योगेन ध्याननिष्ठा जितेन्द्रिया:॥ १३४

संसारबन्धच्छेदार्थ ज्ञानमार्गप्रकाशकम्‌। 
स्वरूपज्ञानसिद्धयर्थ योगं पाशुपतं महत्‌॥ १३५ 

योगमार्गा अनेकाएच ज्ञानमार्गास्त्वनेकशः । 
न निवृत्तिमुपायान्ति विना पज्चाक्षरीं क्वचित्‌॥ १३६ 

वहाँ पर भी कुशिक, गर्ग, मित्र तथा कौरुष्य नामक मेरे चार तपस्वी, योगात्मा, ब्रह्मज्ञानी और वेदोंके पारगामी विद्वान्‌ पुत्र होंगे। विशुद्ध आत्मावाले तथा नैष्ठिक ब्रह्मचर्यत्रत धारण करनेवाले बे पुत्र माहेश्वरयोगमें सिद्ध होकर पुनरागमनसे मुक्ति दिलानेवाले रुद्रलोकको प्राप्त होंगे ये पाशुपतयोगमें सिद्ध, भस्मसे विभूषित शरीरवाले, नित्य शिवलिड्रके अर्चनमें तत्पर रहनेवाले, बाहर एवं भीतरसे भक्तिपूर्वक योगके द्वारा मुझमें स्थित रहनेवाले, ध्यानपरायण तथा जितेन्द्रिय होंगे ज्ञानमार्ग का प्रकाशक यह पाशुपतयोग सांसारिक बन्धनसे मुक्ति प्राप्त करने तथा आत्मज्ञान सिद्ध करनेके लिये एक महान्‌ उपाय है इस जगतू्‌में अनेक योगमार्ग हैं तथा अनेक ज्ञानमार्ग हैं; किंतु पंचाक्षरी विद्या (नमः शिवाय )-के बिना प्राणी सांसारिक बन्धनसे मुक्त नहीं हो सकते ॥१३१ - १३६ ॥

यदाचरेत्तपश्चायं सर्वद्वन्द्वविवर्जितम्‌। 
तदा स मुक्तो मन्तव्य: पक्‍व फलमिव स्थित: ॥ १३७

एकाहं यः पुमान्‌ सम्यक्‌ चरेत्पाशुपतब्रतम्‌। 
न सांख्ये पञ्चरात्रे वा न प्राप्पयोति गतिं कदा॥ १३८

इत्येतद्देमया प्रोक्तमवतारेषु लक्षणम। 
मन्वादिकृष्णपर्यन्तमष्टाविंशद्युगक्रमातू ॥ १३९

तत्र श्रुतिसमूहानां विभागो धर्मलक्षण:। 
भविष्यति तदा कल्पे कृष्णद्वेपायनो यदा॥ १४०

यूत उवाच निशम्यैवं महातेजा महादेवेन कीर्तितम्‌। 
रुद्रावतारं भगवान्‌ प्रणिपत्य महेश्वरम्‌॥ १४१

तुष्टाव वाग्भिरिष्टाभि: पुनः प्राह च शड्डूरम।

जो मनुष्य सभी द्नन्द्स रहित होकर तप करता है, वह पके फलकी भाँति मुक्तिके लिये उपस्थित रहता है  जो पुरुष मात्र एक दिन भलीभाँति पाशुपतत्रत धारण करता है, वह उस गतिको प्राप्त कर लेता है, जो उसे सांख्य तथा पद्चरात्रसे कभी नहीं मिलती इस प्रकार मैंने युगक्रमसे मनुसे लेकर कृष्णद्वैपायन पर्यन्त अट्टाईस अवतारोंका वर्णन आपसे कर दिया। उस कल्पमें जब धर्मस्वरूप श्रीकृष्णट्रैपायन व्यास होंगे, तब वे ही वेदसमूहोंका विभाग करेंगे सूतजी बोले--इस प्रकार महादेवके द्वारा कही गयी रुद्रावतारकी बातें सुनकर महातेजस्वी भगवान्‌ ब्रह्माने प्रणामपूर्वक प्रिय वाणीसे महेश्वर शिवकी स्तुति की और पुन: उनसे कहा॥ १३७ - १४१ ॥

पितामह उवाच

सर्वे विष्णुमया देवा: सर्वे विष्णुमया गणा:॥ १४२

न हि विष्णुसमा काचिद्‌ गतिरन्या विधीयते। 
इत्येब॑ सततं बेदा गायन्ति नात्र संशय: ॥ १४३

स देवदेवो भगवांस्तव लिड्रार्चने रतः। 
तब प्रणामपरम: कथ॑ देवो ह्भूत्प्रभु:॥ १४४

पितामह बोले--सभी देवता तथा सभी गण विष्णुसे ही व्याप्त हैं। विष्णुके समान कोई अन्य गति हो ही नहीं सकती। ऐसा वेद निरन्तर गाते हैं; इसमें कोई संशय नहीं है वे देवाधिदेव भगवान्‌ विष्णु आपके लिज्रार्चन में निरन्तर रत क्‍यों रहते हैं तथा जगत्पति होकर भी सदा आपको प्रणाम क्‍यों करते हैं ? ॥ १४२ - १४४॥

सूत उवाच 

निशम्य वचन तस्थ ब्रह्मण: परमेष्ठिन:।
प्रपिबन्निव च॒क्षुर्भ्या प्रीतस्तत्प्रश्नगौरवात्‌॥ १४५

पूजाप्रकरणं तस्मे तमालोक्याह शड्भर:। 
भवान्नारायणश्चेव शक्र: साक्षात्सुरोत्तम:॥ १४६

मुनयश्च सदा लिड़ूं सम्पूज्य विधिपूर्वकम्‌। 
स्वं स्व॑ पदं विभो प्राप्तास्तस्मात्सम्पूजयन्ति ते॥ १४७

लिड्डार्चनं विना निष्ठा नास्ति तस्माज्जनार्दन:। 
आत्मनो यजते नित्यं श्रद्धया भगवान्‌ प्रभु: ॥ १४८

सूतजी बोले - परमेष्ठी ब्रह्माजीका वचन सुनकर हर्षात्रिकसे युक्त नेत्रोंबाले भगवान्‌ शंकर उनके इस महत्त्वपूर्ण प्रश्ससे अत्यधिक प्रसन्‍न हुए और उन्हें लिड्भपूजा-प्रकरणके विषयमें बताया। भगवान्‌ विष्णु, साक्षात्‌ सुरश्रेष्ठ इन्द्र तथा मुनियोंने विधिविधानसे लिड़की पूजा करके ही अपने-अपने पद प्राप्त किये हैं। हे विभो! इसीलिये वे लिड्रपूजनमें तत्पर रहते हैं  लिड्रके अर्चनके बिना निष्ठाकी प्राप्ति नहीं हो सकती, इसलिये जगत्पति भगवान्‌ विष्णु श्रद्धा पूर्वक मेरे लिड्गका पूजन करते हैं॥ १४५ - १४८ ॥

इत्येवमुक्त्वा ब्रह्माणमनुगृहा महेश्वर:। 
पुनः सप्प्रेक्ष्य देवेशं तत्रैवान्तरधीयत॥ १४९

तमुदिए्य तदा ब्रह्मा नमस्कृत्य कृताउ्जलि: । 
र्रष्ट त्वशेषं भगवान्‌ लब्धसंज्ञस्तु शट्जूरात्‌॥ १५०

देवेश ब्रह्माजीसे ऐसा कहकर तथा पुनः: उनके ऊपर कृपादृष्टि डालकर महेश्वर वहींपर अन्तर्धान हो गये तत्पश्चात्‌ उन शिवकों हाथ जोड़कर प्रणाम करके और उनसे आज्ञा प्राप्त करके वे भगवान्‌ ब्रह्मा सृष्टिकी रचना करेनेमें प्रवृत्त हो गये॥ १४९ - १५० ॥

॥  श्रीलिंगमहा पुराणे पूर्वभागे विविधव्यासावतारवर्णनं नाम चतुर्विशतितमोउध्याय: ॥ २४॥ 

॥ इस श्रीलिंग महापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाय में 'विविधव्यासाववार वर्णन ! नामक चोबीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ २४॥

लिंग पुराण: चोबीसवाँ अध्याय - प्रश्न-उत्तर स्वरूप विवरण

प्रश्न 1: भगवान शिव ने ब्रह्मा जी के प्रश्न का उत्तर कैसे दिया?

उत्तर: भगवान शिव ने ब्रह्मा जी को बताया कि उनका साक्षात्कार केवल ध्यान योग द्वारा ही संभव है। यह दर्शन न तप, न दान, न यज्ञ, न वेद अध्ययन, न धन और न ही तीर्थ यात्रा से प्राप्त किया जा सकता है।


प्रश्न 2: वाराह कल्प के सप्तम मन्वंतर में क्या महत्वपूर्ण घटनाएँ घटित होती हैं?

उत्तर: सप्तम मन्वंतर में वैवस्वत मनु का प्रादुर्भाव होगा, जो ब्रह्मा जी के पौत्र होंगे। उस समय भगवान शिव ब्राह्मणों और लोकों के कल्याण के लिए अवतार लेंगे।


प्रश्न 3: भगवान शिव ने द्वापर युग के अंत में कौन-कौन से अवतार लिए?

उत्तर:

  1. पहला द्वापर: 'श्वेत' नाम से अवतार लिया और हिमालय के छागल पर्वत पर निवास किया। उनके चार शिष्य थे - श्वेत, श्वेतशिख, श्वेतास्य, और श्वेतलोहित।
  2. दूसरा द्वापर: 'सुतार' नाम से अवतार लिया। उनके शिष्य थे - दुन्दुभि, शतरूप, ऋचीक, और केतुमान।
  3. तीसरा द्वापर: 'दमन' नाम से अवतार लिया। उनके शिष्य थे - विकोश, विकेश, विपाश, और शापनाशन।
  4. चौथा द्वापर: 'सुहोत्र' नाम से अवतार लिया। उनके शिष्य थे - सुमुख, दुर्मुख, दुर्दर, और दुरतिक्रम।

प्रश्न 4: कलियुग में भगवान शिव का क्या उद्देश्य होगा?

उत्तर: कलियुग में भगवान शिव का उद्देश्य ब्राह्मणों और लोकों का अनुग्रह करना होगा। वे ध्यानयोग द्वारा शिष्यों को मुक्ति का मार्ग प्रदान करेंगे।


प्रश्न 5: भगवान शिव के शिष्यों का क्या महत्व था?

उत्तर: भगवान शिव के शिष्य महान योगी, तपस्वी, और वेदों के पारगामी विद्वान होते थे। वे ध्यानयोग और ब्रह्मज्ञान द्वारा पापमुक्त होकर रुद्रलोक को प्राप्त करते थे, जहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता।


प्रश्न 6: भगवान शिव का 'श्वेत' अवतार कहाँ हुआ?

उत्तर: 'श्वेत' अवतार हिमालय के छागल पर्वत के रमणीय शिखर पर हुआ।


प्रश्न 7: भगवान शिव के अवतारों के दौरान उनके शिष्यों के नाम और गुण क्या थे?

उत्तर:

  1. श्वेत अवतार: श्वेत, श्वेतशिख, श्वेतास्य, और श्वेतलोहित।
  2. सुतार अवतार: दुन्दुभि, शतरूप, ऋचीक, और केतुमान।
  3. दमन अवतार: विकोश, विकेश, विपाश, और शापनाशन।
  4. सुहोत्र अवतार: सुमुख, दुर्मुख, दुर्दर, और दुरतिक्रम।

प्रश्न 8: भगवान शिव के दर्शन हेतु प्रमुख साधना क्या है?

उत्तर: भगवान शिव के दर्शन केवल ध्यानयोग और ब्रह्मज्ञान से ही संभव हैं। अन्य सभी साधन इसके बिना अधूरे हैं।


प्रश्न 9: शिव के शिष्यों को अंततः क्या प्राप्त होता है?

उत्तर: भगवान शिव के शिष्य ध्यान और योग साधना के द्वारा रुद्रलोक प्राप्त करते हैं, जहाँ से पुनर्जन्म संभव नहीं होता।


प्रश्न 10: अवसरानुसार भगवान शिव के अवतारों का क्या उद्देश्य था?

उत्तर: भगवान शिव के प्रत्येक अवतार का उद्देश्य लोकों पर अनुग्रह करना, ब्रह्मज्ञान की स्थापना करना, और शिष्यों को मुक्ति का मार्ग प्रदान करना था।

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