लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] उनचासवाँ अध्याय
जम्बूद्वीप का विस्तृत वर्णन, वहाँके कुलपर्वतों, नदियों, वनों तथा वहाँ रहने वाले लोगों का वर्णन
सूत उवाच
शतमेक॑ सहस्त्राणां योजनानां स तु स्मृतः।
अनुद्वीप॑ सहस्त्राणां द्विगुणं द्विगुणोत्तरम्॥ १
पञ्चाशत्कोटिविस्तीर्णा ससमुद्रा धरा स्मृता ।
द्वीपैएच सप्तभिर्युक्ता लोकालोकाबृता शुभा॥ २
नीलस्तथोत्तरे मेरो: श्वेतस्तस्योत्तरे पुनः।
श्रृद्धी तस्योत्तरे विप्रास्त्रयस्ते वर्षपर्वता:॥ ३
सूतजी बोले--यह द्वीप एक लाख योजन विस्तृत कहा गया है। इसके समीपमें स्थित प्लक्ष नामक द्वीप उसका दुगुना है और बाददवाले द्वीप क्रमश: दुगुने विस्तारवाले हैं विस्तृत है। यह सात द्वीपोंसे युक्त, लोकालोक पर्वतसे घिरी हुई तथा [अत्यन्त] सुन्दर है हे विप्रो! मेरुके उत्तरमें नील पर्वत, उसके उत्तरमें श्वेत पर्वत और पुनः उसके उत्तरमें श्रृंगी पर्वत है; वे तीनों वर्षपर्वत हैं ॥ १ - ३॥
जठरो देवकूटश्च पूर्वस्यां दिशि पर्वतौ।
निषधी दक्षिणे मेरोस्तस्य दक्षिणतो गिरिः ।
हेमकूट इति ख्यातो हिमवांस्तस्य दक्षिणे ॥ ४
मेरोः पश्चिमतश्चैव पर्वतौ द्वौ धराधरौ।
माल्यवान् गन्धमादश्च द्वावेतावुदगायतौ ॥ ५
एते पर्वतराजानः सिद्धचारणसेविताः ।
तेषामन्तरविष्कम्भो नवसाहस्त्रमेकशः ।। ६
इदं हैमवतं वर्ष भारतं नाम विश्रुतम्।
हेमकूटं परं तस्मान्नाम्ना किम्पुरुषं स्मृतम् ॥ ७
नैषधं हेमकूटात्तु हरिवर्ष तदुच्यते।
हरिवर्षात्परं चैव मेरोः शुभमिलावृतम् ॥ ८
इलावृतात्परं नीलं रम्यकं नाम विश्रुतम् ।
रम्यात्परतरं श्वेतं विख्यातं तद्धिरण्मयम् ॥ ९
हिरण्मयात्परं चापि शृङ्गी चैव कुरुः स्मृतः ।
धनुःसंस्थे तु विज्ञेये द्वे वर्षे दक्षिणोत्तरे ॥ १०
समुद्रोंसहित यह पृथ्वी पचास करोड़ योजन इसके पूर्वमें जठर तथा देवकूट पर्वत हैं। मेरुके दक्षिणमें निषध पर्वत है। उसके दक्षिणमें हेमकूट पर्वत कहा गया है और उसके दक्षिणमें हिमवान् पर्वत है। मेरुके पश्चिममें माल्यवान् एवं गन्धमादन नामक दो पर्वत हैं; ये दोनों पर्वत उत्तरकी ओर फैले हुए हैं ये पर्वतराज सिद्धों तथा चारणोंसे सेवित हैं और उनके बीचमें नौ हजार योजनका अन्तर है। हिमवान्का वर्ष भारतवर्ष नामवाला कहा गया है; उसके बाद हेमकूट और उसके परे किम्पुरुष वर्ष कहा गया है। हेमकूटसे परे नैषध है, उसके परे हरिवर्ष कहा गया है। हरिवर्ष और मेरुसे परे शुभ इलावृत है। इलावृतसे परे नील एवं रम्यक् कहे गये हैं। रम्यक्से परे श्वेत है, उसके परे हिरण्मय नामक वर्ष कहा गया है। हिरण्मयसे परे श्रृंगी पर्वत है और उसके परे कुरुवर्ष कहा गया है। धनुषके आकारवाले इन दोनों वर्षोंको दक्षिण तथा उत्तरमें स्थित जानना चाहिये ॥४-१० ॥
दीर्घाणि तत्र चत्वारि मध्यतस्तदिलावृतम्।
मेरोः पश्चिमपूर्वेण द्वे तु दीर्घतरे स्मृते ॥ ११
अर्वाक्तु निषधस्याथ वेद्यर्थ चोत्तरं स्मृतम् ।
वेद्यर्थे दक्षिणे त्रीणि वर्षाणि त्रीणि चोत्तरे ॥ १२
तयोर्मध्ये च विज्ञेयं मेरुमध्यमिलावृतम्।
दक्षिणेन तु नीलस्य निषधस्योत्तरेण तु ॥ १३
उद्गायतो महाशैलो माल्यवान्नाम पर्वतः ।
योजनानां सहस्त्रे द्वे उपरिष्टात्तु विस्तृतः ॥ १४
आयामतश्चतुस्त्रिंशत्सहस्त्राणि प्रकीर्तितः ।
तस्य प्रतीच्यां विज्ञेयः पर्वतो गन्धमादनः ॥ १५
आयामतः स विज्ञेयो माल्यवानिव विस्तृतः ।
जम्बूद्वीपस्य विस्तारात्समेन तु समन्ततः ॥ १६
प्रागायताः सुपर्वाणः षडेते वर्षपर्वताः ।
अवगाढाश्चोभयतः समुद्रौ पूर्वपश्चिमौ ॥ १७
हिमप्रायस्तु हिमवान् हेमकूटस्तु हेमवान्।
तरुणादित्यसङ्काशो हैरण्यो निषधः स्मृतः ॥ १८
चतुर्वर्गः स सौवर्णो मेरुश्चोर्ध्वायत: स्मृत:।
वृत्ताकृतिपरीणाहश्चतुरसत्र: समुत्थित:॥ १९
नीलश्च वैडूर्यमय: एवेत: शुक्लो हिरण्मय:।
मयूरबरईवर्णस्तु शातकुम्भस्त्रिश्रुद्भवान्॥ २०
अन्य चार बड़े वर्ष हैं। मध्यमें इलावृत है। मेरुके पश्चिम-पूर्वमें दो वर्ष हैं, जो छोटे कहे गये हैं। निषधके बाद वेदीका अर्धभाग उत्तर माना गया है, वेदीके अर्ध भागमें दक्षिणमें तीन वर्ष और उत्तर भागमें भी तीन वर्ष माने गये हैं नीलके दक्षिण तथा निषधके उत्तरमें उन दोनोंके बीच मेस्के मध्य इलावृतवर्षको जानना चाहिये। माल्यवान् नामक महापर्वत उत्तरकी ओर फैला हुआ है। यह ऊपरकी ओर दो हजार योजन फैला है। इसका आयाम चौंतीस हजार योजन बताया गया है उसके पश्चिममें गन्धमादन पर्वतको जानना चाहिये। उसे आयाममें माल्यवान्के समान विस्तृत समझना चाहिये। जम्बूद्वीपके विस्तारसे चारों ओर यह पर्वत बराबर फैला है। अच्छे पर्वोवाले ये छः वर्षपर्वत पूर्वकी ओर फैले हुए हैं और पूर्वी तथा पश्चिमी समुद्रोंसे दोनों ओरसे बँधे हुए हैं हिमवान् सदा बर्फसे आच्छादित रहता है। हेमकूट स्वर्णयुक्त है। निषध पर्वत मध्याह्कालीन सूर्यके समान स्वर्णमय कहा गया है। चार वर्णोवाला वह सुवर्णमय मेरु पर्वत ऊपरकी ओर फैला हुआ बताया गया है। यह परिधिमें वृत्ताकार है और चौकोर ऊँचा उठा हुआ है। नील पर्वत बवैडूर्यमय है। श्वेत पर्वत शुक्ल[वर्णवाला है एवं स्वर्णसे पूर्ण रहता है। तीन चोटियोंवाला श्रृंगी पर्वत सुवर्णमय तथा मोरके पंखके रंगका है॥ ११--२० ॥
एवं सद्क्षेपतः प्रोक्ता: पुन: श्रुणु गिरीएवरान्।
मन्दरो देवकूटश्च पूर्वस्यां दिशि पर्वतौ॥ २९
कैलासो गन्धमादश्च हेमवांश्चैव पर्वतौ।
पूर्वतश्चायतावेतावर्णवान्तर्व्यवस्थितो॥ २२
निषध: पारियात्रएच द्वावेती वरपर्वतौ।
यथा पूर्वों तथा याम्यावेतों पश्चिमत: श्रितौ॥ २३
त्रिशद्रों जारुचिश्चैव उत्तरौ वरपर्वतौ।
पूर्वतश्चायतावेतावर्णवान्तर्व्यवस्थितो॥ २४
मर्यादापर्वतानेतानष्टावाहुर्मनीषिण: ।
योञसौ मेरुद्धिजश्रेष्ठा: प्रांशः कनकपर्वत:॥ २५
तस्य पादास्तु चत्वारश्चतुर्दिक्षु नगोत्तमा:।
यैर्विष्टब्धा न चलति सप्तद्वीपवती मही॥ २६
दशयोजनसाहस्त्रमायामस्तेषु पठ्यते।
पूर्वे तु मन्दरो नाम दक्षिणे गन्धमादन:॥ २७
विपुल: पश्चिमे पावे सुपाएवश्चोत्तरे स्मृतः ।
महावृक्षा: समुत्यन्नाश्चत्वारो द्वीपकेतव:॥ २८
मन्दरस्य गिरे: श्रुड्ढे महावृक्षः स केतुराट।
प्रलम्बशाखाशिखर: कदम्बश्चैत्यपादप: ॥ २९
दक्षिणस्थापि शैलस्थ शिखरे देवसेविता।
जम्बू: सदा पुण्यफला सदा माल्योपशोभिता ॥ ३०
इस प्रकार पर्वतोंका वर्णन कर दिया गया, अब श्रेष्ठ पर्वतोंके विषयमें सुनिये। मन्दर तथा देवकूट पर्वत पूर्व दिशामें है। कैलास एवं स्वर्णमय गन्धमादन-ये दोनों पर्वत पूर्वकी ओर फैले हुए हैं और उनका अन्त समुद्रके भीतर होता है। निषध तथा पारियात्र-ये दोनों श्रेष्ठ पर्वत पश्चिमसे पूर्व तथा दक्षिणमें स्थित हैं। त्रिश्ंग एवं जारुचि--ये दोनों महापर्वत उत्तरमें हैं तथा पूर्वकी ओर फैले हैं और समुद्रके भीतर व्यवस्थित हैं। विद्वानू लोग इन आठों पर्वतोंको मर्यादापर्वत कहते हैं हे श्रेष्ठ द्विजो! मेरु नामक जो पर्वत है, वह ऊँचा स्वर्णमय पर्वत है। उसके चार चरणोंके रूपमें उसके चारों दिशाओंमें बड़े-बड़े चार उत्तम पर्वत हैं, जिनसे सहारा प्राप्त की हुई सात द्वीपवाली पृथ्वी हिलती नहीं है। उनका आयाम दस हजार योजन कहा गया है पूर्वमें मन्दर, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिम भागमें विपुल और उत्तरमें सुपार्श्व नामक पर्वत कहा गया है। इनपर चार विशाल वृक्ष उगे हुए हैं, जो द्वीपके पताकातुल्य प्रतीत होते हैं। मन्दर पर्वतकी चोटीपर कदम्बका विशाल वृक्ष है। वह पताकाओंका राजा है और वह लम्बी लटकती हुई शाखाओंवाला है। यह कदम्बवृक्ष चेत्यपादप (पवित्र स्थानमें लगे वृक्ष)-के रूपमें प्रतिष्ठित है दक्षिणमें स्थित [ गन्धमादन] पर्वतके शिखरपर सदा देवताओंसे सेवित पवित्र फलोंसे सम्पन्न तथा पुष्पोंसे सुशोभित जम्बूवृक्ष है। यह जम्बूवृक्ष दक्षिण द्वीपमें पताकाके रूपमें है और सभी लोकोंमें प्रसिद्ध है॥ २१ - ३०॥
सकेतुर्दक्षिणे द्वीपे जम्बूलोकिषु विश्रुता।
विपुलस्यापि शैलस्य पश्चिमे च महात्मनः॥ ३९
सउ्जात: शिखरेःश्वत्थः स महान् चेत्यपादपः ।
सुपाएव॑स्योत्तरस्थापि श्रृद्धे जातो महाद्रुम:॥ ३२
न्यग्रोधो विपुलस्कन्धोनेकयोजनमण्डल:।
तेषां चतुर्णा वक्ष्यामि शैलेन्द्राणां यथाक्रमम् ॥ ३३
अमानुष्याणि रम्याणि सर्वकालर्तुकानि च।
मनोहराणि चत्वारि देवक्रीडनकानि च॥ ३४
वनानि बवै च्र्दिक्षु नामतस्तु निबोधत।
पूर्वे चेत्ररथं नाम दक्षिणे गन्धमादनम्॥ ३५
वैभ्राज॑ पश्चिमे विद्यादुत्ते सवितुर्वनम्।
मित्रेश्वरं तु पूर्व तु षष्ठेश्वरमतः परम्॥ ३६
वर्येश्वर॑ पश्चिमे तु उत्तरे चाम्रकेश्वरम्।
महासरांसि च तथा चत्वारि मुनिपुड्भवा:॥ ३७
यत्र क्रीडन्ति मुनयः पर्वतेषु वनेषु च।
अरुणोदं सरः पूर्व दक्षिणं मानसं स्मृतम्॥ ३८
सितोदं॑ पश्चिमसरो महाभद्रं तथोत्तरम्।
शाखस्य दक्षिणे क्षेत्र विशाखस्य च पश्चिमे ॥ ३९
पश्चिममें महात्मा विपुल पर्वतकी चोटीपर पीपलका महान् वृक्ष उगा हुआ है, वह भी चैत्यपादप ( पवित् वृक्ष)-के रूपमें प्रतिष्ठित है। उत्तरमें सुपार्श्व पर्वत शिखरपर विशाल बरगदका दृक्ष उगा हुआ है, जो मोटे स्कन्धवाला तथा अनेक योजन परिधिवाला है अब मैं चारों महापर्वतोंके चार देवक्रीडास्थानोंका वर्णन करूँगा; जो मनुष्योंसे रहित, रम्य, सभी काल तथा ऋतुओंमें रहनेवाले एवं मनोहर हैं। वहाँ चारों दिशाओंमें वन हैं। उनके नाम सुनिये। पूर्वमें चैत्ररथ नामक वन, दक्षिणमें गन्धमादन, पश्चिममें वेभ्राज और उत्तरमें सविता (शिव)-के [नन्दन नामक] वनको जानना चाहिये पूर्वमें मित्रेश्वर, उसके बाद [ दक्षिणमें ] पष्ठेश्वर, पश्चिममें वर्यश्वर और उत्तरमें आम्रकेश्वर [शिवक्षेत्र] हैं हे मुनिवरो वहाँ चार बड़े सरोवर हैं, जहाँ पर्वतों तथा वनोंमें मुनिगण क्रौड़ा करते हैं। पूर्वमें अरुणोदसर, दक्षिणमें मानससर, पश्चिममें सितोदसर और उत्तरमें महाभद्रसर बताया गया है। दक्षिणमें शाखका क्षेत्र, पश्चिममें विशाखका क्षेत्र, उत्तरमें नैगमेयका क्षेत्र और पूर्वमें कुमारका क्षेत्र है॥ ३१--३९॥
उत्ते नेगमेयस्थ कुमारस्थ च पूर्वतः।
अरुणोदस्य पूर्वेण शैलेन्द्रा नामतः स्मृता: ॥ ४०
तांस्तु सड्क्षेपतो वक्ष्ये न शक्यं विस्तरेण तु।
सितान्तश्च कुरण्डश्च कुररश्चाचलोत्तम: ॥ ४१
विकरो मणिशैलश्च वृक्षवांश्चाचलोत्तम:।
महानीलो5थ रुचकः सबिव्दुर्दर्दुरस्तथा॥ ४२
वेणुमांश्च समेघश्च निषधो देवपर्वतः।
इत्येते पर्वतवरा हानये चर गिरयस्तथा॥ ४३
पूर्वण. मन्दरस्येते सिद्धावासा उदाहता:।
तेषु तेषु गिरीन्द्रेष गुहासु च वनेषु च।॥ ४४
रुद्रक्षेत्राणि दिव्यानि विष्णोर्नारायणस्य च।
सरसो मानसस्येह दक्षिणेन महाचला:॥ ४५
ये कीर्त्यमानास्तान् सर्वान् सदुक्षिप्य प्रवदाम्यहम् ।
शेलएच विशिराश्चैव शिखरश्चाचलोत्तम: ॥ ४६
एकश्रुड्रो महाशूलो गजशैल: पिशाचक:।
पञ्चशैलोथ कैलासो हिमवांश्चाचलोत्तम: ॥ ४७
इत्येते देवचरिता उत्कटा: पर्वतोत्तमा:।
तेषु तेषु च सर्वेषु पर्वतेषु बनेषु च॥४८
रुद्रक्षेत्रिणि दिव्यानि स्थापितानि सुरोत्तमै:।
दिग्भागे दक्षिणे प्रोक्ता: पश्चिमे च बदामि व: ॥ ४९
अरुणोदसरके पूर्वमें महापर्वत बताये गये हैं। मैं संक्षेपमें नामोंसे उनका वर्णन करूँगा; विस्तारपूर्वक उनका वर्णन नहीं किया जा सकता। सितान्त, कुरण्ड, पर्वतश्रेष्ठ कुर, विकर, मणिशैल, पर्वतश्रेष्ठ वृक्षवान्, महानील, रुचक, सबिन्दु, दर्दुर, वेणुमान्, समेघ, निषध, देवपर्वत-ये महापर्वत हैं; इसी प्रकार अन्य भी पर्वत हैं। मन्दरके पूर्वमें ये पर्वत सिद्धोंक निवासस्थान कहे ह हैं। उन-उन पर्वतोंपर, गुफाओंमें तथा वनोंमें रुद्र भा का विष्णुके दिव्य क्षेत्र हैं यह मानससरके दक्षिणमें जो महान् पर्वत कहे जाते हैं, अब मैं संक्षेपमें उन सबका वर्णन करता हूँ । शैल, विशिर, पर्वतोंमें उत्तम शिखर, एकश्ग, महाशूल, गजशैल, पिशाचक, पंचशैल, कैलास, पर्वतश्रेष्ठ हिमवान्- ये सब देवताओंके द्वारा सेवित, उत्कट तथा उत्तम पर्वत हैं। उन-उन सभी पर्वतोंपप और वनोंमें श्रेष्ठ देवताओंके द्वारा दिव्य रुद्रक्षेत्र स्थापित किये गये हैं। इस प्रकार दक्षिण दिशामें स्थित पर्वतोंको बता दिया गया, अब में आपलोगोंको पश्चिममें विद्यमान पर्वतोंको बताता हूँ॥ ४०--४९ ॥
अपरेण सितोदश्च सुरपश्च महाबल:।
कुमुदो मधुमांश्चैब हाउ्जनो मुकुटस्तथा॥ ५०
कृष्णश्च पाण्डुरश्चेव सहस्नशिखरशच य:।
पारिजातश्च शैलेन्द्र: श्रीश्रृद्गएचाचलोत्तम: ॥ ५९
इत्येते देवचरिता उत्कटा: पर्वतोत्तमा:।
सर्वे पश्चिमदिग्भागे रुद्रक्षेत्रसमन्विता:॥ ५२
महाभद्रस्थ सरसएचोत्ते च महाबला:।
ये स्थिता: कीर्त्यमानांस्तान् स्ध्षिप्पेह निबोधत॥ ५३
शह्ल॒कूटो महाशैलो वृषभो हंसपर्वत:।
नागएच कपिलएचेव इन्द्रशैलशच सानुमान्॥ ५४
नील: कण्टकश्रृड्श्च शतश्रुड्गशएच पर्वत: ।
पुष्पकोश: प्रशैलश्च विरजश्चाचलोत्तम:॥ ५५
वराहपर्वतश्चेव मयूरएचाचलोत्तम:।
जारुधिए्चैव शैलेन्द्र एत उत्तरसंस्थिता:॥ ५६
तेषु शैलेषु दिव्येषु देवदेवस्य शूलिन:।
असंख्यातानि दिव्यानि विमानानि सहस्त्रश: ॥ ५७
एतेषां शैलमुख्यानामन्तरेषु यथाक्रमम्।
सन्ति चैवान्तरद्रोण्य: सरांस्युपवनानि च॥ ५८
वसन्ति देवा मुनयः सिद्धाएच शिवभाविता: ।
कृतवासा: सपत्नीकाः प्रसादात्परमेष्ठिन: ॥ ५९
लक्ष्म्याद्यानां बिल्ववने ककुभे कश्यपादय: ।
तथा तालवने प्रोक्तमिन्द्रोपेन्द्रोरगात्मनाम्॥ ६०
उतुम्बरे कर्दमस्य तथान्येषां महात्मनाम्।
विद्याधराणां सिद्धानां पुण्ये त्वाग्रवने शुभे॥ ६१
नागानां सिद्धसड्भानां तथा निम्बवने स्थिति: ।
सूर्यस्थ किंशुकवने तथा रुद्रगणस्थ च॥६२
बीजपूरवने पुण्ये देवाचार्यों व्यवस्थित:।
कौमुदे तु बने विष्णुप्रमुखानां महात्मनाम्॥ ६३
सितोदके पश्चिममें सुरप, महाबल, कुमुद, मधुमान्, अंजन, मुकुट, कृष्ण, पाण्डुर, सहस्नशिखर, शेलेन्द्र, पारिजात और पर्वतोंमें उत्तम श्रीश्रृंग हैं। ये सभी उत्कट तथा उत्तम पर्वत पश्चिम दिशामें हैं, जो देवताओंके द्वारा सेवित हैं और रुद्रक्षेत्रोंसे युक्त हैं महाभद्रसरके उत्तरमें जो शक्तिशाली पर्वत स्थित हैं में उनका संक्षेपमें वर्णन करता हूँ, आपलोग सुनिये। शंखकूट, महाशैल, वृषभ, हंसपर्वत, नाग, कपिल, इन्द्रशल, सानुमान्, नील, कण्टकश्रृंग, पर्वत शतश्रृंग, पुष्पकोश, प्रशैल, पर्वतश्रेष्ठ विरज, वराहपर्वत, पर्वतश्रेष्ठ मयूर तथा शैलराज जार॒धि--ये सब उत्तरमें स्थित हैं । उन दिव्य पर्वतोंपर देवदेव शिवके असंख्य दिव्य विमान हैं इन प्रमुख पर्वतोंके भीतर झरने, सरोवर तथा उपवन यथाक्रम स्थित हैं। यहाँ परमेष्ठी शिवकी कृपासे देवता, मुनि एवं सिद्ध शिवभक्तिसे युक्त होकर अपने निवासस्थान बनाकर पत्नियोंके साथ रहते हैं। लक्ष्मी आदिका निवास बिल्ववनमें है। कश्यप आदि ककुभ वनमें रहते हैं। इन्द्र, उपेन्द्र तथा श्रेष्ठ सर्पोका निवास तालवनमें कहा गया है। कर्दम और अन्य महात्माओंका निवास उदुम्बरवनमें, विद्याधरों तथा सिद्धोंका निवास पवित्र एवं सुन्दर आम्रवनमें और नागों तथा सिद्धगणोंका निवास निम्बवनमें है। सूर्य तथा रुद्रगणोंका निवास किंशुकवनमें है। देवताओंके आचार्य पुण्यमय बीजपूरवन (बिजौरा नीबूका वन)-में निवास करते हैं। विष्णु आदि महात्माओंका वास कौमुद बनमें है ॥ ५०--६३ ॥
स्थलपदावनान्तस्थन्यग्रोधेडशेषभोगिन: ।
शेषस्त्वशेषजगतां. पतिरास्तेउतिगर्वितः ॥ ६४
स एव जगतां काल: पाताले च व्यवस्थित: ।
विष्णोर्विश्वगुरोमूर्तिदिव्य: साक्षाद्धलायुध:॥ ६५
शयनं देवदेवस्थ स हरेः कड्जूणं विभो:।
बने पनसवक्षाणां सशुक्रा दानवादयः॥ ६६
किन्नरैरुगाश्चैव विशाखकवने स्थिता:।
मनोहरवने वृक्षा: सर्वकोटिसमन्विता: ॥ ६७
नन्दीश्वरो गणवरै: स्तूयमानो व्यवस्थितः।
सन्तानकस्थलीमध्ये साक्षाद्वी सरस्वती॥ ६८
एवं सद्क्षेपत: प्रोक्ता वनेषु वनवासिन:।
असंख्याता मयाप्यत्र वक्तुं नो विस्तरेण तु॥ ६९
सर्पगण स्थलपद्मवनके अन्दर स्थित न्यग्रोधवनमें रहते हैं और जो सम्पूर्ण जगत्के पति गर्वित शेषनाग हैं बे पातालमें रहते हैं; वे ही समस्त लोकोंके काल हैं, वे विश्वगुरु विष्णुकी दिव्य मूर्ति हैं, साक्षात् हलायुध हैँ देवदेव विष्णुकी शय्या हैं और प्रभु शिवके कंकण (कंगन)-स्वरूप हैं दानव आदि शुक्राचार्यके साथ कटहलके वक्षोंके वनमें और सभी उरग किन्नरोंके साथ विशाखबन (नारिकिलवन) -में रहते हैं। विविध प्रकारकी जातियोंवाले वृक्ष उस मनोहरवनमें हैं। नन्दीश्वर भी श्रेष्ठ गणोंके द्वारा स्तुत होते हुए वहाँ विराजमान हैं। सन्तानक (कल्पवृक्ष) क्षेत्रके मध्यमें साक्षात् सरस्वती देवी रहती हैं [हे विप्रो!] इस प्रकार मैंने इन वनोंमें निवास करनेवाले लोगोंका संक्षेपमें वर्णन किया; ये असंख्य हैं, विस्तारपूर्वक इनका वर्णन करनेमें में समर्थ नहीं हूँ॥ ६४ - ६९॥
॥ श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे जम्बूद्वीपवर्णन॑ नामेकोनपउ्चाशत्तमोउध्याय: ॥ ४९ ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिंगगहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभाग में 'जम्बूद्वीपवर्ण ' नामक उनचासवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ४९ ॥
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