लिंग पुराण : पाशुपतयोग एवं शैवी दीक्षाका वर्णन तथा शिवयोगकी महिमा | Linga Purana: Description of Pashupatyoga and Shaivite initiation and glory of Shivayoga

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग बीसवाँ अध्याय

पाशुपत योग एवं शैवी दीक्षा का वर्णन तथा शिव योग की महिमा

सूठ उवाच

अथ रुद्रो महादेवो मण्डलस्थः पितामहः ।
पूज्यो वै ब्राह्मणानां च क्षत्रियाणां विशेषतः ।। १

वैश्यानां नैव शूद्राणां शुश्रूषां पूजकस्य च।
स्त्रीणां नैवाधिकारोऽस्ति पूजादिषु न संशयः ॥ २

स्त्रीशूद्राणां द्विजेन्द्रैश्च पूजया तत्फलं भवेत्।
नृपाणामुपकारार्थ ब्राह्मणाडौर्विशेषतः ।। ३

एवं सम्पूजयेयुर्वै ब्राह्मणाद्याः सदाशिवम्।
इत्युक्त्वा भगवान् रुद्रस्तत्रैवान्तरधात्स्वयम् ॥ ४

सूतजी बोले- हे ऋषिगण!] सूर्यमण्डलमें स्थित पितामह महादेव रुद्र ब्राह्मणों, क्षत्रियों तथा वैश्योंके विशेषरूपसे पूज्य हैं, वे शूद्रोंके पूज्य नहीं हैं, उन्हें तो शिवपूजककी सेवा करनी चाहिये, स्त्रियोंको भी पूजा आदिमें अधिकार नहीं है, इसमें संशय नहीं है। द्विजेन्द्रोंके द्वारा की गयी पूजासे हो स्त्रियों तथा शूद्रोंको मण्डलपूजाका फल प्राप्त हो जाता है। राजाओंके उपकारके लिये श्रेष्ठ ब्राह्मणके द्वारा विशेषरूपसे पूजा की जानी चाहिये। इस प्रकार ब्राह्मण आदिको विधिवत् सदाशिवकी पूजा करनी चाहिये-ऐसा कहकर भगवान् रुद्र वहींपर अन्तर्धान हो गये॥ १-४॥

ते देवा मुनयः सर्वे शिवमुद्दिश्य शङ्करम्। 
प्रणेमुश्च महात्मानो रुद्रध्यानेन विह्वलाः ।। ५

जग्मुर्यथागतं देवा मुनयश्च तपोधनाः।
तस्मादभ्यर्चयेन्नित्यमादित्यं शिवरूपिणम् ॥ ६

इसके बाद वे समस्त देवता तथा महान् आत्मावाले मुनिगण कल्याण करनेवाले भगवान् शंकरको उद्देश्य करके प्रणाम करने लगे। तदनन्तर देवता तथा तपोधन मुनिलोग प्रसन्न होकर रुद्रका ध्यान करते हुए जैसे आये थे, वैसे ही चले गये। अतएव धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके लिये मन-वचन-कर्मसे शिवरूप आदित्यको नित्य पूजा करनी चाहिये ॥ ५-६ ॥

धर्मकामार्थमुक्त्यर्थं मनसा कर्मणा गिरा।
रोमहर्षण सर्वज्ञ सर्वशास्त्रभृतां वर ॥ ७

व्यासशिष्य महाभाग वाहेयं वद साम्प्रतम्।
शिवेन देवदेवेन भक्तानां हितकाम्यया ॥ ८

वेदात् षडङ्गादुद्धृत्य सांख्ययोगाच्च सर्वतः ।
वेदात् षडङ्गादुद्धृत्य सांख्ययोगाच्च सर्वतः । 
तपश्च विपुलं तप्त्वा देवदानवदुश्चरम् ॥ ९

अर्थदेशादिसंयुक्तं गूढमज्ञाननिन्दितम्।
वर्णाश्रमकृतैर्धमैर्विपरीतं क्वचित्समम् ॥ १०

शिवेन कथितं शास्त्रं धर्मकामार्थमुक्तये।
शतकोटिप्रमाणेन तत्र पूजा कथं विभोः ॥ ११

ऋषिगण बोले- हे रोमहर्षण हे सर्वज्ञ! सभी शास्त्रोंका ज्ञान रखनेवाले हे व्यासशिष्य। हे महाभाग। अब आप हमें वाहेय (अग्निपुराणोक्त) शिवपूजाकी विधि बताइये। भक्तोंके कल्याणके लिये देवाधिदेव शिवने देवताओं तथा दानवोंके लिये दुश्चर कठोर तप करके षडंग वेदसे तथा सांख्ययोगसे भलीभाँति ग्रहण करके अर्थ-देश आदिसे युक्त, गूढ़, अविवेकियोंके द्वारा निन्दित, वर्णाश्रमकृत धर्मोसे कहीं-कहीं विपरीत तथा कहाँ-कहीं अनुकूल जिस शतकोटि प्रमाणवाले शास्त्रको धर्म-अर्थ-काम-मोक्षहेतु कहा है, उसमें उन सर्वव्यापी शिवकी पूजा, स्नान, योग आदिका क्या विधान है? उसे सुननेकी हमें बड़ी उत्कण्ठा है॥७-११ ॥

स्नानयोगादयो वापि श्रोतुं कौतूहलं हि नः।

सूत उवाच

पुरा सनत्कुमारेण मेरुपृष्ठे सुशोभने ॥ १२

पृष्टो नन्दीश्वरो देवः शैलादिः शिवसम्मतः । 
पृष्टोऽयं प्रणिपत्यैवं मुनिमुख्यैश्च सर्वतः ॥ १३

तस्मै सनत्कुमाराय नन्दिना कुलनन्दिना। 
कथितं यच्छिवज्ञानं शृण्वन्तु मुनिपुङ्गवाः ॥ १४

शैवं स‌ङ्क्षिप्य वेदोक्तं शिवेन परिभाषितम्। 
स्तुतिनिन्दादिरहितं सद्यः प्रत्ययकारकम् ॥ १५

गुरुप्रसादजं दिव्यमनायासेन मुक्तिदम्।

सूतजी बोले- पूर्वकालमें सनत्कुमारने अत्यन्त सुन्दर मेरुशिखरपर शिवजीके प्रिय शैलादि भगवान् नन्दीश्वरसे यही बात पूछी थी। प्रणाम करके श्रेष्ठ मुनियोंने भी इनसे ऐसा ही पूछा था। हे मुनीश्वरी! तब अपने कुलको आनन्दित करनेवाले नन्दौने उन सनत्कुमारको जिस शिवज्ञानका उपदेश किया था, उसे आपलोग सुनें। स्वयं शिवके द्वारा संक्षिप्त करके परिभाषित किया गया वह शिवज्ञान वेदप्रतिपादित, निन्दा आदिसे रहित, शीघ्र ही श्रद्धा उत्पन्न करनेवाला, गुरुकृपासे प्राप्त होनेवाला, दिव्य तथा अनायास ही मुक्ति देनेवाला है॥ १२-१५॥

सनत्कुमार उवाच

भगवन् सर्वभूतेश नन्दीश्वर महेश्वर ।॥ १६

कथं पूजादयः शम्भोर्धर्मकामार्थमुक्तये । 
वक्तुमर्हसि शैलादे विनयेनागत्ताय मे ॥ १७

सूत उवाच

सम्प्रेक्ष्य भगवान्नन्दी निशम्य वचनं पुनः। 
कालवेलाधिकाराद्यमवदद्वदतां वरः ॥ १८

शैलादिस्याच

गुरुतः शास्वतश्चैवमधिकारं ब्रवीम्यहम्। 
गौरवादेव संज्ञैषा शिवाचार्यस्य नान्यथा ॥ १९

स्वयमाचरते यस्तु आचारे स्थापयत्यपि। 
आचिनोति च शास्वार्थानाचार्यस्तेन चोच्यते ॥ २०

सनत्कुमार बोले- हे भगवन्! हे सर्वभूतेश। हे नन्दीश्वर। हे महेश्वर। धर्म, अर्थ, काम और मोक्षके लिये शिवको पूजा आदिका क्या विधान है? हे शैलादे। विनम्रतापूर्वक मुझ आये हुएको यह बतानेकी कृपा कीजिये सूतजी बोले- [हे मुनीश्वरो ! उनकी ओर देखकर यथा पुनः उनका वचन सुनकर वक्ताओंमें श्रेष्ठ भगवान् नन्दी समुचित समय उपस्थित जानकर उनसे कहने लगे शैलादि बोले-गुरु तथा शास्त्रसे प्राप्त ज्ञानके आधारपर मैं अधिकार (पात्रता) के विषयमें बता रहा हूँ। गौरवके कारण ही शिवशास्त्रके आचार्यकी 'गुरु'- यह संज्ञा होती है, इसके विपरीत नहीं। जो स्वयं आचरण करता है, [दूसरोंको भी] आचारमें स्थापित करता है तथा शास्त्रके अर्थज्ञानका संग्रह करता है, वह आचार्य कहा जाता है॥ १६-२० ॥

तस्माद्वेदार्थतत्त्वज्ञमाचार्य भस्मशायिनम् । 
गुरुमन्वेषयेद्भक्तः सुभगं प्रियदर्शनम् ॥ २१

प्रतिपन्नं जनानन्दं श्रुतिस्मृतिपथानुगम् । 
विद्ययाभयदातारं लौल्यचापल्यवर्जितम् ॥ २२

आचारपालकं धीरं समयेषु कृतास्पदम् । 
तं दृष्ट्वा सर्वभावेन पूजयेच्छिववद्गुरुम् ॥ २३

आत्मना च धनेनैव श्रद्धावित्तानुसारतः । 
तावदाराधयेच्छिष्यः प्रसन्नोऽसौ यथा भवेत् ॥ २४

सुप्रसन्ने महाभागे सद्यः पाशक्षयो भवेत्। 
गुरुर्मान्यो गुरुः पूज्यो गुरुरेव सदाशिवः ॥ २५ 

अतः भक्तको चाहिये कि वह वेदार्थतत्त्वज्ञ, भस्म धारण करनेवाले, सुशील, प्रिय दर्शनवाले, सम्मानित लोगोंको आनन्दित करनेवाले, श्रुति तथा स्मृतिमें प्रतिपादित मार्गका अनुसरण करनेवाले, विद्यासे अभय प्रदान करनेवाले, लालच तथा चपलतासे रहित, आचारका पालन करनेवाले, धैर्यशाली तथा सन्ध्या आदिकालोंमें समुचित स्थानपर स्थित रहनेवाले आचार्यं गुरुका अन्वेषण करे। उस गुरुको प्राप्त करके अनन्य भावसे शिवकी ही भाँति उनका पूजन करना चाहिये। शिष्यको चाहिये कि वह शरीरसे, धनसे तथा श्रद्धा-विश्वासके अनुसार गुरुकी वैसी सेवा करे, जिससे वे प्रसन्न हो जायें। महाभाग गुरुके प्रसन्न हो जानेपर शीघ्र पाश (बन्धन) का क्षय हो जाता है। गुरु मान्य हैं, गुरु पूज्य हैं, गुरु साक्षात् सदाशिव ही हैं ॥ २१-२५॥

संवत्सरत्रयं वाथ शिष्यान् विप्रान् परीक्षयेत् । 
प्राणद्रव्यप्रदानेन आदेशैश्च इतस्ततः ॥ २६

उत्तमश्चाधमे योज्यो नीच उत्तमवस्तुषु। 
आकृष्टास्ताडिता वापि ये विषादं न यान्ति वै ।। २७

ते योग्याः शिवधर्मिष्ठाः शिवधर्मपरायणाः । 
संयता धर्मसम्पन्नाः श्रुतिस्मृतिपथानुगाः ॥ २८

सर्वद्वन्द्वसहा धीरा नित्यमुद्युक्तचेतसः । 
परोपकारनिरता गुरुशुश्रूषणे रत्ताः ।। २९

आर्जवा मार्दवाः स्वस्था अनुकूलाः प्रियंवदाः। 
अमानिनों बुद्धिमन्तस्त्यक्तस्पर्धा गतस्पृहाः ।। ३०

शौचाचारगुणोपेता दम्भमात्सर्यवर्जिताः । 
योग्या एवं द्विजाः सर्वे शिवभक्तिपरायणाः ॥ ३१

एवंवृत्तसमोपेता वाङ्मनः कायकर्मभिः । 
शोध्या एवंविधाश्चैव तत्त्वानां च विशुद्धये ॥ ३२

शुद्धो विनयसम्पन्नो मिथ्याकटुकवर्जितः । 
गुर्वाज्ञापालकश्चैव शिष्योऽनुग्रहमर्हति ॥ ३३

गुरुको भी चाहिये कि प्रिय वस्तुके प्रदानसे तथा इधर-उधर अनेक कार्योंके लिये आदेशोंद्वारा तीन वर्षीतक ब्राह्मण-शिष्योंकी परीक्षा करे। उत्तम [शिष्य] को अधम कार्यमें तथा अधमको उत्तम कार्योंमें नियुक्त करना चाहिये। गुरुके द्वारा आकृष्ट तथा ताड़ित होनेपर भी जो शिष्य विषादको प्राप्त नहीं होते, वे ही शिवधर्मके अधिकारी हैं। शिवधर्मिष्ठ, शिवधर्मपरायण, जितेन्द्रिय, धर्मसम्पन्न, श्रुति-स्मृतिके मार्गका अनुसरण करनेवाले,[सुख-दुःख आदि] सभी द्वन्द्वोंको सहनेवाले, धैर्यशाली, सदा उद्योगशील चित्तवाले, परोपकारमें लगे रहनेवाले, गुरुसेवामें निरत, सरल तथा मृदु स्वभाववाले, स्वस्यचित्त, गुरुके अनुकूल, प्रिय बोलनेवाले, मानरहित, बुद्धिसम्पन्न, स्पर्धाविहीन, कामनाशून्य, शौच-आचार आदि गुणोंसे युक्त, दम्भ तथा मात्सयंसे विहीन इस प्रकारके शिवभक्तिपरायण सभी द्विज शिष्य होनेके अधिकारी हैं। [इन्द्रिय आदि चौबीस] तत्त्वोंकी शुद्धिके लिये मन- वाणी-कर्मसे इन आचरणोंसे सम्पन्न इस प्रकारके शिष्योंका शोधन करना चाहिये। शुद्ध हृदयवाले, विनयसे सम्पन्न, मिथ्या तथा कटुभाषणसे रहित और गुरुकी आज्ञाका पालन करनेवाला शिष्य ही गुरुकृपाके योग्य होता है॥ २६-३३॥

गुरुश्च शास्त्रवित्प्राज्ञस्तपस्वी जनवत्सलः ।
लोकाचाररतो होवं तत्त्वविन्मोक्षदः स्मृतः ।। ३४

सर्वलक्षणसम्पन्नः सर्वशास्त्रविशारदः ।
सर्वोपायविधानज्ञस्तत्त्वहीनस्य निष्फलम् ।। ३५

स्वसंवेद्ये परे तत्त्वे निश्चयो यस्य नात्मनि।
आत्मनोऽनुग्रहो नास्ति परस्यानुग्रहः कथम् ॥ ३६

प्रबुद्धस्तु द्विजो यस्तु स शुद्धः साधयत्यपि।
तत्त्वहीने कुतो बोधः कुतो ह्यात्मपरिग्रहः ॥ ३७

परिग्रहविनिर्मुक्तास्ते सर्वे पशवोदिताः।
पशुभिः प्रेरिता ये तु सर्वे ते पशवः स्मृताः ॥ ३८

तस्मात्तत्त्वविदो ये तु ते मुक्ता मोचयन्त्यपि।
संवित्तिजननं तत्त्वं परानन्दसमुद्भवम् ॥ ३९

तत्त्वं तु विदितं येन स एवानन्ददर्शकः।
न पुनर्नाममात्रेण संवित्तिरहितस्तु यः ॥ ४०

अन्योन्यं तारयेन्नैव किं शिला तारयेच्छिलाम् ।
येषां तन्नाममात्रेण मुक्तिर्वै नाममात्रिका ॥ ४१

शास्त्रज्ञ, बुद्धिमानु, तपस्वी, लोकप्रिय, लोकाचारमें रत तथा तत्त्वज्ञानी गुरु मोक्ष देनेमें समर्थ बताया गया है। गुरु सभी लक्षणोंसे सम्पन्न, समस्त शास्त्रोंमें निष्णात तथा सभी उपायोंके विधानको जाननेवाला भी हो, किंतु यदि वह आत्म ज्ञान से रहित हो, तो सब कुछ निष्फल है। स्वयं अनुभूत किये जानेवाले परात्मतत्त्वमें जिसकी निश्चित धारणा न हो, उसका अपना ही कल्याण नहीं है, तो उसके द्वारा दूसरेका कल्याण कैसे सम्भव है? जो आत्मज्ञानी द्विज है, वह स्वयं शुद्ध है और दूसरोंको भी शुद्ध कर देता है। तत्त्वहीन गुरुमें बोध कहाँसे होगा और उसका आत्मोद्धार कैसे होगा। जो आत्मज्ञानसे रहित हैं, वे सब पशु कहे गये हैं। पशुतुल्य द्विजके द्वारा जो शिष्य ज्ञानप्रेरित किये जाते हैं, वे सब भी पशु ही कहे गये हैं। अतः जो लोग तत्त्ववेत्ता हैं, वे ही मुक्त हैं और दूसरोंको भी मुक्त कर सकते हैं। आत्मबोध उत्पन्न करनेवाला तत्त्व परानन्दको उत्पन्न करता है। उस तत्त्वको जिसने जान लिया, वही परमानन्दका दर्शन करानेमें समर्थ है, नाममात्रका गुरु ऐसा नहीं कर सकता। जो आत्मज्ञानविहीन है, वह दूसरेको कभी नहीं तार सकता, क्या [कोई] शिला दूसरी शिलाको [नदी आदिसे] पार करा सकती है। जिनका नाममात्रका ज्ञान है, उनकी मुक्ति भी नाममात्रकी होती है॥ ३४-४१ ॥

योगिनां दर्शनाद्वापि स्पर्शनाद्भाषणादपि। 
सद्यः सञ्जायते चाज्ञा पाशोपक्षयकारिणी ॥ ४२

अथवा योगमार्गेण शिष्यदेहं प्रविश्य च। 
बोधयेदेव योगेन सर्वतत्त्वानि शोध्य च ॥। ४३

षडर्थशुद्धिर्विहिता ज्ञानयोगेन योगिनाम्। 
शिष्यं परीक्ष्य धर्मज्ञं धार्मिकं वेदपारगम् ।। ४४

ब्राह्मणं क्षत्रियं वैश्यं बहुदोषविवर्जितम्। 
ज्ञानेन ज्ञेयमालोक्य कर्णात्कर्णागतेन तु ॥ ४५

योगियोंके दर्शन, स्पर्श तथा भाषणमात्रसे ही बन्धनका नाश करनेवाला अनुग्रह शीघ्र ही होता है। अथवा गुरुको योगमार्गसे शिष्यके देहमें प्रवेश करके योगके द्वारा सभी तत्त्वोंका शोधन करके शिष्यको ज्ञान प्रदान करना चाहिये। योगियोंके लिये ज्ञानयोगसे तीन गुणोंकी शुद्धि विहित है। गुरुको चाहिये कि धर्मको जाननेवाले, धर्मपरायण, बेदमें पारंगत तथा समस्त दोषोंसे रहित ब्राह्मण, क्षत्रिय अथवा वैश्य शिष्यकी सम्यक् परीक्षा करके ज्ञानसे ज्ञेयको देखकर गुरुपरम्परासे प्राप्त मार्गक द्वारा एक दीपकसे दूसरे दीपककी भाँति विधिपूर्वक उसे बोधमय करे ॥ ४२-४५ ॥

दीपाद्दीपो यथा चान्यः सञ्चरेद्विधिवद्गुरुः । 
भौवनं च पदं चैव वर्णाख्यं मात्रमुत्तमम् ॥ ४६

कालाध्वरं महाभाग तत्त्वाख्यं सर्वसम्मतम्।
भिद्यते यस्य सामर्थ्यादाज्ञामात्रेण सर्वतः ॥ ४७

तस्य सिद्धिश्च मुक्तिश्च गुरुकारुण्यसम्भवा । 
पृथिव्यादीनि भूतानि आविशन्ति च भौवने ॥ ४८

शब्दः स्पर्शस्तथा रूपं रसो गन्धश्च भावतः । 
पदं वर्णाख्यकं विप्र बुद्धीन्द्रियविकल्पनम् ।। ४९

कर्मेन्द्रियाणि मात्रं हि मनो बुद्धिरतः परम्। 
अहङ्कारमथाव्यक्तं कालाध्वरमिति स्मृतम् ॥ ५०

पुरुषादिविरिञ्च्यन्तमुन्मनत्वं परात्परम् । 
तथेशत्वमिति प्रोक्तं सर्वतत्त्वार्थबोधकम् ॥ ५१

अयोगी नैव जानाति तत्त्वशुद्धिं शिवात्मिकाम् ॥ ५२

भौवन, पद, वर्ण, मात्रा एवं कालाध्वरसंज्ञक- ये तत्त्व सर्वसम्मत एवं उत्तम हैं। हे महाभाग सनत्कुमार। गुरुके आज्ञामात्रके प्रभावसे जिस शिष्यकी इन तत्त्वोंकी संसारोन्मुखता नष्ट हो जाती है, उसी शिष्यको गुरुकारुण्यसमुत्पन्न सिद्धि और मुक्ति मिल जाती है। पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश- ये पंचमहाभूत भौवन पदवाच्य है अथवा इनका समावेश भौवनमें होता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गन्ध ये अपने स्वभावसे पद कहलाते हैं। हे विप्र। श्रोत्र, त्वक्, नेत्र,जिह्वा, प्राण-ये पंचज्ञानेन्द्रियाँ वर्णसंज्ञक हैं। वाकू,पाणि, पाद, पायु, उपस्थ-ये पाँचों कर्मेन्द्रियाँ मात्रसंज्ञक हैं। मन, बुद्धि, चित्त, अहंकार इस अन्तःकरण- चतुष्टयको कालाध्वर कहा गया है। मानवीय आनन्दसे लेकर ब्रह्मानन्दपर्यन्त [ब्रह्मापदपर्यन्त] उन्मनी अवस्था [अमनस्कत्व] श्रेष्ठसे श्रेष्ठतर है तथा सर्वतत्त्व- प्रकाशक ईशत्व इनसे भी श्रेष्ठ कहा गया है। इस कल्याणस्वरूपा तत्त्वशुद्धिको योगज्ञानशून्य प्राणी नहीं जानता है॥ ४६-५२ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शिवपूजनोपायवर्णर्न नाम विंशोऽध्यायः ॥ २० ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शिवपूजनोपायवर्णन' नामक बीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ २० ॥

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