लिंग पुराण : शरीर में स्थित योगस्थानों (चक्रों) का वर्णन, योगका स्वरूप |

लिंग पुराण : आठवाँ अध्याय

शरीर में स्थित योगस्थानों (चक्रों) का वर्णन, योगका स्वरूप, अष्टांगयोगका वर्णन, विषय भोगों की निस्सारता, प्राणायाम की महिमा, सदा शिव के ध्यान का स्वरूप

सूत्त उवाच

सक्षेपतः प्रवक्ष्यामि योगस्थानानि साम्प्रतम् । 
कल्पितानि शिवेनैव हिताय जगतां द्विजाः ॥ १

गलादधो वितस्त्या यन्नाभेरुपरि चोत्तमम् । 
योगस्थानमधो नाभेरावर्त मध्यमं भुवोः ॥ २

सर्वार्थज्ञाननिष्पत्तिरात्मनो योग उच्यते। 
एकाग्रता भवेच्चैव सर्वदा तत्प्रसादतः ॥ ३

प्रसादस्य स्वरूपं यत्स्वसंवेद्यं द्विजोत्तमाः । 
वक्तुं न शक्यं ब्रह्माद्यैः क्रमशो जायते नृणाम् ॥ ४

योगशब्देन निर्वाणं माहेशं पदमुच्यते। 
तस्य हेतुऋषेर्ज्ञानं ज्ञानं तस्य प्रसादतः ॥ ५

ज्ञानेन निर्दहेत्पापं निरुध्य विषयान् सदा।
निरुद्धेन्द्रियवृत्तेस्तु योगसिद्धिर्भविष्यति ॥ ६

सूतजी बोले- है द्विजो ! अब मैं भगवान् शंकरके द्वारा जगत्के हितार्थ कल्पित किये गये योगस्थानोंका संक्षेपमें वर्णन करूँगा गले से नीचे तथा नाभिसे ऊपरका वितस्ति (बारह अँगुल) परिमाणवाला [इत्कमल नामक स्थान योगके लिये उत्तम स्थान है। इसी प्रकार नाभिसे नीचे मूलाधार नामक तथा दोनों भृकुटियोंके मध्यमें आवर्त [आज्ञाचक्र] नामक स्थान भी योगस्थान है॥२॥ जीवको परमार्थ तत्त्वका ज्ञान प्राप्त होना ही योग कहा जाता है और चित्तकी एकाग्रता सर्वदा उन्हीं  शिवके अनुग्रहसे होती है हे श्रेष्ठ द्विजी। उस अनुग्रहका स्वरूप स्वसंवेद्य है अर्थात् स्वानुभूतिका विषय है। ब्रह्मा आदि भी उस स्वरूपका वर्णन नहीं कर सकते। मनुष्य धीरे-धीरे उस स्वरूपको योगके माध्यमसे जान लेता है योगसाधनासे प्राप्त निर्वाण माहेश्वर पद कहा जाता है। उस निर्वाणका हेतु रुद्रका ज्ञान हो जाना ही है और वह ज्ञान उन्होंकी कृपासे होता है जो सभी इन्द्रियोंको नियन्त्रित करके उस ज्ञानसे पापोंको जला डालता है, इन्द्रियोंकी वृत्तियोंपर नियन्त्रण रखनेवाले उस प्राणीको योगकी सिद्धि अवश्य होती है ॥ १ - ६ ॥

योगो निरोधो वृत्तेषु चित्तस्य द्विजसत्तमाः । 
साधनान्यष्टधा चास्य कथितानीह सिद्धये ॥ ७

यमस्तु प्रथमः प्रोक्तो द्वितीयो नियमस्तथा। 
तृतीयमासनं प्रोक्तं प्राणायामस्ततः परम् ॥ ८

प्रत्याहारः पञ्चमो वै धारणा च ततः परा। 
ध्यानं सप्तममित्युक्तं समाधिस्त्वष्टमः स्मृतः ॥ ९

तपस्युपरमश्चैव यम इत्यभिधीयते । 
अहिंसा प्रथमो हेतुर्यमस्य यमिनां वराः ॥ १०

सत्यमस्तेयमपरं ब्रह्मचर्यापरिग्रहौ। 
नियमस्यापि वै मूलं यम एव न संशयः ॥ ११

आत्मवत्सर्वभूतानां हितायैव प्रवर्तनम् । 
अहिंसैषा समाख्याता या चात्मज्ञानसिद्धिदा ॥ १२

हे श्रेष्ठ ब्राह्मणो! चित्तकी वृत्तियोंपर नियन्त्रण करना ही योग है। सिद्धिप्राप्तिके लिये इस योगके आठ प्रकारके साधन यहाँ बताये गये हैंपहला साधन यम, दूसरा नियम, तीसरा आसन, चौथा प्राणायाम, पाँचवाँ प्रत्याहार, छठाँ धारणा, सातवाँ ध्यान तथा आठवाँ साधन समाधि कहा गया है तपमें प्रवृत्ति तथा विषय-भोगोंसे निवृत्तिको यम कहते हैं। यमकी साधना करनेवालोंमें श्रेष्ठ हे मुनियो ! यमका प्रथम हेतु अहिंसा है। पुनः सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य तथा अपरिग्रह भी यमके आधार हैं। नियमका भी मूल यही यम है; इसमें कोई संदेह नहीं है।सभी प्राणियोंमें आत्मवत् दृष्टि रखकर उनके हितके लिये प्रवृत्त रहनेको अहिंसा कहा गया है। इस अहिंसासे आत्मज्ञानकी सिद्धि प्राप्त होती है॥ ७ - १२॥

दृष्टं श्रुतं चानुमितं स्वानुभूतं यथार्थतः। 
कथनं सत्यमित्युक्तं परपीडाविवर्जितम् ।। १३

नाश्लीलं कीर्तयेदेवं ब्राह्मणानामिति श्रुतिः । 
परदोषान् परिज्ञाय न वदेदिति चापरम् ॥ १४

अनादानं परस्वानामापद्यपि विचारतः । 
मनसा कर्मणा वाचा तदस्तेयं समासतः ॥ १५

मैथुनस्याप्रवृत्तिर्हि मनोवाक्कायकर्मणा। 
ब्रह्मचर्यमिति प्रोक्तं यतीनां ब्रह्मचारिणाम् ॥ १६

इह वैखानसानां च विदाराणां विशेषतः । 
सदाराणां गृहस्थानां तथैव च वदामि वः ॥ १७

स्वदारे विधिवत्कृत्वा निवृत्तिश्चान्यतः सदा। 
मनसा कर्मणा वाचा ब्रह्मचर्यमिति स्मृतम् ॥ १८

मेध्या स्वनारी सम्भोगं कृत्वा स्नानं समाचरेत्। 
एवं गृहस्थो युक्तात्मा ब्रह्मचारी न संशयः ॥ १९

अहिंसाप्येवमेवैषा द्विजगुर्वग्निपूजने । 
विधिना तादृशी हिंसा सा त्वहिंसा इति स्मृता ।। २०

जैसा देखा गया हो, सुना गया हो, अनुमान किया गया हो तथा स्वयं अनुभव किया गया हो उसे ठीक उसी तरहसे दूसरोंको कष्ट न पहुँचाते हुए कह देना ही 'सत्य' कहा जाता है ब्राह्मण तथा वेद ऐसा कहते हैं कि अश्लील बातें नहीं करनी चाहिये और दूसरोंके दोष जानकर भी उसे अन्य व्यक्तिसे नहीं कहना चाहिये  विपत्तिकालमें भी विचारपूर्वक मन, वचन तथा कर्मसे दूसरोंका द्रव्य न लेना ही संक्षेपमें अस्तेय (चोरी न करना) कहा जाता है  यतियों, ब्रह्मचारियों तथा विशेष रूपसे पत्नीरहित संन्यासियोंके द्वारा मन, वचन तथा कर्मसे मैथुनमें प्रवृत्ति न रखना उनके लिये ब्रह्मचर्य कहा गया है। पलीयुक्त गृहस्थोंके (ब्रह्मचर्यके) विषयमें मैं अब आपलोगोंको बताता हूँ। मन, वाणी तथा कर्मसे परनारीमें सदा भोगकी प्रवृत्ति न रखते हुए अपनी पत्नीके साथ उचित समयपर प्रसंग करना ब्रह्मचर्य कहा गया है यद्यपि अपनी स्त्री भोगकालमें पवित्र होती है, फिर भी उसके साथ संभोगके अनन्तर स्नान कर लेना चाहिये। ऐसा करनेवाला पवित्रात्मा गृहस्थ निःसंदेह ब्रह्मचारी ही कहा जाता है  [जैसे शास्त्रविहित स्वदाराप्रवृत्त गृहस्थ ब्रह्मचारी ही है, ठीक वैसे ही] द्विज, गुरु, अग्नि (यज्ञ), पूजन के निमित्त शास्त्रविहित की गयी हिंसा भी अहिंसा ही मानी जाती है॥ १३ - २०॥ 

स्त्रियः सदा परित्याज्याः सङ्गं नैव च कारयेत् । 
कुणपेषु यथा चित्तं तथा कुर्याद्विचक्षणः ॥ २१

विण्मूत्रोत्सर्गकालेषु बहिर्भूमौ यथामतिः। 
तथा कार्या रतौ चापि स्वदारे चान्यतः कुतः ॥ २२

अङ्गारसदृशी नारी घृतकुम्भसमः पुमान्। 
तस्मान्नारीषु संसर्ग दूरतः परिवर्जयेत् ॥ २३

भोगेन तृप्तिनैवास्ति विषयाणां विचारतः। 
तस्माद्विरागः कर्तव्यो मनसा कर्मणा गिरा ॥ २४

न जातु कामः कामानामुपभोगेन शाम्यति। 
हविषा कृष्णवत्र्मेव भूय एवाभिवर्धते ॥ २५

स्त्रियों का सदैव त्याग करना चाहिये। उनके सान्निध्यसे बचना चाहिये। बुद्धिमान् पुरुषको स्त्रियोंमें वही वृत्ति रखनी चाहिये, जैसी चित्तवृत्ति शवमें रखी जाती है जमीनपर मल तथा मूत्रके त्यागके समय जैसी मनःस्थिति होती है, वैसी ही मनोदशा अपनी पत्नीके साथ संभोगकालमें बनानी चाहिये, फिर अन्यकी तो बात ही क्या। स्त्री प्रज्वलित अंगारके समान तथा पुरुष घौके घड़ेके समान होता है, अतएव दूरसे ही नारियोंका संसर्ग छोड़ देना चाहिये विषयोंके भोगसे इन्द्रियोंकी तृप्ति नहीं होती, अतएव विचारपूर्वक मन, वाणी तथा कर्मसे भोगोंके प्रति विरक्तिका भाव रखना चाहिये विषयोंके उपभोगसे कामनाओंकी शान्ति कभी भी नहीं होती है। यह कामना आहुति डालनेपर अग्निको भाँति पुनः बढ़ती ही जाती है॥ २१ - २५ ॥

तस्मात्त्यागः सदा कार्यस्त्वमृतत्वाय योगिना। 
अविरक्तो यतो मर्यो नानायोनिषु वर्तते ॥ २६

त्यागेनैवामृतत्वं हि श्रुतिस्मृतिविदां वराः। 
कर्मणा प्रजया नास्ति द्रव्येण द्विजसत्तमाः ॥ २७

तस्माद्विरागः कर्तव्यो मनोवाक्कायकर्मणा।
ऋतौ ऋती निवृत्तिस्तु ब्रह्मचर्यमिति स्मृतम् ॥ २८

यमाः सङ्क्षेपतः प्रोक्ता नियमांश्च वदामि वः । 
शौचमिज्या तपो दानं स्वाध्यायोपस्थनिग्रहः ॥ २९

व्रतोपवासमीनं च स्नानं च नियमा दश। 
नियमः स्यादनीहा च शौचं तुष्टिस्तपस्तथा ॥ ३०

जपः शिवप्रणीधानं पद्मकाद्यं तथासनम् । 
बाह्यमाभ्यन्तरं प्रोक्तं शौचमाभ्यन्तरं वरम् ॥ ३१

अतः योगी को अमृतत्व-प्राप्तिके निमित्त भोगों का सदाके लिये त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि मनुष्य वैराग्य-वृत्ति न रखनेके कारण अनेक योनियोंमें जन्म लेता रहता है श्रुतियों तथा स्मृतियेकि ज्ञाताओंमें श्रेष्ठ हे मुनीश्वरो ! त्यागसे ही अमृतत्वकी प्राप्ति सम्भव है। कर्मसे, सन्तानसे तथा द्रव्य आदि किसी भी साधनसे अमृतत्वकी प्राप्ति नहीं हो सकती  इसीलिये सद्‌गृहस्थ प्राणीको चाहिये कि वह मनसा, वाचा, कर्मणा विषयोंसे राग-निवृत्ति करें; क्योंकि ऋतुकालको छोड़कर समागमकी अनाकांक्षाको भी ब्रह्मचर्य कहा गया है [हे मुनियो!] मैंने संक्षेपमें यमोंके विषयमें बता दिया और अब आपलोगोंसे नियमोंका वर्णन करता हूँ। शौच, यज्ञ, तप, दान, स्वाध्याय, इन्द्रियनिग्रह, व्रत, उपवास, मौन तथा स्नान ये दस प्रकारके नियम हैं। आकांक्षाराहित्य, शुचिता, सन्तुष्टि, तप, जप एवं भगवान् शिवसे सम्बन्ध स्थापित करना तथा पद्मासन आदि-ये नियम हैं शुचिता बाह्य तथा आभ्यन्तर-भेदसे दो प्रकारकी कही गयी है, उसमें भी आन्तरिक शुचिता श्रेष्ठ है। साधकको बाह्य पवित्रता से युक्त होकर आन्तरिक पवित्रताके लिये प्रयास करना चाहिये ॥ २६ - ३१ ॥

बाह्यशौचेन युक्तः संस्तथा चाभ्यन्तरं चरेत्। 
आग्नेयं वारुणं ब्राहां कर्तव्यं शिवपूजकैः ।। ३२

स्नानं विधानतः सम्यक् पश्चादाभ्यन्तरं चरेत् । 
आदेहान्तं मृदालिप्य तीर्थतोयेषु सर्वदा ॥ ३३

अवगाह्यापि मलिनो ह्यन्तश्शौचविवर्जितः । 
शैवला झषका मत्याः सत्त्वा मत्स्योपजीविनः ।। ३४

सदावगाह्यः सलिले विशुद्धाः किं द्विजोत्तमाः । 
तस्मादाभ्यन्तरं शौचं सदा कार्य विधानतः ॥ ३५

आत्मज्ञानाम्भसि स्नात्वा सकृदालिप्य भावतः । 
सुवैराग्यमृदा शुद्धः शौचमेवं प्रकीर्तितम् ॥ ३६

शुद्धस्य सिद्धयो दृष्टा नैवाशुद्धस्य सिद्धयः । 
न्यायेनागतया वृत्त्या सन्तुष्टो यस्तु सुव्रतः ॥ ३७

सन्तोषस्तस्य सततमतीतार्थस्य चास्मृतिः । 
चान्द्रायणादिनिपुणस्तपांसि सुशुभानि च ॥ ३८

स्वाध्यायस्तु जपः प्रोक्तः प्रणवस्य त्रिधा स्मृतः ।
वाचिकश्चाधमो मुख्य उपांशुश्चोत्तमोत्तमः ॥ ३९

मानसो विस्तरेणैव कल्पे पञ्चाक्षरे स्मृतः। 
तथा शिवप्रणीधानं मनोवाक्कायकर्मणा ॥ ४०

शिवज्ञानं गुरोर्भक्तिरचला सुप्रतिष्ठिता।
निग्रहो ह्यपहृत्याशु प्रसक्तानीन्द्रियाणि च ॥ ४१

विषयेषु समासेन प्रत्याहारः प्रकीर्तितः । 
चित्तस्य धारणा प्रोक्ता स्थानबन्धः समासतः ॥ ४२

शिवपूज कों को चाहिये कि वे विधिपूर्वक भस्मस्नान, जलस्नान तथा मन्त्रस्नान सम्पन्न करनेके पश्चत् आभ्यन्तर शुचिताका सम्पादन करें; क्योंकि सम्पूर्ण शरीरमें पवित्र मृत्तिकाका लेपन करके सर्वदा पवित्र तीर्थके जलमें अवगाहन करनेवाला भी अन्तः शौचके बिना मलिन ही रहता है हे द्विजोत्तमौ ! सदा जलमें रहनेपर भी शैवाल, झषक (मगरमच्छ), मत्स्य और मत्स्यजीवी (मछुआरे) क्या कभी पवित्र हुए हैं? इसीलिये सदा विधिपूर्वक आन्तरिक पवित्रताका सम्पादन करना चाहिये शरीरपर एक बार ब्रद्धापूर्वक वैराग्यरूपी मृत्तिकाका लेपन करके आत्म-ज्ञानरूपी जलमें स्नान करके शुद्ध हो जानेको अन्तःशौच कहा गया है। शुद्ध पुरुषको हो सिद्धियाँ मिलती हैं, अशुद्ध पुरुषको कभी नहीं मिलतीं  जो व्रती पुरुष न्यायपूर्वक अर्जित किये गये धनसे संतुष्ट रहता है और गये धनके विषयमें चिन्तन नहीं करता, वह सन्तोषी कहा जाता है। चान्द्रायण आदि व्रतोंका निपुणतापूर्वक आचरण करना शुभ तप कहा गया है प्रणवका जप स्वाध्याय कहा जाता है और वह जप तीन प्रकारका कहा गया है। वाचिक जप अधम, उपांशु (मन्द स्वरात्मक) जप मुख्य (उत्तम) तथा मानस जप उत्तमोत्तम है, जो पंचाक्षर कल्पमें विस्तारसे बताये गये हैं। इस प्रकार मन, वचन तथा शारीरिक क्रियाओंसे शिवका प्रणीधान और गुरुके प्रति निश्चल तथा प्रतिष्ठित भक्तिको शिव-ज्ञान कहा गया है। विषयोंमें आसक्त इन्द्रियोंको शीघ्र ही उनसे हटाकर इन्द्रियोंपर नियन्त्रण करनेको संक्षेपमें प्रत्याहार कहा गया है और हृदय आदि स्थानोंमें चित्तको रोकनेकी क्रिया संक्षेपमें धारणा कहाँ गयी है॥ ३२-४२॥

तस्याः स्वास्थ्येन ध्यानं च समाधिश्च विचारतः । 
तत्रैकचित्तता ध्यानं प्रत्ययान्तरवर्जितम् ।। ४३

चिद्धासमर्थमात्रस्य देहशून्यमिव स्थितम्। 
समाधिः सर्वहेतुश्च प्राणायाम इति स्मृतः ॥ ४४

प्राणः स्वदेहजो वायुर्यमस्तस्य निरोधनम् । 
त्रिधा द्विजैर्यमः प्रोक्तो मन्दो मध्योत्तमस्तथा ॥ ४५

प्राणापाननिरोधस्तु प्राणायामः प्रकीर्तितः । 
प्राणायामस्य मानं तु मात्राद्वादशकं स्मृतम् ॥ ४६

नीचो द्वादशमात्रस्तु उद्घातो द्वादशः स्मृतः । 
मध्यमस्तु द्विरुद्धातश्चतुर्विंशतिमात्रकः ।। ४७

मुख्यस्तु यस्त्रिरुद्धातः षट्त्रिंशन्मात्र उच्यते। 
प्रस्वेदकम्पनोत्थानजनकश्च यथाक्रमम् ॥ ४८

स्वस्थचित्तता से उसी धारणाकी स्थिरता ही ध्यान है, जो विचारणा पूर्वक समाधि में परिणत हो जाता है। ध्येय विषय में चित्तकी एकाग्रता ही ध्यान है और इस स्थितिमें चित्त अन्य वृत्तियोंसे रहित हो जाता है चैतन्यस्वरूप ध्येयमात्र से भासित होनेवाला और इस प्रकार देहशून्यताकी स्थितिको प्राप्त वह ध्यान ही समाधि है और प्राणायामको इन समस्त ध्यान-समाधि आदिका हेतु कहा गया है। अपने शरीरसे जायमान वायु ही प्राण है और उसे रोकनेको यम कहते हैं। द्विजोंने मन्द, मध्य तथा उत्तम ये तीन प्रकारके यम बतलाये हैं प्राण और अपान वायुका निरोध ही प्राणायाम कहलाता है। मन्द प्राणायाम का मान बारह मात्राओंका कहा गया है। बारह लघु अक्षरों के उच्चारण काल तक प्राणवायुको रोकना मन्द प्राणायाम या द्वादशमात्रात्मक प्राणायाम बताया गया है। उसके दुगुने उच्चारणकाल अर्थात् चौबीस मात्राओंके समयतक प्राणवायुके निरोधनको मध्यम प्राणायाम कहते हैं। इसी प्रकार तीन गुने उच्चारणकाल अर्थात् छत्तीस मात्राओं के उच्चारणकालतक प्राणवायु को रोकने को उत्तम प्राणायाम कहा जाता है। मन्द, मध्य तथा उत्तम प्राणायाम शरीरमें क्रमशः प्रस्वेद (पसीना), कम्पन तथा उत्थान (ऊपर उठनेकी क्रिया) उत्पन्न करने वाले हैं ॥ ४३-४८ ॥

आनन्दोद्धवयोगार्थ निद्राघूर्णिस्तथैव च। 
रोमाञ्चध्वनिसंविद्धस्वाङ्गमोटनकम्पनम् ॥ ४९

भ्रमणं स्वेदजन्या सा संविन्मूर्छा भवेद्यदा। 
तदोत्तमोत्तमः प्रोक्तः प्राणायामः सुशोभनः ॥ ५०

सगर्थोऽगर्भ इत्युक्तः सजपो विजपः क्रमात्। 
इभो वा शरभो वापि दुराधर्षोऽथ केसरी ॥ ५१

गृहीतो दम्यमानस्तु यथास्वस्थस्तु जायते।
तथा समीरणोऽस्वस्थो दुराधर्षश्च योगिनाम् ॥ ५२

आनन्द की उत्पत्ति करनेवाले योगको प्राप्तिके लिये किये जानेवाले प्राणायामसे निद्रा, घूर्णन, रोमांच तथा ध्वनिसे व्याप्त कम्पन शरीरके अंगोंमें उत्पन्न हो जाता है जब निरन्तर प्राणायामके अभ्याससे उत्पन्न उष्णतावश] स्वेदबिन्दु [पसीना] झलकने लगे, संविन्मूर्च्छा- ज्ञानमयी उन्मनी अवस्था आने लगे, सहसा शरीर हलका होकर प्लवन [जलमें तैरने जैसी स्थिति]- जैसी अवस्थाका अनुभव करे, तब इस सुशोभन अवस्थाको उत्तमोत्तम प्राणायाम कहा गया है  सगर्भ तथा अगर्भ-यह दो प्रकारका होता है। जपसहित प्राणायाम सगर्भ तथा जपरहित प्राणायाम अगर्भ कहा जाता है। हाथी, शरभ तथा सिंह अत्यन्त दुराधर्ष होते हैं। जैसे उन्हें पकड़‌कर उनका दमन किये जानेपर वे अस्वस्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार यह दुराधर्ष प्राणवायु भी योगियोंके द्वारा वशमें किये जानेवार अस्वस्थ हो उठता है अर्थात् अव्यवस्थित हो जाता है॥४९ -५२॥ 

न्यायतः सेव्यमानस्तु स एवं स्वस्थतां व्रजेत्।
यथैव मृगराड् नागः शरभो वापि दुर्मदः ॥ ५३

कालान्तरवशाद्योगाद्दम्यते परमादरात् ।
तथा परिचयात्स्वास्थ्यं समत्वं चाधिगच्छति ॥ ५४

बोगादभ्यसते यस्तु व्यसनं नैव जायते।
एवमभ्यस्यमानस्तु मुनेः प्राणो विनिर्दहेत् ॥५५

मनोवाक्कायजान् दोषान् कर्तुर्देहं च रक्षति।
संयुक्तस्य तथा सम्यक्प्राणायामेन धीमतः ॥ ५६

नियमपूर्वक अभ्यास किये जानेपर वह वायु उसी प्रकार स्वस्थताको प्राप्त हो जाता है, जैसे मतवाले सिंह, हाथी तथा शरभ अभ्यासपूर्वक युक्तिसे दमित किये जानेपर अपने अधीन हो जाते हैंजैसे नियमतः नियन्त्रण करनेपर शनैः शनैः अपनी उग्रताको त्यागकर ये सिंहादि आदरपूर्वक वशमें हो जाते हैं, वैसे ही यह प्राणवायु भी शनैः शनैः अभ्याससे अपनी अस्वस्थताको छोड़कर समत्वभावको प्राप्त हो जाता हैजो पुरुष योगपूर्वक अभ्यास करता है, उसके चित्तमें व्यसन उत्पन्न नहीं होता है। इस प्रकार सतत अभ्यास करनेपर प्राणायामसे उस योगीके मन-वचन तथा कर्मसे जायमान सभी दोष नष्ट हो जाते हैं और इस प्राणायामसे इसे करनेवाले उस बुद्धिमान् योगीके देहकी भलीभाँति रक्षा भी होती है॥ ५३-५६॥ 

दोषात्तस्माच्च नश्यन्ति निःश्वासस्तेन जीर्यते।
प्राणायामेन सिध्यन्ति दिव्याः शान्यादयः क्रमात् ॥ ५७ 

शान्तिः प्रशान्तिर्दीप्तिश्च प्रसादश्च तथा क्रमात् ।
आदौ चतुष्टयस्येह प्रोक्ता शान्तिरिह द्विजाः ॥ ५८ 

सहजागन्तुकानां च पापानां शान्तिरुच्यते।
प्रशान्तिः संयमः सम्यग्वचसामिति संस्मृता ॥ ५९

उस प्राणायामके सतत अभ्याससे सभी दोष नष्ट हो जाते हैं। साथ ही श्वास (प्रश्वास) की गति भी न्यून होती जाती है। इस प्रकार प्राणोंके [श्वासोंके] नियन्त्रणसे क्रमशः दिव्य शान्ति आदि सिद्धियाँ प्राप्त होने लगती हैं है द्विजो। अब मैं क्रमसे शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति तथा प्रसादका वर्णन करूँगा। आरम्भमें इन चारोंमेंसे यहाँ पहले शान्तिके विषयमें कहता हूँ। सहज तथा आगन्तुक पापोंका नाश शान्ति कहा जाता है तथा वाणीपर भली- भाँति संयम प्रशान्ति कहा गया है॥ ५७-५९॥

प्रकाशो दीप्तिरित्युक्तः सर्वतः सर्वदा द्विजाः । 
सर्वेन्द्रियप्रसादस्तु बुद्धेवै मरुतामपि ॥ ६०

प्रसाद इति सम्प्रोक्तः स्वान्ते त्विह चतुष्टये।
प्राणोऽपानः समानश्च उदानो व्यान एव च ।। ६१

नागः कूर्मस्तु कुकलो देवदत्तो धनञ्जयः। 
एतेषां यः प्रसादस्तु मरुतामिति संस्मृतः ॥ ६२

प्रयाणं कुरुते तस्माद्वायुः प्राण इति स्मृतः । 
अपानयत्यपानस्तु आहारादीन् क्रमेण च ॥ ६३

व्यानो व्यानामयत्यङ्गं व्याध्यादीनां प्रकोपकः । 
उद्वेजयति मर्माणि उदानोऽयं प्रकीर्तितः ॥ ६४

समं नयति गात्राणि समानः पञ्च वायवः । 
उद्‌गारे नाग आख्यातः कूर्म उन्मीलने तु सः ॥ ६५

कृकलः श्रुतकायैव देवदत्तो विजृम्भणे। 
धनञ्जयो महाघोषः सर्वगः स मृतेऽपि हि ॥ ६६

हे द्विजो! सभी तरहसे सर्वदा प्रकाशकी स्थितिको दीप्ति कहा गया है। सभी इन्द्रियों, बुद्धि तथा प्राणवायु आदिको प्रसन्नताको इस चतुष्टयनें 'प्रसाद' कहा गया है। प्राण, अपान, समान, उदान, व्यान्, नाग, कूर्म, कूकल देवदत्त तथा धनंजय इनकी जो प्रसन्नता है, उसे मरुतोंका प्रसाद कहा गया है जो वायु प्रयाण करता है, इसी कारण उस वायुको प्राणवायु कहा गया है। जो वायु आहार आदिको नीचेकी ओर क्रमसे ले जाता है, उसे अपान, सभी अंगोंमें जो वायु व्याप्त रहता है उसे व्यान तथा व्याधि आदिका प्रकोपक जो वायु मर्मोंमें उद्वेजन पैदा करता है उसे उदान एवं जो वायु गात्रोंमें समता करता है, उसे समान वायु कहा गया है। इस प्रकार ये पाँच वायु हुए। इसी तरह उद्‌गार (डकार आदि) के समय क्रियाशील वायुको नाग, उन्मीलन अवस्थामें क्रियाशील वायुको कूर्म, छींक आदिमें आनेवाली वायुको कृकल, जम्हाईमें क्रियाशील वायु देवदत्त तथा महाघोष करनेवाले वायुका नाम धनंजय है, वह भरनेपर भी सम्पूर्ण शरीरमें व्याप्त रहता है॥ ६०-६६ ॥ 

इति यो दशवायूनां प्राणायामेन सिध्यति। 
प्रसादोऽस्य तुरीया तु संज्ञा विप्राश्चतुष्टये ॥ ६७

विस्वरस्तु महान् प्रज्ञा मनो ब्रह्मा चितिः स्मृतिः । 
ख्यातिः संवित्ततः पश्चादीश्वरो मतिरेव च ॥ ६८

बुद्धेरेताः द्विजाः संज्ञा महतः परिकीर्तिताः। 
अस्या बुद्धेः प्रसादस्तु प्राणायामेन सिद्धयति ॥ ६९

विस्वरो विस्वरीभावो द्वन्द्वानां मुनिसत्तमाः । 
अग्रजः सर्वतत्त्वानां महान् यः परिमाणतः ॥ ७०

यत्प्रमाणगुहा प्रज्ञा मनस्तु मनुते यतः। 
बृहत्वाद् बृंहणत्वाच्च ब्रह्मा ब्रह्मविदां वराः ॥ ७१

हे विप्रो! जो इन दस वायुओंको प्राणायामसे सिद्ध कर लेता है, वह शान्ति आदि चतुष्टयके प्रसादकी प्राप्ति कर लेता है। इन वायुओंका प्रसाद ही (शान्ति, प्रशान्ति, दीप्ति तथा प्रसाद नामक सिद्धियोंमें चतुर्थ प्रसाद नामक सिद्धिको) 'तुरीया' सिद्धि कहा जाता है विस्वर, महान्, प्रज्ञा, मन, ब्रह्मा, चिति, स्मृति, ख्याति, संवित्, ईश्वर तथा मत्ति- ये सब महत्तत्त्वस्वरूप बुद्धिके नाम हैं। हे विप्रो। इस बुद्धिका प्रसाद प्राणायामसे ही सिद्ध होता है हे ब्रह्मवेत्ताओंमें श्रेष्ठ मुनियो। यह बुद्धि शीत- उष्ण आदि द्वन्द्वोंका उपतापन न होनेसे विस्वर, सभी तत्त्वोंके पहले उत्पन्न होनेसे महान्, प्रमाणोंका आश्रय होनेसे प्रज्ञा, मनन करनेसे मन तथा बृहत् होने एवं वृद्धि करनेसे ब्रह्मा-ऐसी कही गयी है ॥ ६७-७१ ॥

सर्वकर्माणि भोगार्थं यच्चिनोति चितिः स्मृता । 
स्मरते यत्स्मृतिः सर्व संविद्वै विन्दते यतः ॥ ७२

ख्यायते यत्त्विति ख्यातिर्ज्ञानादिभिरनेकशः । 
सर्वतत्त्वाधिपः सर्वं विजानाति यदीश्वरः ॥ ७३

मनुते मन्यते यस्मान्मतिर्मतिमतां वराः। 
अर्थ बोधयते यच्च बुद्धयते बुद्धिरुच्यते ॥ ७४

अस्या बुद्धेः प्रसादस्तु प्राणायामेन सिद्धयति । 
दोषान् विनिर्दहेत्सर्वान् प्राणायामादसी यमी ।। ७५

पातकं धारणाभिस्तु प्रत्याहारेण निर्दहेत्। 
विषयान् विषवद् ध्यात्वा ध्यानेनानीश्वरान् गुणान् ।। ७६

समाधिना यतिश्रेष्ठाः प्रज्ञावृद्धिं विवर्धयेत्। 
स्थानं लब्ध्वैव कुर्वीत योगाष्टाङ्गानि वै क्रमात् ॥ ७७

लब्ध्वासनानि विधिवद्योगसिद्धयर्थमात्मवित् । 
अदेशकाले योगस्य दर्शनं हि न विद्यते ॥ ७८

अग्न्यभ्यासे जले वापि शुष्कपर्णचये तथा। 
जन्तुव्याप्ते श्मशाने च जीर्णगोष्ठे चतुष्पथे ॥ ७९

सशब्दे सभये वापि चैत्यवल्मीकसञ्चये। 
अशुभे दुर्जनाक्रान्ते मशकादिसमन्विते ॥ ८०

नाचरेद्देहबाधायां दौर्मनस्यादिसम्भवे। 
सुगुप्ते तु शुभे रम्ये गुहायां पर्वतस्य तु ॥ ८१

भवक्षेत्रे सुगुप्ते वा भवारामे वनेऽपि वा।
गृहे तु सुशुभे देशे विजने जन्तुवर्जिते ॥ ८२

जो भोगोंके लिये समस्त कर्मोंका चयन करती है, उसे चिति कहा गया है। जो स्मरण करती है, उसे स्मृति तथा जो जानती है, उसे संवित् कहा गया है ज्ञान आदि अनेक उपायोंसे प्रतिष्ठित करने से ख्यातिसंज्ञक तथा सभी तत्त्वोंका स्वामी एवं सब कुछ जानने के कारण ईश्वर संज्ञावाली बुद्धि कही गयी है। हे मतिमानोंमें श्रेष्ठ मुनियो। माननेके कारण मति कही गयी है एवं अर्थको जानने तथा बोध करानेसे बुद्धि कही गयी है  इस बुद्धिका भी प्रसाद प्राणायामसे सिद्ध होता है। योगीको प्राणायामके द्वारा सभी दोषोंको दग्ध कर डालना चाहिये  हे यतिश्रेष्ठ विप्रो! योगीको चाहिये कि वह धारणासे पापोंको तथा प्रत्याहारसे विषयोंको विष समझकर दग्ध कर डाले। ध्यशनके द्वारा [काम-क्रोधादि] अनीश्वर गुणोंको जला डाले तथा समाधिसे बुद्धिकी वृद्धि करे। उत्तम स्थान प्राप्त करके तथा उचित आसनोंमें होकर आत्मवित् योगीको विधिपूर्वक योगके आठों अंगोंका क्रमसे अभ्यास करना चाहिये। समुचित स्थान तथा समयकै विना योगसिद्धि नहीं होती हैअग्निके समीप, बलमें, सूखे पत्तोंके ढेरवाले स्थानोंमें, जन्तुओंसे व्याप्त जगहपर, श्मशानपर, जीर्ण गोशालामें, चौराहेपर, शोरगुलवाले स्थानमें, डरावने स्थानमें, पत्थरों तथा वल्मीक मिट्टीके डेरपर, अपवित्र स्थानपर, दुष्टोंके आतंकवाले स्थानपर, मच्छर आदिसे युक्त स्थानपर तथा देहबाधा और दौर्मनस्य (मानसिक कष्ट) उत्पन्न करनेवाले स्थानपर योगका अभ्यास नहीं करना चाहिये। अपितु अत्यन्त गुप्त (एकान्त), पवित्र तथा रमणीक स्थानपर, पर्वतकी गुफामें, शिवक्षेत्रमें, एकान्तमें, शिव-उद्यानमें, वनमें, पवित्र घरमें, जन्तुओंसे रहित तथा निर्जन स्थानमें योग-साधन करना चाहिये ॥ ७२ -८२॥ 

अत्यन्तनिर्मले सम्यक् सुप्रलिप्ते विचित्रिते। 
दर्पणोदरसङ्काशे कृष्णागरुसुधूपिते ॥ ८३

नानापुष्पसमाकीर्णे वितानोपरि शोभिते। 
फलपल्लवमूलाये कुशपुष्पसमन्विते ॥ ८४

समासनस्थो योगाङ्गान्यभ्यसेद्धषितः स्वयम् । 
प्रणिपत्य गुरुं पश्चाद्भवं देवीं विनायकम् ॥ ८५

योगीश्वरान् सशिष्यांश्च योगं युञ्जीत योगवित्। 
आसनं स्वस्तिकं बद्ध्वा पश्चमर्धासनं तु वा ॥ ८६

वज्रकोटिप्रभे स्थाने पद्मरागनिभेऽपि वा।
समजानुस्तथा धीमानेकजानुरथापि वा।
समं दृढासनो भूत्वा संहृत्य चरणावुभौ॥ ८७ 

वृतास्योपबद्धाक्ष उरो विष्टभ्य चाग्रतः। 
पार्ष्णिभ्यां वृषणौ रक्षंस्तथा प्रजननं पुनः॥ ८८

किञ्चिदुन्नामितशिरा दन्तैर्दन्तान्न संस्पृशेत्‌। 
सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्‌ ॥ ८९

तमः प्रच्छाद्य रजसा रजः सत्त्वेन छादयेत्‌। 
ततः सत्त्वस्थितो भूत्वा शिवध्यानं समभ्यसेत्‌॥

ॐकारवाच्यं परमं शुद्धं दीपशिखाकृतिम्‌। 
ध्यायेद्वै पुण्डरीकस्य कर्णिकायां समाहितः॥ ९१

नाभेरधस्ताद्वा विद्वान्‌ ध्यात्वा कमलमुत्तमम्‌ । 
त्र्यङ्खले चाष्टकोणं वा पञ्चकोणमथापि वा ॥ ९

त्रिकोणं च तथाग्नेयं सौम्यं सौरं स्वशक्तिभिः
सौरं सौम्यं तथाग्नेयमथवानुक्रमेण तु॥ ९३

आग्नेयं च ततः सौरं सौम्यमेवं विधानतः। 
अग्नेरधः प्रकल्प्यैवं धर्मादीनां चतुष्टयम्‌ ॥ ९४

गुणत्रयं क्रमेणैव मण्डलोपरि भावयेत्‌। 
सत्त्वस्थं चिन्तयेदरदरं स्वशक्त्या परिमण्डितम्‌॥ ९५

नाभौ वाथ गले वापि भूमध्ये वा यथाविधि। 
ललाटफलिकायां वा मूर्शिन ध्यानं समाचरेत्‌॥

द्विदले षोडशारे वा द्वादशारे क्रमेण तु। 
दशारे वा षडस्रे वा चतुरस्रे स्मरेच्छिवम्‌ ९

कनकाभे तथाङ्कारसन्निभे सुसितेऽपि वा। 
द्वादशादित्यसङ्काशे चन्द्रबिम्बसमेऽपि वा॥ ९८

विद्युत्कोटिनिभे स्थाने चिन्तयेत्परमेश्वरम्‌। 
अग्निवर्णेऽथ वा विद्युद्वलयाभे समाहितः ९९

वज्रकोटिप्रभे स्थाने पद्मरागनिभेऽपि वा।
नीललोहितबिम्बे वा योगी ध्यानं समभ्यसेत् ॥ १००

अत्यन्त स्वच्छ, भलीभांति लिपे हुए, विशेष रूपले चित्रित, दर्पणके समान स्वच्छ, कृष्ण अगरुके धूपसे सुगन्धित, अनेक प्रकारके पुष्पोंसे मण्डित, ऊपर से चंदोवा आदिसे अलंकृत, फल-पल्लवोंसे सुशोभित तथा कुश और फूलसे युक्त दिव्य स्थानमें ठीक आसनसे बैठकर प्रसन्नतापूर्वक योगके अंगोंका अभ्यास करना चाहिये। तत्पश्चात् गुरु, शिव, पार्वती, गणेश तथा शिष्योंसहित योगीश्वरोंको प्रणाम करके स्वस्तिक अथवा अर्थ पद्मासन (सिद्धासन) बाँधकर योगीको योग- साधनमें प्रवृत्त हो जाना चाहिये बुद्धिमान् योगीको इस प्रकार दोनों जानु बराबर करके अथवा एक जानुमें स्थित होकर वृषण तथा लिङ्गको दोनों पार्किंग (एड़ियों) के बीच करके दृढ़ आसन लगाकर तथा मुखको बन्द करके सिरको कुछ ऊँचा उठाकर दाँतों का परस्पर स्पर्श बचाते हुए, सभी ओरसे दृष्टिको रोककर, उन्मीलित नेत्रोंसे अपने नासिकाग्रपर दृष्टि केन्द्रित करके तथा वक्षःस्थलको आगेकी ओर उन्नतकर तमोगुणको रजोगुणसे तथा रजोगुणको सत्त्वगुणसे आच्छादित करना चाहिये। इस प्रकार केवल सत्त्वगुणमें स्थित होकर शिवध्यानका अभ्यास करना चाहिये समाहितचित्त होकर साधकको परम शुद्ध दीपशिखाकी आकृत्तिवाले तथा ओंकार नामसे अभिहित उस परमात्माका अपने हृदयकमलकी कर्णिकामें ध्यान करना चाहिये अथवा विद्वान् साधकको नाभिसे तीन अंगुल नीचे अष्टकोणात्मक, पंचकोणात्मक अथवा त्रिकोणात्मक उत्तम कमलका ध्यान करके उसमें क्रमानुसार अपनी शक्तियोंसहित अग्निमण्डल, चन्द्रमण्डल, सूर्यमण्डल अथवा सूर्य-चन्द्र-अग्निमण्डल अथवा अग्नि, सूर्य, चन्द्रमण्डलका विधिवत् ध्यान करते हुए अग्निके नीचे धर्म आदि चतुष्टय (धर्म, ज्ञान, वैराग्य, ऐश्वर्य) की कल्पना करके मण्डलोंके ऊपर सत्त्व, रज तथा तमकी भावना करते हुए पार्वतीसे सुशोभित सत्त्वस्थित रुद्रका चिन्तन करना चाहिये इसी प्रकार नाभि, कण्ठ, धूमध्य, ललाटपट्ट अथवा मस्तकमें विधिके अनुसार शिवका ध्यान करना चाहिये क्रमानुसार द्विदल, षोडशदल, द्वादशदल, दशदल, षड्दल अथवा चतुर्दल कमलमें शंकरजीका ध्यान करना चाहिये स्वर्णकी आभावाले तथा अंगारके सदृश, महाश्वेत, द्वादश सूर्यके समान दीप्त, चन्द्रबिम्बके सदृश, करोड़ों विद्युत्के समान प्रभावाले, अग्निवर्णक सदृश, विद्युत्-वलयके तुल्य आभावाले उन-उन स्थानोंमें साधकको समाहितचित होकर परमेश्वरका चिन्तन करना चाहिये  करोड़ों वज्रकी प्रभावाले अथवा पद्मरागके सादृश्यवाले अथवा नीललोहित बिम्ब (सूर्यबिम्ब) तुल्य स्थानमें योगीको शिवध्यान करना चाहिये ॥ १०० ॥

महेश्वरं हृदि ध्यायेन्नाभिपदो सदाशिवम् । 
चन्द्रचूडं ललाटे तु धूमध्ये शङ्करं स्वयम् ॥ १०१

दिव्ये च शाश्वतस्थाने शिवध्यानं समभ्यसेत्। 
निर्मलं निष्कलं ब्रह्म सुशान्तं ज्ञानरूपिणम् ॥ १०२

अलक्षणमनिर्देश्यमणोरल्पतरं शुभम्। 
निरालम्बमतयं च विनाशोत्पत्तिवर्जितम् ॥ १०३

कैवल्यं चैव निर्वाणं निःश्रेयसमनूपमम् ।
अमृतं चाक्षरं ब्रह्म हापुनर्भवमद्भुतम् ॥ १०४

महानन्दं परानन्दं योगानन्दमनामयम्। 
हेयोपादेयरहितं सूक्ष्मात्सूक्ष्मतरं शिवम् ॥ १०५

स्वयं वेद्यमवेडद्यं तच्छिवं ज्ञानमयं परम्।
अतीन्द्रियमनाभासं परं तत्त्वं परात्परम् ॥ १०६

सर्वोपाधिविनिर्मुक्तं ध्यानगम्यं विचारतः ।
अद्वयं तमसश्चैव परस्तात्संस्थितं परम् ॥ १०७

मनस्येवं महादेवं हुत्पद्ये वापि चिन्तयेत्। 
नाभौ सदाशिवं चापि सर्वदेवात्मकं विभुम् ॥ १०८

देहमध्ये शिवं देवं शुद्धज्ञानमयं विभुम् ।
कन्यसेनैव मार्गेण चोद्धातेनापि शङ्करम् ॥ १०९

क्रमशः कन्यसेनैव मध्यमेनापि सुव्रतः । 
उत्तमेनापि वै विद्वान् कुम्भकेन समभ्यसेत् ॥ ११०

हृदयप्रदेशमें महेश्वरका, नाभिकमलमें सदाशिवका ललाटमें चन्द्रचूडका, धूमध्यमें साक्षात् शंकरका तथा दिव्य शाश्वत स्थान मूर्धामें शिवका ध्यान करना चाहिये वे शिव निर्मल हैं, कला अथवा अवयवसे रहित हैं, ब्रह्मरूप हैं, शान्त हैं, ज्ञानस्वरूप हैं, लक्षणोंसे रहित हैं, अनिर्देश्य हैं, अणुसे भी सूक्ष्म हैं, कल्याणकारी हैं, आश्रयरहित हैं, ताँसे परे हैं, उत्पत्ति तथा विनाशसे रहित हैं, मोक्षस्वरूप हैं, परम गति हैं, कल्याणरूप हैं, उपमारहित हैं, अमृतस्वरूप हैं, अविनाशी हैं, पुनर्भवरहित ब्रह्मस्वरूप हैं, अद्भुत हैं, महानन्द हैं, परानन्द हैं, योगानन्द हैं, व्याधिरहित हैं, त्याग तथा ग्रहणसे रहित हैं, सूक्ष्मसे भी सूक्ष्मतर हैं, कल्याणमय हैं, स्वयंवेद्य हैं, अवेद्य हैं, परम ज्ञानयुक्त हैं, इन्द्रियोंकी पहुँचसे परे हैं, आभाससे परे हैं, परम तत्त्व हैं, परात्पर हैं, सभी उपाधियोंसे मुक्त हैं, विचारणापूर्वक ध्यान करनेसे प्राप्त होनेवाले हैं, एकरूप है तथा तमसे भी बढ़कर परम रूपमें स्थित हैं। ऐसे महादेवका हृदयकमलमें ध्यान करना चाहिये तथा नाभिमें सर्वदेवात्मक प्रभु सदाशिवका ध्यान करना चाहिये विद्वान् तथा सुव्रत साधकको चाहिये कि वह शरीरके भीतर सुषुम्णा मार्गसे क्रमशः बारह मात्रात्मक मन्द कुम्भक, चौबीस मात्रात्मक मध्यम कुम्भक तथा छत्तीस मात्रात्मक उत्तम कुम्भकके द्वारा कल्याणप्रद, शुद्ध, देवस्वरूप तथा ज्ञानसम्पन्न प्रभु शंकरका ध्यान करे ॥ १०१-११० ॥

द्वात्रिंशद्रेचयेद्धीमान् हृदि नाभौ समाहितः। 
रेचकं पूरकं त्यक्त्वा कुम्भकं च द्विजोत्तमाः ॥ १११

साक्षात्समरसेनैव देहमध्ये स्मरेच्छिवम् । 
एकीभावं समेत्यैवं तत्र यद्रससम्भवम् ॥ ११२

आनन्दं ब्रह्मणो विद्वान् साक्षात्समरसे स्थितः । 
धारणा द्वादशायामा ध्यानं द्वादश धारणम् ॥ ११३

ध्यानं द्वादशकं यावत्समाधिरभिधीयते। 
अथवा ज्ञानिनां विप्राः सम्पर्कादेव जायते ॥ ११४

प्रयत्नाद्वा तयोस्तुल्यं चिराद्वा ह्यचिराद् द्विजाः । 
योगान्तरायास्तस्याथ जायन्ते युज्जतः पुनः ॥ ११५

हृदयकमल तथा नाभिकमल में ध्यान केन्द्रित करके बुद्धिमान् साधक को बत्तीस मात्रात्मक रेचक करना चाहिये। अथवा हे उत्तम द्विजो ! रेचक तथा पूरक छोड़कर केवल कुम्भकमें ही स्थिर रहकर समरसतापूर्वक अपने हृदयमें साक्षात् शिवका ध्यान करना चाहिये इस प्रकार समरसमें स्थित विद्वान् साधक ईश्वर तथा जीवके ऐक्यको प्राप्त होकर उस रसजनित ब्रह्मानन्दकी प्राप्ति कर लेता हैबारह प्राणायामोंकी एक धारणा होती है, बारह धारणाओंका एक ध्यान होता है तथा बारह ध्यानोंकी एक समाधि कही जाती है हे विप्रो। यह योगसिद्धि ज्ञानियोंके समागमसे अथवा प्रयत्न करनेसे प्राप्त होती है। वे दोनों साधन समान ही हैं। यह सिद्धि पूर्वजन्मके योगाभ्यासी साधकको शीघ्र तथा नवीनाभ्यासी साधकको विलम्बसे प्राप्त होती है। हे द्विजो! योगसाधनकी अवधिमें बार-बार विघ्न भी उत्पन्न होते हैं, किंतु वे विघ्न निरन्तर अभ्यास करनेसे तथा गुरुके सान्निध्यसे नष्ट भी हो जाते हैं। १११-११६ ॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे पूर्वभागेऽष्टाहृयोगनिरूपणं नामाष्टमोऽध्यायः ॥ ८ ॥ 

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभागमें 'अष्टांगयोगनिरूपण' नामक आठवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ ८॥

लिंग पुराण: आठवां अध्याय (FAQs) पर आधारित प्रश्न-उत्तर

शरीर में स्थित योगस्थानों, योग का स्वरूप, अष्टांग योग, विषय-भोगों की निस्सारता, प्राणायाम की महिमा, और सदा शिव के ध्यान का स्वरूप पर आधारित प्रश्न-उत्तर

लिंग पुराण के आठवें अध्याय पर आधारित कुछ प्रश्न-उत्तर निम्नलिखित हैं:

प्रश्न 1: लिंग पुराण के आठवें अध्याय में योगस्थानों का वर्णन किस प्रकार किया गया है?

उत्तर: लिंग पुराण के आठवें अध्याय में योगस्थानों का वर्णन भगवान शंकर द्वारा किया गया है। यह योगस्थान शरीर के विभिन्न भागों में होते हैं, जैसे गले से नीचे तथा नाभि के ऊपर स्थित वितस्ति (12 अंगुल) को सर्वोत्तम योगस्थान माना गया है, और नाभि के नीचे स्थित मूलाधार और दोनों भृकुटियों के मध्य स्थित आज्ञाचक्र को भी योगस्थल कहा गया है।

प्रश्न 2: योग का स्वरूप किस प्रकार वर्णित किया गया है?

उत्तर: योग का स्वरूप आत्मा का परमार्थ तत्त्व का ज्ञान प्राप्त करना है, और चित्त की एकाग्रता को शिव के अनुग्रह से प्राप्त किया जाता है। यह ज्ञान धीरे-धीरे योग साधना के माध्यम से प्राप्त होता है, जिससे पापों का नाश होता है और योगी को निर्वाण की प्राप्ति होती है।

प्रश्न 3: योगी को किस प्रकार का त्याग करना चाहिए?

उत्तर: योगी को विषयों, भोगों, और अन्य आसक्तियों से विरक्ति अपनानी चाहिए। त्याग से ही अमृतत्व की प्राप्ति संभव है। योगी को हर प्रकार के भोग से दूरी बनानी चाहिए और अपने साधना में पूर्ण रूप से समर्पित रहना चाहिए।

प्रश्न 4: शुद्धता और तप के बारे में क्या कहा गया है?

उत्तर: शुद्धता और तप से योगी को मानसिक शांति और आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है। शुद्धता से शरीर और मन की विकृतियाँ दूर होती हैं, और तप के द्वारा योगी अपने आत्मज्ञान को परिपूर्ण करते हैं।

प्रश्न 5: 'अहिंसा' का योग में क्या महत्व है? 

उत्तर: अहिंसा का योग में अत्यधिक महत्व है, क्योंकि यह आत्मज्ञान की सिद्धि के लिए आवश्यक है। अहिंसा का तात्पर्य केवल शारीरिक हिंसा से नहीं, बल्कि मानसिक और वाचिक हिंसा से भी बचने से है। यह सभी प्राणियों के प्रति दयालुता और करुणा का प्रतीक है।

प्रश्न 6: लिंग पुराण में योग के माध्यम से सिद्धि प्राप्त करने का क्या तरीका बताया गया है? 

उत्तर: लिंग पुराण के आठवें अध्याय में योग के माध्यम से सिद्धि प्राप्त करने के लिए इन्द्रियों का नियंत्रण, मानसिक एकाग्रता, और शिव के ध्यान का अभ्यास बताया गया है। इन साधनाओं से व्यक्ति अपने आत्मज्ञान और निर्वाण को प्राप्त करता है।

प्रश्न 7: ब्रह्मचर्य का योग में क्या स्थान है? 

उत्तर: ब्रह्मचर्य का योग में महत्वपूर्ण स्थान है। यह साधक को मानसिक और शारीरिक नियंत्रण प्रदान करता है, और इस प्रकार योग साधना में निरंतरता और सफलता सुनिश्चित करता है। यह अपने मन, वचन और कर्म से विषय भोगों से दूर रहने की साधना है।

प्रश्न 8: प्राणायाम का योग में क्या कार्य है? 

उत्तर: प्राणायाम का उद्देश्य प्राणों की गति पर नियंत्रण प्राप्त करना है, जिससे मानसिक शांति और ध्यान में गहराई आती है। यह शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के लिए आवश्यक होता है और योग में सिद्धि प्राप्ति का एक महत्वपूर्ण साधन है।

प्रश्न 9: लिंग पुराण के आठवें अध्याय में शौच और स्नान का क्या महत्व है? 

उत्तर: शौच और स्नान का विशेष महत्व है क्योंकि यह बाह्य और आंतरिक शुद्धता को सुनिश्चित करते हैं। शुद्धता से आत्मा में पवित्रता आती है और योग साधना में सफलता प्राप्त होती है।

प्रश्न 10: योगस्थानों का संक्षेप में वर्णन कौन करता है? 

उत्तर: सूतजी योगस्थानों का संक्षेप में वर्णन करते हैं, जो भगवान् शिव द्वारा जगत के हितार्थ कल्पित किए गए हैं।

प्रश्न 11: योग का स्वरूप क्या है? 

उत्तर: योग का स्वरूप आत्म का ज्ञान प्राप्त करना और चित्त की एकाग्रता द्वारा शिव के अनुग्रह से होना माना जाता है।

प्रश्न 12: योग की सिद्धि के लिए किन आठ प्रकार के साधनों का पालन करना आवश्यक है? 

उत्तर: योग की सिद्धि के लिए आठ प्रकार के साधन हैं: यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि।

प्रश्न 13: यम के प्रमुख अंग क्या हैं? 

उत्तर: यम के प्रमुख अंग हैं: अहिंसा, सत्य, अस्तेय (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (संयम) और अपरिग्रह (संपत्ति का त्याग)।

प्रश्न 14: 'प्रत्याहार' का क्या अर्थ है? 

उत्तर: प्रत्याहार का अर्थ है इन्द्रियों को बाहर के विषयों से हटा कर आन्तरिक साधना में लगाना।

प्रश्न 15: ब्रह्मचर्य का क्या महत्व है? 

उत्तर: ब्रह्मचर्य का महत्व है कि मन, वचन और शरीर से कामनाओं से दूर रहकर आत्मा के सर्वोत्तम लक्ष्य की प्राप्ति हो।

प्रश्न 16: अहिंसा का महत्व क्या है? 

उत्तर: अहिंसा का महत्व यह है कि यह आत्मज्ञान की सिद्धि का मार्ग है, और सभी प्राणियों के प्रति प्रेम और करुणा का पालन करने से आत्मा में शुद्धता आती है।

प्रश्न 17: ध्यान और समाधि में क्या अंतर है? 

उत्तर: ध्यान एकाग्रता का माध्यम है, जिसमें मन को स्थिर करना होता है, जबकि समाधि अंतिम अवस्था है जिसमें पूर्णता की अनुभूति होती है।

प्रश्न 18 : प्राणायाम का क्या महत्व है? 

उत्तर: प्राणायाम का महत्व है कि यह शरीर और मन को शुद्ध करता है, तथा प्राचीन शास्त्रों के अनुसार प्राण की गति को नियंत्रित करता है।

प्रश्न 19: शुद्धता (शौच) को किस प्रकार समझा गया है? 

उत्तर: शुद्धता (शौच) बाह्य और आन्तरिक दोनों प्रकार की होती है। बाह्य शुद्धता से शरीर को शुद्ध रखना और आन्तरिक शुद्धता से आत्मा को शुद्ध करना आवश्यक है।

प्रश्न 20: योगी के लिए त्याग का क्या महत्व है? 

उत्तर: योगी के लिए त्याग का महत्व है क्योंकि त्याग से ही अमृतत्व की प्राप्ति होती है, और यह जीवन के सर्वोत्तम मार्ग को खोलता है।

प्रश्न 21: स्वाध्याय और जप का क्या महत्व है? 

उत्तर: स्वाध्याय और जप का महत्व है कि वे शुद्ध आत्मा की प्राप्ति का माध्यम हैं। स्वाध्याय से ज्ञान का वर्धन और जप से मानसिक शांति प्राप्त होती है।

प्रश्न 22: शिव पूजा के संदर्भ में शास्त्रों के अनुसार क्या निर्देश दिए गए हैं?

उत्तर: शिव पूजा में भस्मस्नान, शुद्धता, ध्यान, प्राणायाम, और जप जैसे उपायों का पालन करना चाहिए, जिससे आत्मा की शुद्धता और भगवान शिव की कृपा प्राप्त हो सके।

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