लिंग पुराण : शिवमाहात्म्यका वर्णन | Linga Purana: Description of Shiva Mahatmya

श्रीलिङ्गमहापुराण उत्तरभाग पन्द्रहवाँ अध्याय

शिव माहात्म्य का वर्णन

सनत्कुमार उवाच

भूयोऽपि शिवमाहात्म्यं समाचक्ष्व महामते। 
सर्वज्ञो हासि भूतानामधिनाथ महागुण ॥ १

सनत्कुमार बोले- हे महामते। आप और भी शिव माहात्म्य का वर्णन करें, हे प्राणियों के अधिनाथ! है महान् गुणोंवाले! आप सर्वज्ञ हैं॥१॥

शैलादिस्वाच

शिवमाहात्म्यमेकाग्रः शृणु वक्ष्यामि ते मुने। 
बहुभिर्बहुधा शब्दैः कीर्तितं मुनिसत्तमैः ॥ २

शैलादि बोले- हे मुने। अनेक श्रेष्ठ मुनियोंने अनेक प्रकारसे अपने शब्दोंमें शिवमाहात्म्यका वर्णन किया है: उसे मैं आपको बताऊँगा, आप एकाग्रचित्त होकर सुनिये ॥ २॥

सदसद्रूपमित्याहुः सदसत्पतिरित्यपि। 
तं शिवं मुनयः केचित्प्रवदन्ति च सूरयः ॥ ३

भूतभावविकारेण द्वितीयेन स उच्यते। 
व्यक्तं तेन विहीनत्वादव्यक्तमसदित्यपि ॥ ४

उभे ते शिवरूपे हि शिवादन्यं न विद्यते। 
तयोः पतित्वाच्च शिवः सदसत्पत्तिरुच्यते ॥ ५

क्षराक्षरात्मकं प्राहुः क्षराक्षरपरं तथा। 
शिवं महेश्वरं केचिन्मुनयस्तत्त्वचिन्तकाः ॥ ६

उक्तमक्षरमव्यक्त व्यक्त क्षरमुदाहृतम्। 
रूपे ते शङ्करस्यैव तस्मान्न पर उच्यते ॥ ७

कुछ [गौतम आदि] मुनियोंने उन शिवको सत् असत् रूपवाला कहा है और कुछ विद्वान् उन्हें सत् असत्‌का पति भी कहते हैं भूतोंके भाव आदि विकारोंसे मुक्त रहनेपर वे शिव व्यक्त तथा सत् कहे जाते हैं और उस (भाव आदि विकार] से विहीन रहनेपर अव्यक्त तथा असत् कहे जाते हैं। सत् तथा असत्-वे दोनों ही शिवके रूप हैं; शिवके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है। उन दोनोंका पति होनेके कारण शिव सदसत्पति (सत् तथा असत्के पति) कहे जाते हैं कुछ तत्त्वचिन्तक मुनियोंने महेश्वर शिवको क्षर- अक्षररूप तथा क्षर-अक्षरसे परे भी कहा है। अव्यक्तको अक्षर कहा गया है और व्यक्तको क्षर कहा गया है। वे दोनों रूप शिवके ही हैं, क्षराक्षररूप होनेके कारण वे शिव अपरस्वरूप कहे जाते हैं ॥ ३-७॥ 

तयोः परः शिवः शान्तः क्षराक्षरपरो बुधैः ।
उच्यते परमार्थेन महादेवो महेश्वरः ॥ ८

समस्तव्यक्तरूपं तु ततः स्मृत्वा स मुच्यते।
समष्टिव्यष्टिरूपं तु समष्टिव्यष्टिकारणम् ॥ ९

वदन्ति केचिदाचार्याः शिवं परमकारणम्।
समष्टिं विदुरव्यक्तं व्यष्टिं व्यक्तं मुनीश्वराः ॥ १०

रूपे ते गदिते शम्भोर्नास्त्यन्यद्वस्तुसम्भवम् ।
तयोः कारणभावेन शिवो हि परमेश्वरः ॥ ११

तत्त्वज्ञानी विद्वान् उन दोनों (व्यक्त तथा अव्यक्त)- से परे होने के कारण उन शान्त महेश्वर महादेव शिवको क्षराक्षरपर (क्षर तथा अक्षरसे परे) कहते हैं। वह जीव समस्तप्राणिस्वरूप शिवका स्मरण करके मुक्त हो जाता है। कुछ आचार्य परमकारण शिवको समष्टि-व्यष्टिरूप और समष्टि-व्यष्टिका कारण भी कहते हैं। मुनीश्वरोंने अव्यक्तको समष्टि तथा व्यक्तको व्यष्टि कहा है। वे दोनों रूप शिवके ही कहे गये हैं; इसके अतिरिक्त अन्य वस्तु सम्भव नहीं है। योगशास्त्रको जाननेवाले लोग इन दोनोंका ही कारण होनेसे परमेश्वर शिवको समष्टिव्यष्टिकारण कहते हैं॥८-११॥

उच्यते योगशास्त्रज्ञैः समष्टिव्यष्टिकारणम्।
क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपी च शिवः कैश्चिदुदाहृतः ॥ १२

परमात्मा परं ज्योतिर्भगवान् परमेश्वरः ।
चतुर्विशतितत्त्वानि क्षेत्रशब्देन सूरयः ॥ १३

प्राहुः क्षेत्रज्ञशब्देन भोक्तारं पुरुषं तथा।
क्षेत्रक्षेत्रविदावेते रूपे तस्य स्वयम्भुवः ॥ १४

कुछ लोगों ने परमात्मा परमज्योतिस्वरूप परमेश्वर भगवान् शिवको क्षेत्रक्षेत्रज्ञरूपवाला बताया है। विद्वानोंने चौबीस तत्त्वोंको क्षेत्र शब्दसे तथा उनका भोग करनेवाले पुरुषको क्षेत्रज्ञ शब्दसे बोधित किया है। क्षेत्र तथा क्षेत्रज्ञ ये दोनों ही रूप उन्हीं स्वयं आविर्भूत शिवके हैं; शिवके अतिरिक्त अन्य कुछ भी नहीं है-ऐसा मनीषियोंने कहा है॥ १२-१४॥

न किञ्चिच्च शिवादन्यदिति प्राहुर्मनीषिणः ।
अपरब्रह्मरूपं तं परं ब्रह्मात्मकं शिवम् ॥ १५

केचिदाहुर्महादेवमनादिनिधनं प्रभुम् ।
भूतेन्द्रियान्तःकरणप्रधानविषयात्मकम् । १६

अपरं ब्रह्य निर्दिष्टं परं ब्रह्म चिदात्मकम् ।
ब्रह्मणी ते महेशस्य शिवस्यास्य स्वयम्भुवः ॥ १७

शङ्करस्य परस्यैव शिवादन्यन्न विद्यते।
विद्याविद्यास्वरूपी च शङ्करः कैश्चिदुच्यते ॥ १८

धाता विधाता लोकानामादिदेवो महेश्वरः ।
विद्येति च तमेवाहुरविद्येति मुनीश्वराः ।। १९

कुछ लोगोंने आदि तथा अन्तसे रहित महादेव भगवान् शिवको अपरब्रह्म (शब्दब्रह्म) स्वरूप तथा परब्रह्मरूप भी कहा है। अपरब्रह्मको प्राणियोंके इन्द्रिय- अन्तःकरणके शब्द आदि प्रधान विषयोंके रूपवाला और परब्रह्मको चिदानन्दरूप निर्दिष्ट किया गया है। वे दोनों ही ब्रह्म इन्हीं महेश्वर परमात्मा शंकरके रूप हैं; शिवके अतिरिक्त अन्य कोई नहीं है कुछ लोग लोकोंका विधान तथा पालन करनेवाले आदिदेव महेश्वर शिवको विद्या तथा अविद्याके स्वरूपवाला भी कहते हैं। मुनीश्वर लोग उन्हें विद्या कहते हैं और सम्पूर्ण जगत्प्रपंचको अविद्या कहते हैं, स्वयम्भू शिवके ही वे दोनों रूप हैं॥ १५-१९॥ 

प्रपञ्चजातमखिलं ते स्वरूपे स्वयम्भुवः ।
भ्रान्तिर्विद्या परं चेति शिवरूपमनुत्तमम् ॥ २०

अवापुर्मुनयो योगात्केचिदागमवेदिनः ।
अर्थेषु बहुरूपेषु विज्ञानं भ्रान्तिरुच्यते ॥ २१

आत्माकारेण संवित्तिर्बुधैर्विद्येति कीर्त्यते।
विकल्परहितं तत्त्वं परमित्यभिधीयते ॥ २२

तृतीयरूपमीशस्य नान्यत्किञ्चन सर्वतः ।
व्यक्ताव्यक्तज़रूपीति शिवः कैश्चिन्निगद्यते ॥ २३

विधाता सर्वलोकानां धाता च परमेश्वरः।
त्रयोविंशतितत्त्वानि व्यक्तशब्देन सूरयः ॥ २४

वदन्त्यव्यक्तशब्देन प्रकृतिं च परां तथा।
कथयन्ति ज्ञशब्देन पुरुषं गुणभोगिनम् ॥ २५

तत्त्रयं शाङ्करं रूपं नान्यत्किञ्चिदशाङ्करम् ॥ २६

भ्रान्ति, विद्या तथा पर ये भी शिवके श्रेष्ठ रूप हैं, कुछ वेदवेत्ता मुनियोंने योगके द्वारा इसे प्राप्त किया है। बहुत प्रकार के अर्थोंमें विज्ञानको भ्रान्ति कहा जाता है। विद्वान् लोग सबको आत्मरूपसे जान लेनेको विद्या कहते है। विकल्प रहित तत्त्वत्को' परम' कहा जाता है। ईश्वर शिवका तीसरा अन्य कोई भी रूप नहीं है कुछ लोग सभी लोकोंके रचयिता तथा पोषक परमेश्वर शिवको 'व्यक्त अव्यक्त-ज्ञ' रूपवाला भी कहते हैं। विद्वान् लोग तेईस तत्त्वोंको 'व्यक्त' शब्दसे, परा प्रकृतिको 'अव्यक्त' शब्दसे तथा गुणोंका भोग करनेवाले पुरुषको 'ज्ञ' शब्दसे अभिहित करते हैं। इन तीनोंका समूह शंकरका ही है। शंकरसे भिन्न अन्य कुछ भी नहीं है॥ २०-२६॥

॥ इति श्रीलिङ्गमहापुराणे उत्तरभागे शङ्करस्य त्रिगुणरूपवर्णनं नाम पञ्चदशोऽध्यायः ॥ १५ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिङ्गमहापुराणके अन्तर्गत उत्तरभागमें 'शंकरके त्रिगुणरूपका वर्णन' नामक पन्द्रहवाँ अध्याय पूर्ण हुआ ॥ १५॥

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