लिंग पुराण : विभिन्‍न कल्पोंमें होने वाले सद्योजातादि शिवावतारों का वर्णन, विभिन्‍न लोकों | Linga Purana: Description of Shiva incarnations like Sadyojata etc. occurring in different Kalpas, different worlds

लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] तेईसवाँ अध्याय

विभिन्‍न कल्पों में होने वाले सद्योजातादि शिवावतारों का वर्णन, विभिन्‍न लोकों की स्थिति तथा महारुद्र का विश्व रूपत्व


यूत उवाच 

तस्य तद्बगचन श्रुत्वा ब्रह्मणो भगवान्‌ भव:। 
ब्रह्मरूपी प्रबोधार्थ ब्रह्माणं प्राह सस्मितम्‌ ॥ ९

श्वेतकल्पो यदा ह्सीदहमेव तदाभवम्‌। 
एवेतोष्णीष: एवेतमाल्य: एवेताम्बरधर: सित:॥ २

एवेतास्थि: श्वेतरोमा च एवेतासक्‌ एवेतलोहित: । 
तेन नाम्ना च विख्यात: एवेतकल्पस्तदा हासौ॥ ३

मत्प्रसूता च देवेशी एवेताड़ुग श्वेतलोहिता। 
श्वेतवर्णा तदा ह्यासीद गायत्री ब्रह्मसंज्ञिता। ४

सूतजी बोले

ब्रह्माजी का वह वचन सुनकर उनके प्रबोधन के लिये ब्रह्मरूप भगवान्‌ शिव ने मुसकरा कर उनसे कहा जब श्वेत कल्प था , उस समय मैं श्वेत वर्णका था। मेरी श्वेत पगड़ी, श्वेत माला, श्वेत वस्त्र, श्वेत अस्थि, श्वेत रोम, श्वेत त्वचा तथा श्वेत ही मेरा रुधिर था। इसी कारणसे वह कल्प “श्वेतकल्प' नाम से विख्यात हुआ उस कल्पमें मुझसे उत्पन्न ब्रह्म नामसे जानी जानेवाली देवेश्वरी गायत्री भी श्वेत अंगोंवाली, श्वेत रक्तवाली तथा श्वेत वर्णवाली थीं॥ १ - ४॥

तस्मादहं च देवेश त्वया गुहोन वे पुनः। 
विज्ञात: स्वेन तपसा सद्योजातत्वमागत:॥ ५

सद्योजातेति ब्रहौतद्‌ गुहां चेतत्प्रकीर्तितम्‌। 
तस्माद गुह्त्वमापन्नं ये वेत्स्यन्ति द्विजातय:॥ ६

मत्समीपं॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
यदा चैव पुनस्त्वासील्लोहितो नाम नामत:॥ ७

मत्कृतेन च वर्णेन कल्पो वै लोहितः स्मृतः। 
तदा लोहितमांसास्थिलोहितक्षीरसम्भवा॥ ८

तदनन्तर हे देवेश!। आपने अपने उग्र तपसे सद्योजातत्वको प्राप्त मुझ शिवको जाना मेरा यह सद्योजात रूप गुह्य ब्रह्मके रूपमें जाना जाता है। अतएव गुद्मत्वको प्राप्त मुझ सद्योजात शिवको जो द्विजातिगण जानेंगे, वे मेरे सान्निध्य को प्राप्त होंगे, जहाँ से उन  का पुनरागमन नहीं होता अर्थात्‌ वे जन्ममरण के बन्धन से मुक्त हो जाते हैं पुन: जब मेरा नाम लोहित था, तब मेरे द्वारा धारित लोहित वर्णके कारण वह कल्प लोहितकल्प नामसे कहा गया उस कल्प में रक्तवर्ण के मांस तथा हड्डियोंवाली, रक्तवर्ण का दूध प्रदान करने वाली, लाल आँखों वाली तथा लाल स्तन वाली धेनु रूप में गायत्री अधिष्ठित हुईं॥५ - ८॥

लोहिताक्षी स्तनवती गायत्री गौ: प्रकीर्तिता। 
ततोस्या लोहितत्वेन वर्णस्य च विपर्ययात्‌॥ ९

वामत्वाच्चैव. देवस्थ वामदेवत्वमागत: । 
तत्रापि च महासत्त्व त्वयाहं नियतात्मना॥ १०

विज्ञात: स्वेन योगेन तस्मिन्‌ वर्णान्तरे स्थित: । 
ततशएच वामदेवेति ख्यातिं यातो स्मि भूतले॥ ११

तदनन्तर उस धेनु के लोहितत्व, उस कल्पमें वर्णके बदल जाने तथा योगकी वामताके कारण मैं वामदेवत्वको प्राप्त हुआ अर्थात्‌ मेरा नाम वामदेव पड़ गया हे महासत्त्व! उस कल्पमें भी नियत आत्मावाले आपने अपने योगबल से लोहितवर्ण-स्थित मुझ परमेश्वरको जाना और तभीसे में पृथ्वीलोकमें वामदेव नामसे प्रसिद्धिको प्राप्त हो गया॥ ९-११॥

ये चापि वामदेवत्वं ज्ञास्यन्तीह द्विजातयः। 
रुद्लोक॑ गमिष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌॥ १२

यदाहं पुनरेवेह पीतवर्णों युगक्रमात्‌। 
मत्कृतेन च नाम्ना वै पीतकल्पोभवत्तदा॥ १३

मत्प्रसूता च देवेशी पीताड़ी पीतलोहिता। 
पीतवर्णा तदा ह्वासीद गायत्री ब्रह्मसंज्ञिता॥ १४

तत्रापि च महासत्त्व योगयुक्तेन चेतसा। 
यस्मादहं॑ तैर्विज्ञाता योगतत्परमानसे: ॥ १५

तत्र तत्पुरुषत्वेन विज्ञातो5हं त्वया पुनः। 
तस्मात्तत्पुरुषत्व॑ वै ममैतत्कनकाण्डज॥ १६

ये मां रुद्रं च रुद्राणीं गायत्रीं वेदमातरम्‌। 
वेत्स्यन्ति तपसा युक्ता विमला ब्रह्मसड्रता:॥ १७

रुद्रलोकंें गमिष्यन्ति पुनरादृत्तिदुर्लभम्‌। 
यदाहं पुनरेवासं कृष्णवर्णो भयानकः॥ १८

मत्कृतेन च वर्णेन सड्डूल्प: कृष्ण उच्यते। 
तत्राहं कालसड्डाश: कालो लोकप्रकालक: ॥ १९

विज्ञातो5हं त्वया ब्रह्मन्‌ घोरो घोरपराक्रमः। 
मत्प्रसूता च॒ गायत्री कृष्णाड़ी कृष्णलोहिता॥ २०

कृष्णरूपा च देवेश तदासीद्‌ ब्रह्मसंज्ञिता। 
तस्माद्‌ घोरत्वमापन्न॑ ये मां वेत्स्यन्ति भूतले॥ २९

तेषामघोर: शान्तश्च भविष्याम्यहमव्यय: । 
पुनश्च विश्वरूपत्वं यदा ब्रह्मन्‌ ममाभवत्‌॥ २२

तदाप्यहं त्वया ज्ञातः परमेण समाधिना।
विश्वरूपा च संवृत्ता गायत्री लोकधारिणी॥ २३

तस्मिन्‌ विश्वत्वमापनन॑ ये मां वेत्स्यन्ति भूतले। 
तेषां शिवश्च सौम्यश्च भविष्यामि सदैव हि॥ २४

जो भी द्विजातिगण मेरे वामदेवस्वरूपको जानेंगे वे जन्म-मरणके बन्धनसे मुक्ति प्राप्त करानेवाले मेरे रुद्रलोकमें निवास करेंगे जब मैं युगक्रमसे पीतवर्णवाला हुआ, तब मेरे वर्णनामपर उस कल्पका नाम पीतकल्प हुआ मेरे द्वारा उत्पन्न तथा ब्रह्म नामसे जानी जानेवाली देवेश्वरी गायत्री का भी अंग पीला, रक्त पीला तथा वर्ण आदि सब पीला था हे महासत्त्व! उस कल्प में भी योगपरायण मनवाले उन द्विजातियोंने योगयुक्त चित्तसे मुझे जाना । हे कनकाण्डज उस कल्पमें तुमने भी मुझे पुनः तत्पुरुषरूपमें जाना; उसी कारणसे मेरा यह तत्पुरुष नाम हुआ तपस्या से युक्त, विशुद्ध मनवाले तथा ब्रह्मपरायण जो लोग मुझ रुद्र तथा वेदमाता रुद्राणी गायत्री की आशधना करेंगे, वे पुनर्जन्मसे मुक्ति दिलानेवाले रुद्रलोकको प्राप्त होंगे पुन: जब मैंने भयानक कृष्णवर्ण धारण किया, तब मेरे वर्णके नामसे वह कल्प कृष्णकल्प कहा गया हे ब्रह्मननं! उस कल्पमें भी तुमने कालसदृश, कालरूप, लोकोंके लिये महाकाल तथा घोर पराक्रमवाले मुझ घोरकों जाना हे देवेश! उस कल्पमें मुझसे उत्पन्न ब्रह्मसंज्ञावाली गायत्री भी कृष्ण अंगोंवाली, कृष्ण रक्तवाली तथा कृष्ण रूप वाली थीं अतएव इस भूतलपर जो लोग घोरत्वको प्राप्त मुझ शिव को जान लेंगे, शाश्वत रूप वाला मैं उनके लिये सौम्य तथा शान्त हो जाऊँगा हे ब्रह्मन्‌! पुनः जब मैं विश्वरूपत्वको प्राप्त हुआ, उस समय भी आपने परम समाधिसे मुझे जाना था। उस समय समस्त लोकोंको धारण करनेवाली गायत्री भी विश्वरूपा अर्थात्‌ अनेक वर्णोबाली थीं इस भूतलपर जो लोग विश्वत्वको प्राप्त मुझ परमात्माको जान लेंगे, उनके प्रति मैं सदाके लिये सौम्य तथा शान्त हो जाऊँगा॥ १२ - २४॥

यस्माच्च विश्वरूपो वै कल्पो5यं समुदाहत: ।
विश्वरूपा तथा चेय॑ सावित्री समुदाहता॥ २५

सर्वरूपा तथा चेमे संवृत्ता मम पुत्रका:। 
चत्वारस्ते मया ख्याता: पुत्रा वै लोकसम्मता: ॥ २६

यस्माच्च सर्ववर्णत्वं प्रजानां च भविष्यति। 
सर्वभक्षा च मेध्या च॒ वर्णतश्च भविष्यति॥ २७

मोक्षो धर्मस्तथार्थश्च कामएचेति चतुष्टयम्‌। 
यस्माद्वेदाश्च वेद्यं च चतुर्धा बै भविष्यति॥ २८

भूतग्रामाएच चत्वार आश्रमाश्च तथेव च। 
धर्मस्य पादाए्चत्वारश्चत्वारो मम पुत्रका:॥ २९

तस्माच्चतुर्युगावस्थं जगद्दे सचराचरम्‌। 
चतुर्धावस्थितश्चैव चतुष्पादों भविष्यति॥ ३०

भूलोंको5थ भुवलोकः स्वलोकश्च महस्तथा। 
जनस्तपश्तच सत्यं च विष्णुलोकस्ततः परम्‌॥ ३९

अष्टाक्षरस्थितो लोक: स्थाने स्थाने तदक्षरम्‌। 
भूर्भुवः स्वर्महश्चैव पादाशचत्वार एवं च॥ ३२

भूलोंक: प्रथम: पादो भुवर्लोकस्तत: परम्‌। 
स्वलोको वै तृतीयश्च चतुर्थस्तु महस्तथा॥ ३३

पञ्चमस्तु जनस्तत्र षष्ठश्च तप उच्यते। 
सत्यं तु सप्तमो लोको ह्मपुनर्भवगामिनाम्‌॥ ३४

विष्णुलोकः स्मृतं स्थान पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
स्कान्दमौमं तथा स्थान सर्वसिद्धिसमन्वितम्‌॥ ३५

इसी कारण यह कल्प विश्वरूपकल्प नामसे जाना गया और ये गायत्री विश्वरूपा नामसे कही गयीं। वे सर्वरूपा थीं और ये सद्योजात आदि चार कुमार मेरे पुत्ररूपमें प्रकट हुए, जिनकी लोकमें विशेष प्रसिद्धि हुई ये गायत्री शब्द और अर्थ रूप से मेध्या अर्थात्‌ यज्ञयोग्या होंगी, सर्वभक्षा अर्थात्‌ पातकादिविनाशिका होंगी । गायत्रीके [सावित्रीके] सर्ववर्णा (सर्वशब्दात्मिका) होनेसे ही चातुर्वर्ण्य-व्यवस्था प्रजामें व्यवस्थित होगी  इसीलिये धर्म, अर्थ, काम तथा मोक्ष चार प्रकारके ये पुरुषार्थ हैं और वेद भी चार हैं। जीवसमुदायोंके भी जरायुज, अण्डज, स्वेदज, उद्धिज ये चार प्रकारके रूप हैं तथा आश्रम भी चार हैं। दया, दान, तप, सत्य ये धर्मके चार पाद हैं एवं मेरे पुत्र भी चार हैं  इसीलिये यह चराचर जगतू युगरूप चार अवस्थाओंवाला है और यह चतुष्पादात्मक लोक भी भेदानुसार चार रूपोंमें अवस्थित है भूलोंक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महलोंक, जनलोक, तपलोक तथा सत्य लोक इन सबके परे विष्णु लोक स्थित है अष्टाक्ष रूप लोक अपने-अपने स्थानपर अक्षरात्मकरूपमें विद्यमान हैं। भूलोंक, भुवर्लोक, स्वर्लोक तथा महलोंक ही चार पादके रूपमें अवस्थित हैं। इनमें भूलोंक पहला पाद है, भुवर्लोक दूसरा पाद है, स्वर्लोक तीसरा तथा महरलोंक चौथा पाद है पाँचवाँ जनलोक, छठा तपलोक तथा पुनर्जन्मकी प्राप्ति न करने वाले लोगों का सत्यलोक सातवाँ लोक कहा गया है विष्णु लोक वह पद है, जहाँ पहुँचकर जीवका पुन: आगमन नहीं होता है। उससे भी आगे स्कन्दलोक तथा उससे भी परे पार्वतीलोक है, जो सर्वविध सिद्धियों से युक्त माना गया है॥२५ - ३५॥

रुद्रलोक: स्मृतस्तस्मात्पदं तद्योगिनां शुभम्‌। 
निर्ममा निरहड्डाराः कामक्रोधविवर्जिता: ॥ ३६

द्रक्ष्यन्ति तद्‌ द्विजा युक्ता ध्यानतत्परमानसा: । 
यस्माच्चतुष्पदा होषा त्वया दृष्टा सरस्वती॥ ३७

पादान्तं विष्णुलोकं वै कौमारं शान्तमुत्तमम्‌। 
औमं माहेश्वरं चैव तस्माद्‌ दृष्टा चतुष्पदा॥ ३८

तस्मात्तु पशव: सर्वे भविष्यन्ति चतुष्पदा:। 
ततश्चैषां भविष्यन्ति चत्वारस्ते पयोधरा:॥ ३९

सोमएच मन्त्रसंयुक्तो यस्मान्मम मुखाच्च्युत: । 
जीव: प्राणभतां ब्रह्मन्‌ पुनः पीतस्तना: स्मृता: ॥ ४०

तस्मात्सोममयं चैव अमृतं जीवसंज्ञितम्‌। 
चतुष्पादा भविष्यन्ति एवेतत्वं चास्य तेन तत्‌॥ ४१

यस्माच्चैव क्रिया भूत्वा द्विपदा च महेश्वरी। 
दृष्टा पुनस्तथेवैषा सावित्री लोकभाविनी॥ ४२

तस्माच्च द्विपदा: सर्वे द्विस्तनाएच नरा: शुभा: । 
तस्माच्चेयमजा भूत्वा सर्ववर्णा महेश्वरी॥ ४३

या वे दृष्टा महासत्त्वा सर्वभूतधरा त्वया।
तस्माच्च विश्वरूपत्वं प्रजानां वे भविष्यति॥ ४४

अजश्चेव महातेजा विश्वरूपो भविष्यति। 
अमोघरेता: सर्वत्र मुखे चास्य हुताशन:॥ ४५

तस्मात्सर्वगतो मेध्य: पशुरूपी हुताशनः। 
तपसा भावितात्मानो ये मां द्रक्ष्यन्ति वै द्विजा: ॥ ४६

ईशित्वे च वशित्वे च सर्वगं सर्वतः स्थितम्‌। 
रजस्तमोभ्यां निर्मुक्तास्त्यक्त्वा मानुष्यक॑ वपु:॥ ४७

मत्समीपमुपेष्यन्ति पुनरावृत्तिदुर्लभम्‌। 
इत्येवमुक्तो भगवान्‌ ब्रह्मा रुद्रेण वे द्विजा:॥ ४८

प्रणम्य॒ प्रयतो भूत्वा पुनराह पितामह:। 
य एवं भगवान्‌ दिद्वान्‌ गायत्र्या वै महेश्वरम्‌॥ ४९

विश्वात्मानं हि सर्व त्वां गायतन्र्यास्तव चेश्वर। 
तस्य देहि परं स्थान तथास्त्विति च सोउब्रवीत्‌॥ ५०


रुद्र लोक उससे परे विद्यमान है। वह पद योगियोंके लिये अत्यन्त शुभकर कहा गया है। ममतारहित, अहंकार शून्य, काम-क्रोधसे विवर्जित तथा ध्यानपरायण चित्तवाले योगीजन ही उस लोकका दर्शन करेंगे और जो आपने चार पादोंवाली इस गायत्री (सरस्वती)-को देखा है, उसीके चार चरणोंके रूपमें चरम पदवाला विष्णुलोक, शान्त तथा उत्तम स्कन्दलोक, पार्ववीलोक एवं रुद्रलोक अवस्थित हैं । ऐसी माहात्म्ययुक्त सरस्वतीका आपने दर्शन किया है इससे सभी पशु भी चार पैरोंवाले होंगे और इसीसे इनके चार स्तन भी होंगे। हे ब्रह्मन्‌! मेरे मुखसे गिरा हुआ मन्त्रयुक्त सोमरूप अमृत प्राणधारियोंका जीवन बनकर उनके स्तनमें निवास करेगा। इसलिये वे स्तन 'पीतस्तन' कहे जायँगेउसीके कारण सोममय अमृत जीवनसंज्ञावाला होगा और उनके दुग्धका श्वेतत्व उसी सोमरूपत्वके कारण होगा ऐसे गुणोंवाले वे चतुष्पाद होंगे आपके द्वारा देखी गयी यह लोकभाविनी सावित्री महेश्वरी पुनः: दो पादोंवाली होकर क्रियारूप धारण करेगी; जिससे सभी शुभ नर-नारी दो पादों तथा दो स्तनोंवाले होंगे सभी प्राणियों कों धारण करनेवाली तथा महान्‌ शक्तिसे सम्पन्न जिस देवीका आपने दर्शन किया है; वह महेश्वरी अजा होकर जब सर्ववर्णमय विश्वरूप धारण करेगी, तब उसीसे सभी प्रजाएँ भी अनेक वर्णोवाली होंगी तब महातेज तथा अमोघ वीर्यवाले अज विश्वरूप धारण करेंगे और इनके मुखमें सर्वत्र अग्नि विराजमान होगी; उसी कारण सर्वव्यापी पशुरूपी अग्नि पवित्र मानी जायगी विशुद्ध आत्मावाले जो द्विजगण अपनी तपस्यासे ईशित्व (ईश्वरत्व) तथा वशित्व (योगसिद्धि)-में सभी जगह मुझे भी सर्वव्यापी रूपमें विराजमान देखेंगे; वे रजोगुण तथा तमोगुणसे रहित होकर मानवशरीरका त्याग करके मेरा सान्निध्य प्राप्त करेंगे और उनका पुनर्जन्म नहीं होगा सूतजी कहते हैं कि हे द्विजो! शिवजीके इस प्रकार कहनेपर भगवान्‌ ब्रह्माने प्रणाम करके विनग्रतापूर्वक रुद्रसे पुन कहा--हे भगवन्‌! जो दिद्वान्‌ सर्वव्यापी विश्वात्मा आप महेश्वरको गायत्रीसहित सर्वत्र स्थित देखे तथा हे ईश्वर! आपकी एवं गायत्रीकी आराधना करे, उसे आप परमपद दें। इसपर उन शिवजीने कहा-वैसा ही होगा॥३६- ५०॥

तस्माद्विद्वान्‌ हि विश्वत्वमस्याश्चास्य महात्मन:।
स याति ब्रह्मसायुज्यं वचनाद्‌ ब्रह्मण: प्रभो:॥ ५१ 

इसलिये प्रभु शिवद्वारा ब्रह्माजीके प्रति कहे गये वचनके अनुसार जो दिद्वान्‌ गायत्री तथा महात्मा रुद्रका विश्वरूपत्व जान लेता है, वह ब्रह्मसायुज्यको प्राप्त होता है अर्थात्‌ ब्रह्मके साथ उसका तादात्म्य स्थापित हो जाता| है॥५१॥

॥  श्रीलिंगमहापुराणे पूर्वभागे 'विविधकल्पवर्णन॑ ' नाम त्रयोविंशोउध्याय: ॥ २३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीलिंगमहापुराणके अन्तर्गत पूर्वभायमें (विविधकल्पवर्णन ' नामक तेईसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ २३ ॥

यहाँ पर आपके दिए गए ग्रंथांश को संक्षेप में प्रश्न-उत्तर के रूप में प्रस्तुत किया गया है ताकि इसे FAQ (Frequently Asked Questions) के रूप में समझना आसान हो


FAQs: श्वेतकल्प, लोहितकल्प, वामदेव, तत्पुरुष, और विश्वरूप का विवरण

  1. श्वेतकल्प में भगवान शिव का स्वरूप कैसा था?

    भगवान शिव श्वेतकल्प में श्वेत वर्ण के थे। उनकी पगड़ी, माला, वस्त्र, अस्थियाँ, रोम, त्वचा, और रक्त भी श्वेत थे। इस कारण इस कल्प को "श्वेतकल्प" नाम दिया गया।

  2. श्वेतकल्प में गायत्री देवी का स्वरूप क्या था?
    गायत्री देवी श्वेत रंग की थीं, उनके अंग, रक्त, और स्वरूप श्वेत थे। उन्हें ब्रह्म स्वरूपा के रूप में जाना गया।

  3. लोहितकल्प में भगवान शिव का स्वरूप कैसा था?
    लोहितकल्प में भगवान शिव लोहित (लाल) वर्ण के थे। उनके मांस, अस्थियाँ, और त्वचा का रंग लोहित था। इस कारण इस कल्प का नाम "लोहितकल्प" पड़ा।

  4. लोहितकल्प में गायत्री देवी का स्वरूप क्या था?
    लोहितकल्प में गायत्री देवी लोहित अंगों और रक्त वाली थीं। उनका स्वरूप भी लाल था।

  5. भगवान शिव का वामदेव स्वरूप कैसे प्राप्त हुआ?
    लोहितकल्प में योग की वामता (विपरीत स्थिति) के कारण भगवान शिव ने वामदेव स्वरूप धारण किया।

  6. वामदेव स्वरूप जानने से क्या लाभ होता है?
    जो व्यक्ति वामदेव स्वरूप को जानता है, वह रुद्रलोक प्राप्त करता है, जहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता।

  7. तत्पुरुष स्वरूप में भगवान शिव का वर्णन क्या है?
    पीतकल्प में भगवान शिव पीले रंग के थे। उनके द्वारा उत्पन्न गायत्री देवी भी पीत वर्ण की थीं। इस स्वरूप को "तत्पुरुष" नाम दिया गया।

  8. भगवान शिव के कृष्ण स्वरूप का वर्णन क्या है?
    कृष्णकल्प में भगवान शिव कृष्ण (काले) वर्ण के थे। उनके मांस, अस्थियाँ, और स्वरूप भी कृष्ण थे। उनका नाम "घोर" भी पड़ा।

  9. विश्वरूप कल्प क्या है?
    विश्वरूप कल्प में भगवान शिव ने सभी रूप धारण किए। इस कल्प में गायत्री देवी को विश्वरूपा कहा गया, जो सभी रंगों और स्वरूपों की धारिणी थीं।

  10. भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों को जानने से क्या लाभ होता है?
    शिव के विभिन्न स्वरूपों को जानने और उनकी उपासना से भक्त रुद्रलोक, विष्णुलोक, या स्कंदलोक तक पहुँच सकते हैं, जहाँ से पुनर्जन्म नहीं होता।

  11. लोकों का विभाजन कैसे है?
    लोकों का विभाजन इस प्रकार है: भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपलोक, और सत्यलोक। इनसे परे विष्णु लोक और स्कंदलोक स्थित हैं।

  12. सत्यलोक का महत्व क्या है?
    सत्यलोक में जाने वाले व्यक्ति जन्म-मृत्यु के बंधन से मुक्त हो जाते हैं।

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