लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चालीसवों अध्याय
कलियुग के धर्मो का वर्णन, कलियुग में धर्म आदिका हास तथा स्वल्प भी धर्मा चरण का महत्फल एवं कलियुग के अन्तमें पुनः सत्ययुग की प्रवृत्ति
शक्र उवाच
तिष्ये मायामसूयां च वधं चैव तपस्विनाम्।
साधयन्ति नरास्तत्र तमसा व्याकुलेन्द्रिया:॥ ९१
कलौ प्रमादकों रोग: सततं क्षुद्धबानि च।
अनावृष्टिभयं घोरं देशानां च विपर्यय:॥ २
न प्रामाण्यं श्रुतेरस्ति नृणां चाधर्मसेवनम्।
अधार्मिकास्त्वनाचारा महाकोपाल्पचेतस: ॥ ३
इन्द्र बोले [ हे शिलाद!] कलियुगमें तमोगुणसे व्याकुल इन्द्रियोंवाले मनुष्य माया रचेंगे, दूसरोंका दोष देखेंगे तथा तपस्वियोंका वध करेंगे कलियुग में प्रमाद, रोग, निरन्तर क्षुधाका भय, अनावृष्टिरूप घोर भय तथा देशोंका विपर्यय (विनाश)ये सब होंगे लोग वेदोंकी प्रामाणिकता स्वीकार नहीं करेंगे तथा अधर्मका आचरण करेंगे। मनुष्य धर्मच्युत होकर अनाचारमें रत रहेंगे और महान् क्रोधी तथा मन्द बुद्धिवाले होंगे॥ १ - ३॥
अनृतं ब्रुवते लुब्धास्तिष्ये जाताए्च दुष्प्रजा:।
दुश्ष्टिर्दुरधीतैएच दुराचारैर्दुरागमै: ॥ ४
विप्राणां कर्मदोषेण प्रजानां जायते भयम्।
नाधीयन्ते तदा वेदान्न यजन्ति द्विजातय:॥५
उत्सीदन्ति नराश्चैव क्षत्रियाएच विश: क्रमात्।
शूद्राणां मन्त्रयोगेन सम्बन्धो ब्राह्मणे: सह॥ ६
भवतीह कलोौ तस्मिन् शयनासनभोजनै:।
राजान: शूद्रभूयिष्ठा ब्राह्मणान् बाधयन्ति ते॥
कलियुगमें प्रजाएँ मिथ्या भाषण करेंगी, लोभपरायण होंगी तथा मलिन आचार-विचारवाली होंगी। ब्राह्मणोंके दूषित यज्ञ, दूषित पठन, दूषित आचार एवं दूषित शास्त्रोंके सेवनरूपी कर्मदोषसे प्रजाओंमें भर उत्पन्न होगा। द्विजातिगण न तो वेदोंका अध्ययन करेंगे और न तो यज्ञ-अनुष्ठान करेंगे क्षत्रिय, वैश्य आदि सभी मनुष्य क्रमशः विनष्ट हो जायँगे। कलियुगमें ब्राह्मण लोग शूद्रोंको मन्त्रोपदेश देंगे तथा उनके साथ शयन, आसन, भोजन आदिका व्यवहीं: करके उनसे सम्बन्ध बनायेंगे राजा लोग शूद्रवत् आचरण करते हुए ब्राह्मणोंको सन्ताप देंगे॥ ४-७॥
भ्रूणहत्या वीरहत्या प्रजायन्ते प्रजासु वै।
शूद्राश्च ब्राह्षणाचारा: शूद्राचाराश्च ब्राह्मणा;॥ ८
राजवृत्तिस्थिताश्चौराश्चौराचाराएच पार्थिवा:।
कपतल्नयो न शिष्यन्ति वर्थिष्यन्यभिसारिका:॥ ९ ॥
वर्णाश्रमप्रतिष्ठा नो जायते नृषु सर्वतः।
तदा स्वल्पफला भूमि: क्वचिच्चापि महाफला॥ १०
अरक्षितारो हर्तारः पार्थिवाश्च शिलाशन।
शृद्रा वे ज्ञानिन: सर्वे ब्राह्मणैरभिवन्दिता:॥ १९
अक्षत्रियाशच राजानो विप्रा: शूद्रोपजीविनः।
आसनस्था द्विजान् दृष्ट्वा न चलन्त्यल्पबुद्धय: १२
ताडयन्ति द्विजेन्द्रांश्च शुद्रा वै स्वल्पबुद्धय:।
आस्ये निधाय वे हस्तं कर्ण शूद्रस्य वे द्विजा:॥ १३
प्रजाओंमें भ्रूणहत्या तथा वीरोंकी हत्याकी प्रवृत्ति व्याप्त रहेगी। शूद्र लोग ब्राह्मगणोंका आचरण करेंगे एवं ब्राह्मण शूद्रोंका आचरण करेंगे चोर लोग राजाओंके तुल्य व्यवहार करेंगे और राजा लोग चोरों-जैसा व्यवहार करेंगे। स्त्रियाँ पातिव्रत्य धर्मका पालन नहीं करेंगी और व्यभिचारिणी स्त्रियोंका बाहुल्य होगा मनुष्यों में वर्ण तथा आश्रमसम्बन्धी समस्त व्यवहार समाप्त हो जायगा। उस समय पृथ्वी कहीं कम और कहीं अधिक फल देनेवाली होगी हे शिलाद! राजागण प्रजाओंके रक्षक न होकर उनके विनाशक हो जायेंगे। सभी शूद्र ज्ञानी बनकर ब्राह्मणोंसे वन्दित होंगे क्षत्रिसे इतर वर्णवाले राजा होंगे, ब्राह्मण आजीविकाके लिये शूद्रोंपर निर्भर रहेंगे और अल्प बुद्धिवाले वे शूद्र ब्राह्मगोंको देखकर अपने आसनसे नहीं उठेंगे। स्वल्प बुद्धिवाले शूद्र श्रेष्ठ द्विजोंको भी दण्डित (अपमानित) करेंगे। द्विज अपने मुखपर हाथ रखकर शूद्रके कानमें विनयपूर्वक नीच व्यक्तिके समान वाक्य बोलेंगे॥ ८-१३॥
नीचस्येव तदा वाक्यं वदन्ति विनयेन तम्।
उच्चासनस्थान् शुद्रांश्च द्विजमध्ये द्विजर्षभ॥ १४
ज्ञात्वा न हिंसते राजा कलौ कालवशेन तु।
पुष्पैएच वासितैश्चैव तथान्यैर्मड्नलैः शुभेः॥ ९५
शूद्रानभ्यर्चयन्त्यल्पश्रुतभाग्यबलान्विता: ।
न प्रेक्षन्ते गर्विताश्च शूद्रा द्विजवरान् द्विज॥ १६
सेवावसरमालोक्य द्वारे तिष्ठन्ति वे द्विजा:।
वाहनस्थान् समावृत्य शूद्रान् शूद्रोपजीविन:॥ १७
सेवन्ते ब्राह्मणास्तत्र स्तुवन्ति स्तुतिभिः कलौ।
तपोयज्ञफलानां च विक्रेतारो द्विजोत्तमा:॥ १८
हे द्विजश्रेष्ठ! कलियुगमें कालके वशमें होकर राजा ब्राह्मणोंके बीच उच्च आसनपर बेठे हुए शूद्रको देखकर उसे दण्डित नहीं करेंगे। वे पुष्पों, सुगन्धित पदार्थों तथा अन्य मंगल-द्रव्योंसे शूद्रोंकी पूजा करेंगे। हे द्विज! अल्प शास्त्र-ज्ञान, खोटे भाग्य एवं बलसे युक्त शूद्र लोग गर्वित होकर श्रेष्ठसे श्रेष्ठ द्विजोंकी ओर देखना तक पसन्द नहीं करेंगे अपनी आजीवि का के लिये शूद्रोंपर आश्रित रहनेवाले ब्राह्मण सेवाका अवसर देखकर वाहनोंपर स्थित शूद्रोंको घेरकर उनके द्वारपर खड़े होकर उनकी सेवा करेंगे। कलियुगमें ब्राह्मण अनेकविध स्तुतियोंसे शुद्रोंका स्तवन करेंगे। उस समय उत्तम विप्रगण अपने तपों तथा यज्ञोंके फलका विक्रय करेंगे॥ १४-१८ ॥
यतयश्च भविष्यन्ति बहवोस्मिन् कलो युगे।
पुरुषाल्पं बहुस्त्रीक॑ युगान्ते समुपस्थिते॥ ९
निन्दन्ति वेदविद्यां च द्विजा: कर्माणि वै कलौ।
कलौ देवो महादेव: शड्भरों नीललोहितः॥ २०
प्रकाशते प्रतिष्ठार्थ धर्मस्य विकृताकृतिः ।
ये तं विप्रा निषेवन्ते येन केनापि शद्भूरम्॥ २१
कलिदोषान् विनिर्जित्य प्रयान्ति परम पदम्।
श्वापदप्रबलत्वं च गवां चेव परिक्षय:॥ २२
साधूनां विनिवृत्तिश्च वेद्या तस्मिन् युगक्षये।
तदा सूक्ष्मो महोदर्को दुर्लभो दानमूलवान्॥ २३
कलियुगमें बहुत लोग संन्यासीका रूप धारण कर लेंगे। उस युगान्तके उपस्थित होनेपर पुरुष तो कम होंगे, किंतु स्त्रियाँ अधिक होंगी। कलियुगमें वेद-विद्या तथा वैदिक कर्मोंकी निन्दा करेंगे तब उस कलियुगमें नीललोहित महादेव शिव धर्मकी प्रतिष्ठाके लिये अपनी विकृत आकृति अर्थात् उच्छिनभिन लिड्डस्वरूपवाले होकर प्रकट होंगे उस समय जो विप्रगण जिस किसी भी तरहसे उन विकृत वेषवाले शिवकों आराधना करेंगे, बे कलियुगके दोषोंपर विजय प्राप्तकर परमपदको प्राप्त होंगे उस कलियुग के अन्त में हिंसक पशुओंकी प्रबलता तथा गायोंका हास होगा और उत्तम साधुओंका अभाव हो जायगा उस समय दानके मूलवाला सूक्ष्म ऐश्वर्यका रूप भी दुर्लभ हो जायगा, ब्रह्मचर्य आदि चारों आश्रमोंकी शिथिलता हो जानेपर धर्म विनष्ट हो जायगा॥ १९ - २३ ॥
चातुराश्रमशैथिल्ये धर्म: प्रतिचलिष्यति।
अरक्षितारों हर्तारों बलिभागस्य पार्थिवा:॥ २४
युगान्तेषु भविष्यन्ति स्वरक्षणपरायणा:।
अट्टगूला जनपदा: शिवशूलाएचतुष्पथा:॥ २५
प्रमदा: केशशूलिन्यो भविष्यन्ति कलौ युगे।
चित्रवर्षी तदा देवों यदा प्राहर्युगक्षयम्॥ २६
सर्वे वणिग्जनाश्चापि भविष्यन्त्यधमे युगे।
कुशीलचर्या: पाखण्डै्वृथारूपै: समावृता: ॥ २७
बहुयाजनको लोको भविष्यति परस्परम्।
नाव्याहतक्रूरवाक्यो नार्जती नानसूयक:॥ २८
न कृते प्रतिकर्ता च युगक्षीणे भविष्यति।
निन्दकाश्चेव पतिता युगान्तस्य च लक्षणम्॥ २९
उस युगान्तमें राजा लोग प्रजाजनोंकी रक्षा न करके मात्र अपनी रक्षामें तत्पर रहेंगे और बलिभाग [कर]-के हर्ता बन जायँगे कलियुग में समस्त प्राणी अन्न तथा कन्याओंका विक्रय करनेवाले एवं ब्राह्मण वेद बेचनेवाले होंगे और स्त्रियाँ व्यभिचारपरायण हो जायँगी। जब युगक्षय होता है, उस समय वर्षके देवता इन्द्र कहीं-कहींपर वृष्टि करनेवाले कहे जाते हैं उस अधम कलियुगमें सभी वणिक् जन भी कुत्सित आचरणवाले, दम्भ करनेवाले तथा पाखण्डी अर्थात् अवैदिक मार्गोपर चलनेवाले होंगे कलियुग में सभी लोग ग्रामयाजक (पात्र-अपात्रिको विचार किये बिना सबका यज्ञ आदि करानेवाले) हो जायँगे। कोई भी मृदु बचन बोलनेवाला, सर स्वभाववाला, ईर्ष्यारहित तथा प्रत्युपकारी अर्थात् लिये किये गये उपकारको माननेवाला नहीं होगा और सभी लोग निनन््दक एवं पतित हो जायँगे। यह रस युगान्त कलियुगका लक्षण है॥ २४-२९ ॥
नृपशून्या वसुमती न च धान्यधनावता।
मण्डलानि भविष्यन्ति देशेषु नगरेषु च्॥३०
अल्पोदका चाल्पफला भविष्यति वसुन्धरा।
गोप्तारश्चाप्यगोप्तार: सम्भविष्यन्त्यशासना:॥ ३९
हर्ताः परवित्तानां परदारप्रधर्षका:।
कामात्मानो दुरात्मानो हाधमा: साहसप्रिया: ॥ ३२
प्रनष्टचेष्टना: पुंसो मुक्तकेशाश्च शूलिन:।
जनाः: षोडशवर्षाश्च प्रजायन्ते युगक्षये॥३३
शुक्लदन्ताजिनाक्षाशच मुण्डा: काषायवासस: ।
शूद्रा धर्म चरिष्यन्ति युगान्ते समुपस्थिते। ३४
सस्यचोरा भविष्यन्ति दृढ्यैलाभिलाषिण:।
चौराश्चोरस्वहर्तारो. हर्तुईता तथापर:॥ ३५
योग्यकर्मण्युपरते लोके निष्क्रियतां गते।
कीटमूषकसर्पाश्च धर्षयिष्यन्ति मानवान्॥ ३६
पृथ्वी राजाओंसे शून्य हो जायगी तथा धन- धान्यसे परिपूर्ण नहीं रहेगी। देशों और नगरोंमें बहुत- से स्थान जनशून्य हो जायँगे पृथ्वी अल्प जलवाली तथा कम फल देनेवाली होगी। रक्षक ही भक्षक बन जायँगे एवं लोग स्वेच्छाचारी हो जायँगे युगान्त कलियुगमें सभी लोग दूसरोंके धनका हरण करनेवाले, परस्त्रीगमन करने वाले, कामी, दुरात्मा, अधम, दुस्साहसी, उद्योगरहित, लज्जारहित, रोगी तथा सोलह वर्षकी परम आयुवाले होंगे कलियुग के उपस्थित होनेपर शूद्रगण [निर्लज्ञतापूर्वक] दाँत दिखाते हुए गेरुआ वस्त्र तथा रुद्राक्ष धारणकर एवं मुण्डित सिरवाले होकर यतियोंके धर्मका आचरण करेंगे कलियुग में लोग धान्यका हरण करनेवाले तथा अत्यन्त दुष्ट लोगोंके संगकी अभिलाषा करनेवाले होंगे। चोर चोरोंका धन चुरायेंगे और उनके भी धनको कोई दूसरा हरण कर ले जायगा। मनुष्यके विधिसम्मत कर्मसे विरत होकर निष्क्रिय होनेपर कीट, मूषक तथा सर्प मनुष्योंको पीड़ित करेंगे॥ ३० - ३६॥
सुभिक्षं क्षेममारोग्यं सामर्थ्य दुर्लभं तदा।
कौशिकोीं प्रतिपत्स्यन्ते देशान् क्षुद्धयपीडिता: ॥ ३७
दुःखेनाभिप्लुतानां च परमायु: शतं तदा।
दृश्यन्ते न च दृश्यन्ते वेदा: कलियुगेडखिला: ॥ ३८
उत्सीदन्न्ति तदा यज्ञा केवलाधर्मपीडिताः।
काषायिणोउप्यनिर्ग्रन्था: कापालीबहुलास्त्विह॥ ३९
वेदविक्रयिणएचान्ये तीर्थविक्रयिण: परे।
वर्णाश्रमाणां ये चान्ये पाषण्डा: परिपन्थिन: ॥ ४०
उत्पच्यन्ते तदा ते बै सम्प्राप्त तु कलौ युगे।
अधीयन्ते तदा वेदान् शूद्रा धर्मार्थकोविदा: ॥ ४१
यजन्ते चाश्वमेधेन राजानः शूद्रयोनयः।
स्त्रीबालगोवर्ध कृत्वा हत्वा चैव परस्परम्॥ ४२
उस समय सुभिक्ष, कल्याण, नीरोगता, सामर्थ्य आदि दुर्लभ हो जायँगे। लोग क्षुधापीड़ित होकर अपने देशसे आकर कौशिकी नदीके तटपर बसेंगे। लोग दु:खित होकर सौ वर्षकी पूर्ण आयु व्यतीत करेंगे कलियुग में सभी वेदोंका प्रचार-प्रसार कहीं दिखायी देगा और कहीं नहीं। समस्त यज्ञ अधर्मसे पीड़ित होकर विनष्ट हो जायूँगे संन्यासी शास्त्रज्ञास से रहित होंगे तथा कापालिक बहुत-से होंगे। कुछ लोग वेद बेचेंगे, तो अन्य लोग तीर्थोका विक्रय करेंगे। अन्य पाखण्डी लोग वर्णाश्रम धर्म के प्रतिकूल आचरण करेंगे। कलियुगके उपस्थित होनेपर इस प्रकारके लोग उत्पन्न होंगे धर्म तथा अर्थके पण्डित बनकर शूद्रलोग वेदोंका अध्ययन करेंगे एवं शूद्र जातिके राजा अश्वमेध यज्ञका अनुष्ठान करेंगे। उस समय सभी प्राणी स्त्रियों, बाल कों तथा गायोंका वध करके परस्पर नानाविध उपद्र तथा गायों का वध करके परस्पर नानाविध उपद्रव उत्पन्न करेंगे ॥ ३७-४२ ॥
उपद्रवांस्तथान्योन्यं साधयन्ति तदा प्रजाः।
दुःखप्रभूतमल्पायुर्देहोत्सादः सरोगता ॥ ४३
अधर्माभिनिवेशित्वात्तमोवृत्तं कली स्मृतम्।
प्रजासु ब्रह्महत्यादि तदा वै सम्प्रवर्तते ॥ ४४
तस्मादायुर्बलं रूयं कलिं प्राप्य प्रहीयते।
तदा त्वल्पेन कालेन सिद्धिं गच्छन्ति मानवाः ॥ ४५
धन्या धर्म चरिष्यन्ति युगान्ते द्विजसत्तमाः ।
श्रुतिस्मृत्युदितं धर्मं ये चरन्त्यनसूयकाः॥ ४६
त्रेतायां वार्षिको धर्मों द्वापरे मासिकः स्मृतः ।
यथाक्लेशं चरन् प्राज्ञस्तदह्वा प्राप्नुते कलौ ॥ ४७
एषा कलियुगावस्था सन्ध्यांशं तु निबोध मे।
युगे युगे च हीयन्ते त्रींस्वीन् पादांस्तु सिद्धयः ॥ ४८
युगस्वभावाः सन्ध्यास्तु तिष्ठन्तीह तु पादशः ।
सन्ध्यास्वभावाः स्वांशेषु पादशस्ते प्रतिष्ठिताः ।॥ ४९
एवं सन्ध्यांशके काले सम्प्राप्ते तु युगान्तिके ।
तेषां शास्ता ह्यसाधूनां भूतानां निधनोत्थितः ॥ ५०
गोत्रेऽस्मिन् वै चन्द्रमसो नाम्ना प्रमितिरुच्यते।
मानवस्य तु सोंऽशेन पूर्व स्वायम्भुवेऽन्तरे ।। ५१
समाः सविंशतिः पूर्णा पर्यटन् वै वसुन्धराम्।
अनुकर्षन् स वै सेनां सवाजिरथकुञ्जराम् ॥ ५२
प्रगृहीतायुधैर्विप्रैः शतशोऽथ सहस्त्रशः ।
स तदा तैः परिवृतो म्लेच्छान् हन्ति सहस्त्रशः ।। ५३
उस समय अपार दुःख, अल्प आयु, शारीरिक कष्ट तथा व्याधियोंसे लोग पीड़ित होंगे। ऐसा कहा गया है कि कलियुगमें अधर्मके प्रति अत्यन्त आसक्ति होनेके कारण लोगोंका आचरण तमोगुणप्रधान होगा। उस समद प्रजाओंमें ब्रह्महत्या आदि महापापकर्म करनेकी विशेष तत्परता होगी अत्तएव कलियुगको प्राप्तकर प्रजाओंकी आयु बल, रूप आदिका क्षय होगा। उस समय अल्पकालके धर्माचरणसे ही मनुष्य सिद्धिको प्राप्त होंगे उस कलियुगमें जो श्रेष्ठ ब्राह्मण द्वेषरहित होकर वेदों तथा स्मृतियोंमें प्रतिपादित धर्मोंका आचरण करेंगे, वे धन्य होंगे त्रेतामें वर्षभर तथा द्वापरमें मासभर धर्माचरण करनेसे जिस फलका प्राप्त होना बताया गया है, ज्ञानवान् व्यक्ति कलियुगमें वही फल यथाशक्ति एक दिन धर्माचरण करके प्राप्त कर लेता है यह कलियुगकी दशाका वर्णन किया गया है। अब आप उसका सन्ध्यांश मुझसे जान लीजिये। युग- युगमें सिद्धियोंके तीन पादोंका ह्रास होता है युगके स्वभाववाली सन्ध्याएँ यहाँ पादसे न्यून होकर रहती हैं। इस प्रकार सन्ध्याके स्वभाव अपने अंशोंमें अर्थात् सन्ध्यांशोंमें एक चतुर्थांशसे न्यून होकर प्रतिष्ठित रहते हैं इस प्रकार युगान्तमें सन्ध्यांशकालके उपस्थित होनेपर दुष्ट प्राणियोंके संहारके लिये उनका एक महान् शासक आविर्भूत होगा पूर्वकाल में स्वायम्भुव मन्वन्तरमें जो प्रमिति नामसे विख्यात रहे हैं, वे मनुपुत्रके अंशसे इस कलियुगके समाप्तिकालमें चन्द्रमाके गोत्रमें सोमशर्मा नामक ब्राह्मणके रूपमें उत्पन्न होंगे शस्त्रधारी ब्राह्मणोंसे निरन्तर परिवृत वे हाथी, घोड़े तथा रथसे युक्त विशाल सेना साथमें लेकर पूरे बीस वर्षतक पृथ्वीपर घूम-घूमकर सैकड़ों और हजारों बार म्लेच्छोंका वध करेंगे ॥ ४३-५३॥
स हत्वा सर्वशश्चैव राज्ञस्तान् शूद्रयोनिजान् ।
पाखण्डांस्तु तत: सर्वान्निःशेषं कृतवान् प्रभु: ॥ ५४
नात्यर्थ धार्मिका ये च तान् सर्वान् हन्ति सर्वत:।
वर्णव्यत्यासजाताश्च ये च ताननुजीविन:॥ ५७
प्रवृत्तचक्रो बलवान म्लेच्छानामन्तकृत्स तु।
अधृष्य: सर्वभूतानां चचाराथ वसुन्धराम्॥ ५६
मानवस्य तु सोंडशेन देवस्येह विजज्निवान्।
पूर्वजन्मनि विष्णोस्तु प्रमितिर्नाम वीर्यवान्॥ ५७
गोत्रतो वे चन्द्रमसः पूर्णे कलियुगे प्रभु:।
द्वात्रिंशे भ्युदिते वर्षे प्रक्रान्तो विंशति: समा: ॥ ५८
विनिषघ्नन् सर्वभूतानि शतशोथ सहस्त्रश:।
कृत्वा बीजावशेषां तु पृथिवीं क्रूरकर्मण:॥ ५९
परस्परनिमित्तेन कोपेनाकस्मिकेन तु।
स साधयित्वा वृषलान् प्रायशस्तानधार्मिकान्॥६०
गड़्यमुनयोर्मध्ये स्थितिं प्राप्त: सहानुग:।
ततो व्यतीते काले तु सामात्य: सह सैनिक: ॥ ६१
परम ऐश्वर्यसम्पन्न वे ब्राह्मणपुत्र शूद्रयोनिमें उत्पन्न उन सभी पाखण्डी राजाओंकों मारकर पृथ्वीको उनसे पूर्णत: विहीन कर देंगे अधर्मका आचरण करनेवाले, वर्णव्यवस्थाके प्रतिकूल चलनेवाले तथा इनके जो अनुजीवी हैं, उन सभीको वे मार डालेंगे सभी प्राणियोंके लिये अजेय, म्लेच्छोंके संहारक, अत्यन्त बलशाली तथा प्रव॒त्त-आज्ञामण्डलवाले वे समग्र भूमण्डलपर विचरण करेंगे पूर्वजन्ममें वीर्यवान् प्रमिति नामवाले वे इस कलिगमें मनुपुत्र विष्णुदेवके अंशसे सोम-गोत्रमें कलियुगके पूर्ण होनेपर उत्पन्न होंगे। बीस वर्षतक पराक्रम प्रदर्शित करनेवाले वे सैकड़ों-हजारों विधर्मी प्राणियोंको नष्ट करते हुए पृथ्वीको क्रूरकर्मा जनोंसे शून्यप्राय-सा करके आकस्मिक तथा पारस्परिक समुत्पादित कोपके द्वारा उन अधार्मिक वृषलप्राय जनोंको मारकर बत्तीसवें वर्षके उदित होते ही मन्त्रियों, सहचरों तथा सैनिकोंसहित गंगायमुनाके मध्य स्वयंको संस्थापित कर लेंगे॥ ५४--६१ ॥
उत्साद्य पार्थिवान् सर्वान् म्लेच्छांश्चेव सहस्रश: ।
तत्र सन्ध्यांशके काले सम्प्राप्ते तु युगान्तिके ॥ ६२
स्थितास्वल्पावशिष्टासु प्रजास्विह क्वचित्क्वचित्।
अप्रग्रहास्ततस्ता वै लोभाविष्टास्तु कृत्स्नशः ॥६३
उपहिंसन्ति चान्योन्यं प्रणिपत्य परस्परम्।
अराजके युगवशात्संशये . समुपस्थिते॥ ६४
प्रजास्ता बै तत: सर्वा: परस्परभयार्दिता:।
व्याकुलाएच परिभ्रान्तास्त्यक्त्वा दारान् गृहाणि॥ ६५
स्वान् प्राणाननपेक्षन्तो निष्कारुण्या: सुदुःखिता:।
नष्टे श्रौते स्मार्तधर्मे परस्परहतास्तदा॥ ६६
निर्मर्यादा निराक्रान्ता निःस्नेहा निरपत्रपा:।
नष्टे धर्मे प्रतिहता: हस्वकाः पञ्चविंशका:॥ ६७
धर्मच्युत सभी पाथिवों तथा हजारों म्लेच्छोंको नष्ट करके उस कलियुगमें सन्ध्यांशके समुपस्थित होनेपर यत्र-तत्र थोड़ी ही प्रजाएं बची रहेंगी। वे आत्मनियन्त्रण खोकर तथा पूर्ण रूपसे लोभके वशीभूत होकर एकदूसरेसे कृत्रिम नम्रता प्रदर्शित करती हुई उन्हें विश्वासमें लेकर उनकी हिंसा कर डालेंगी युगके प्रभावके कारण अराजकताकी स्थिति उत्पन्न होनेपर वे सभी प्रजाएँ परस्पर भयसे ग्रस्त होकर व्याकुल तथा भ्रमित हो जायँगी। लोग अत्यन्त दुःखित एवं करुणाशून्य होकर अपनी पत्नियों तथा घरोंको छोड़कर अपने प्राणोंकी भी परवाह न करनेवाले होंगे श्रौत तथा स्मार्तधर्मके नष्ट हो जानेपर सभी प्रजाएँ मर्यादाहीन, अत्यन्त क्रूर, स्नेहरहित तथा निर्लज्ज होकर एक-दूसरेकी हिंसा करानेमें तत्पर रहेंगी धर्मके नष्ट हो जानेपर पतनको प्राप्त हुए लोग लघु आकारवाले तथा पच्चीस वर्षकी आयुवाले होंगे। आपसी कलहसे व्याकुल इन्द्रियोंवाले लोग अपनी पत्नियों एवं पुत्रोंका त्यागतक कर देंगे ॥ ६२ - ६७ ॥
हित्वा पुत्रांश्च दारांश्च विवादव्याकुलेन्द्रियाः ।
अनावृष्टिहताश्चैव वार्तामुत्सृज्य दूरतः ॥ ६८
प्रत्यन्तानुपसेवन्ते हित्वा जनपदान् स्वकान् ।
सरित्सागरकूपांस्ते सेवन्ते पर्वतांस्तथा ॥ ६९
मधुमांसैर्मूलफलैर्वर्तयन्ति सुदुःखिताः ।
चीरपत्राजिनधरा निष्क्रिया निष्परिग्रहाः ।। ७०
वर्णाश्रमपरिभ्रष्टाः सङ्कटं घोरमास्थिताः ।
एवं कष्टमनुप्राप्ता अल्पशेषाः प्रजास्तदा ॥ ७१
जराव्याधिक्षुधाविष्टा दुःखान्निर्वेदमानसाः ।
विचारणा तु निर्वेदात्साम्यावस्था विचारणा ॥ ७२
साम्यावस्थात्मको बोधः सम्बोधाद्धर्मशीलता।
अरूपशमयुक्तास्तु कलिशिष्टा हि वै स्वयम् ॥ ७३
अहोरात्रात्तदा तासां युगं तु परिवर्तते।
चित्तसम्मोहनं कृत्वा तासां वै सुप्तमत्तवत् ॥ ७४
वृष्टि न होनेके कारण दुःखित प्रजाएँ कृषिकर्मका पूर्ण रूपसे त्याग करके अपने-अपने देशोंको छोड़कर म्लेच्छ देशों, नदी, समुद्र, कुएँ, पर्वत आदि स्थानोंपर शरण लेंगी प्रजाएँ अत्यन्त दुःखित होकर मधु, मांस, कन्दमूल तथा फलोंपर जीवन-निर्वाह करेंगी। वे परिग्रहरहित एवं निष्क्रिय होकर वृक्षोंकी छाल तथा उनके पत्ते वस्त्ररूपमें धारण करेंगी वर्ण तथा आश्रमव्यवस्थासे भ्रष्ट हुए लोग घोर कष्टमें पड़ जायेंगे और इस प्रकार भीषण दुःख आ जानेके कारण थोड़ी ही प्रजा बच पायेगी बुढ़ापा, रोग तथा क्षुधासे पीड़ित लोगोंके मनमें उस दुःखसे निर्वेद उत्पन्न होगा। पुनः उस निर्वेदसे साम्या- वस्थावाली विचारणा, विचारणासे साम्यावस्थात्मक बोध और अन्तमें उस बोधसे धर्माचरणके प्रति प्रवृत्ति जाग्रत् होगी। कलियुगकी बची हुई वे प्रजाएँ स्वयं शक्ति- सामर्थ्यके अभावमें शान्तियुक्त हो जायेंगी इसके बाद सुप्त तथा मत्तकी भाँति उन प्रजाओंका चित्त-सम्मोहन करके एक दिन-रातमें ही कलियुग परिवर्तित हो जायगा और इस प्रकार कालधर्मके अनुसार कलियुगको दबाकर सत्ययुग प्रवृत्त हो जायगा ॥ ६८ - ७४॥
भाविनोऽर्थस्य च बलात्ततः कृतमवर्तत।
प्रवृत्ते तु ततस्तस्मिन् पुनः कृतयुगे तु वै ॥ ७५
उत्पन्नाः कलिशिष्टास्तु प्रजाः कार्तयुगास्तदा।
तिष्ठन्ति चेह ये सिद्धा अदृष्टा विचरन्ति च ॥ ७६
सप्तसप्तर्षिभिश्चैव तत्र ते तु व्यवस्थिताः।
ब्रह्मक्षत्रविशः शूद्रा बीजार्थं ये स्मृता इह ॥ ७७
कलिजैः सह ते सर्वे निर्विशेषास्तदाभवन्।
तेषां सप्तर्षयो धर्म कथयन्तीतरेऽपि च ॥ ७८
वर्णाश्रमाचारयुतं श्रौतं स्मार्त द्विधा तु यम्।
ततस्तेषु क्रियावत्सु वर्धन्ते वै प्रजा: कृते॥ ७९
श्रौतस्मार्तकृतानां च धर्मे सप्तर्षिदर्शिते।
केचिद्धर्मव्यवस्थार्थ तिष्ठन्तीह युगक्षये॥ ८०
तदनन्तर उस सत्ययुगके प्रवृत्त होनेपर कलियुगकी बची हुई प्रजाओंमें सत्ययुगके आचार-विचार उत्पन्न होंगे इस लोक में उस समय जो सप्तसिद्ध लोग रहते हैं, वे अदृश्य रूपमें सप्तर्षियों के साथ व्यवस्थित होकर विचरण करते हैं जो ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शुद्र बीजके लिये कहे गये हैं, वे सब कलियुगमें उत्पन्न होनेवालोंके साथ उस समय विशेषता-रहित होकर रहते थे वर्णाश्रमके आचारवाला जो श्रौत तथा स्मार्त दो प्रकारका धर्म होता है; उस धर्मको उन लोगोंके लिये सप्तर्षि एवं सप्तसिद्ध लोग उपदेश करते हैं। इस प्रकार उन लोगोंके कर्मनिष्ठ हो जानेपर कृतयुगमें प्रजाएँ बढ़ने लगती हैं उन सप्तर्षियोंके द्वारा श्रौत-स्मार्तसम्बन्धी धर्मोका उपदेश करनेसे कुछ लोग युगके क्षयके समय इस पृथ्वीलोकमें धर्मकी व्यवस्थाके लिये रह जाते हैं ॥ ७५ - ८० ॥
मन्वन्तराधिकारेषु तिष्ठन्ति मुनयस्तु वै।
यथा दावप्रदग्धेषु तृणेष्विह ततः क्षितौ॥ ८९
वबनानां प्रथम वृष्ट्या तेषां मूलेषु सम्भव:।
तथा कार्तयुगानां तु कलिजेष्विह सम्भव:॥ ८२
एवं युगाद्युगस्येह सन्तानं तु परस्परम्।
वर्तते ह्मव्यवच्छेदाद्यावन्मन्वन्तरक्षय: ॥ ८३
सुखमायुर्बलं रूपं धर्मोडर्थ: काम एव च।
युगेष्वेतानि हीयन्ते त्रींस्त्रीन् पादान् क्रमेण तु॥ ८४
ससन्ध्यांशेषु हीयन्ते युगानां धर्मसिद्धय:।
इत्येषा प्रतिसिद्धिवें कीर्तितेषा क्रमेण तु॥८५
चतुर्युगानां सर्वेषामनेनेव॒ तु॒साधनम्।
एषा चर्तुर्युगावृत्तिरासहस्त्रादगुणीकृता॥ ८६
ब्रह्मणस्तदह: प्रोक्त॑ रात्रिश्चेतावती स्मृता।
अनार्जव॑ जडीभावो भूतानामायुगक्षयात् ॥ ८७
एतदेव तु सर्वेषां युगानां लक्षणं स्मृतम्।
एषां चतुर्युगाणां च गुणिता होकसप्तति:॥ ८८
क्रमेण परिवृत्ता तु॒मनोरन्तरमुच्यते।
चतुर्युगे यथैकस्मिन् भवतीह यदा तु यत्॥ ८९
वे मुनिगण मन्वन्तरोंके अधिकारोंमें स्थित रहते हैं। जिस प्रकार इस पृथ्वीपर दावानलसे वनोंके तृण आदिके जल जानेपर बादमें प्रथम वृष्टिसे उनके मूलोंमें पुनः अंकुरण होता है; उसी प्रकार कलियुगमें उत्पन्न हुए लोगोंसे ही कृतयुगके प्राणियोंकी उत्पत्ति होती है इस प्रकार अव्यवच्छिन्न रूपसे इस लोकमें मन्वन्तरके क्षयतक एक युगके कुछ संतान दूसरे युगमें विद्यमान रहते हैं प्रत्येक चतुर्युगीमें सुख, आयु, बल, रूप, धर्म, अर्थ तथा काम-ये सभी क्रमसे तीन-तीन पादोंके हासको प्राप्त होते हैं, अर्थात् प्रत्येक युगके अन्ततक इनके एक-एक पादका हास होता जाता है इसी प्रकार युगके सन्ध्यांशमें प्रत्येक युगकी धर्म सिद्धियोंका भी हास होता है। इस तरह मैंने क्रमसे प्रत्येक सिद्धिका वर्णन कर दिया इसी प्रकार सभी चारों युगोंकी स्थिति बनती है। चारों युगोंकी एक आवृत्तिका जो एक हजार गुना है; वही ब्रह्माजीका एक दिन कहा गया है और उतनी ही बड़ी उनकी एक रात कही जाती है ज्यों-ज्यों युगका क्षय होता है, प्राणियोंमें जड़ताभाव तथा स्वभावकी सरलताका अभाव बढ़ता जाता है। यही सभी युगोंका लक्षण कहा गया है क्रमसे एक चतुर्युगका इकहत्तर (७१-६) बार आवर्तन एक मन्वन्तर कहा जाता है। जो व्यवहार इस चतुर्युगमें घटित होता है, वही क्रमश: दूसरे चतुर्यगोंमें भी होता है॥८९-८९॥
तथा चान्येषु भवति पुनस्तद्वै यथाक्रमम्।
सर्गे सर्गे यथा भेदा उत्पद्यन्ते तथेव तु॥९०
पञ्चविंशत्परिमिता न न्यूना नाधिकास्तथा।
तथा कल्पा युगै: सार्थ भवन्ति सह लक्षण: ॥ ९१
मन्वन्तराणां सर्वेषामेतदेव तु लक्षणम्॥ ९२
युगानां परिवर्तनानि चिरप्रवृत्तानिा. युगस्वभावात्
तथा तु सन्तिष्ठति जीवलोक: क्षयोदयाभ्यां परिवर्तमान: ॥ ९३
इत्येतल्लक्षणं प्रोक्त॑ युगानां वै समासतः।
अतीतानागतानां हि सर्वमन्वन्तरेषु वै॥९४
मन्वन्तरेण चैकेन सर्वाण्येवान्तरराणि च।
व्याख्यातानि न सन्देह: कल्प: कल्पेन चेव हि॥ ९५
प्रत्येक सर्गमें पचीस प्रकारके भेदोंवाले जो तत्त्व होते हैं; वे ही जैसे सदा उत्पन्न होते हैं और इससे कम या अधिक नहीं । उसी प्रकार युगोंक साथ-साथ ल क्षणोंसहित कल्प भी होते हैं। सभी मन्वन्तरोंका भी यही लक्षण है युगों के स्वभाव के अनुसार जिस प्रकार चिरकालसे प्रवत्त होनेवाले युगोंमें परिवर्तन होता है, उसी प्रकार युगोंके अनुरूप क्षय तथा उदयसे यह जीवलोक भी संस्थित रहता है और इसमें भी युगोंके अनुरूप परिवर्तन होता रहता है इस प्रकार सभी मन्वन्तरोंमें बीते हुए तथा आनेवाले युगोंके लक्षण संक्षेपमें कहे गये हैं इसी तरह एक मन्वन्तरसे सभी मन्वन्तरोंकी व्याख्या की गयी है। एक कल्पके लक्षणोंसे सभी कल्पोंके लक्षण समझ लेना चाहिये। इस विषयमें किसी प्रकारका सन्देह नहीं है॥९० - ९५॥
अनागतेषु तद्गच्च तर्कः कार्यो विजानता।
मन्वन्तरेषु. सर्वेषु. अतीतानागतेष्विह॥ ९६
तुल्याभिमानिन: सर्वे नामरूपेर्भवन्त्युत।
देवा हाष्टविधा ये च ये च मन्वन्तरेश्वरा: ॥ ९७
ऋषयो मनवश्चैव सर्वे तुल्यप्रयोजना:।
एवं वर्णाश्रमाणां तु प्रविभागो युगे युगे॥ ९८
युगस्वभावश्च तथा विधत्ते वे तदा प्रभु: ।
वर्णाश्रमविभागाश्च युगानि युगसिद्धयः॥ ९९
युगानां परिमाणं ते कथितं हि प्रसड्भतः।
वदामि देवि पुत्रत्व॑ पद्ययोने: समासतः॥ १००
उसी भाँति ज्ञानी पुरुषको इस लोक में बीते हुए तथा आनेवाले सभी मन्वन्तरोंके विषयमें कल्पना कर लेनी चाहिये जो आठ प्रकारके देवता, मन्वन्तरों के स्वामी, ऋषिगण, मनुगण आदि हैं, वे सब तुल्य अभिमाननाम-रूपवाले हुआ करते हैं; साथ ही उन सभीका समान प्रकारका प्रयोजन भी होता है इस प्रकार मैंने युग, उनके धर्म, वर्णाश्रमोंके विभाग, युगोंकी सिद्धियाँ, युगोंके परिमाण जिन्हें युगयुगमें परमात्मा धारण करते हैं--इन सबके विषयमें आपसे प्रसंगके अनुसार कह दिया। अब मैं आपसे पद्मयोनि ब्रह्माजीके देवी के पुत्ररूप में उत्पन्न होने के विषय में संक्षेप में कह रहा हूँ॥ ९६-१००॥
॥इ्ति श्रीलिड्रमहापुराणे पूर्वभागे चतुर्युगपरिमाणं नाम चत्वारिशोउध्याय: ॥ ४० ॥
॥ इस प्रकार श्रीलिड्रमहापुराण के अन्तर्गत पूर्वभायमें 'चतुरयुगपरिमाण नामक चालीसवाँ अध्याय पूर्ण हुआ॥ ४० ॥
FAQs:- लिंग पुराण [ पूर्वभाग ] चालीसवों अध्याय
यहां कुछ प्रश्नों के उत्तर दिए जा रहे हैं जो लिंग पुराण के 40वें अध्याय से संबंधित हैं, जिनमें कलियुग के धर्म और उसके प्रभावों का वर्णन किया गया है:
प्रश्न: कलियुग में धर्म की स्थिति कैसी होगी?
उत्तर: कलियुग में धर्म का ह्रास होगा। लोग धर्म के वास्तविक रूप को भूलकर अधर्म में लिप्त हो जाएंगे। इस युग में मनुष्य अपने इंद्रियों को नियंत्रित नहीं कर पाएंगे, माया और लोभ में फंसेंगे, और तपस्वियों का वध करेंगे। (लिंग पुराण, 40.1-3)
प्रश्न: कलियुग में मनुष्य किस प्रकार के कार्य करेंगे?
उत्तर: कलियुग में लोग झूठ बोलेंगे, लोभ के शिकार होंगे, और दुष्ट आचारों में रत होंगे। वे ब्राह्मणों के दूषित कर्मों का पालन करेंगे और न तो वेदों का अध्ययन करेंगे, न ही यज्ञ करेंगे। (लिंग पुराण, 40.4-5)प्रश्न: कलियुग में शूद्रों का क्या स्थान होगा?
उत्तर: कलियुग में शूद्र लोग ब्राह्मणों का आचरण करेंगे, और ब्राह्मण शूद्रों के आचरण का अनुसरण करेंगे। शूद्रों को उच्च स्थान मिलेगा और वे ब्राह्मणों को भी अपमानित करेंगे। (लिंग पुराण, 40.7-8)प्रश्न: कलियुग में राजा और चोरों का व्यवहार कैसा होगा?
उत्तर: राजा लोग चोरों की तरह व्यवहार करेंगे, और चोर लोग राजा की तरह आचरण करेंगे। शासक अपनी प्रजा की रक्षा करने की बजाय उनका शोषण करेंगे। (लिंग पुराण, 40.9)प्रश्न: कलियुग में ब्राह्मणों की स्थिति क्या होगी?
उत्तर: कलियुग में ब्राह्मणों की स्थिति दयनीय होगी। वे शूद्रों से आश्रित होंगे और अपनी आजीविका के लिए शूद्रों की सेवा करेंगे। (लिंग पुराण, 40.13)प्रश्न: कलियुग में महिलाओं की स्थिति कैसी होगी?
उत्तर: कलियुग में महिलाएं पातिव्रत्य धर्म का पालन नहीं करेंगी, और व्यभिचार में रत होंगी। (लिंग पुराण, 40.8)प्रश्न: कलियुग में ज्ञान और वेदों का क्या होगा?
उत्तर: कलियुग में लोग वेदों और शास्त्रों का अपमान करेंगे। वेद विद्या और वैदिक कर्मों को नष्ट कर दिया जाएगा। (लिंग पुराण, 40.20)प्रश्न: कलियुग में धर्म का पालन कैसे होगा?
उत्तर: कलियुग में धर्म का पालन बहुत ही कठिन होगा। धर्म का ह्रास होगा और केवल महादेव शिव के शरण में जाकर दोषों से मुक्ति प्राप्त की जा सकती है। (लिंग पुराण, 40.22)प्रश्न: कलियुग के अंत में क्या होगा?
उत्तर: कलियुग के अंत में युगान्त होगा और इस समय महादेव शिव नीललोहित रूप में प्रकट होंगे, जो सभी दोषों को नष्ट करेंगे। (लिंग पुराण, 40.21)प्रश्न: कलियुग के अंत में समाज का कैसा रूप होगा?
उत्तर: कलियुग के अंत में समाज में भ्रूणहत्या, वीरहत्या, चोरों का बढ़ता हुआ प्रभाव, और धर्म का ह्रास होगा। पृथ्वी में कम फल देने वाली और कष्टकारी स्थिति होगी। (लिंग पुराण, 40.8-29)
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